Thursday 30 April 2020

कोराना वायरस: अर्थव्यवस्था और प्रतिरोधक क्षमता- कोबाड गांधी

लगभग 70 वर्षीय कोबाड गांधी, सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य रहे हैं। कुछ ही समय पहले वे 8 साल जेल में रहने के बाद जमानत पर बाहर आए हैं।इस समय वे कैंसर समेत कई रोगों से लड़ रहे हैं।
यह लेख उन्होंने मूलतः अंग्रेज़ी में लिखा है, जिसका  हिंदी अनुवाद असीम सत्यदेव ने किया है।
 इस तकनीकी विकास के युग में व्यापक जनसमुदाय के अंदर सामूहिक डर (मास हिस्टीरिया) जंगल की आग की तरह फैल जाता है, खास तौर से जब शासकों और, या धर्म के जरिए उसे प्रोत्साहित किया जाता है। गणेश दूध पीना इसका एक उदाहरण था। एक और उदाहरण स्काई लैब गिरने की ख़बर थी। 2000ई. (y2k) संकट जैसे भयग्रस्तता के कई और उदाहरण हैं। झारखंड जेल में एक आदिवासी ने मुझे बताया था कि उनके सुदूर गांव में लोगों ने 31 दिसम्बर, 2000 तक दुनिया ख़त्म हो जाने की बात पर विश्वास कर अपनी बकरियों को रोज काटना शुरू कर दिया था।

            जन समुदाय के भीतर समाए डर और अपराधबोध से खेलना शासकों और धर्माचार्यों का पुराना आजमाया तरीक़ा रहा है। जब यह चरम सीमा तक पहुंच जाता है तो जनता पर सबसे ज्यादा चोट की जा सकती है। यहां तक कि कम्युनिस्ट और हमारे दैनिक जीवन के शातिर लोग इसे अंजाम देते हैं। हम आपस में भावनात्मक तरीके से एक-दूसरे पर प्रहार करतें हैं और हमारे अपराधबोध की भावना और डर का फायदा उठाया जाता है।

            जब हम अपने तरह- तरह के डर पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि बहुत सारे डर  हमें घेरे रहते हैं-- अस्वीकार किए जाने, असफल होने, बीमारी इत्यादि का डर और सबसे ज्यादा मौत का डर जो मौजूदा कोराना बीमारी के कारण हमारे अंदर समा गया है। यह सच है कि यह वायरस उच्च स्तर का संक्रामक है जो किसी वस्तु पर और मानव शरीर से बाहर 3-4 घंटे तक जीवित रहने की क्षमता रखता है। इसलिए यह जंगल की आग की तरह फैल सकता है। किन्तु इसकी मृत्यु दर सामान्य इनफ्लुएंजा से ज्यादा की नहीं है। इसके ज्यादातर शिकार वृद्ध और पहले से बीमार लोग हो रहे हैं। मृत्युदर अनुमानतः 3% से 0.5% तक है। लेकिन सरकारी प्रचार तंत्र और मीडिया ने इसे भयानक जानलेवा वायरस घोषित कर दिया है। इसलिए चारों तरफ भय व्याप्त हो गया है। मौत का डर, अपनों के खोने का डर, अनजाना डर।।। और इस भय ने रोजगार का खात्मा, कारोबार की हानि, बचत का नुक़सान और असुविधाओं को पैदा किया है। जिसने आने वाले दिनों में भुखमरी से मौत की आशंका को बढ़ाया और हमारी जीने की क्षमता को घटाया है।

           दरअसल समूची विश्व अर्थवयवस्था पहले से ही गम्भीर संकट में चल रही है। जैसा कि हाल ही में मानस चक्रवर्ती ने कहा है कि - पिछले हफ़्ते इक्विटी ही नहीं बल्कि बॉन्ड व माल, यहां तक की सोने के भाव में भारी गिरावट आ गई है। यह गिरावट इतनी ज्यादा थी कि सिर्फ नकदी ही सुरक्षित है। वह भी सिर्फ अमरीकी डालर ही मुख्य रूप से सुरक्षित स्वर्ग हो गया है। जिसकी मांग बढ़ती गई है। अमरीका, यूरोप और अन्य विकसित अर्थवयवस्थाओं में ब्याजदर जीरो की तरफ लुढ़कता जा रहा। इस स्थिति में खरीददार के लिए सुरक्षित आखिरी रास्ता सिर्फ खरीदना ही होता है। सरकारों ने कारोबार उपभोक्ताओं को इस बढ़ते संकट से उबारने लिए दसियों खरब डॉलर खर्च करना मंजूर कर लिया है।  (भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं आयी है।)                           

            लेकिन यहां वायरस के फैलाव को रोकने के एक मात्र उपाय के रूप में सामाजिक मेल-मिलाप को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था को ठप कर दिया गया है। स्पेन, इटली और फिर दुनिया कि पांचवीं बड़ी अर्थवयवस्था कैल्फोर्निया को ठप्प कर दिया गया है। इससे विश्व अर्थव्यवस्था को बड़ा धक्का लगना ही है।

            फार्चून के अनुसार दूसरी तिमाही में ज्यादातर देशों की जीडीपी दर भयानक रूप से (-8%) से (-15%) तक गिर गई है। गोल्डमेन सैच ने इसे और कम होने की बात (पानी सर से ऊपर जाने) कही है।

            बैंक ने आज शोध नोट जारी किया है। जिसके अनुसार "अमरीकी अर्थव्यवस्था के अचानक ठप्प" हो जाने के कारण 2020 की दूसरी चौथाई में जीडीपी में 24% गिरावट की आशंका है।

            पूरी दुनिया की सरकारों द्वारा जिस पैमाने पर लाकडाउन किया गया है, उससे अर्थवयवस्थाओं में सुधार की  कोई उम्मीद नहीं बची है। पिछले छह महीने से चले आ रहे आर्थिक संकट के लिए, जिसका कोराना से कुछ लेना देना नहीं है, यह एक बहाना हो गया है। 1929 की महामंदी के लिए पूंजीवादी व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया गया था। परंतु मौजूदा संकट के लिए जिम्मेदारी को बकायदा वव्यवस्थागत समस्या को वायरस समस्या की ओर इसे मोड़ दिया गया है। 

             बहरहाल विश्व आज दो मुख्य समस्याओं का सामना कर रहा है। कोई नहीं कह सकता कि इनमें कौन ज्यादा जानलेवा है। पहली समस्या कोराना वायरस की है और दूसरी समस्या अर्थव्यवस्था की है। पहली समस्या दुनिया भर में फैल कर मौत का तांडव मचा सकती है। तो दूसरी से पूरी दुनिया को भुखमरी और बीमारी कि सबसे बुरी हालत में ला सकती है। पहली से हम अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर लड़ने की सोच सकतें हैं। लेकिन दूसरी पर हमारा नियंत्रण नहीं है।

  प्रतिरोधक क्षमता का मनोविज्ञान
   विज्ञान ने प्रतिरोधक क्षमता पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव (प्लसबो थ्योरी) को  मान लिया है। इसके अनुसार मानव के दिमाग मे वह क्षमता होती है कि वह अपने शरीर को बीमारी से उबार ले। यदि उसे किसी दवा या उपचार पर भरोसा हो जाए, भले ही उसमे औषधीय गुण नहीं हो और वह चीनी की गोली मात्र हो। मेडिकल के विद्यार्थी अध्ययन में यह पाते हैं कि बहुत सी बीमारियों में से एक तिहाई का उपचार मनोवैज्ञानिक असर के चमत्कार से हो जाता है। बीमारियों के इलाज में मनोवैज्ञानिक प्रभाव अब सर्वमान्य हो चुका है। कोराना वायरस जैसी बीमारी जिसकी कोई दवा नहीं है से लड़ने में हमारी मजबूत प्रतिरोधक क्षमता केंद्रीय भूमिका निभा सकती है।

             विज्ञान का नया क्षेत्र न्यूरोइम्युनोलॉजी है। जिसे आम भाषा में ऐसे कह सकतें हैं कि मस्तिष्क द्वारा स्नायु तंत्र पर नियंत्रण के जरिए प्रतिरोधक क्षमता मजबूत की का सकती है। यह सुस्वीकृत तथ्य है कि तनाव बढ़ाने वाला हार्मोन (कोर्टिसोल) हमारी प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देता है। इससे हम वायरस या बैक्टीरिया से लड़ाई में कमजोर पड़ जाते हैं। दूसरी तरफ़ सकारात्मक नजरिया और प्रसन्नता वाले हार्मोन(एंडोर्फिन, डोपामाइन, सेरोटोनिन) हमारी प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करते हैं। अतः वायरस का डर और भयानक वातावरण का फैलना उससे लड़ने में हमारी प्रतिरोधक शक्ति को कमजोर कर सकता है।

             अब यह भलीभांति मान लिया गया है कि आत्मविश्वास के बजाय डर के माहौल में गम्भीर बीमारी से लड़ने की क्षमता घट जाती है। कोराना जैसी बीमारी की कोई दवा नहीं है। प्रतिरोधक क्षमता मजबूत करके ही इसका सामना किया जा सकता है। इसलिए प्रतिरोधक क्षमता की कमजोरी को रोकने की प्राथमिकता महत्वपूर्ण है। जो भी पद्धति अपनायी जाय वह तार्किक व प्रभावी होनी चाहिए। और हर तरीके से बीमारी का तार्किक मूल्यांकन कर डर व भयग्रस्तता के प्रचार का प्रभावी तरके से काट करनी चाहिए। भारतवासियों की गरीबी के कारण पहले से कमजोर प्रतिरोधक क्षमता को उनके आत्मविश्वास को बढ़ाकर मजबूत करने की जरूरत है। कम से कम भय का आतंक फैलाना बन्द करके उनमें वायरस के संक्रमण को मजबूत होने से बचाएं।

Tuesday 28 April 2020

21 वीं सदी का एक दृश्य-- हरिश्चंद्र पांडेय


 कोरोना लॉक डाउन में जब मध्य और उच्च वर्ग एक दूसरे को "स्टे होम" और "सोशल डिस्टेंसिंग" का संदेश दे रहे थे, पूरी दुनिया ने भारत के मजदूरों का घरों की ओर पैदल लौटने का दृश्य भी देखा। ये घरों की लौटना सामान्य घर लौटना नहीं था, यह उनकी मजबूरी में की गई हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा थी। मजदूरों की इस महायात्रा में वयस्क मजदूर और उनकी भावी पीढ़ी के कई बच्चे मर गए, कुछ  रास्ते में तो कुछ घर पहुंचने के चंद घंटों पहले ही भूख और प्यास से मरे। इन दृश्यों ने लोगों को हिलाकर रख दिया।

कुछ ही साल पहले ओडिसा के दाना मांझी नाम के आदिवासी शख्स का एक चित्र बहुत चर्चित हुआ था, जिसमें वह अपनी बीवी की लाश कंधे पर उठाए बेटी के साथ कई किलोमीटर चला था। इस दृश्य पर
प्रख्यात कवि हरिश्चंद्र पांडेय की एक बेहद मार्मिक कविता है। लीजिए पढ़िए यह कविता और इससे आज दिखने वाले दृश्य का मिलान कीजिए। दोनों आपको एक से ही लगेंगे।
सीमा आज़ाद

