Saturday 1 May 2021

घरेलू श्रम की कीमत और रोजगार का सवाल -वन्दना भगत

देश अभी दो अंतर्विरोधी घटनाओं से गुजर रहा है। एक तरफ कोरोना की महामारी से हो रही मौते तो दूसरी तरफ चुनाव प्रचार में हो रही बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड शो। अभी इन रैलियों का सिलसिला बंगाल में चल रहा फर बंगाल से होते हुए दक्षिण भारत के राज्यों में जल्द ही पहुँचेगा। चुनाव में रोड शो, रैलियों को तो हम सब कई सालों से देखते-सुनते आ रहे है। मगर इस बार के विधानसभा के चुनाव में तमिलनाडु और केरल की पार्टियों ने चुनाव से पहले जारी किए घोषणापत्र में कुछ ऐसा लिखा है जिसे सुन कर पहले पल में तो खुशी हुई पर दूसरे ही पल कुछ सवाल मन मे उमड़-घुमड़ करने लगते है।

तमिलनाडु की ज्यादातर बड़ी चुनावी पार्टियों और केरल की सीपीआई एम ने घरेलू महिलाओं को पेंशन देने का वादा किया है। तमिलनाडु में लगभग सभी पार्टियां इस एजेंडे को उठा रही हैं, बस पेंशन की रकम में कम ज्यादा का अंतर है। केरल में जब सत्तासीन सीपीआई(एम) जो वर्तमान में स्क्थ् गठबंधन का नेतृत्व कर रही, के राज्य सचिव ए. विजयराघवन ने केरल की घरेलू महिलाओं के लिए सिक्योरिटी पेंशन की घोषणा 19 मार्च को अपने चुनाव मेनिफेस्टो जारी करने के दिन किया। केरल से कांग्रेस पार्टी के सांसद शशि थरूर ने भी इसका समर्थन किया। 

अगर कल को ये पार्टियां चुनाव में जीत कर अपने इस वादे को याद रखती है और लागू करती है तो इस कदम का स्वागत होना चाहिए और इन पार्टियों को सराहना भी की जानी चाहिए। पर चुनाव से पहले वादे तो वादे ही होते है और हमारा देश 74 साल से ऐसे कई छोटे-बड़े वादों से गुजरता हुआ आज कहाँ खड़ा है हम सब जानते है।

महिलाओं पर घरेलू कामों के बोझ को बहुत लंबे समय से अनदेखा किया गया है। महिलाओं द्वारा किये जाने वाले घर के इन कामों को कामकी तरह लिया भी नही जाता। इन्हें बेहद मामूली या फिर बिना थकान के मिनटों में होने वाला काम समझा जाता रहा है। इस मुद्दे को महिला आंदोलन और  प्रगतिशील आंदोलनों में ही जगह मिली है। पर जितनी बात और जितना संघर्ष होना चाहिए था वो आज तक नही हुआ है। फिर यह सवाल उठना तो लाजमी है कि अचानक चुनावी पार्टियों के एजेंडे में घरेलू महिला को पेंशन देने का विचार आया कहाँ से? क्या इसका कारण घरेलू महिलाओं का वोट है? या फिर इस एजेंडे के पीछे कोई और मकसद है?

