Monday 13 April 2020

एक था डॉक्टर एक था सन्त : समीक्षा - अनिता भारती



आज आंबेडकर जयंती है, भारत के लिए बेहद खास दिन. भारत के तमाम समाज कर्मियों ने समाज के जिस बेहद महत्वपूर्ण पहलु को छोड़ दिया था, उसे अम्बेडकर ने समाज के सामने रखा. ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के इस महत्वपूर्ण पहलु को देखने का उनका और भारत की राजनीति में बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले गाँधी का नजरिया अलग अलग था. इसी को बताने वाली यह महत्वपूर्ण पुस्तक है, जिसकी पड़ताल की है प्रसिद्द सामाजिक कार्यकर्ता अनिता भारती ने. यह लेख दस्तक पत्रिका में पहले भी प्रकाशित हो चुका है .

राजकमल प्रकाशन से आई प्रसिद्ध लेखिका अरूंधति राय की पुस्तक एक था डॉक्टर एक था सन्तपुस्तक का अनुवाद अनिल यादव जयहिन्द तथा रतनलाल ने किया है। पुस्तक का विषय कोई नया नहीं है पर परिप्रेक्ष्य की दृष्टि जरूर नयी है। डॉ अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच, वर्ण जाति के साथ आजादी की लड़ाई के दौरान जो वार्ताए हुई, जो मतभेद हुए और जो सैद्धान्तिक फासले थे, इस पुस्तक में उस पर विस्तार से चर्चा है। अम्बेडकर की समग्र और सम्यक दृष्टि के चलते दलित आंदोलन और दलित समाज को जो मजबूती, इज्जत, अधिकार और मानवीय गरिमा हासिल हुई उसी की बदौलत आज दलित आन्दोलन मे अपना आकार ग्रहण किया है। अम्बेडकर की इस समग्र सम्यक दृष्टि के पीछे बुद्ध,कबीर, ज्योतिबा-सावित्री आदि की एक लंबी परंपरा है जिन्होंने वर्ण और जाति भेद के खिलाफ समाज में अलख जगाई तथा समाज के वंचित दलित शोषित पीड़ित जनमानस में अधिकार चेतना सम्मान स्वाभिमान विकसित किया।
दलित आन्दोलन, समाज और उसका बुद्धिजीवी वर्ग डॉक्टर अम्बेडकर के साहित्य को बड़ी शिद्दत से पढ़ता है। वह अपने पीछे ज्ञान का अथाह भंडार छोड़ गए हैं। अम्बेडकर से कोई ऐसा विषय नहीं छूटा जिस पर उनकी कलम न चली हो। फिर वह विषय चाहे राष्ट्रवाद हो अथवा संसाधनों का राष्ट्रीयकरण की बात हो। जल बंटवारे की समस्या से लेकर स्त्री मुक्ति के सवालों पर उनकी खुलकर कलम चली है। जाति व्यवस्था के क्रूर दमन के शिकार डॉ.अम्बेडकर ने जाति धर्म और वर्ण व्यवस्था पर अपनी कलम और अपने सक्रिय नेतृत्व से एक पूरे कालखण्ड में उथल-पुथल मचा कर रख दी थी। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि अम्बेडकर उस कालखँड में लोकतन्त्र के चारों खम्बों की जातिवादी भ्रष्ट मानसिकता खिलाफ अपने पूरे अपने दम खम से उनके सामने ताल ठोक कर चट्टान की तरह खड़े थे। उनका सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन कठिनाईयों और संघर्षों से भरा था। उस समय चल रहे स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेताओं के समक्ष जातिभेद का कटु और अप्रिय प्रश्न उठाने के कारण, गालियां खाते हुए भी वह अपने समाज के अधिकार और सम्मान दिलाने के लिए कटिबद्ध थे।