मैं बहुत देर तक अपने कंधे के विकल्प ढूंढ़ता रहा
पर सारे विकल्पों के मुहाने पैसे पर ही जाकर गिरते थे
मेरे पास पैसों की जमीन थी न रसूख की कोई डाल
हाथ पांव थे मगर उनमें गुंडई नहीं बहती थी
हां अनुभव था लट्ठों को काट -  काट कर ले जाने का पुराना
मेरी बेटी के पास यह सब देखने का अनुभव था
मुझे जल्दी घर पहुंचना था
अपने घर से बाहर छूट गए एक बीवी के प्राण
घर के जालों-कोने में अटके मिल सकते थे
मेरा रोम-रोम कह रहा था यहां से चलो
मैं जैसे मणिकर्णिका पर खड़ा था किंकर्तव्यविमूढ़
और कोई मुझसे कह रहा था तुम्हारे पास देने के लिए अभी देह के कपड़े बचे हुए हैं
मेरी आंखो ने कहा तुमने मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही को
अपने हत साथी को शिविर की ओर लेे जाते देखा है न
मेरे हाथ- पैर -कंधे समवेत स्वर में बोल उठे थे
यह हमारा साख्य भार है, बोझ नहीं 
मैंने पल भर के लिए अपनी बेटी की आंखो में शरण ली
उपग्रह सी नाचती वह लड़की अभी भी अपनी पृथ्वी की निहार रही थी
मैं बादलों सा फट सकता था
पर बिजली बेटी के ऊपर ही गिरनी थी
उसने भी अपने भीतर एक बांध को टूटने से रोक रखा
उसके टूटने ने मुझे जाने कहां बहा लेे जाना था
हम दोनों एक निशब्द यात्रा पर निकल पड़े....
यात्रा लंबी थी मेरी बच्ची के पांव छोटे
तितलियों के पांव चलने के लिए होते भी कहां हैं
वे तो फूलों पर बैठते वक्त निकलते हैं बाहर
मेरी तितली मेरे कंधों के छालों की ओर देख रही थी बार-बार
ये सब तो वे घाव थे जिन्हें उजाले में देखा जा सकता है और अंधेरे में टटोला
हम दोनों चुप थे मौन बोल रहा था
मौन का कोई किनारा तो होता नहीं
सो कंधे पर सवार मौन भी बोलने लगा था
महाराज आज इतनी ऊंचाई पर क्यों सजाई गई है मेरी सेज?
शबरी के लाडले क्या इसी तरह जताते हैं अपना प्यार?
आज ये कहां से अा गई इन बाजुओं में इतनी ताकत?
तुम्हारा गया हुआ अंगूठा वापस आ गया क्या?
सभी काल अभी मौन की जेब में थे
रास्ता बहुत लंबा था
मेरे हाथ पैर कंधे सब थक रहे थे
याद अा गए वे सारे हाथ
जो दान पात्रों के चढ़ावों को गिनते समेटते थक जाते
मेरे जंगल के साथी पेड़ पौधों ने
मेरी थकान को समझ लिया था
उन सबने मेरे आगे अपनी छायाएं बिछा दीं
मैं ग़मज़दा था मगर आदमी था अस्पताल से चलते समय
पर रस्ते में ये कौन कैसे आ गया
कि मैं दुनिया भर में एक दृश्य में बदल दिया गया
.....हां मैं अब एक दृश्य था
मैं सभ्यता के मध्यान्ह में सूर्यग्रहण का एक दृश्य था
इस दृश्य की देखते ही आंखों की ज्योति चली जानी थी
अनगिनत आंखों का पानी मर जाने पर एक ऐसा दृश्य उपजता है
यह आंखों के लिए एक अपच्य दृश्य था
पर इसे अपच भोजन की तरह उलटा भी नहीं जा सकता था बाहर
यह हमारी 21 वीं सदी का दृश्य था
स्वजन- विसर्जन का आदिम कर पेस्ट नहीं
जब धरती पर न कोई डॉक्टर था न अस्पताल न कोई सरकार
यह मंगल पर जीवन खोजने के समय में
पृथ्वी पर जीवन नकारने का दृश्य था
ग्रहों के लिए छूटते हुए रॉकेटों को देख हमने तो यही समझा था
कि अपने दिन बहुरने की उल्टी गिनतियां शुरू हो गई हैं
पर किसी भी दिन ने यह नहीं कहा कि मैं तुम्हारा कंधा हूं
पता नहीं मैं पत्नी का शव लेकर घर की ओर जा रहा था
या इंसानियत का शव लेकर गुफ़ा की ओर
मैंने सुना है नदियों को बचाने के लिए 
उन्हें जीवित आदमियों का दर्जा दे दिया गया है
जिन्होंने ये काम किया है उन्हें बता दिया जाय
कि दाना मांझी भी एक जीवित आदमी का नाम है।

Monday 27 April 2020

वेंटीलेटर पर पूंजीवाद-- संजीव जैन


पूंजीवादी विकास का पूरा तंत्र आज तहस-नहस तिनके तिनके बिखर कर लहूलुहान पड़ा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ कि अमेरिका जैसा घोर पूंजीवादी राष्ट्र अपने तीन सौ साल के पूंजीवादी विकास के महल को रेत के घरौंदे की तरह बिखरा हुआ महसूस कर रहा है। यह स्थिति संपूर्ण वैश्विक पूंजीवाद की है। हम पूंजीवादी विकास की कहानी पर थोड़ा ठहरकर सोचें कि ऐसा क्या हुआ जो दीर्घकाल से बनता आ रहा लौह पिंजरा एक दो माह के लाकडाऊन को सहन नहीं कर सका? गगनचुंबी उड़ानें जमींदोज होकर कराह रहीं हैं? इतना आधारहीन खोखला माडल पूरी दुनिया पर राज कर रहा था जो आंधी के झौंके को भी सहन नहीं कर सका। कोरोनावायरस इसका कारण नहीं है। इसका कारण इसके अंतर्विरोधों में निहित था। आखिर कोरोनावायरस नामक महामारी ने इतना विनाशकारी प्रभाव कैसे डाल दिया? यह हमारे पूंजीवादी तंत्र के इम्यून सिस्टम की कमजोरी की ओर इशारा करती है। एक निहायत ही कमजोर इम्यून सिस्टम इस तंत्र ने विकसित किया था। 
इस बात पर गौर करना ही होगा कि आखिर इस महामारी ने संपूर्ण पूंजीवादी विश्व की आर्थिक व्यवस्था को तहस-नहस कैसे और क्यों कर दिया?
यह संकट जो पूंजीवादी व्यवस्था पर दिखाई दे रहा है यह कोरोना महामारी का परिणाम नहीं है, जैसा कि बताया जा रहा है, दर असल यह सिस्टम के अंदर निहित कंट्राडिक्शन के उभरने का परिणाम है। हमें इस संकट के उभरने के वास्तविक कारणों यानि कि उन स्थितियों का परीक्षण करना चाहिए जो संकट की पहचान करा रहीं हैं।
पहली बात जो बहुत स्पष्ट तरीके से उभर कर सामने आ रही है कि पूंजीवादी तंत्र एक परजीवी पैरासाइट है और यह पैरासाइट जिस मानव-श्रम के सहारे फलता-फूलता है उसके बिना यह एक माह भी जिंदा नहीं रह सकता। दूसरा सहारा इसका है राजसत्ता। आज इसे जिंदा रखने के लिए जो भी वेंटीलेटर ( वेल आउट पैकेज) लगाये जा रहे हैं वे राजसत्ता के द्वारा दी जा रही आक्सीजन है। 
पूंजीवाद जब अपने उभार पर होता है तो वह कहता है कि सरकारों को बाजार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। बाजार को बाजार की शक्तियों के सहारे छोड़ देना चाहिए। यही तर्क आज क्यों नहीं लागू किया जाये। आज तमाम उद्योग सरकारों से लगातार वेल आउट पैकेज की अपेक्षा क्यों कर रहे हैं? इसका मतलब है कि ये मुनाफे की मलाई चांटने के समय सरकारों का हस्तक्षेप नहीं चाहते पर संकट आते ही घुटनों के बल सरकारों के पास खड़े हो जाते हैं।
यह एक ऐसा बिंदू है जिस पर गहराई से सोचना होगा। कोई भी सरकार इंडस्ट्री को जो भी आर्थिक सहायता मुहैया कराती है वह पैसा जनता से कर के रूप में उगाहा गया होता है। इसका मतलब यह है कि सरकारों के पास जो मूल्य रूप में मुद्रा होती है वह मानवीय श्रम का कर रूप में उगाहा गया श्रम ही होता है। तो सरकारी सहायता का अर्थ अंततः जनता का श्रम ही वह पूंजी है जिसके बिना यह पूंजीवादी व्यवस्था खड़ी ही नहीं हो सकती।
अब हम पहले अंतर्विरोध पर विचार करें जिसे मैंने ऊपर पैरासाइट के फलने-फूलने के आधार के रूप में कहा था। यानि मानव श्रमशक्ति। यह पूरा संकट कोरोना महामारी का नहीं है यह संकट श्रम और पूंजी के अंतर्विरोध से उपजा संकट है। इसने पूंजी के पैरासाइट होने को पूरी तरह उघाड़ दिया है।
पिछले एक डेढ़ माह से यह तंत्र वेंटीलेटर पर क्यों पड़ा है? इसका अब तक कमाया गया मुनाफा आखिर इतनी जल्दी कहां चला गया? न तो आसमान ने निगला है और न जमीन इसे लील गयी। कहां गई विकास की समृद्धि? आखिर बाजार में धन का या पूंजी का संकट कैसे आ गया? क्या हुआ जो खरबों डालर का मूल्य अचानक गायब हो गया?
मीडिया के मायाजाल से हटकर थोड़ा गंभीरता से मार्क्स के मूल्य सिद्धांत को समझने का प्रयास करेंगे तो समझ आ जायेगा कि आज का संकट पूंजीवाद के अंतर्य में निहित श्रम पूंजी के वास्तविक अंतर्विरोध में निहित था। कोरोना महामारी तो एक ट्रिगर मात्र है जिसने इस निहित अंतर्विरोध को मुहाने तक ला दिया।
अब इस संकट का थोड़ा विश्लेषण करना जरूरी है। एक सवाल उठाया जाना चाहिए कि आज वैश्विक अर्थव्यवस्था के समक्ष जो संकट है वह तरलता न होने का है या मूल्य पैदा न होने का है। संपूर्ण विश्व इसे मुद्रा की तरलता का संकट मान रहा है और सरकारें कर्ज लेकर भी मुद्रा की तरलता को बढ़ाने का काम कर रहीं हैं। पर कई ट्रिलियन डालर की तरलता देने के बाद भी क्या संकट का बाल भी बांका हुआ? यह तरलता बढ़ाने का काम पूंजीवाद के गुब्बारे में तात्कालिक रूप से हवा भरने जैसा है। तरलता बढ़ाने के यह प्रयास क्षणिक रूप से इस गुब्बारे को फुला देते हैं और जैसे ही यह कृत्रिम आक्सीजन कम होती है या व्यवस्था द्वारा
पचा ली जाती है वैसे ही फिर अंतिम सांसें गिनने लगता है बाजार। 
अब याद कीजिए कि मैंने इसे एक पैरासाइट कहा था और यहभी कि इसका जीवन आधार है मानव श्रमशक्ति। इसकी प्राणवायु मुद्रा की तरलता नहीं मूल्य का पैदा होना है, जो पिछले एक से डेढ़ माह में नहीं हो रहा। लाकडाउन से जो श्रमिक अपनी श्रमशक्ति बेचने से वंचित हो गये, इसके कारण मूल्य पैदा होना बंद हो गया। याद रखना मार्क्स ने कहा था 'मूल्य का एक मात्र स्रोत है 'सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम समय'। जब कोई वस्तु बाजार में बिकने जाती है तो उस वस्तु में उपयोगी मूल्य और विनिमय मूल्य उसमें लगे सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम समय से पैदा होता है। यही श्रमशक्ति पूंजीवाद के लिए अतिरिक्त मूल्य पैदा करती है, जिस अतिरिक्त मूल्य को हड़पकर पूंजीपति पूंजीपति बनता है। आज क्या नहीं हो रहा? जिसके कारण यह पूंजीवाद वेंटीलेटर पर आ गया? 
इसका जबाव है कि श्रमशक्ति अपने श्रम बेचने से या अनुपयोगी (कच्चे माल) भौतिक पदार्थों में श्रम से मूल्य पैदा करने से वंचित कर दिया गया। यह श्रम का न होना दर असल मूल्य का पैदा नहीं होना है और जब मूल्य पैदा नहीं होगा तो अतिरिक्त मूल्य पैदा होने का तो सवाल ही नहीं उठता। यही असली संकट है। यह संकट श्रम और पूंजी के द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध का पूरी तरह उभरकर सामने आना है। 
पूंजीवाद के वेंटीलेटर पर आने का मतलब है कि यह श्रम के साथ जिस द्वंद्वात्मक अन्विति में पनपता है, वह द्वंद्वात्मक अन्विति पूरी तरह विच्छिन्न हो चुकी है इसलिए इसकी प्राण वायु विरल होती जा रही है और इसे सरकारी सहायता के वेंटीलेटर पर आना पड़ा। 