घरेलू महिला के श्रम को अचानक मिले महत्व को समझने के लिए हमंे क्रम से कुछ घटनाओं को देखना होगा। साल 2020 के दिसम्बर महीने में तमिलनाडु के एक्टर व पॉलिटिशियन कमल हसन ने घरेलू काम-काज में लगी महिलाओं के श्रम और उसके महत्व पर एक टिप्पणी की। उसके बाद इसी साल जनवरी महीने में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के बेंच ने एक केस के जजमेंट के दौरान घरेलू कामांे में लगी महिला के श्रम के मूल्य को ऑफिस जाने वाले पुरुष के बराबर बताया। इस बेंच का नेतृत्व जस्टिस एन. वी. रमन कर रहे थे। साल 2014 में मोटर साइकिल सवार पति-पत्नी का देहांत सड़क दुर्घटना में हो गया। इन्श्योरेन्स के पैसे के मामले में यह केस हाईकोर्ट पहुँचा। हाईकोर्ट ने इन्श्योरेन्स कंपनी को 11.2 लाख का मुवावजा पीड़ित परिवार को देने का जजमेंट फैसला सुनाया। मुआवजा व्यक्ति की आय के मद्देनजर तय किया गया। इस मामले में पति की मासिक वेतन तो तय थी पर पत्नी को कितने का मुआवजा दिया जाय ये कैसे तय होता, क्योंकि हमारे समाज में तो घरेलू महिला बिना वेतन ही सारा काम करती है। हाई कोर्ट ने अपने अंदाजे से 11 लाख का कुल मुआवजा पीड़ित परिवार को देने का आदेश इन्श्योरेंस कंपनी को दिया। पीड़ितों के परिवार वाले इस केस को सुप्रीम कोर्ट ले जाते हैं, जिसका जजमेंट 5 जनवरी 2021 को आता है। जस्टिस रमन का यह जजमेंट सराहनीय है और इस पर ज्यादा से ज्यादा चर्चा की जरूरत है ताकि यह विषय आम जनमानस तक पहुँचे। इस जजमेंट में जस्टिस रमन कहते है, 2011 के जनगणना के मुताबिक 57.9 लाख पुरुषांे के मुकाबले 15.98 करोड़ महिलाएं घरेलू कामों को मुख्य काम की तरह करती हैं। हाल ही में आये सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि घर में रोजाना किये जाने वाले बिना वेतन के कामों में एक महिला का औसतन 299 मिनट देती है जिसमंे खाना बनाना, साफ-सफाई, सब्जी समान लाना आदि जैसे कई छोटे-बड़े काम शामिल है, वही औसतन एक पुरुष 97 मिनट देता है। इसके अलावा, घर और घर के सदस्यों की देखभाल में औसतन एक महिला 134 मिनट प्रतिदिन देती है, तो वही पुरुष 76 मिनट देते है। यानि इन सरकारी आंकड़ों की भी माने तो हर घरेलू महिला 24 घंटे में 7-8 घंटे बिना वेतन वाले घर के कामांे और घर के सदस्यों जैसे बच्चे और बुजुर्गों आदि की देखभाल में देती है। वास्तवित स्थिति इन आंकड़ों से काफी ज्यादा बुरी है और घरेलू कामों के बोझ तले ये महिलाएं इससे कई गुना ज्यादा दबी हुई है। गांव में रहने वाली घरेलू महिला की बात करें तो वे न सिर्फ घर के कामों से लाद दी जाती हैं, बल्कि खेती और जानवरों के देखभाल जैसे भी कई काम उन्ही के माथे मढ़ दिया जाता है। गांव में आज भी रोपाई, सोहाई, कटाई जैसे काम ज्यादातर महिलाओं के जिम्मे ही होता है। ऐसे में गांव की महिलाओं पर घरेलू और बाहर के काम का बोझ कितना हो जाता होगा वह हम सोच सकते है।

जस्टिस रमन की बेंच कहती है कि महिलाओं के इतने सारे कामों के बाद भी अगर समाज में यह धारणा रहती है कि घरेलू महिला काम नही करती या वह आर्थिक रूप से घर मे कोई में कोई सहयोग नही करती, तो हमे इस गलत धारणा को तोड़ने की जरूरत है। आगे वे कहते है कि कोर्ट को घरेलू महिलाओं की संख्या को ध्यान में रखते हुए उनके कामों के लिए राष्ट्रीय आय तय करनी चाहिए और साथ ही उनके श्रम, सेवा और त्याग को अहमियत देनी चाहिए। घरेलू महिला के काम न सिर्फ घर के आर्थिक स्थिति में योगदान देती है बल्कि राष्ट्र के अर्थव्यवस्था में भी उनके योगदान को मान्यता देने की जरूरत है, जो कि अब तक राष्ट्र के आर्थिक विश्लेषण से बाहर रहा है। जस्टिस रमन आगे जोड़ते हैं, कि यह कदम संविधान के अनुसार हर शख्स को सामाजिक बराबरी और गरिमा हासिल कराने के विज़न की तरफ होगा। इन्ही शब्दों के साथ जस्टिस रमन्ना और उनके बेंच के अन्य दो जजो के सर्वसहमति से 2014 के सड़क दुर्घटना के पीड़ितों के परिवार को मुवावजे की रकम बढ़ कर 33 लाख देने का आदेश इन्श्योरेन्स कंपनी को देती है।

इस जजमेंट से यह बात तो सामने आ गयी के घरेलू महिला का काम भी कामहै और वह राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में योगदान देता है जिसको शायद जमीनी स्तर के चर्चा में आने में थोड़ा और समय लग जाय। सुप्रीम कोर्ट ने तो न्याय-अन्याय के तराजू में देखते हुए यह सारी बातें एक मुआवजा तय करने के लिए कही,  पर सवाल अभी वहीं है कि चुनावी पार्टियों का घरेलू महिला को पेंशन देने के विचार के पीछे क्या मकसद हो सकता है!