गांधी और अम्बेडकर विवाद पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। बहुत पहले से गाँधी अम्बेडकर विवाद- संवाद दलित समाज की लोक संस्कृति में उनकी वार्ता में शामिल हो चुका है।  जिसपर अनेक पर्चे लिखे जा चुके है। अनेक लोकगीत बनाए व गाए जा चुके है। लेखिका अरूंधति ने अपनी इस पुस्तक एक था डॉक्टर और एक था संत में, महात्मा गांधी के व्यक्तित्व, उनके विचार और उनके धनाढ्य मित्रों द्वारा सप्रयास गढ़े गए महात्म्य को उजागर करने के लिए विभिन्न तथ्यों, उद्धरणों व उदाहरणों का सहारा लिया है।प्रस्तुत पुस्तक में डॉक्टर अम्बेडकर से अधिक महात्मा गांधी की विचारधारा, उनके व्यक्तित्व, उनके कार्यकलाप का जिक्र अधिक बार आया है। शायद लेखिका की मंशा भारतीय समाज महात्मा गांधी को जिस रूप में पढ़ा जाता है और जाना जाता है उससे इतर उनके व्यक्तित्व के अन्य पक्षों को दिखाना रहा हो, यदि यह उद्देश्य था तो मेरे अनुसार लेखिका इसमें काफी सफल रही है।
पुस्तक के आरंभ में ही सुरेखा और मलाला पर बात करती है। दोनों ही सामाजिक हिंसा की शिकार है। सुरेखा जातिवादी आंतकवाद की और मलाला तालिबानी आतंकवाद की शिकार है। सुरेखा और मलाला में यह फर्क है कि सुरेखा जातिवादी हिंसा की शिकार है और भारत में जातिवादी हिंसा के शिकार समाज को न्याय नही मिलता। तालिबानी आंतकवाद के खिलाफ पूरा विश्व खड़ा है जबकि जातिवादी आंतकवाद भारत अपना अंदरुनी मसला बताता है।  लेखिका जातिवाद की परतें खोलती हुई कहती है कि - न्यायाधीश महोदय का मानना था कि खैरलांजी की सामूहिक हत्या के पीछे बदले की भावना थी। उन्होंने कहा कि बलात्कार का कोई सबूत नहीं मिला और हत्या के पीछे कोई जातीय कोण भी नहीं था। आगे वह कहती है- अदालत यदि यह स्वीकार करती है कि जातीय विद्वेष आज भी भारत में एक भयानक वास्तविकता है तो यह न्याय का एक संकेत होता लेकिन जज ने इस पूरे प्रकरण से जति का कोण ही गायब कर दिया। दूसरी और आतंकवाद के खिलाफ मलाला की हत्या की साजिश के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संहित पूरे विश्व का खड़े होकर यह कहना- मैं हूं मलाला और भारत में सुरेखा प्रियंका भोतमांगे और उनके दोनों बेटों को न्याय भी न मिल पाना भारत की जातीय मानसिकता की परतें उखेड़ता है.