Thursday 23 April 2020

सम्पादकीय


दस्तक के सम्मानित पाठको,
कोरोना लॉक डाउन की परेशानियों के कारण दस्तक का मई - जून  2020, अंक निकालना संभव नहीं लग रहा है। लेकिन हम अपने पाठकों के साथ बने रहना भी चाहते हैं। इसलिए फिलहाल दस्तक के इस ब्लॉग के माध्यम से हम आप के साथ बने रहने की कोशिश करेंगे। जानती हूं कि यह पत्रिका का विकल्प नहीं है। खास कर तब, जबकि दस्तक के अधिकांश पाठक ग्रामीण क्षेत्रों से हैं। ब्लॉग को उन तक पहुंचाना मुश्किल भी है, इसलिए हम दस्तक के प्रतिनिधियों से यह अनुरोध भी कर रहे हैं कि वे  इस  ब्लॉग को दस्तक के सदस्यों तक पहुंचने में मदद करें। यदि संभव हो सके, तो लेखों के प्रिंट आउट उन तक पहुंचाने का काम करें। पाठकों को होने वाली इस असुविधा के लिए खेद है, लेकिन कुछ नहीं से यह बेहतर है। उम्मीद है अगले अंक  यानि "जुलाई - अगस्त अंक" तक, जबकि दुनिया काफी कुछ बदल चुकी होगी, हम पत्रिका के साथ आपके बीच होंगे। इस अंक में कोशिश ये होगी कि दोनों बार के लेखों को मिला कर अधिक पन्नों वाली पत्रिका प्रकाशित हो। तब तक ब्लॉग पर दस्तक के लेख उपलब्ध होते रहेंगे। कोशिश होगी कि यह ब्लॉग और पत्रिका दोनों की निरंतरता बनी रहे।
कोरोना के साथ सभी लड़ाइयों में दस्तक आपके साथ है
सीमा आज़ाद
संपादक दस्तक, नए समय की

भूख से तड़पते बच्चों के लिए महिलाओं ने अनाज से भरे ट्रक पर बोला धावा -- रूपेश कुमार सिंह


 झारखंड सरकार लगातार झारखंड में किसी को भी भूख से नहीं मरने देने का दावा कर रही है, लेकिन जमीनी हकीकत इनके दावों से मेल नहीं खाती है। केन्द्र सरकार के द्वारा अचानक देशव्यापी लाॅकडाउन घोषित होने के पहले ही जिन राज्यों ने 31 मार्च तक अपने राज्य में लाॅकडाउन की घोषणा की थी, उसमें से झारखंड राज्य भी था। जनता कर्फ्यू की शाम को ही यानि कि 22 मार्च की शाम को ही झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्य में 31 मार्च तक लाॅकडाउन की घोषणा कर दी थी। अचानक हुए इस लाॅकडाउन के कारण देश के अन्य राज्यों की तरह झारखंड में भी मजदूर बेरोजगार हो गये और अपनी बची-बचायी जमा-पूंजी से किसी तरह अपनी भूख को मिटाते रहे। 
इस बीच झारखंड सरकार ने भी अप्रैल-मई का राशन एक ही बार देने की घोषणा की। झारखंड सरकार ने घोषणा किया कि झारखंड में लगभग 58 लाख कार्डधारियों के अलावा जिन्होंने भी राशन कार्ड के लिए आवेदन दिया है (लगभग 7 लाख), उन्हें भी राशन दिया जाएगा। झारखंड सरकार ने झारखंड कोविड-19 रिपोर्ट कार्ड में 20 अप्रैल तक घोषित किया है कि लाॅकडाउन के दौरान लगभग 65 लाख परिवारों के बीच 2 लाख 65 हजार मैट्रिक टन अनाज का वितरण किया गया है। साथ ही पूरे राज्य में 6628 मुख्यमंत्री दीदी किचन, 380 पुलिस थानों में कम्युनिटी किचन व 900 मुख्यमंत्री दाल-भात केन्द्र के द्वारा रोजाना 12 लाख से अधिक लोगों को भोजन कराया जा रहा है। 

अब 21 अप्रैल को दुमका जिला में हुई घटना को देखें..

दुमका जिले के शिकारीपाड़ा थाना क्षेत्र के सरसडंगाल गांव की महिलाएं 21 अप्रैल को दुमका -रामपुरहाट मुख्य सड़क किनारे जमा हो गईं और वहां से गुजर रहे अनाज से भरे ट्रकाें को लूटने का प्रयास किया। महिलाओं ने आरोप लगाया कि लॉकडाउन के कारण उनकी रोजी-रोजगार छिन गयी है। वे और उनके परिवार के सदस्याें के अलावा उनके छाेटे-छाेटे बच्चे भूख से तड़प रहे हैं। सड़क किनारे खड़ी महिलाएं एफसीआई गोदाम से डीलर के यहां ले जाया जा रहा अनाज से भरा ट्रक को जबरन रोक लिया। महिलाओं ने अनाज की कुछ बाेरियां जबरन ट्रकाें से उतार भी लिया।
अनाज हंशापत्थर गांव के जन वितरण प्रणाली के डीलर के यहां ले जाया जा रहा था। हालांकि इस बीच शिकारीपाड़ा थाना प्रभारी वकार हुसैन और अंचलाधिकारी अमृता कुमारी काे मामले की जानकारी मिली, ताे वे तत्काल सदल बल घटनास्थल पर पहुचे। उन्हाेंने आक्रोशित महिलाओं को समझा-बुझाकर शांत कराया और महिलाओं द्वारा ट्रक से उतारे गए अनाज को पुनः वापस ट्रक पर लोड करवा कर रवाना किया गया।
आक्रोशित महिलाओं ने अंचलाधिकारी और थाना प्रभारी काे अपनी व्यथा सुनायी। धना मरांडी व किरण टूडू ने अंचलाधिकारी को अपना दुखड़ा सुनाते हुए कहा कि सरकार की ओर से आपदा राहत कोष में जो फंड दिया गया है, उससे भी आज तक उनलोगों को चावल नहीं नसीब हुआ है।

इस घटना को देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि  झारखंड सरकार के द्वारा जारी किये गये झारखंड कोविड-19 रिपोर्ट कार्ड के दावे जमीनी हकीकत से कोसों दूर हैं। झारखंड सरकार की योजनाएं गांवों तक पहुंच ही नहीं पा रही है। प्रतिदिन भिन्न-भिन्न इलाकों से यह भी खबर आ रही है कि डीलर राशन नहीं दे रहा है। कहीं राशन दे रहा है, तो कम दे रहा है। कई जगहों पर मुख्यमंत्री दाल-भात केन्द्र के अचानक बंद होने की बात भी सामने आ रही है। कहीं-कहीं मामला हाइलाइट हो जाने के कारण प्रशासन को एक्शन भी लेना पड़ा है, कई डीलरों के लाइसेंस भी कैंसिल हुए हैं।

लाॅकडाउन के दौरान झारखंड में जारी है भूख से मौत

लाॅकडाउन के दौरान झारखंड में 'भूख' से मौतों का सिलसिला भी जारी है, लेकिन प्रत्येक बार भूख से हुई मौत (मृतक के परिजनों के द्वारा कहा गया भूख से मौत) को शासन-प्रशासन नकार दे रही है। 
रामगढ़ जिला के गोला प्रखंड अंतर्गत संग्रामपुर गांव में 1 अप्रैल को 72 वर्षीय उपासी देवी की मौत हो गई, उनके पुत्र जोगन नायक का कहना था कि मेरी माँ की मौत भूख से हुई है। लेकिन प्रशासन ने इसे नकार दिया। मालूम हो कि इस वृद्ध महिला का राशन कार्ड रद्द हो गया था, जिस कारण इसे राशन भी नहीं मिला था। इन्होंने अंतिम बार अपना राशन मई 2017 में ही उठाया था।
गढ़वा जिला के भण्डरिया प्रखंड के कुरून गांव में 2 अप्रैल को लगभग 70 वर्षीय सोमारिया देवी की मृत्यु हो गई, इनके पति लच्छू लोहरा का कहना था कि मेरी पत्नी की मौत भूख से हुई है। लेकिन प्रशासन ने इसे भी नकार दिया। 
सरायकेला-खरसावां जिला के चौका थानान्तर्गत पदोडीह निवासी 51 वर्षीय मजदूर शिवचरण की मौत 20 अप्रैल को हो गई, इनके परिजनों का कहना था कि लाॅकडाउन के कारण इनको काम नहीं मिल रहा था और ये बेरोजगार हो गये थे। इनका राशन कार्ड भी महिला विकास समिति, गुंजाडीह की संचालिका ने रख लिया था और राशन कार्ड देने के एवज में इनसे पैसा मांगा जा रहा था। फलस्वरूप इन्हें राशन भी नहीं मिल सका और इनकी मौत भूख से हो गई। लेकिन अन्य जगहों की तरह ही इसे भी शासन-प्रशासन ने नकार दिया।

अब सवाल उठता है कि आखिर कब तक लोग अपनी भूख को दबाकर घर में पड़े रहेंगे ? कोरोना के बदले भूख से ही वे दम तोड़ रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में दुमका की महिलाओं ने अनाज से भरे ट्रकों को लूटने की कोशिश करके आने वाले समय की दस्तक दे दी है। बांग्लादेश के कवि रफीक आजाद की कविता 'भात दे हरामजादे' के जरिए आप झारखंड के भूख से पीड़ित लोगों की स्थिति को समझ सकते हैं....


बहुत भूखा हूँ, पेट के भीतर लगी है आग, शरीर की समस्त क्रियाओं से ऊपर
अनुभूत हो रही है हर क्षण सर्वग्रासी भूख, अनावृष्टि जिस तरह
चैत के खेतों में, फैलाती है तपन
उसी तरह भूख की ज्वाला से, जल रही है देह

दोनों शाम, दो मुट्ठी मिले भात तो
और माँग नहीं है, लोग तो बहुत कुछ माँग रहे हैं
बाड़ी, गाड़ी, पैसा किसी को चाहिए यश,
मेरी माँग बहुत छोटी है

जल रहा है पेट, मुझे भात चाहिए
ठण्डा हो या गरम, महीन हो या मोटा
राशन का लाल चावल, वह भी चलेगा
थाल भरकर चाहिए, दोनों शाम दो मुट्ठी मिले तो
छोड़ सकता हूँ अन्य सभी माँगें

अतिरिक्त लोभ नहीं है, यौन क्षुधा भी नहीं है
नहीं चाहिए, नाभि के नीचे की साड़ी
साड़ी में लिपटी गुड़िया, जिसे चाहिए उसे दे दो
याद रखो, मुझे उसकी ज़रूरत नहीं है

नहीं मिटा सकते यदि मेरी यह छोटी माँग, तो तुम्हारे सम्पूर्ण राज्य में
मचा दूँगा उथल-पुथल, भूखों के लिए नहीं होते हित-अहित, न्याय-अन्याय

सामने जो कुछ मिलेगा, निगलता चला जाऊँगा निर्विचार
कुछ भी नहीं छोड़ूँगा शेष, यदि तुम भी मिल गए सामने
राक्षसी मेरी भूख के लिए, बन जाओगे उपादेय आहार

सर्वग्रासी हो उठे यदि सामान्य भूख, तो परिणाम भयावह होते है याद रखना

दृश्य से द्रष्टा तक की धारावाहिकता को खाने के बाद
क्रमश: खाऊँगा,पेड़-पौधे, नदी-नाले
गाँव-कस्बे, फुटपाथ-रास्ते, पथचारी, नितम्ब-प्रधान नारी
झण्डे के साथ खाद्यमन्त्री, मन्त्री की गाड़ी

मेरी भूख की ज्वाला से कोई नहीं बचेगा,
भात दे, हरामज़ादे ! नहीं तो खा जाऊँगा तेरा मानचित्र

Tuesday 21 April 2020

लेनिन की १५० वी जयन्ती [२२ अप्रैल]

लेनिन पर 'ब्रेख्त' की लिखी मशहूर कविता 


अपराजेय अभिलेख

युद्ध काल में
इटली के सांकार्लो के जेल की एक कालकोठरी में
जहां भरे हुए थे सिपाही, शराबी और चोर.
एक समाजवादी सिपाही ने
अपनी अमिट  लेखनी से
दीवार पर अंकित कर दिया
लेनिन ज़िंदाबाद!
आधी अंधियारी उस कालकोठरी में
ऊपर
उसने बड़े अक्षरों में लिखा
लेनिन ज़िंदाबाद!
जब जेलरों  ने उसे देखा
उन्होंने चूने भरी बाल्टी और
एक लंबे  ब्रश के साथ
एक पुताई करने वाले को भेजा.
जिससे वह दीवार पोत दी जाए.
पुताई के बाद
उस दीवार पर सफेद रंग में
उभर आया
लेनिन ज़िंदाबाद!
एक दूसरे रंग साज़ ने
एक चौड़े ब्रश से उस पर रंग पोता
जिससे कुछ घंटों के लिए वह अभिलेख मिट गया.
लेकिन जैसे ही चूना सूखा
उसके नीचे का अभिलेख फिर उभर उट्ठा
लेनिन ज़िंदाबाद!
तब जेलर ने
छेनी के साथ वहां एक राजगीर को भेजा.
उसने घंटे भर में
आखर दर आखर
अभिलेख खुरच दिया.
और जब वह काम खत्म करके हटा, तो
अब रंग हीन लेकिन दीवार के ठीक ऊपर
और भी गहराई से तराशा हुआ था
एक अपराजेय अभिलेख
लेनिन ज़िंदाबाद!