इसे समझने के लिए हमे अपने संदर्भ को और बढ़ाना पड़ेगा। पिछले साल लॉकडाउन के दौरान जब पूरा देश घरों में कैद होने को विवश था तब जा कर बहुत से लोगों ने खास कर पुरुषों ने घरों में होने वाले अनगिनत कामों को करीब से देखा और थोड़ा बहुत उन कामांे में भाग भी लेना पड़ा। ज्यादातर परिवारों के पुरुषों के लिए ये बहुत अलग और उबाऊ अनुभव था जब उन्हें महिलाओं की तरह 24 घंटे घर मे कैद रहना पड़ा। इस दौरान घर के कामांे को छोटा और आसान समझने वाले बहुत से लोगों का भरम टूटा। ऑनलाइन शिक्षा के कारण बच्चों की पढ़ाई और देखभाल का जिम्मा भी पहले के मुकाबले ज्यादा बढ़ गया। इस लॉकडाउन में महिलाओं का दिन भर में अपने लिए बचाया समय जब वो टीवी देखने या कुछ अपने मन की चीजें करने में बिताती थी उसे भी पूरी तरह खो दिया। मेहनतकश जनता जिसमें महिलाएं भी शामिल है, जो दिहाड़ी पर जीते थे उनका हाल तो बद से बदतर हो गया। इस वर्ग में भूख से कितने ही जाने गयी होंगी, इसका आंकड़ा शायद ही कभी सामने आए मगर यह कहा जा सकता है कि वे आंकड़े उतने ही दिल दहला देने वाले होंगे, जितना कि सड़कों पर सैकड़ों हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर गांव लौट रहे उन लोगों को देखना था। लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद तक करोड़ो लोगो ने अपनी नौकरियों से हाथ धो दिया। अर्थव्यवस्था की कमर टूट कर कितनी चकनाचूर हुई यह बताने वाला हमारे देश मे कोई मीडिया तो था नही और साथ ही देश के प्रधानमंत्री देश की तरक्की के गुण गाते थक नही रहे थे पर -2.3 पहुँची जीडीपी और महंगाई बढ़ते दामांे ने अर्थव्यवस्था की चरमराई हालात का पर्दाफाश कर दिया। नौकरी न मिलने के कारण रोज कितने ही नौजवानों ने आत्महत्या के लिए विवश हुए और इन आत्महत्याआंे का सिलसिला अभी भी जारी है। सही मायने में ये शासक वर्ग द्वारा की गई हत्याएं है। CMIE के आंकड़ों के मुताबिक लॉकडाउन और उसके बाद नौकरियों में महिला कर्मचारियों की सहभागिता 71 प्रतिशत पुरूषांे के मुकाबले मात्र 11 प्रतिशत रह गयी है। यानि घर से बाहर काम करने वाली महिलाओं की जो थोड़ी बहुत सहभागिता आनी शुरू हुई थी, लॉकडाउन में हुई छंटनी का निशाना बना उन्हें फिर से घर तक सीमित कर दिया गया। इस गिरावट पर न तो सरकार ध्यान दे रही और न ही यह मुद्दा किसी चुनावी पार्टी के घोषणापत्र में जगह बना पा रही। ऐसी स्थिति में चुनावी पार्टियों का बिना रोजगार घरेलू काम-काज में लगी महिलाओं को पेंशन देने का वादे से एक साजिश की बू आती है। इस आर्थिक मंदी के दौर में जब हर तरफ एक ही मांग उठ रही वह है रोजगार। ऐसे में सत्ता वर्ग देश की आधी आबादी महिलाओं को इस मांग से काटना तो नहीं चाहती है? पेंशन और नौकरी में पुरुष के बराबर के वेतन में बहुत बड़ा अंतर होता है। नौकरी हासिल करने की दौड़ में आज महिलाएं भी समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे से लड़ती हुई उत्पादन में हिस्सेदारी कर रही हैं। यह संख्या घरेलू काम मंे लगी महिलाओं से काफी कम है फिर भी मंदी के नाम पर छंटनी के लिए एक महिला होना काफी है। आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो कर वह अपने फैसले खुद लेने और समाज की कई रूढ़ियों को तोड़ रही है। एक सामंती और पितृसत्तात्मक देश में महिलाओं का घर से बाहर निकलना भी अपने आप मंे एक प्रगतिशील बदलाव है। घर के कामों में लगी महिलाओं के श्रम को मुद्दा बनाने का स्वागत है, इसकी जरूरत भी है, ताकि यह अवधारणा टूटे के घर के काम छोटे काम है और इन्हें सिर्फ महिलाओं के हिस्से में देखा जाना चाहिए। चुनावी पार्टियां जो कल को खुद सत्ताधारी भी हो सकती है, का घरेलू महिला को पेंशन देने का वादा और रोजगार से जुड़े ये आंकड़े एक मांग पर परदा डालने की साजिश की ओर भी इशारा कर रही हैं। इससे यही मूल्यांकन बन रहा कि ये पार्टियां महिलाओं के श्रम को महिमामंडित कर उन्हें घर के कामों तक ही सीमित कर देना चाहती है ताकि ये हिस्सा रोजगार की मांग से बेदखल कर दिया जाय। यह अंदेशा कोई अविश्वसनीय अंदेशा नही है। फासीवाद के दौर में जब देश लगातार मंदी के दौर से गुजर रहा होता है, तब जनता को कान खड़े रखने की और शासक वर्ग के हर वादे, हर कानून और हर भाषण को चौकन्ना हो कर समझना और सवाल करने की जरूरत है। देश हितके नाम पर जब शासक वर्ग लगातार ब्।। caa कृषि कानून, लेबर लॉ, नई शिक्षा नीति जैसे जनविरोधी ऐलानों का अपना भोपू बजा ही रही है।