पिछले कुछ वर्षों में दलित उत्पीड़न, हत्या, बलात्कार, जबरदस्ती  मलमूत्र पिलाना आदि में कई गुणा बढ़ोतरी हुई है। इसका एक मात्र कारण जाति और धर्म है। इसी पक्ष पर अरूंधति डॉ. अम्बेडकर को कोट करते हुए कहती है- अम्बेडकर ने पूरी हिम्मत से, जो हिम्मत आज कल हमारे बुद्धिजीवी भी नहीं जुटा पाते कहा था, अछूतो के लिए हिन्दू धर्म सही मायने में नर्क है। बाबा साहेब के अनुसार जाति एक अन्तर्विवाह इकाई है और एक खुद में बंद वर्ग है। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जितना ऊपर जाएं उतना मान सम्मान हैं। जितना नीचे खिसके उतनी घृणा-अपमान है। जाति व्यवस्था से बढ़कर अपमान जनक सामाजिक संगठन हो ही नहीं सकता। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो लोगों को शिथिल पंगु और विकलांग बनाकर उन्हें कुछ भी उपयोगी गातिविधि करने नहीं देती। इसके विपरित महात्मा गांधी और उनेक समर्थकों ने जाति व्यवस्था के बनाए रखने में तर्क दिए है कि जाति हमारा आतंरिक मामला है उनका मानना है कि जाति एक सामाजिक गोंद है जो व्यक्तियों ओर समुदायों को बहुत ही दिलचस्प और कुल मिलाकर बहुत ही सकारात्मक तरीके से बांधती और अलग करती है। और इसने भारतीय समाज को विभिन्न चुनौतियों को झेलने की ताकत और लचीलापन दिया है। गाँधी जी कहते है- मेरा विश्वास है कि यदि हिन्दू समाज अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है तो वजह यह है कि इसकी बुनियाद जाति व्यवस्था के ऊपर डाली गई। जाति का विनाश करने और पश्चिमी यूरोपीय सामाजिक व्यवस्था को अपनाने का अर्थ होगा कि हिन्दू आनुवंशिक - पैतृक व्यवसाय के सिद्धांत को त्याग दें, जो जाति व्यवस्था की आत्मा है। आनुवंशिक सिद्धांत एक शाश्वत सिद्धान्त है। इसको बदलने से अव्यवस्था पैदा होगी। मेरे लिए ब्राह्मण का क्या उपयोग है यदि मैं उसे जीवन भर ब्राह्मण न कह सकूं। यदि हर रोज किसी ब्राह्मण को शूद्र में परिवर्तित कर दिया जाए और शूद्र को ब्राह्मण में, तो इससे तो अराजकता फैल जायेगी। गाँधी और उनके मानने वालों का मानना है कि जाति ने भारतीय समाज के लिए एक कवच का काम किया है और इसे खंड-खंड और चूर-चूर होने से बचाया है, जैसा कि पश्चिमी समाज औधोगिक-क्रान्ति के बाद हो गया था। इसके विपरित डॉ.अम्बेडकर का कहना था कि जाति बहिष्कृत(चंडाल) लोग जाति व्यवस्था का ही उत्पाद है। जब तक जाति व्यवस्था रहेगी तब तक जाति बहिष्कृत लोग रहेगें। कोई भी प्रयास जाति बहिष्कृत लोगों को बेड़ियों से मुक्त नहीं कर सकता सिवाय जाति व्यवस्था के विनाश के । इसलिए गाँधी जाति और वर्ण के सवाल को लेकर थोड़ा बहुत सुधार के साथ यथास्थितिवाद के पोषक है और अम्बेडकर जाति का समूल विनाश चाहते है। यही टकराहट का बिंदू है।