अनुवाद--अमिता शीरीन

लॉकडाउन की हिंसा और शाहीनबाग के सबक- सीमा आज़ाद

22 मार्च के पहले लॉक डाउन में कुछ समय के लिए जब मैं बाहर निकली थी, तो सड़कें एकदम खाली थीं। कुछ सेकेण्ड्स तक आदतन ऐसे माहौल से डरने के बाद खाली सड़कें अच्छी लगने लगीं। अधिक से अधिक 10 मिनट में मैं अपने गंतव्य तक पहुंच गयी, लेकिन घर के अन्दर जाने का मन नहीं कर रहा था। मन हो रहा था कि कुछ और लड़कियों को फोन कर सड़क पर बुला लूं और पितृसत्तात्मक आंखें, कमेण्ट्स, क्रियाओं से मुक्त सड़क को सबके साथ मिलकर एन्जॉय करूं। मन में आया कि कभी-कभी ऐसा भी होना चाहिए कि किसी एक खास दिन लड़कों का घर से बाहर निकलना मना हो, और लड़कियां बेफिक्र होकर सड़कों पर घूम सकें। इसके दो दिन बाद ही कोरोना का लम्बा लॉकडाउन शुरू हो गया। इस लॉकडाउन का सप्ताह भी पूरा नहीं हुआ कि खबरें आने लगीं कि कोरोना लॉकडाउन में भारत सहित पूरी दुनिया में महिलाओं पर होने वाली हिंसा में इजाफा हो रहा है। ये खबरें पढ़कर 22 मार्च का दिन याद आया और समझ में आने लगा, कि ये पितृसत्तात्मक आंखें, कमेण्ट्स, क्रियाऐं तो अब घरों के अन्दर कैद हैं। उन घरों के अन्दर जिनके ये स्वामी और मालिक हैं। पितृसत्तात्मक घर एक जेल है, जिसके ये जेलर हैं। इस नयी स्थिति में अपने कैदियों पर उनका प्रदर्शन घनीभूत हो उठा है। सड़कें इनसे मुक्त हैं और घर आबाद। घर तो छोड़िये, अस्पतालों के क्वारंटाइन सेण्टर तक भी पितृसत्तात्मक यौन हिंसा की पहुंच हो चुकी है।

सिर्फ एक महीना पहले ही देश भर में संशोधित नागरिकता कानून सीएए के खिलाफ आन्दोलन चल रहे थे। और यह इससे जुड़ा महत्वपूर्ण तथ्य है कि  आन्दोलन से जुड़े हर स्थल, सभी ‘बाग’ पितृसत्तात्मक अभिव्यक्तियों, नज़रों और हिंसा से  मुक्त थे। औरतें इन क्षेत्रों और इनके आस-पास के रास्तों पर रात-बिरात आराम से बिना डरे आना-जाना कर रहीं थीं, अपनी निजी सवारियों से भी और सार्वजनिक साधनों से भी। सभी का यह अनुभव था, कि आन्दोलन के कारण डर का माहौल इन क्षेत्रों में नही है। लेकिन कोरोना लॉकडाउन ने न इन सिर्फ आन्दोलनों का दमन किया, पितृसत्ता के डगमगाते पांवों को फिर से मजबूत करने का काम भी किया है। लॉकडाउन के दौरान घरों में होने वाली हिंसा सिर्फ घर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि घर-घर में पैर जमाती पितृसत्ता पूरे समाज में खुद को मजबूत कर रही है। जिस 22 मार्च को मैं पितृसत्ता से मुक्त सड़कों को एन्जॉय कर रही थी, उसी वक्त से यह घरों के अन्दर अपने पैर पसार रही थी।
शाहीनबाग सहित देश भर में महिलाओं के आन्दोलन और लॉकडाउन का अनुभव दोनों ये बताते हैं, कि घर के अन्दर अकेली महिला पितृसत्तात्मक दमन का अधिक शिकार होती हैं, जबकि घर के बाहर सार्वजनिक जीवन में उनकी एकजुटता इस दमन को पीछे ढकेलने का काम करती हैं। इसलिए लॉकडाउन में घरेलू हिंसा बढ़ने की खबर सुनकर स्वाभाविक ही एक महीना पहले तक चल रहे महिलाओं के इस आन्दोलन की याद आ गयी, जिसने पूरे देश के माहौल को बदल दिया था।
पिछले साल के अन्त में शाहीनबाग में शुरू हुआ आन्दोलन सिर्फ नागरिकता कानून के विरोध के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं था, बल्कि यह आन्दोलन भारत के महिला आन्दोलन के इतिहास की एक बड़ी परिघटना है, जिसे हम सबको देखने-सुनने-समझने का मौका मिला। बेशक यह आन्दोलन बिना किसी नतीजे पर पहुंचे ‘फिलहाल’ स्थगित है, लेकिन इसने वास्तव में समाज को जो दिया, उस लिहाज से ये आन्दोलन बेनतीजा कतई नहीं रहा। आज जबकि महिलाओं पर हिंसा बढने की खबर विश्वव्यापी हो चुकी है, इसके इन नतीजों पर चर्चा करना बेहद जरूरी है।
सबसे पहली बात तो ये कि किसी आन्दोलन में इतने बड़े पैमाने पर महिलाओं का शामिल होना और उसे नेतृत्व देना एक ऐतिहासिक घटना है। जिस पीढ़ी ने 60-70 के दशक से लेकर आज तक का समय देखा है उन सबका कहना है कि उन्होंने ऐसा देशव्यापी आन्दोलन इसके पहले कभी नहीं देखा था। इस आन्दोलन में महिलाओं के इतनी बड़ी संख्या में सड़क पर होने के अलावा इस आन्दोलन ने समाज में उथल-पुथल मचाने का काम भी किया है, और यदि यह लॉक डाउन नहीं आया होता, तो यह उथल-पुथल सतह पर आने में ज्यादा वक्त न लगता।
इस आन्दोलन ने महिलाओं और महिलाओं में भी सबसे दबी-कुचली मानी जाने वाली मुस्लिम महिलाओं के प्रति समाज में बनी धारणा को तोड़ दिया है। यह ऐसा आन्दोलन था, जिसे सबसे ज्यादा पर्दानशीं मानी जाने वाली औरतों ने शुरू किया और जारी रखा। इसने समाज में बोले जाने वाले पितृसत्तात्मक मुहावरों को खण्डित कर दिया, क्योंकि ढेरों ‘चूड़ीवालियां’ ‘पर्दे वालियां’, ‘साड़ी वालियां’ सड़कों पर उतर चुकी थी, और मर्दवादी सत्ता को चुनौती दे रही थी। इसी से बौखलाकर मर्दवादी सत्ता के एक नुमाइंदे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय बिष्ट की पहली प्रतिक्रिया थी कि-‘‘मर्द खुद कम्बल ओढ़कर सो रहे हैं और औरतों को रात में सड़क पर आन्दोलन के लिए छोड़ दिया है।’’ इस आन्दोलन ने इस धारणा को झुठला दिया कि ‘औरत औरत की दुश्मन है। बल्कि इसने इस बात को स्थापित किया कि औरतों का भी आदमियों की तरह वर्गीय, जातीय और धार्मिक चरित्र होता है, इसी आधार पर उनकी भी दोस्ती और दुश्मनी बनती हैं। दुश्मनी की बात को झुठलाते हुए जिस एकजुटता के साथ महिलाओं ने इस आन्दोलन को चलाया है, वह अपने आप में एक मिसाल है।
इस आन्दोलन ने समाज में व्याप्त इस धारणा को तोड़ा कि औरतें, उसमें भी मुस्लिम औरतें बेहद कम पढ़ी-लिखीं और पिछड़ी होती हैं। पितृसत्तात्मक समाज ने आंखें फाड़कर देखा कि धरनास्थल पर आने वाली हर महिला राजनैतिक चेतना से लैस थी और गोदी मीडिया के किसी भी सवाल का जवाब देने के लिए सक्षम थीं। ‘आज तक’ की रिपोर्टर अंजना ओम कश्यप को महिलाओं के दिये गये बौद्धिक जवाबों से अपने सवालों पर शर्मिंदा होना पड़ा। धरने पर बैठीं मुस्लिम औरतें पढ़ी-लिखी भी हो सकती हैं, यह किसी के जहन में ही नहीं था। लोगों ने देखा कि ये धारणा भी गलत है। और निश्चित ही राजनीतिक सोच से आन्दोलनों की शुरूआत होती है, लेकिन आन्दोलन भी पलटकर लोगों को राजनीतिक चेतना से लैस करते हैं। इसे हम सबने दो महीने तक चले इस आन्दोलन में भलीभांति देखा।
शाहीन बाग की हर महिला राजनीति के साथ कला और संस्कृति की चेतना से भी लैस दिखी, उनके पास हर मौके के लिए शेरो-शायरी और जवाब देने का कलात्मक अंदाज था। इन आन्दोलनों ने समाज को बेहतरीन अभिव्यक्तियां दी-
‘भगत सिंह का जज़्बा, अशफाक का तेवर, बिस्मिल का रंग हूं,
ऐ हुकूमत नज़र मिला मुझसे, मैं शाहीनबाग हूं।

या
तुुम ज़मी पर ज़ुल्म लिखो
आसमां पर इंक़लाब लिखा जायेगा
सब याद रखा जायेगा।

उनका यह रूप देख कर देश का बुद्धिजीवी वर्ग भी आश्चर्यचकित था। और कई बार तो ऐसा भी दिखा कि ये महिलायें उनसे आगे चल रही हैं और वे उनके बहुत पीछे। इन महिलाओं को स्वेटर बुनने का सुझाव देना इसी बात का एक नमूना था। कई आन्दोलन स्थलों पर इन महिलाओं ने बुद्धिजीवियों को सरल-सीधे सटीक और सुन्दर तरीके से बात रखने का तरीका सिखाया, उन्होंने हमेशा याद रखे जाने वाले लैंगिक भेद-भाव से मुक्त नये नारे गढ़े। वास्तव में इस आन्दोलन ने साम्प्रदायिक, जातीय और लैंगिक तीनों तरीके के पूर्वाग्रहों को तोड़ने में मदद की। वास्तव में यह अपने तरह की एक ‘सांस्कृतिक क्रांति’ ही थी।