सवाल ये है कि अगर घरेलू श्रम का पेंशन मिलता भी है, तो यह ऐसा बंधुआ श्रम ही होगा, जिसे बंधुवा बनाये रखने का यह एक सरकारी उपाय ही होगा। क्योंकि बहुत सी औरतें इन घरेलू कामों को नहीं करना चाहती है, ये पेंशन उन्हें इन कामों की ओर और जोर से ढकेलने वाली साबित हो सकती हैं, क्योंकि तब घर के लोग इस तर्क से महिला से अधिक काम लेंगे कि इसका उसे पैसा मिल रहा है। यह बंधुवागिरी महिलाओं को और गुलामी की ओर ले जायेगा, रोजगार से तो वे पहले ही वंचित हैं, न सिर्फ रोजगार की कमी से, बल्कि घर के सामंती संरचना की वजह से। औरतों को घरेलू कामों से मुक्त करना उनकी मुक्ति का रास्ता खोलेेगा और इसके लिए पेंशन नहीं घरेलू कामों का सामूहिकीकरण और सामाजिकरण ही एकमात्र रास्ता है। क्या कोई चुनावी पार्टी इसके लिए है तैयार?

लेखिका आईआईटी कानपुर में शोधार्थी हैं और एसएफसी नाम के संगठन से जुड़ी हैं

दस्तक नए समय की [मई जून २०२१ अंक] में प्रकाशित लेख

 

रोज़ा लक्ज़मबर्गः अन्तर्राष्ट्रीय सर्वहारा की एक धधकती मशाल -मनीष आज़ाद


 आज से ठीक 150 साल पहले इंसान के सबसे खूबसूरत स्वप्न मानव और मानव के बीच समानता के स्वप्न को फ्रान्स के मजदूरों ने पेरिस की सड़कों पर पहली बार चरितार्थ कर दिया था, जिसे आज दुनिया पेरिस कम्यूनके नाम से जानती है। इस महान ऐतिहासिक घटना से कुछ ही दिन पहले पेरिस से दूर जारशाही रूस द्वारा शासित पोलैण्ड के एक शहर में एक सामान्य यहूदी परिवार में 5 मार्च 1871 को एक नन्हीं बच्ची ने जन्म लिया। यह बच्ची भी आगे चलकर इसी खूबसूरत स्वप्न के लिए जीने और मरने वाली थी। इस बच्ची का नाम था-रोज़ा लक्ज़मबर्ग।

रोज़ा के पिता उदार विचारों वाले थे, तो  धार्मिक प्रवृत्ति की। रोज़ा की मां को साहित्य का बहुत शौक था। इसी शुरूआती जनवादी माहौल में रोज़ा की परवरिश हुई। हालांकि घर से निकलने के बाद उनकी राह आसान न थी। रोज़ा उस वक्त इतिहास के गलत तरफखड़ी थी। वो यहूदी थी (उस समय यूरोप में यहूदी-विरोधआज के मुस्लिम-विरोध की तरह तेजी से बढ़ रहा था) , पोलैण्ड से थी (जिसके ऊपर जारशाही रूस का शासन था। सार्वजनिक जगहों पर पोलिश भाषा बोलने की मनाही थी) और महिला थी (इस समय तक सार्वजनिक जीवन में महिलाएं लगभग न के बराबर थी)। इसके अलावा बचपन की एक बीमारी के कारण उन्हें भचक-भचक कर चलना पड़ता था। लेकिन शायद इतिहास में गलत तरफखड़े होने के कारण ही रोज़ा लक्जमबर्ग इतिहास को दूसरों के मुकाबले कहीं अधिक साफ-साफ और सामने से देख पा रही थी।