एक था डॉक्टर और एक था संत, पुस्तक में लेखिका के परिश्रम के सराहना करनी पड़ेगी। कि वह गांधी के साऊथ अफ्रीका के प्रवास, उनके पढ़ाई लिखाई और उनके संघर्ष के दिनों का, उनके वहाँ किए कार्यों को बड़ी मेहनत से ढ़ूंढ लाई है। वस्तुत: मेरे लिए इस पुस्तक को पढ़ने का एक कारण यह भी था कि जब महात्मा गांधी, भारत में जाति व्यवस्था को बनाएं रखने के इतने बड़े समर्थक रहे है तो उन्होंने अपने साऊथ अफ्रीका के प्रवास में वहां के अश्वेत लोगों के आन्दोलन को उनके नस्ल भेद के सवालों को , उनकी पीड़ाओं और उनके संघर्षों को कैसे समझा होगा या फिर उसमें उनकी क्या भूमिका रही होगी। गांधी जी सन् 1893 में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे और उनके साथ जो घटना घटी वह थी कि उनको रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी कोच से, जो कि श्वेतों के लिए आरक्षित होता था, उस कोच से उन्हें धक्के देकर बाहर फिकवा दिया गया । यहां लेखिकाकहती है- गाँधी इस बात पर कुपित नहीं थे कि वहां नस्ली अलगाव था। उनके नाराज होने का कारण था पैसेंजर इंडियंस- भारतीय व्यापारी-वर्ग जिनमें अधिकतर मुस्लिम थे, लेकिन कुछ विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के हिन्दू भी थे और जो दक्षिणी अफ्रीका में कारोबार के सिलसिले में रहते थे, उनके साथ भी मूल निवासी काले अफ्रीकियों के समान व्यवहार किया जा रहा था। गाँधी का तर्क यह था कि यात्री भारतीय नटाल डिस्ट्रिक में ब्रिटिश प्रजा के रुप में आए थे और उनका बराबरी का हक बनता है क्योंकि रानी विक्टोरिया ने 1858 में एक उद्घोषणा की थी जिसमें जोर देकर कहा गया था कि ब्रिटिश राज की प्रजा एक समान है। अफ्रीकी प्रवास के दौरान महात्मा गांधी ने भारतीय प्रवक्ता के तौर पर सावधानी बरतते हुए पैसेंजर इंडियंस और इंडेंचर्स (जो भारतीय बंधुआ मजदूर के रूप में दक्षिणी अफ्रीका लाएं गए थे) दोनों से दूरी बनाएं रखे।न केवल दूरी बनाएं रखे बल्कि उनके दुख पीड़ा संधर्षों से एक दम अलग होकर वह अपने आप को केवल यात्री भारतीय नयल-डिस्ट्रिक में ब्रिटिश प्रजा के रूप में आए थे और उनका बराबरी का हक बनता था, उस रूप में ही देखना चाहते थे। वे अश्वेत लोगों के असभ्य काफिर कहकर सम्बोधित करते है। डरबन डाकघर में दो प्रवेश द्वार थे जिनमें एक कालों के लिए और एक गोरो के लिए था। गाँधी ने अधिकारियों को याचिका दी कि वे तीसरा प्रवेश द्वार खोले ताकि भारतीयों को वही प्रवेश द्वार न इस्तेमाल करना पड़े जो काफिर(काले अफ्रीकी मूलनिवासियों के लिए प्रयुक्त शब्द) इस्तेमाल करते थे। वे शिकायत करते है कि भारतीयों को घसीटकर असभ्य काफिरों के साथ जोड़ा जा रहा है।
    दक्षिण अफ्रीका की जेल में बिताए अपने अनुभव को गांधी ने इंडियन ओपिनियन(16 जनवरी 1909) में लिखा- मुझे ऐसे जेल की कोठरी में बिस्तर दिया गया जहाँ ज्यादातर काफिर कैदी बीमार पड़े थे। मैंने बड़े दुख और डर में रात बिताई...... भगवद्गीता का पाठ किया जो मैं अपने साथ ले गया था। मैंने वो श्लोक पढ़े जिनका मेरी स्थिति से सम्बन्ध था और ध्यान लगाया। आखिरकार मैं खुद को शान्त करने में कामयाब रहा। मेरे असहज होने का कारण काफिर और चीनी कैदी थे, जो जंगली थे, हिंसक थे और अश्लीलता में डूबे हुए थे.....