इस आन्दोलन ने पार्टियों-संगठनों के बंधे-बंधाये ढर्रे पर सोचने चलने वाले ढेरों गढ़ों-मठों को ढहाने का काम किया है। देश के कम्युनिस्ट और जनवादी आन्दोलनों के लोगों-पार्टियों को इसने यह संन्देश दिया है कि ‘महिला नही तो क्रांति नहीं’। वे खुद महिलाओं की इतनी बड़ी तादाद सड़कों पर देखकर हतप्रभ थे। इसके साथ ही महिला आन्दोलन को भी इस आन्दोलन ने यह सन्देश दिया है कि ‘क्रांति नहीं, तो महिला मुक्ति नहीं’। यानि राजनीतिक मुद्दों से अलग-थलग सिर्फ महिलाओं के शोषण का सवाल उठा कर महिलाओं की मुक्ति की बात सोचना अवैज्ञानिक है। स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ चले इस आन्दोलन ने एक बार फिर इस बात को स्थापित कर दिया है, और सभी को आत्मसात करने के लिए मजबूर कर दिया है कि ‘‘महिला नही ंतो, क्रांति नहीं, क्रांति नही ंतो महिला मुक्ति नहीं’।
सिर्फ इतना भर नहीं, इस आन्दोलन ने न सिर्फ महिलाओं का नेतृत्व पैदा किया, बल्कि इस बात को इस पितृसत्तात्मक समाज में अच्छे से स्थापित भी किया है कि नेतृत्व देने का काम महिलायें भी कर सकती हैं। इसने यह भी दिखाया है कि महिलाओं के नेतृत्व में चलने वाला आन्दोलन सृजनात्मकता, नवीनता और ताजगी से भरा हुआ होता है।
देश कई हिस्सों में चलने वाले इस आन्दोलन का असर सिर्फ समाज पर नहीं, बल्कि समाज की सबसे छोटी इकाई घरों पर भी बहुत अधिक हुआ है। इसमें शामिल महिलाओं के घरों में बहुत कुछ बदलने की शुरूआत हो गयी थी। महिलायें आन्दोलन में जायें इसके लिए मुस्लिम समाज के पुरूष उन्हें प्रोत्साहित कर रहे थे। थोड़ा शर्माते, झिझकते घर के काम में उनकी मदद भी कर दे रहे थे, जो कुछ नहीं कर रहे थे वे खाने-पीने में नखरे नहीं कर रहे थे। पहले पुरूष बाहर से घर लौटने के बाद बाहर के कुछ किस्से घर की औरतों को सुना दिया करते थे। अब पुरूष धरनास्थल से लौटी महिलाओं से वहां के किस्से सुनने के लिए लालायित रहते थे। पति-पत्नी, मां-बेटे, भाई-बहन, पिता-बेटी से दोस्ती का कारण बन रहा था यह आन्दोलन। धरना स्थल पर सुनाने के लिए लड़कियों की डायरियों के अन्दर फंसे मुक्ति गीत पंख फैलाकर उड़ान भरने लगे थे। बच्चों ने फैज़ की रचना को याद करने के क्रम में उन्हें घरों का हिस्सा बना दिया। अपनी ही जनता की नागरिकता को नकारने और अ-नागरिकों की नागरिकता को स्वीकृति देने वाली साम्प्रदायिक सरकार के खिलाफ राजनीतिक बहसें इसलिए ही तेज हो सकी, क्योंकि महिलायें और बच्चे भी इसके हिस्से बन गये थे। घरों के इस नये स्वरूप ने ही आन्दोलन को इतना व्यापक और जुझारू बनाया। इसलिए किसी भी आन्दोलन का परिणाम ही सब कुछ नहीं होता, आन्दोलन का हिस्सा होने भर से बहुत कुछ बदलने लगता है। इसमें खासतौर से महिलाओं के शामिल होने भर से घर और समाज की सामंती-पितृसत्तात्मक बेड़िया टूटने लगती हैं और जनवादीकरण की शुरूआत हो जाती है। शाहीनबाग से प्रेरित नागरिकता संशोधन कानून के आन्दोलनों ने समाज की इस प्रक्रिया को तेज कर दिया था। इन आन्दोलनों के कारण समाज में न दिखने वाली एक हलचल की शुरूआत हो गयी थी, जिसे अचानक आये इस लॉकडाउन से अचानक एक ब्रेक लग गया है। यह लॉकडाउन महिलाओं के आन्दोलन से हासिल इन उपलब्धियों को स्थापित करने में नकारात्मक साबित हो रहा है। घरों में कैद और सिमटी औरत हर तरीके से अधिक अकेली होती है, इसलिए मौखिक और शारीरिक हिंसा झेलने के लिए अभिशप्त होती है। इससे उलट सार्वजनिक जीवन में आने से, खास तौर आन्दोलन की ज्मीन पर खड़ी होने भर से वह सशक्त हो जाती है, इसे हम सबने इस आन्दोलन के दौरान गहराई से महसूस किया। लॉकडाउन की हिंसा आन्दोलन में शामिल महिलाओं के लिए और भी यातनादायी है, क्योंकि उसकी चेतना का स्तर अब पहले से अधिक है।
लेकिन यह वैज्ञानिक नियम है, कि इतिहास में एक बार जो घटना घटित हो जाती है, उसके परिणाम को किसी भी तरीके से खत्म नहीे किया जा सकता। इसलिए नागरिकता आन्दोलन के परिणाम भी अवश्य होंगे। लॉकडाउन इसके परिणामों पर ढक्कन रखने का काम कर सकता है, लेकिन इसे पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता।
नागरिकता आन्दोलन ने समाज को बेहद सकारात्मक चीजें दी हैं, इसे पहचानने और जिन्दा रखने का काम सभी जनवादी शक्तियों को करना हैं, वरना सामंती शक्तियों का तो काम ही है आगे बढ़े हुए पहिये की पीछे ढकेलना। शाहीनबाग और इससे प्रेरित महिलाओं के सभी आन्दोलनों ने जो कुछ भी समाज को दिया है उसका असर खत्म नहीे हो सकता।

Sunday 19 April 2020

कोरोना संकट के समय पूंजीवाद आपदा है और वैश्वीकरण पर प्रश्नचिह्न है--भवेश दिलशाद


आपदा के समय ग़रीबों के लिए सरकारें चंदे मांगा करती हैं, मध्यम वर्ग सहानुभूतिवश चंदे देता है जबकि पूंजीवादी वर्ग सरकारों की मिलीभगत से मुनाफ़े की रणनीतियों में मुब्तिला रहता है. पूंजीवाद के प्रभाव में लोकतंत्र के पीछे एक परजीवी व्यवस्था बनती है, जो पहले ग़रीब, फिर मध्यम वर्ग का ख़ून चूसकर ख़ुद को पोसती है. डैमेज कोलैटरल ही क्यों होता है, बायलैटरल क्यों नहीं? नोवेल कोरोना वायरस (Novel Corona Virus) वैश्विक आपदा के समय पूंजीवाद फिर एक आपदा के रूप में उभर रहा है.

रोम जलने की आपदा के समय नीरो को अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए लाख कोशिशें करना पड़ी थीं. अस्ल में, आपदाएं शासकों के लिए बेहद खतरनाक समय साबित होती रही हैं. 'शासकों' शब्द पर ग़ौर किया जाना चाहिए. यदि लोकतंत्र की इस सदी में आप वाक़ई नेता होते, तो हालात शायद कुछ और होते, लेकिन लोकतंत्र के लबादे के पीछे जो सच है, वह शासन की मानसिकता ही है और सत्ता और पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक हैं.

वर्तमान आपदा इस मुद्दे को आगे ले जाती है: पूंजीवाद आधारित वैश्वीकरण जैविक रूप से इस समय में निराधार साबित हो रहा है, जबकि लोक स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना को लेकर कोई पुख्ता अंतर्राष्ट्रीय नीति है ही नहीं. साथ ही, विचारणीय यह है कि क्या ऐसी कोई संरचना तब तक संभव नहीं है, जब तक फार्मा उद्योग और गैर लाभकारी स्वास्थ्य सेवाओं के बीच के संघर्ष को जन आंदोलन का रूप नहीं मिलता!1

वास्तविक आपदा तो पूंजीवाद है

जन आंदोलनों का अभाव तो चिंता का विषय है ही, बड़ी चिंता यह है कि लोक तक यह सच विश्वसनीय ढंग से पहुंचा ही नहीं है कि कोई महामारी, कोई तूफान, कोई भूकंप आदि वास्तविक आपदाएं नहीं हैं, बल्कि इस दुनिया की सबसे बड़ी आपदा पूंजीवादी व्यवस्था है, जो मनुष्य निर्मित एवं पोषित है. 2007 में प्रकाशित किताब द शॉक डॉक्टरिन में लेखिका नाओमी क्लीन ने 'डिज़ास्टर कैपिटलिज़्म' का मतलब 'प्राकृतिक हो या मानवनिर्मित, हर आपदा के बाद ज़्यादा से ज़्यादा निजी स्वार्थों और मुनाफ़े संचित करने की राजनीतिक प्रवृत्ति' के रूप में समझाया था. 'शॉक डॉक्टरिन' का अर्थ उस राजनीतिक रणनीति से है, जो बड़े पैमाने के संकट का इस्तेमाल ऐसी नीतियां थोपने में करती है जिससे संभ्रांतों का फायदा और बाकी सब का घाटा होता है यानी व्यवस्थित ढंग से असमानता की खाई गहरी होती है.
 
 पठनीय ताज़ा साक्षात्कार में नाओमी ने साफ कहा कि इस दौर में 'डिज़ास्टर कैपिटलिज़्म' दिखने की शुरूआत हो चुकी है. कोविड 19 के संदर्भ में, डॉनाल्ड ट्रंप ने उद्योगों को राहत के लिए 700 अरब डॉलर का स्टिम्यूलस पैकेज* प्रस्तावित कर दिया है.2 सिर्फ़ अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम पूंजीवाद देशों में इस तरह की घोषणाएं सामने आ रही हैं. गार्जियन की एक रिपोर्ट की मानें तो अर्थव्यवस्थाओं के नाम पर यूरोपीय देशों ने राहत पैकेज के तौर पर सम्मिलित रूप से 1.6 ट्रिलियन यूरो की राशि की घोषणा मार्च यानी यूरोप में कोविड 19 के शुरूआती संकट के दौर तक ही कर दी थी. इनमें से ज़्यादातर रकम उद्योगों के खाते में ही जाएगी.

पूंजीवाद और सरकारें एक दूसरे की पूरक हैं. 2005 का कैटरीना तूफान रहा हो या 2001 का ट्रेड टावर हमला, बड़े संकटों के बाद हुआ यही कि बड़े कारोबार पहले से ज़्यादा मज़बूत स्थिति में देखे गये और संकटों की मार आम लोगों के हिस्से में आयी. नॉवेल कोरोना वायरस के संकट के समय पूंजीवादी ताकतों और आम लोगों की स्थिति देखने के लिए कुछ बिंदुओं पर ग़ौर करें :

पूंजीवादी ताक़तों का खेल

1. विकसित देशों में स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए सरकारें निजी स्वास्थ्य क्षेत्र से कई तरह के साधन किराये पर ले रही हैं. यूरोप के एक देश में बिस्तर किराये पर लेने के लिए सरकार 24 लाख यूरो प्रतिदिन तक खर्च कर रही है.
2. संकट से मची अफ़रातफ़री के बीच लोग ज़रूरी सामान की खरीदारी ज़्यादा कर रहे हैं ताकि अगले कुछ समय के लिए उनके पास भंडारण हो. इसके चलते, क्रिसमस की तुलना में सुपरमार्केट की बिक्री 33 फीसदी तक बढ़ी है और कई जगह चीज़ों के दाम भी बढ़ा दिये गये हैं.
3. फार्मा कंपनियों के लिए तो जैसे यह मुनाफ़े का स्वर्णिम समय बन गया है. ट्रंप ने लगातार मलेरिया की एक दवा की जो वक़ालत की, उसके चलते वो फार्मा कंपनियां भी इस दवा का उत्पादन कर रही हैं, जो पहले नहीं करती थीं.3
4. ट्रंप और ट्रंप से जुड़े लोगों के उन फार्मा कंपनियों में निवेश सामने आ रहे हैं, जो प्रचारित मलेरिया ड्रग का उत्पादन करती रही हैं. चुनाव संबंधी कई आरोपों में दोषी पाये जाने के बाद जेल में बंद ट्रंप के पूर्व 'फिक्सर' कहे जाने वाले वकील माइकल कोहेन ने एक स्विस कंपनी नोवार्टिस के साथ कई मिलियन डॉलर की डील की है, जो दुनिया में प्रचारित मलेरिया ड्रग Hydroxychloroquine की सबसे बड़ी उत्पादक है.4

आम लोगों के हालात

1. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड 19 वैश्विक महामारी के चलते हुए लॉकडाउन के कारण दुनिया भर में 2.7 अरब वर्कर्स प्रभावित होंगे. इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 40 करोड़ कामगार गरीबी की गर्त में जा सकते हैं.5
2. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड 19 के इलाज के लिए खोजी गयी जिस दवा के प्रयोग को लेकर सिफारिश की थी, उसके बारे में फ्रांस के चिकित्सा विशेषज्ञों ने कहा कि इस दवाई का प्रयोग अफ्रीकी देशों में किया जाये, जिसे संगठन समेत कई संस्थाओं ने नस्लवादी सोच करार दिया.6
3. निम्न आय समूह वाले 23 अफ्रीकी देशों में पहले ही विषाणुजनित रोग चेचक या खसरा महामारी के रूप में फैला हुआ है, जिसके लिए टीकाकरण अभियान ज़ोरों पर है. लेकिन कोविड 19 के संकट के चलते कई स्वास्थ्य सेवाएं टाल दी गई हैं, जिससे तक़रीबन 8 करोड़ बच्चों को समय पर टीके नहीं लग सकेंगे. यानी ये देश दो विषाणुओं का खतरा एक साथ झेलने पर मजबूर हैं.7
4. अमेरिका में अश्वेतों पर कोविड 19 का खतरा ज़्यादा है. क्यों? अश्वेत अमेरिकी पहले ही स्वास्थ्य समस्याओं से ज़्यादा ग्रस्त हैं, स्वास्थ्य सेवाएं इन्हें कम मिलती हैं और इनकी बड़ी आबादी अस्थिर रोज़गार में मुब्तिला है.8
5. पिछड़े और भारत जैसे विकासशील देशों में मास्क, सैनिटाइज़र, टेस्ट किट्स, चिकित्सा उपकरणों, राशन जैसी ज़रूरी चीज़ों की कालाबाज़ारी या स्टॉक खत्म होने जैसी समस्याएं खबरों में हफ्तों से बनी हुई हैं. साथ ही, कोरोना वायरस संकट से निपटने के लिए मरीज़ों को कई तरह की अप्रामाणिक दवाएं दी जा रही हैं, जिनके दुष्परिणाम समय के साथ सामने आएंगे.