                                    नन्ही रोज़ा

बहरहाल अपनी इसी दृष्टि के कारण रोज़ा छात्र जीवन से ही पोलिश समाजवादियों के सम्पर्क में आ गयी और क्रान्तिकारी राजनीति का हिस्सा बन गयी। जब रोज़ा लक्ज़मबर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति के कारण जार की खुफिया पुलिस उनके पीछे पड़ गयी तो उन्हें छिपते-छिपाते स्विटजरलैण्ड के ज्यूरिख शहर आना पड़ा। उन्होंने अपना डॉक्टरेट यहीं से किया। इस वक्त ज्यूरिख शहर यूरोप के क्रान्तिकारियों की पनाह स्थली बना हुआ था। यहीं पर उनकी मुलाकात रूस के प्रसिद्ध मार्क्सवादी प्लेखानोव से हुई। कोलन्ताई से भी उनका परिचय यहीं पर हुआ।

हालांकि पोलैण्ड में राजनीतिक काम करते हुए ही रोज़ा की दोस्ती लिथुवानियां के मार्क्सवादी समाजवादी लियो जोगिचेज़ से हो गयी थी, लेकिन ज्यूरिख़ में ही दोनों की दोस्ती परवान चढ़ी और प्रकारान्तर से प्रेम में बदल गयी जो बिना विवाह सम्बन्धों के आजीवन कायम रही। लियो जोगिचेज़ न सिर्फ समर्पित क्रान्तिकारी थे, बल्कि महिलाओं का विशेष सम्मान करते थे। उन्होंने तुरन्त ही रोज़ा लक्ज़मबर्ग की राजनीतिक प्रखरता को पहचान लिया और राजनीति में उनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया। क्लारा जेटकिन ने लियो जोगिचेज़ के इसी गुण की तारीफ करते हुए लिखा है कि वे स्त्रियोचित पुरूषथे।

ज्यूरिख़ में रहते हुए रोज़ा लक्ज़मबर्ग तमाम राजनैतिक, साहित्यिक, दार्शनिक बहसों से भी गुजर रही थी और मार्क्सवाद की अपनी समझ को पैनी कर रही थी। रोज़ा लक्ज़मबर्ग सही मायनों में एक अन्तर्राष्ट्रीयतावादी थी। उनका ध्यान अब जर्मनी पर था, जहां पूंजीवाद का तेज विकास हो रहा था और फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग का तेज प्रसार हो रहा था। यहां की सामाजिक-जनवादी पार्टी उस वक्त की सबसे बड़ी मजदूरों की पार्टी थी। उस वक्त इसके दर्जनों दैनिक अखबारों की प्रसार संख्या लाखों में थी। सभी को यह लग रहा था कि सर्वहारा क्रान्ति यहीं से शुरू होगी। फलतः रोज़ा ने जर्मनी जाने का फैसला कर लिया। 1898 में वे सीधे जर्मनी में एसपीडी’ (जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी) कार्यालय पहुंच गयी और बकायदा एसपीडीकी सदस्यता ले ली। हालांकि रोज़ा का नाम जर्मन मार्क्सवादियों के लिए कोई नया नहीं था। ज्यूरिख़ में रहने के दौरान ही रोज़ा के तमाम सैद्धान्तिक लेखों की प्रखरता से एसपीडीका नेतृत्व परिचित हो चुका था।

जर्मनी की नागरिकता लेने के लिए रोज़ा को एक फर्जी विवाह भी रचाना पड़ा। नागरिकता मिलते ही वो इस फर्जी विवाह सम्बन्ध से भी बाहर निकल गयी।

यहां आने पर ही रोज़ा को यह अहसास होने लगा कि काउत्स्की, बेबेल की जिस पार्टी से वह क्रान्ति की उम्मीद कर रही थी, उसे दरअसल बहुत पहले से ही संशोधनवाद का दीमक अन्दर से खोखला बना चुका था। मार्क्स ने तो बहुत पहले ही 1975 में गोथा कार्यक्रम की आलोचनामें जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के अन्दर पल रहे संशोधनवाद की तीखी आलोचना प्रस्तुत कर दी थी।

बहरहाल 1899 में जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी के एक प्रमुख नेता बर्नस्टीन ने इवोलूशनरी सोशलिज़्मनामक एक बुकलेट निकाली। इसमें उसने दावा किया कि अब क्रान्ति की जरूरत नहीं है। तेज पूंजीवादी विकास के कारण धीरे-धीरे पूंजीवादी सुधारों के माध्यम से हम एक दिन समाजवाद में प्रवेश कर जायेंगे।

रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने बिना देर करते हुए मार्क्सवाद में किये गये इस संशोधन पर तीखा हमला बोला। संशोधनवादशब्द यहीं से आया। रोज़ा लक्ज़मबर्ग की पुस्तिका सुधार या क्रान्तिआज मार्क्सवादी शस्त्रागार का प्रमुख अस्त्र है। इस पुस्तिका में उन्होंने बर्नस्टीन का करारा जवाब देते हुए मार्क्सवादी सिद्धान्त की बुनियादी प्रस्थापनाओं को नयी रोशनी में दुबारा से स्थापित किया। बर्नस्टीन के खिलाफ इस लड़ाई में हालांकि काउत्स्की और बेबेल रोज़ा के साथ खड़े थे, लेकिन बाद का विकासक्रम यह साबित करता है, कि उनका स्टैण्ड बहुत ढुलमुल था, जिस कारण संशोधनवाद को निर्णायक रूप से पराजित नहीं किया जा सका।