वह (चीनी) सबसे खराब लगता था। वह मेरे पलंग के नजदीक आया और उसने मुझे बड़े गौर से देखा, मैं बिना हिले-डुले चुपचाप पड़ा रहा। फिर वह एक काफिर की ओर चला गया, जो बिस्तर पर लेटा पड़ा था। दोनों ने अश्लील चुटकुलों का आदान-प्रदान किया, एक-दूसरे के गुप्तांगों को उघाड़ते हुए...मैं अपने मन में दृढ़ संकल्प ले चुका था, एक आन्दोलन करने का, यह सुनिश्चित करने के लिए की भारतीय कैदियों को काफिर या अन्य कैदियों के साथ न रखा जाएं। हम इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि उनके और हमारे बीच कोई भी समान आधार नहीं है। इसके अलावा जो लोग एक ही कमरे में सोने की इच्छा रखते है जैसे वे, उन सभी की मंशा बुरी थी। जेल के अन्दर से ही गांधी जी ने भारतीयों के लिए जेल में पृथक वार्ड के लिए याचिका दायर करनी शुरू कर दी। अलग वार्ड के साथ-साथ कई मुद्दे भी जोड़ दिए–वे अलग कंबल चाहते थे क्योंकि उनकी चिन्ता थी कि एक कम्बल जिसे बहुत गन्दे काफिर ने इस्तेमाल किया हो, वही कम्बल घूम फिर कर किसी भारतीय को पास आ सकता है।
लेखिका कहती है कि गाँधी भारत लौटने के बाद वह अपनी बातों से एकदम पलट जाते गै। 20 साल बाद 1928 में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और अफ्रीकियों के लिए अलग-अलग शिक्षा के प्रस्ताव पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहते है-भारतीयों की अफ्रीकियों के साथ इतनी अधिक समानता है कि वे उनसे अलग होने की सोच भी नहीं सकते। अफ्रीकियों की सक्रिय सहानुभूति और दोस्ती के बिना वे ज्यादा समय नहीं रह सकते। मुझे नहीं मालूम कि कभी भारतीयों ने अफ्रीकी बंधुओं के प्रति श्रेष्ठता का रवैया अपनाया हो। यह एक त्रासदी होगी, यदि कोई ऐसा आन्दोलन वहां बसे भारतीयों के बीच पनपे।
  पुस्तक में गांधी जी सत्य के तरह-तरह के प्रयोग और उन पर की गई टिप्पणियां भी पठनीय है। गाँधी जी का मानना था कि यातना शिविर भी एक तरह से सत्याग्रह का अभ्यास ही था । बोअर युद्ध में ब्रिटिश सैनिकों के अत्याचार ग्रस्त यातना शिविरों में कैद कर लिए गए कैदियों की स्थिति पर अपने विचार व्यक्त करते है- बोअर महिलाओं को समझ थी कि उनका धर्म दुख झेलने की शिक्षा देता है ताकि वे अपनी स्वतन्त्रता बनाए रखें और इसलिए धैर्य और खुशदिली से उन्होंने सभी तकलीफें बर्दाश्त की उन्होंने भूख सही, उन्होंने कड़कड़ाती ठंड को झेला और जला देने वाली गर्मी को झेला। कभी-कभी शराब के नशे में चूर हवस में मदमस्त कोई सिपाही इन असुरक्षित महिलाओं पर टूट पड़ता था। फिर भी यह बहादुर महिलाएं जरा भी विचलित नहीं हुई।