कोलैटरल डैमेज का विरोध

मौजूदा आपदा और पूंजीवाद के संबंध में मार्क्सिस्ट डॉट कॉम के लेख में कहा गया है कि पूंजीवाद अपनी संरचना में ही एक विनाशकारी, लाभ संचालित और निर्दयी व्यवस्था है. यह किसी और ढंग से बर्ताव नहीं कर सकती. बड़े कारोबार त्रासदी से मुनाफ़े निकालते हैं क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में लोच नहीं, ज़िद है. अगर व्यापार की दुनिया यह तय करे कि मुनाफ़े से पहले मानवता को तरजीह दी जाएगी, तो वह ढह जाएगी. ऐसे में, किसी आपदा के समय में सरकार के लिए पूंजीवाद के बेहतर विकल्पों को चुनना संभव नहीं होता.

सरकारें और पूंजीवादी व्यवस्था अस्ल में, 'कोलैटरल डैमेज' के सूत्र में अपने अत्याचारों को छुपाने की कोशिश करता है. किसी त्रासदी में निम्न या वंचित वर्ग के अधिकारों के सवाल जब खड़े होते हैं तो सिस्टम कुदरती कहर के नाम पर दबाने का एक षड्यंत्र रचता है. इस मानसिकता और साज़िशी सोच पर प्रश्नचिह्न खड़े करने का समय है और अब यह आवाज़ उठायी जाना चाहिए कि अगर होगा तो 'बायलैटरल डैमेज', अन्यथा एक वर्ग को बलि का बकरा बनाने नहीं दिया जाएगा.

पूंजीवाद बनाम समाजवाद

'कोरोना वायरस : नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर की महामारी' शीर्षक लेख से आह्वान पत्रिका में छपे लेख में कहा गया है कि कोरोना महामारी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि विज्ञान की चमत्कारिक तरक़्क़ी के बावजूद पूंजीवाद आज समाज की बीमारियों को दूर करने की बजाय नयी बीमारियों के फैलने की ज़मीन पैदा कर रहा है. ऐसी महामारियों से निपटने के लिए भी पूंजीवाद को नष्ट करके समाजवादी समाज का निर्माण आज मनुष्यता की ज़रूरत बन गया है.

वैश्विक महामारी के संदर्भ में, वास्तव में समाजवादी हर बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य की त्वरित आवश्यकता पर दूसरों का ध्यान ज़रूर ले जाते हैं लेकिन समस्या यह है कि नयी नस्ल विकास के वामपंथी सिद्धांत और राजनीतिक विमर्श में 'समाजवाद' के विचार की तरफ आये, बजाय इसकी चिंता करने के प्रगतिशील आंदोलनों को लेकर एक किस्म का अहंमात्रवाद दिखायी देता है.9

पूंजीवाद के बरक़्स समाजवादी व्यवस्था की ज़रूरत की पुरज़ोर वक़ालत 'प्लैनेट ऑफ स्लम्स' और 'सिटी ऑफ क्वार्ट्ज़' जैसी किताबों के लेखक मार्क डेविस ने अपने लेख में की है. मार्क के अनुसार समाजवाद को अगले कदम उठाते हुए स्वास्थ्य सुरक्षा और फार्मा उद्योग को लक्ष्य करते हुए, आर्थिक शक्तियों के लोकतंत्रीकरण और सामाजिक स्वामित्व की वक़ालत करने की बात कही है.10

समाजवाद' के मानवीय मूल्यों की ताज़ा कहानी_11

एक ट्रांसअटलांटिक क्रूज़ जहाज़ एमएस ब्रेमार 682 यात्रियों को लेकर यूके से कूच करता है. रास्ते में जांच में पता चलता है कि इस जहाज़ पर सवाल पांच यात्री कोरोना वायरस से संक्रमित हैं और कुछ दर्जन अन्य यात्रियों और क्रू सदस्यों में फ्लू जैसे लक्षण हैं. अब होता ये है कि कैरेबियाई रास्त में आ रहे कई बंदरगाहों पर इस जहाज़ को रुकने नहीं दिया जाता और झिड़क दिया जाता है. ब्रितानी सरकार अमेरिका से मदद मांगती है कि ब्रेमार को एक उपयुक्त बंदरगाह दिया जाये.

अमेरिका की प्रतिक्रिया एक अज्ञात डर से जूझ रही वाकपटु नेतृत्व की प्रतिक्रिया साबित होती है और समस्या को 'चीनी वायरस' कहकर अमेरिका पल्ला झाड़ लेता है. ब्रितानी सरकार क्यूबा से भी साथ में मदद मांग चुकी होती है और क्यूबा हाथ बढ़ाता है. मानवीय संकटों के समय में पहले भी कई देशों की मदद कर चुका क्यूबा इस जहाज़ को शरण देता है. क्यूबा में जब कोविड 19 के कुल 10 केस होते हैं, ऐसे में यह देश मानवीय आधार पर विलायती मरीज़ों को पनाह ही नहीं, बल्कि इलाज देता है.

लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्थाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की आज़ादी, बहुदलीय चुनाव और कार्यक्षेत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों आदि को तरजीह दी जाती है, लेकिन अब क्यूबा की स्थिति समाजवादी व्यवस्था के अनुरूप नहीं रह गयी है. यहां की व्यवस्था एकछत्र और निरंकुशता के इल्ज़ाम झेल रही है, लेकिन इतिहास और समाजशास्त्र के जानकारों की मानें तो यहां समाजवाद के कुछ बचे—खुचे निशान कभी कभार दिख जाते हैं. इस वैश्विक महामारी के समय में कुछ मिसालें दिख रही हैं. मसलन, क्यूबा के मेडिकल सिस्टम पर समाजवादी छाप है, जो सभी के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी देता है. दुनिया के 171 देशों में प्रति हज़ार व्यक्ति कितने डॉक्टर हैं; इस सूची में क्यूबा 8 डॉक्टरों के आंकड़े के साथ पहले नंबर पर है. जबकि 2.6 डॉक्टरों के साथ अमेरिका, 1.8 डॉक्टरों के साथ चीन और 4.1 डॉक्टरों के आंकड़े के साथ इटली जैसे देश क्यूबा जैसे गरीब देश से काफी पीछे हैं और कोरोना वायरस के संकट से बुरी तरह हिल चुके हैं.

इससे पहले भी समय समय पर क्यूबा ने बचे—खुचे समाजवादी मूल्यों की बानगी प्रस्तुत की है. 2010 के भूकंप के समय हैती, 2014 में इबोला वायरस के समय अफ्रीका और हाल में कोविड 19 आपदा के समय इटली तक में भी क्यूबा ने अपने विशेषज्ञ डॉक्टरों की फोर्स को मदद के लिए भेजा. मानवीय मूल्य क्यूबा के इतिहास में रहे हैं, जो किसी पूंजीवादी देश में सिर्फ़ सपने ही लगेंगे. वैश्विक संकट की घड़ी में क्यूबा तो समाजवादी मूल्यों का उदाहरण नहीं बनता, लेकिन यहां की कुछ घटनाओं से साबित ज़रूर होता है कि समाजवादी व्यवस्था में ही मानवीयता के आदर्श की संभावना ज़्यादा है.

संकट के बाद की दुनिया

एक वायरस या यूं कहें कि कुदरत के लिए और कुदरत के द्वारा सामने आये कुदरत के इस 'एंटी वायरस' ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की कमज़ोरियों को पूरी तरह उजागर कर दिया है. वैश्वीकरण के औचित्य पर सवाल खड़ा कर दिया है और आने वाले ख़तरों के लिए हमारी तैयारियों की पोल खोलकर रख दी है. यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर मैरियाना मैज़्ज़कैटो का मानना है कि इस वैश्विक महामारी के बाद पूंजीवादी समाज की तमाम खामियां सामने आएंगी इसलिए दुनिया भर में आर्थिक ढांचों पर नयी रोशनी पड़ेगी. साथ ही, अस्थिर अर्थव्यवस्था और असंगठित कामगारों के अधिकारों की तरफ देखने के नज़रिये में भी बदलाव आएगा.12

'वर्तमान संकट के समय में यह सच होता दिख रहा है कि हम एक-दूसरे के साथ उससे भी ज़्यादा अंतर्संबंधित हो गये हैं, जितने जुड़ाव का विश्वास हमारी क्रूर आर्थिक व्यवस्था को था.'- नाओमी क्लीन, लेखक

अंतत: इस सकारात्मकता के लिए दुआ की जानी चाहिए और उम्मीद की जाना चाहिए कि समाजवादी और प्रगतिशील विचार के समूह एकजुट होकर किसी ऐसे बदलाव की दिशा में प्रवृत्त होंगे, जो जन आंदोलनों की नींव पर प्रकृति और मानवता के हित में एक व्यवस्था खड़ी करने का पक्षधर है.

संदर्भ सूची_
1, 9, 10 - दि एसई टाइम्स पर माइक डेविस का लेख : The Coronavirus Crisis Is a MonsterFueled by Capitalism
2 - नाओमी क्लीन का इंटरव्यू : Coronavirus Is the Perfect Disaster for ‘DisasterCapitalism’
3 - Trump's Aggressive Advocacy of Malaria Drug for Treating Coronavirus DividesMedical Community
4 - Trump’s Former Lawyer Had Million-Dollar Contract With Hydroxychloroquine Maker
5 - 40Crore Indian Workers May Sink into Poverty Due to Covid-19, Says InternationalLabour Organisation
6 - WHOslams 'racist' calls by French medical experts to use Africa as COVID-19vaccine testing ground
7 - Whymeasles deaths are surging - and coronavirus could make it worse
8 - कोरोनावायरस: अमेरिका में क्यों ज़्यादा मारे जा रहे हैं अश्वेत? क्या है नस्लभेद?
11 - क्यूबा के मानवीय मूल्यों की कहानी : Cuba's Coronavirus Response Is Putting Other Countries To Shame
12 - मैरियाना मैज़्ज़कैटो का लेख : Coronavirus and capitalism: How will the virus change theway the world works?

*अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के लिए टैक्स और ब्याज दर कम करते हुए सरकार द्वारा दी जाने वाली मदद.
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*भवेश दिलशाद : संक्षिप्त परिचय*

क़ुदरत से शायर, फ़ितरत से स्वाध्यायी और पेशे से पत्रकार भवेश दिलशाद एकाधिक विधाओं में लेखन करते हैं. मूलत: भोपाल में शिक्षा एवं शुरूआती पत्रकारिता के बाद, देश के कई हिस्सों में पत्रकारिता के सिलसिले में रह चुके दिलशाद की रचनाएं पिछले करीब 20 सालों से हिंदी के प्रमुख समाचार पत्रों सहित नवनीत, साहित्य सागर, साक्षात्कार, राग भोपाली आदि पत्रिकाओं और रेख़्ता व कविताकोश जैसे अनेक ऑनलाइन मंचों से प्रकाशित होती रही हैं.
संपर्क : 9560092330 ईेमेल : bhavesh.dilshaad@gmail.com