जर्मन पार्टी के संशोधनवादी नेतृत्व ने रोज़ा को पार्टी स्कूल चलाने की जिम्मेदारी दे दी, ताकि वे पार्टी के काम में ज्यादा हस्तक्षेप न कर पायें। लेकिन वे स्कूल की जिम्मेदारी संभालते हुए भी आम मजदूरों के साथ सम्पर्क बनाये रखते थीं और उन्हें संशोधनवाद के खतरों से आगाह भी करती रहती थी। हालांकि इससे जर्मन पार्टी का संशोधनवादी नेतृत्व हमेशा असहज रहता था।

लेकिन इसी दौरान उनकी दोस्ती जर्मन पार्टी के शानदार कामरेडों कार्ल लिब्नेख्तऔर क्लारा जेटकिनसे हुई। ये दोनों भी अपने अपने तरह से जर्मन पार्टी के संशोधनवाद से लड़ रहे थे। बेबेल के साथ भी रोज़ा के बहुत अच्छे सम्बन्ध थे, लेकिन बेबेल के ढुलमुल रवैये के कारण रोज़ा उनसे नाराज भी रहती थी। हालांकि बेबेल के मन में रोज़ा के लिए काफी इज्ज़त थी। संशोधनवाद के खिलाफ रोज़ा के समझौता विहीन संघर्ष के कारण बहुत से लोग बेबेल से रोज़ा की शिकायत करने आ जाते थे, तो बेबेल मुस्करा कर जवाब देते-क्यो परेशान होते हो, हम भेड़ों के बीच एक ही तो भेड़िया है रोज़ा।बहरहाल कार्ल लिब्नेख्त और क्लारा जेटकिन का साथ मिलने से रोज़ा का आत्मविश्वास बढ़ गया और वे संशोधनवाद की अपनी लड़ाई में और मजबूती से लग गयी।

                            क्लारा जेटकिन के साथ रोज़ा
इसी बीच 1905 में जारशाही रूस में क्रान्ति की शुरूआत हो गयी। पोलैण्ड रूस के अधीन था, इसलिए क्रान्ति की लहरें यहां भी उठ रही थी। जब रोज़ा के पोलैण्ड में क्रान्ति की लहरें उठ रही हों, तो रोज़ा जर्मनी में कैसे रह सकती थी। रोज़ा तुरन्त पोलैण्ड के लिए रवाना हो गयी और अपने दोस्त कामरेड प्रेमी लियो जोगिचेज के साथ क्रान्ति में कूद पड़ी। साल भर के अन्दर ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और वे जेल पहुंच गयी। यहीं जेल में पूरे 10 साल बाद परिवार के सदस्यों से उनकी मुलाकात हुई।

जेल से छूटने के बाद वे पुनः जर्मनी आ गयी। यहां 1905 की क्रान्ति के अनुभवों के आधार पर उन्होंने एक महत्वपूर्ण पुस्तिका दी मास स्ट्राइकलिखी, जो दुनिया भर के क्रान्तिकारियों के बीच काफी लोकप्रिय हुई।

                              
 

कार्ल लिब्नेत और रोज़ा
 
1906 में एक कान्फ्रेन्स के दौरान लंदन में रोज़ा की मुलाकात लेनिन से हुई। बाद में उन्होंने लेनिन के बारे में लिखा वे बहुत जानकार और अनुशासित व्यक्ति हैं। यहीं पर दोनों ने द्वितीय इन्टरनेशनल में आ रहे संशोधनवाद की चर्चा की और इससे मिलकर लड़ने का संकल्प लिया। अगले साल स्टुटगार्ड सम्मेलन में लेनिन ने मुख्य प्रस्ताव रखने के जिम्मेदारी रोज़ा लक्ज़मबर्ग को ही दी। और रोज़ा ने जो प्रस्ताव बनाया वह आज भी विश्व युद्ध पर कम्युनिस्टों के स्टैण्ड के रूप में जाना जाता है। यानी विश्व युद्ध में सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का झण्डा ऊंचा रखते हुए अपने-अपने देशों के बुर्जआ वर्ग के खिलाफ उठ खड़े होना और अपने-अपने देशों में क्रान्ति को अंजाम देना। रोज़ा का यह प्रस्ताव वैसे तो सर्वसम्मति से पास हुआ लेकिन बाद में हम देखेंगे कि सेकण्ड इन्टरनेशनल की प्रमुख पार्टी जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी रोज़ा के इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट डालकर अवसरवाद ही कर रही थी।