Friday 17 April 2020

भीमाकोरेगांव : गिरफ्तारियां और इतिहास - मनीष आज़ाद, सीमा आज़ाद



14 अप्रैल बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का जन्मदिन इस बार दमन की एक और मिसाल देकर गया। इसी दिन उनके विचारों को लोगों तक पहुँचाने वाले प्रख्यात चिंतक-लेखक प्रो आनन्द तेलतुम्बड़े को एनआईए ने उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब वे खुद तय समय पर अपनी गिरफ्तारी देने जा रहे थे। उनके अलावा प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक गौतम नवलखा को भी इसी दिन एनआईए कोर्ट में सरेंडर करने के लिए मजबूर कर दिया गया। उस समय में भी इन दोनों को गिरफ्तारी से छूट नहीं मिली, जबकि देश में कोरोना संकट को देखते हुए जेलों में न सिर्फ मुलाकात रोक दी गयी है, बल्कि जेलों में कैदियों की संख्या कम करने की बात की जा रही है। यह सब ठीक उसके बाद हुआ, जब इसी दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी टीवी पर ‘राष्ट्रीय गरिमा और एकजुटता’ बनाने और ‘अग्निपरीक्षा से गुजरने’ जैसी बातें बोलकर ‘प्यारे देशवासियों’ को मोहित करके जा चुके थे। आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा दोनों देश के बेहद सम्मानित नागरिक, बुद्धिजीवी और देश को आगे ले जाने वाला विचार देने वाले नागरिक हैं, फिर इन्हें गिरफ्तार क्यों किया गया? जवाब है- 2018 में पुणे में ‘एल्गार परिषद’ आयोजित करने के लिए। इसके पहले इसी केस में सरकार ने 80 साल के बुजुर्ग प्रख्यात कवि वरवर राव, प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, जनपक्षधर वकील सुरेन्द्र गाडलिंग, अरूण फरेरा, संस्कृतिकर्मी सुधीर ढावले, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक वर्नन गोंजालविस, नारीवादी आन्दोलनों से जुड़ी नागपुर विश्वविद्यालय की प्रोफेसर शोमा सेन, जेएनयू के शोध छात्र और दिल्ली के जाने-माने राजनीतिक कार्यकर्ता रोना विल्सन और प्रख्यात संस्थान TISS के छात्र रहे सामाजिक कार्यकर्ता महेश राउते को गिरफ्तार कर चुकी है। क्या था यह कार्यक्रम, जिससे बीजेपी की सरकार इतना बौखला गयी, और आनन्द तेलतुम्बड़े सहित देश के इन प्रख्यात लोगों को जेल में डाल दिया। इन सभी लोगों को अलग-अलग समय पर गिरफ्तार किया गया, जिसकी नवीनतम कड़ी इस बार 14 अप्रैल को हुई ये दो गिरफ्तारियां हैं।


2018 में आयोजित एल्गार परिषद कार्यक्रम पर दमनात्मक कार्यवाही और उसके बाद उससे जोड़कर लोगों की गिरफ्तारियां दोनों ही अम्बेडकर के विचारों के प्रति सरकार के रूख का बयान करती है। सन 2018 की शुरूआत ऐतिहासिक भीमा कोरेगांव लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ मनाये जाने के साथ हुई। ‘नवी पेशवाई’ यानि नव ब्राह्मणवादी मनुवादी सत्ता इससे इतनी बौखलाई कि उस वक्त से दमन का सिलसिला शुरू हो गया, जो आज तक जारी  है। उसी साल के 6 जून से गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हो गया। इस मनुवादी सत्ता की दोहरी मंशा को उसकी कार्यवाहियों से समझा जा सकता है कि उसने पहले मनुवादी वर्णव्यवस्था पर चोट कर ‘हिन्दुत्व’ के संघी विचार की धज्जियां उड़ाने वाले भीमाकोरेगांव के इतिहास को देशव्यापी बनने से रोकने का पूरा प्रयास किया, इसमें असफल रहने पर वह ‘एल्गार परिषद’ को माओवादियों का आयोजन बताने में लग गयी, जैसेकि मात्र माओवादियों द्वारा आयोजित किये जाने से ही भीमा कोरेगांव में दलितों की शौर्यगाथा बदल जायेगी और पुराना और नया दोनों पेशवाराज दलित समर्थक दिखने लगेगा।
दूसरे, इसके बहाने से सत्ता ने देश में ‘कारपोरेटी विकास’ के सच का खुलासा करने वाले लोगों पर हमले करना शुरू कर दिया, उन्हें अलग-थलग करने का प्रयास वह लगातार कर रही हैं। वास्तव में जो लोग सत्ता के मनुवादी फासीवाद पर बौद्धिक हमला कर रहे थे, उन्हें ‘मोदी पर हमला’ करने के संकुचित दायरे में बांधने का प्रयास किया गया, ताकि जनता का ध्यान उस ओर से हट जाय। लेकिन वे असफल रहे- भीमा कोरेगांव का इतिहास इस दमन से देशव्यापी हो गया। इसके अगले ही साल यानि सन 2019 की शुरूआत देश भर में भीमा कोरेगांव के इतिहास को याद किये जाने और उसे सलाम किये जाने से हुई। इस रूप में सरकार की जबर्दस्त हार हुई है कि इतने दुष्प्रचार के बाद भी नये साल का पहला दिन ही मनुवादी-फासीवादी निजाम की कब्र खोदने वाले इतिहास को जन-जन तक पहुंचाने का दिन बन जाये। भीमाकोरेगांव का इतिहास जो कि महाराष्ट्र और कुछ बुद्धिजीवियों तक ही सीमित था अब जन-जन तक फैल गया। आइये हम भी इस ऐतिहासिक घटना के बारे में जानते हैं-
1 जनवरी 1818 को महाराष्ट्र में पूना के नजदीक ‘भीमा कोरेगांव’ में अंग्रेजों की फौज के साथ मिलकर लड़ते हुए महारों की 500 की सेना ने मराठा पेशवाओं की 20000 से भी ज्यादा की फौज को शिकस्त देते हुए उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया था। बाद में 1851 में इस युद्ध में मारे गये सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने यहां एक ‘स्तम्भ’ का निर्माण करवाया जिसके ऊपर ज्यादातर महार सैनिकों के ही नाम खुदे हैं। ‘मुख्यधारा’ का इतिहास आज भी इस महत्वपूर्ण घटना की ओर आंखे मूंदे हुए है।

1 जनवरी 1927 को डाॅ अम्बेडकर ने यहां अपने साथियों के साथ आकर उन महार सैनिकों को याद किया जिन्होंने भयंकर जातिवादी और प्रतिक्रियावादी पेशवाओं की सेना को शिकस्त देते हुए कई सारे जातिगत मिथकों को तोड़ डाला था और दलितों के आत्म सम्मान को ऊंचा उठाया था। (शायद यहीं से प्रेरणा लेते हुए डाॅ अम्बेडकर ने 1926 में ‘समता सैनिक दल’ की स्थापना की थी) तब से हर साल यहां लाखों की भीड़ उमड़ती है और दलित आन्दोलन व जनवाद की लड़ाई से जुड़े लोग यहां आकर अनेकों कार्यक्रम पेश करते हैं और जाति व्यवस्था के खात्मे की शपथ लेते हैं। 2018 में यहां केवल दलित संगठन ही नहीं, बल्कि देशभर के जनवादी संगठन भी आयोजकों में शामिल थे। क्योंकि इस इतिहास के 200 साल पूरे हो रहे थे। इस साल इस कारण यह जमावड़ा काफी बड़ा था। लेकिन दक्षिणपंथ के साथ कुछ वाम संगठनों ने इस आयोजन का यह कहकर विरोध किया था कि इस लड़ाई में दलित अंग्रेजों के साथ मिलकर भारतीय राजा के खिलाफ लड़े थे।
महारों की सेना द्वारा पेशवाओं की सेना पर इस विजय के महत्व को हम तभी अच्छी तरह समझ सकते है जब हम पेशवाओं के राज्य में महारों की क्या स्थिति थी यह जानें और उनकी छटपटाहट को समझें। पेशवाओं के राज्य में महारों को सार्वजनिक स्थलों पर निकलने से पहले अनिवार्य रुप से अपने गले में घड़ा और कमर में पीछे झाड़ू बांधनी पड़ती थी। जिससे उनके पैरों के निशान खुद ब खुद मिटते रहें और उनकी थूक सार्वजनिक स्थलों पर ना गिरे ताकि सार्वजनिक स्थल ‘अपवित्र’ न हो। अपनी इसी स्थिति के कारण महारों के दिलो-दिमाग में ब्राह्मणों और तथाकथित ऊंची जातियों के प्रति सदियों से जो नफरत बैठी होगी, उसी नफरत ने उन्हें वह ताकत दी जिससे वे अपने से संख्या में कहीं ज्यादा पेशवाओं की सेना को वापस भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध ने वर्णव्यवस्था के उस मिथक को भी चूर-चूर कर दिया कि क्षत्रियों में ही लड़ने की काबिलियत है, और राज करने और राज को बचाने की काबिलियत वर्ण विशेष के लोगों में ही होती है।
भारतीय इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त ‘इतिहासकारों’ ने नजरअंदाज किया, यह बात तो समझ में आती है, लेकिन ‘माक्र्सवादी’ कहे जाने वाले इतिहासकारों ने भी इसे क्यों नजरअंदाज किया, इसे भी समझने की जरुरत है।
इन इतिहासकारों के अनुसार महारों ने भीमा कोरेगांव की यह लड़ाई अंग्रेजों के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ मिलकर लड़ी थी, तो इतिहास में इसे प्रगतिशील कदम कैसे कहा जा सकता है? अपने इसी रुख के कारण आजादी के आन्दोलन के दौरान डाॅ अम्बेडकर की भूमिका पर भी उन्होंने (विशेषकर ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों ने) प्रश्न चिन्ह खड़े किये। कुछ वामदल तो उन्हें अंग्रेजों का दलाल तक मानते हैं।
इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर चर्चा से पहले चलिए विश्व इतिहास में इससे मिलती-जुलती कुछ दूसरी घटनाओं पर एक नजर डाल लेते हैं।
भीमा कोरेगांव की घटना के 42 साल पहले 4 जुलाई 1776 को अमेरिका, इंग्लैंड के खिलाफ लड़कर स्वतंत्र हुआ। ‘जार्ज वाशिंगटन’ और ‘जेफरसन’ के नेतृत्व में लड़े गये इस ‘अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम’ में वहां के काले गुलाम अफ्रीकी लोग और वहां के मूल निवासी किसके पक्ष में लड़े थे? आपको शायद आश्चर्य हो लेकिन यह सच है कि इनका अधिकांश हिस्सा इंग्लैंड के पक्ष में जार्ज वाशिंगटन की सेना के खिलाफ लड़ रहा था। 4 जुलाई 1776 के बाद का इतिहास यह दिखाता है कि उनका निर्णय सही था। क्योकि इसी दिन घोषित तौर पर दुनिया का पहला नस्ल-भेदी देश अस्तित्व में आया, जहां स्वतंत्रता सिर्फ गोरे लोगों के लिए थी और काले लोगो के लिए गुलामी करना नियम था। (‘स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी’ काले लोगों की गुलामी से जगमगा रही थी) स्वयं जार्ज वाशिंगटन और जेफरसन के पास सैकड़ों की संख्या में काले गुलाम उनकी निजी सम्पत्ति के रुप में मौजूद थे। 2014 में अमरीका के मशहूर इतिहासकार ‘गेराल्ड होर्ने’ (Gerald Horne) ने इसी विषय पर एक विचारोत्तेजक किताब लिखी-  'The Counter-Revolution of 1776' इसमें उन्होंने विस्तार से अमरीकी स्वतंत्रता सग्राम के दौरान वहां के काले गुलामों और गोरे अमरीकियों के बीच के ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों’ की चर्चा की, जिससे वहां के ‘मुख्यधारा’ के गोरे इतिहासकार नजर चुराते रहे हैं।
इसे एक रुपक मानकर यदि हम इसे तत्कालीन भारत पर लागू करें, तो कुछ ठोस समानताएं दिखती हैं। सोचने की बात है कि यहां के दलितों (विशेषकर ‘अछूतों’) का ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ यहां के ब्राह्मणवादी उच्च वर्ण के साथ होगा या बाहर से आये उन अंग्रेजों के प्रति, जो कम से कम छूआछूत का प्रयोग तो नहीं ही करते थे, और जिन्होेंने शिवाजी के बाद पहली बार महारों को अपनी सेना में प्रवेश दिया।
इतिहास कुछ सेट फार्मूलों से नहीं, बल्कि अपने वस्तुगत अन्तरविरोधों से आगे बढ़ता है। ‘देशी’  पेशवाओं और ‘बाहरी’ अंग्रेजों के बीच लड़ाई में वे किस तर्क से पेशवाओं का साथ देते?
इसे और बेहतर तरीके से समझने के लिए इतिहास की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना को ले लेते हैं। 410 ईसवी में जब जर्मन कबीलों ने रोम पर भयानक हमला बोला, तो रोम के गुलामों ने क्या अपने दास स्वामियों का साथ दिया? नहीं! उन्होंने जर्मन कबीलों के साथ मिलकर रोम की नींव हिला दी। क्या यह रोम के साथ गुलामों की गद्दारी थी? इसे आप खुद ही तय कर लीजिए। उस वक्त गुलामों की क्या स्थिति थी, इसे जानने के लिए हावर्ड फास्ट की मशहूर कृति ‘स्पार्टकस’ पढ़ा जा सकता है।
1688 की ‘गौरवपूर्ण क्रान्ति’ ने गुलामों के व्यापार को अंग्रेज व्यापारियों के लिए मुक्त कर दिया। इसके पहले गुलाम व्यापार पर सिर्फ राजा का अधिकार होता था और यह सीमित था। इसके फलस्वरुप अफ्रीका से गुलामों का व्यापार सैकड़ों गुना बढ़ गया और उन्हें जहाजों में ठूंस-ठूंस कर अटलान्टिक सागर के दोनों ओर गुलामी के लिए भेजा जाने लगा। उन गुलामों की नजर से देखिये तो उनके लिए इस ‘गौरवपूर्ण क्रान्ति’ में ‘गौरवपूर्ण’ क्या था?
पुनः भारत पर लौटते हैं। यहां जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म का अनिवार्य हिस्सा है। दरअसल उस अर्थ में हिन्दू धर्म, धर्म भी नहीं है जिस अर्थ में ईसाई या मुस्लिम धर्म हैं। इसमें ना कोई एक ईश्वर है ना बाइबिल या कुरान की तरह कोई एक किताब है। और जैसा कि अम्बेडकर इसे सटीक तरीके से बताते है कि हिन्दू धर्म में एक ही चीज ऐसी है जो सभी हिन्दुओं को आपस में बांधती है, और वह है उसकी जाति व्यवस्था, जिसे सभी हिन्दू अनिवार्य रुप से मानते हैं। इस जाति व्यवस्था में सबसे निचली पायदान पर हैं ‘अछूत’, शेष जातियां जिनकी छाया से भी बचती हैं। वर्ण व्यवस्था से भी ये बाहर हैं। हिन्दू मन्दिरों और हिन्दू अनुष्ठानों में इनका प्रवेश वर्जित है। इस रुप में यह दुनिया का पहला और निश्चित रुप से आखिरी धर्म है जो अपने ही एक समुदाय के ईश्वर तक पहुंच को सचेत तरीके से रोक देता है। ज्योतिबा फुले की शिष्या ‘मुक्ता साल्वे’ ने 1855 में लिखे अपने एक लेख में इस तर्क को बहुत असरदार तरीके से रखा है-‘‘यदि वेद पर सिर्फ ब्राह्मणों का अधिकार है, तब यह साफ है कि वेद हमारी किताब नहीं है। हमारी कोई किताब नहीं है-हमारा कोई धर्म नहीं है। यदि वेद सिर्फ ब्राह्मणों के लिए है तो हम कतई बाध्य नहीं हैं कि हम वेदों के हिसाब से चले। यदि वेदों की तरफ महज देखने भर से हमें भयानक पाप लगता है (जैसा कि ब्राह्मण कहते हैं) तब क्या इसका अनुसरण करना हद दर्जे की मूर्खता नहीं है? मुसलमान कुरान के हिसाब से अपना जीवन जीते हैं, अंग्रेज बाइबिल का अनुसरण करते हैं और ब्राह्मणों के पास उनके वेद हैं। चूंकि उनके पास अपना अच्छा या बुरा धर्म है, इसलिए वे लोग हमारी तुलना में कुछ हद तक खुश हैं। हमारे पास तो अपना  धर्म ही नहीं है। हे भगवान! कृपया हमें बताइये कि हमारा धर्म क्या है?’’ इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए डाॅ अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को अमानवीय धर्म कहा है।
यदि हम इसकी तुलना ईसाई धर्म या मुस्लिम धर्म से करते है तो पाते हैं कि वे जहां भी जाते थे, वहां के निवासियों को अपने धर्म से जोड़ने का प्रयास करते थे। अपने सभी धार्मिक अनुष्ठानों, अपने पूजा स्थलों में उन्हें शामिल करते थे और अपने ईश्वर के साथ उनका नाता जोड़ते थे। हालांकि यह कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें उनके अपने राजनीतिक व आर्थिक हित जुड़े होते थे। लेकिन इसके बावजूद हिन्दू धर्म से उनका रणनीतिक अन्तर बहुत साफ है।
यदि हम ‘अछूतों’ की आर्थिक हैसियत की बात करें, तो यह बात साफ है कि उनके पास अपनी व्यक्तिगत चीजों के अलावा कोई सम्पत्ति नहीं होती थी। वास्तव में ‘अछूतों’ के लिए सम्पत्ति रखना धार्मिक तौर पर मना था। यानि हिन्दू धर्म में ही ऐसा सम्भव है जहां समाज के एक समुदाय ‘अछूत’ को ना सिर्फ आर्थिक तौर पर गरीब रखा जाता है वरन् धर्म व ईश्वर से वंचित रखकर उसकी ‘आध्यात्मिक सम्पत्ति’ भी छीन ली जाती है।
धर्म पर इतनी बात इसलिए जरुरी है क्योकि हम समाज में मौजूद वर्गीय अन्तरविरोधों को तो पकड़ लेते हैं, लेकिन धर्म के अन्दर या धर्म के आवरण में मौजूद अन्तरविरोधों को नहीं देख पाते या उसे नजरअंदाज कर देते है। जाति उन्मूलन पर लिखे अपने क्रान्तिकारी दस्तावेज ‘जातिभेद का उच्छेद’ में अम्बेडकर हिन्दू धर्म की तमाम कुटिलताओं-शब्दाडम्बरों को भेदकर उसके भीतर या उसके आवरण में मौजूद उस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध को सामने लाते है जिस पर अब तक पर्दा पड़ा हुआ था। इस अति महत्वपूर्ण किताब के माध्यम से अम्बेडकर ने समूचे दलित समुदाय को हिन्दू धर्म से बाहर खींचकर उन्हें मानसिक गुलामी से आज़ाद कर दिया और उन्हें स्वतंत्र वैचारिक जमीन मुहैया करायी, जिस पर भावी दलित आन्दोलन की नींव रखी जानी थी। इसी किताब में निष्कर्ष के रुप में अम्बेडकर ने यह साफ कर दिया कि इस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध (अम्बेडकर ने ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन उनका मतलब यही है।) को बनाये रखते हुए समाज का जनवादीकरण करना और राष्ट्र निर्माण करना असम्भव है। डाॅ अम्बेडकर के शब्दो में-‘जातिप्रथा की नींव पर किसी भी प्रकार का निर्माण संभव नही है।’ इसीलिए कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे ‘आजादी’ के आन्दोलन को वे उचित ही शक की निगाह से देख रहे थे। उन्होंने साफ-साफ कहा-‘प्रत्येक कांग्रेसी को जो बराबरी का यह सिद्धान्त बार-बार दुहराता है कि एक देश को दूसरे देश पर राज करने का अधिकार नहीं है, उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर राज करने के योग्य नहीं है।’ कांग्रेस और गांधी को राष्ट्रीय आन्दोलन का पर्याय बताने वाले इतिहासकार यह बताना भूल जाते हैं कि गांधी आजीवन वर्णव्यवस्था और प्रकारान्तर से जाति व्यवस्था के समर्थक बने रहे। यही कारण है कि गांधी ने खुलेआम ऐलान किया कि अम्बेडकर हिन्दुत्व के लिए चुनौती हैं। दरअसल कांग्रेस में तिलक के आने के बाद से ही कांग्रेसी नेतृत्व निरन्तर रुढ़िवादी और साम्प्रदायिक होता गया है। ‘पंडित’ नेहरु इसके अपवाद नहीं, वरन इस पर पड़ा वह झीना पर्दा था जो अक्सर ही फट जाया करता था और कांग्रेस का असली चेहरा सामने आ जाया करता था। इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए कि आज हम जिस फासीवाद को अपने नंगे रुप में देख रहे हैं, उसका कितना सम्बन्ध आजादी के आन्दोलन के दौरान और उसके बाद के कांग्रेस और उसके नेतृत्व से रहा है।
आज फासीवाद की खुली प्रतिनिधि एक चुनावी पार्टी हो सकती है, लेकिन वास्तव में यह वित्तीय संकट से उत्पन्न एक व्यवस्था है, जो हमारे देश के संसाधनों को बेंचकर निवासियों को बेदखल कर रहा है, उन पर कहीं प्रत्यक्ष कहीं परोक्ष जुल्म ढा रहा है। यह निजाम दलितों सहित सभी दमितों के इतिहास को सामने लाने में बाधक है। भीमाकोरेगांव और यहां पिछले साल आयोजित ‘एल्गार’ यानि ‘आवाज’ इस व्यवस्था पर चोट करने का एक प्रतीक बन गया है। फासीवाद का मुकाबला हम ऐसे ही सैकड़ों एल्गारों से कर सकते हैं, जिसमें हम वंचितों द्वारा लड़ी गयी लड़ाइयों को याद करते हुये इस फासीवादी निजाम के खिलाफ अपनी आवाज को बुलन्द करेंगे। फासीवादी सत्ता की साजिश है कि वह हिन्दुओं के सामने मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को खड़ा करे, लेकिन जब उसके हिन्दुत्व से ही उसकी नजर में ‘शूद्रों’ का एक बड़ा हिस्सा उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है, तो उसकी फासीवादी नीति को बहुत बड़ा झटका लगता है, उसकी बौखलाहट इस झटके से खुलकर सामने आ जाती है, जो कि इस समय इससे जुड़ी गिरफ्तारियों में साफ नजर आता है।
 2018 के बाद से 1 जनवरी सिर्फ नये साल के जश्न का दिन नहीं, इस फासीवादी निजाम की नाक में दम करने वाले भीमाकोरेगांव के इतिहास और एल्गार के आयोजन की वर्षगांठ के जश्न का भी है। इसके जश्न के रूप में सामने आते ही यानि मनुवाद की हार का इतिहास सामने आते ही सरकार का बौखलाहट सामने आ गयी, और उसने झूठे मुकदमें का साजिश रच डाली।




भीमा कोरेगांव में एल्गार परिषद के आयोजन का पूरा मुकदमा ही फर्जी है। सच तो ये है कि पेशवाई यानि ब्राह्मणवाद में यकीन करने वाले मिलिंद एकभोटे और संभाजी भिड़े (जो कि नरेन्द्र मोदी के गुरू कहे जाते हैं) ने इस आयोजन के दौरान वहां हिंसक कार्यवाही के लिए अपने लोगो को भड़काया, दलितों पर हमला करवाया। जब इन दोनों के खिलाफ मुकदमे लिखवाए गए, तो भी महीनों तक इन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया। दबाव पड़ने पर गिरफ्तार हुए भी, तो जल्द ही रिहा भी कर दिया गया, क्योंकि ये लोग सत्तासीन ‘नवी पेशवाई’ को मानने वाले लोग हैं और इन्हें ही ध्वस्त करने की बात ‘ऐल्गार परिषद’ में की गई थी। लेकिन तकनीकी रूप से भी देखें, तो यह मुकदमा पूरी तरह से फर्जी है। सुधीर धावले को छोड़ गिरफ्तार सभी ऐसे लोग हैं जो न तो इस कार्यक्रम में शामिल हुए थे, न ही आयोजक मंडल का हिस्सा थे। बल्कि ये सभी लोग सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ खड़े लोग है। मुकदमें को अधिक सनसनीखेज बनाने के लिए इन सभी पर प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बनाने तक का आरोप मढ़ दिया गया। वो भी एक ऐसे पत्र के माध्यम से जिसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है। लेकिन जब तक इस पत्र को अदालत के सामने फर्जी साबित किया जाएगा, तब तक न जाने कितने साल बीत चुके होंगे। अपने क्षेत्र में शानदार काम करने वाले इन लोगों को कोर्ट से जमानत भी नहीं मिल रही। यहां तक कि इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हुए जब महाराष्ट्र में मौजूदा सरकार बनी, और वहां मुकदमा वापस लेने की मात्र फर्जी हलचल शुरू हुई, तभी इस मामले को केंद्र सरकार ने एनआईए को सौंप कर अपनी मंशा जाहिर कर दी। क्या है उसकी मंशा? इतना भर नहीं कि इसका बहाना लेकर देश के बुद्धिजीवियों का मुंह बंद करना है, बल्कि ये भी कि देश में पेशवा राज यानि हिंदुत्ववादी मनुवाद को कायम रखना है। इसके खिलाफ खड़ी हर सोच, हर विचारधारा को यह सरकार कुचल देना चाहती है। 14 अप्रैल अम्बेडकर जयंती के दिन अंबेडकरवादियों की गिरफ्तारी करके यही संदेश दिया गया है। लेकिन भीमा कोरेगांव का इतिहास उसके 200 साल पूरे होने पर दमित जनता के बीच फिर से जिंदा हो उठा है,  इसे अब झुठलाया नहीं जा सकता। इतिहास अपने आप को बार - बार दोहराता है, यह हमें इतिहास ही बताता है।