1913 में रोज़ा लक्ज़मबर्ग की एक और महत्वपूर्ण किताब दी एकूमूलेशन ऑफ कैपिटलआयी। साम्राज्यवाद को समझने में यह किताब बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई। हालांकि साम्राज्यवाद का मुकम्मल विश्लेषण तो अभी आना था और यह 1916 में लेनिन की किताब साम्राज्यवादः पूंजीवाद की चरम अवस्थाके रूप में आयी। हालांकि इस किताब दी एकूमूलेशन ऑफ कैपिटलमें रोज़ा ने मार्क्स के कुछ बुनियादी स्थापनाओं (पूंजीवाद में मुनाफे की गिरती दर) पर भी सवाल उठाये थे, जिसका जवाब बाद में लेनिन ने दिया भी था, लेकिन फिर भी साम्राज्यवाद के कुछ पहलुओं को समझने के लिए यह एक ज़रूरी किताब है।

वास्तव में राष्ट्रीयता के सवालों पर भी रोज़ा लेनिन व अन्य कामरेडों के साथ टकराती रही हैं। दरअसल रोज़ा राष्ट्रीयता की लड़ाई को विशुद्ध बुर्जुआ सवाल मानती थी और इसे सर्वहारा आन्दोलन की राह और सर्वहारा वर्ग की एकता के मार्ग में एक बड़ी बाधा के रूप में देखती थी। इसी कारण वह पोलेण्ड के रूस से आज़ादी की भी विरोधी थी। उनका कहना था कि रूस और पोलैण्ड के सर्वहारा को एक साथ समाजवाद के लिए लड़ना चाहिए। इसलिए वो बाद में राष्ट्रीयता के मुद्दे पर लेनिन के बहुचर्चित सिद्धान्त राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के सिद्धान्तसे भी असहमत थी। दरअसल रोज़ा राष्ट्रों के बीच शोषण व आधिपत्य में उत्पीड़ित राष्ट्रों के संघर्ष में जनवाद के पहलू को नहीं देख पा रही थी। लेनिन व अन्य कामरेडों के साथ बहस के बावजूद वह अन्त तक अपने स्टैण्ड पर कायम रही।

बहरहाल जैसे ही 1914 में विश्व युद्ध का ऐलान हुआ, जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी अपना असली रंग दिखाते हुए सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की पीठ में छुरा घोंपते हुए अपने देश के शासक वर्ग के पक्ष में जा खड़ी हुई। रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने व्यंग्य करते हुए लिखा- शान्ति काल में आपका नारा था दुनिया के मजदूरों एक हो और युद्ध काल में आपका नारा हो गया-एक दूसरे का गला काटो।

इस नयी परिस्थिति में बिना देर किये रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने कार्ल लिब्नेख्त, क्लारा जेटकिन, फ्रेन्ज़ मेहरिंग और लियो जोगिचेज़ जैसे सर्वहारा के सच्चे सपूतों के साथ मिलकर एक नयी पार्टी स्पार्टकस लीगबनायी। यही आगे चलकर जनवरी 1919 में जर्मनी की कम्यूनिस्ट पार्टीबनी।

स्पार्टकस लीगके बैनर तले रोज़ा व अन्य कामरेडों ने युद्ध के विरोध में मजदूरों को संगठित करना और क्रान्ति की योजना बनाना शुरू कर दिया। साथ-साथ वे जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी की गद्दारी का पर्दाफाश करने में भी लगे हुए थे। लेकिन जल्दी ही रोज़ा लक्ज़मबर्ग और कार्ल लीब्नेख्त को गिरफ्तार कर लिया गया। और लगभग पूरे विश्व युद्ध के दौरान वे जेल में ही रहे। जेल में कार्ल लीब्नेख्त की पत्नी सोफिया अक्सर उनसे मिलने आती थी। एक बार उन्होंने रोज़ा को कार्ल लीब्नेख्त की तस्वीर भेंट की। जिससे रोज़ा बहुत प्रसन्न हुई। दरअसल स्त्री पुरूष सम्बन्धों की भी एक नयी ऊंचाई हमें यहां मिलती है। जिसकी उदात्तता को सिर्फ क्रान्ति के आलोक में ही समझा जा सकता है। बीच में क्लारा जेटकिन के बेटे से भी रोज़ा का बहुत ही भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित हो गया था, हालांकि वह रोज़ा से उम्र में बहुत छोटे थे और रोज़ा के यहां अर्थशास्त्र समझने आया करते थे।

बहरहाल जेल में रोज़ा और कार्ल लीब्नेख्त दोनों ने अपना अध्ययन जारी रखा। लेकिन यहां रोज़ा आश्चर्यजनक रूप से वनस्पतिशास्त्र की पढ़ाई में जुट गयीं। जेल में मौजूद वनस्पतियों से उन्होंने कई सुन्दर हारबेरियम बना कर कार्ल लीब्नेख्त की पत्नी सोफिया को भेंट किया।

रोज़ा के जेल में रहने के दौरान ही रूस में मजदूर क्रान्ति हो गयी और दुनिया का प्रथम समाजवादी देश अस्तित्व में आया। जेल से ही उन्होंने रूसी क्रान्ति का पुरजोर स्वागत करते हुए अनेक लेख लिखे। लेकिन इनमें से कुछ लेखों में रोज़ा ने जनवाद की कमी का मुद्दा उठाते हुए क्रान्ति की आलोचना भी की। हालांकि बाद में लेनिन ने उनके आरोपों का विस्तार से जवाब भी दिया, लेकिन शायद वे अन्त तक सहमत नहीं हो सकी। आज भी दुनिया के कामरेडों के बीच रोज़ा के वे आरोप बहस का विषय हैं।

रूसी क्रान्ति के बाद जर्मनी में भी फिज़ा बदलने लगी थी और मजदूर सैनिक सरकार के खिलाफ एक के बाद एक बगावत करने लगे थे। क्रान्ति के भावी तूफान को रोकने के लिए जर्मनी के शासक वर्ग ने जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी एसपीडीको सरकार में आमंत्रित किया और एसपीडीने बिना देर किये 1918 में सरकार बना डाली। मजदूर वर्ग से विश्वासघात के बावजूद अभी भी आम मजदूरों के बीच इसका असर था और दूसरी ओर रोजा की स्पार्टकस लीगसांगठनिक रूप से अभी बहुत कमजोर थी।

बहरहाल नवम्बर 1918 में रोज़ा और कार्ल लीब्नेख्त जेल से बाहर आ गये। बाहर आते ही दोनों ने स्पार्टकस लीगका सम्मेलन करके जनवरी 1919 में उसे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ जर्मनीमें बदल दिया और इसका एक क्रान्तिकारी कार्यक्रम तैयार किया। इस क्रान्तिकारी कार्यक्रमको तैयार करने में रोज़ा की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी।

इसी समय क्रान्ति का अगला चरण शुरू हो रहा था और बलर््िान व अन्य शहरों में सैनिक मजदूर फिर से बगावत पर उतर आये थे। रोज़ा के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ जर्मनीने इन स्वतःस्फूर्त बगावतों को नेतृत्व देने की कोशिश की, लेकिन रूस की तरह यहां कम्युनिस्ट पार्टी का भूमिगत ढांचा अभी विकसित नहीं हो पाया था। फलतः जल्द ही 15 जनवरी 1919 को रोज़ा लक्ज़मबर्ग और कार्ल लीब्नेख्त को पकड़ लिया गया और उसी दिन दोनांे की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गयी। इतिहास की यह विडंबना है कि रोज़ा की हत्या उन्हीं के शासनकाल में और उन्हीं की सहमति से हुई जिनसे एक समय वो क्रान्ति की उम्मीद कर रही थी और इसी उम्मीद में वे अपना घर पोलैण्ड छोड़कर इतनी दूर जर्मनी आयी थी। समाजवाद की अनिवार्यता का नारा देते हुए रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने ही यह नारा उछाला था कि समाजवाद या बर्बरता। उन्हें क्या पता था कि इस बर्बरता का शिकार उन्हें ही होना पड़ेगा। यही बर्बरता आगे चलकर फासीवादके रूप में जवान हुई और फिर इतिहास की विडम्बना देखिये इस फासीवाद ने अपने बर्बर हमले में उन सामाजिक जनवादियों को भी नहीं छोड़ा जिन्होंने क्रान्ति से गद्दारी करके फासीवाद की राह आसान कर दी थी। अन्ततः इस बर्बर फासीवाद के फन को सोवियत समाजवाद ने ही कुचला और एक तरह से रोज़ा लक्ज़मबर्ग को दुबारा से जीवित कर दिया। 

 रोज़ा लक्ज़मबर्ग की कुछ सैद्धान्तिक कमजोरियों का हवाला देते हुए जब कुछ कामरेड उनकी उपलब्धियों पर धूल डालने का प्रयास करने लगे तो लेनिन ने रोज़ा लक्ज़मबर्ग का मूल्यांकन करते हुए लिखा-एक बाज कभी-कभी नीचे आकर मुर्गे की ऊंचाई पर भी उड़ सकता है, लेकिन एक मुर्गा कभी भी बाज की ऊंचाई हासिल नहीं कर सकता।

लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता है।

दस्तक नए समय की  [मई जून २०२१ अंक] में प्रकाशित लेख