     इसी तरह  वह दलितों के वाल्मीकि समुदाय के मैला गंदगी ढ़ोने को भी ग्लोरीफाई करते है– यदि मुझे किसी पद की लालसा है तो उसका नाम है भंगी। गंदगी की सफाई एक पवित्र कार्य है, जिसे एक ब्राह्मण के साथ-साथ एक भंगी भी कर सकता है, ब्राह्मण इसको पवित्र होने के ज्ञानबोध के साथ करता है और भंगी बिना बोध के। मैं दोनों का आदर और सम्मान करता हूँ। इनमें किसी की भी अनुपस्थिति में, हिन्दू धर्म विलुप्त हो जायेगा। मुझे सेवा का मार्ग पसंद है इसलिए मैं भंगी पसंद करूंगा। मुझे व्यक्तिगत रूप से उनके साथ भोजन करने में कोई आपत्ति नही है लेकिन मैं तुम्हें सहयोग या अन्तरजातीय विवाह के लिए नहीं कह रहा। तुन्हें मैं परामर्श भी कैसे दे सकता हूँ। गाँधी दलित समाज को तो नही बरगला पाएं पर दलित समाज के वाल्मीकि समुदाय को उन्होंने अपनी चतुरता से बाकी दलित समाज से अलग करने की पूरी कोशिश की जो आंशिक रुप से सफल हुई तो दिखती है पर एक बड़े स्तर पर उसका आज तक विरोध होता आ रहा है।
  इस किताब का एक महत्वपूर्ण हिस्सा गांधी और भारतीय औधोगपति बिडला के सम्बन्धों पर है। सभी जानते है बिडला गांधी के अभिन्न मित्र थे परन्तु यह मित्रता एक व्यावसयिकता से भरा सम्बन्ध भी था। बिड़ला भारत के बड़े पूंजीपतियों में से एक रहे है। गांधी जब 1915 में अफ्रीका से भारत लौटे तो उनका कलकत्ता में भव्य स्वागत और सम्मान समारोह बिडला ने खूब धूमधाम से करवाया। गाँधी को कैसरे हिन्द स्वर्णपदक से नवाजा गया। यह स्वर्णपदक उन्हें लार्ड हार्डिग ऑफ पेन्सहटर्स द्वारा प्रदान किया गया। लेखिका यहाँ कहती है कि - बिड़ला गाँधी का मुख्य संरक्षक और प्रायोजक बन गया। हर महीने, वह गांधी को उनकी राजनैतिक गातिविधियों, आश्रम और काग्रेंस पार्टी के खर्चे चलाने के लिए दिल खोलकर आवश्यक धन राशि दिया करता था। उनके अलावा और भी प्रायोजक थे लेकिन जी.डी बिड़ला के साथ गांधी की व्यवस्था जीवन के आखिरी दिन तक चली। कई मिलों,अन्य व्यवसायों के अलावा जी.डी. बिड़ला एक समाचार पत्र हिन्दुस्तान टाइम्स का भी स्वामी था। इस समाचार पत्र में आगे चलकर गांधी के पुत्र देवदास ने प्रबनध सम्पादक के रूप में कार्यकिया। बिड़ला और गाँधी के व्यवसायिक रिश्तों को और अधिक स्पष्ट करने के लिए 10 जनवरी 1927 को जी.डी बिड़ला का गांधी का लिखा पत्र देखा जा सकता है जिसमें वह लिखते है - धन की मेरी प्यास, कभी नहीं बुझने वाली है। मुझे कम से कम 2,00000/-(दो लाख) रूपये की जरूरत है- खादी- अस्पृश्यता और शिक्षा के लिए। डेरी के काम के लिए 50,000/- (पचास हजार) अलग से चाहिए। आश्रम के खर्चे इसके लिए अलग से है। कोई अंदाजा लगाए कि आज ढाई लाख रूपयों की कीमत 2019 में क्या होगी ? शायद करोडों में? परंतु आज भी इस बात का अंदाजा लगाना  मुश्किल है कि इतनी बड़ी रकमें बिडला क्या सोचकर गाँधी को दान देते थे। बिड़ला सिर्फ गांधी जी के व्यक्तिगत और उनके आश्रम के तमाम खर्चे ही वहन नही करते थे अपितु जहां भी गांधी आते- जाते थे, यात्रा आदि करते थे, वहां उनके रहन-सहन, देखभाल, खान-पान की पूरी जिम्मेदारी भी लेते थे। जब गाँधी जी ने अछूतोद्धार आंदोलन शुरु किया तो उन्होंने भंगी बस्तियों के दौरे करने शुरु किए। इन बस्तियों में वह सीधे नही जाते थे बल्कि उन बस्तियों को पहले गाँधी जी के रहने लायक बनाया जाता था। ऐसी ही एक भंगी बस्ती की यात्रा का वर्णन इस पुस्तक में है –आधे से अधिक निवासियों को उनकी यात्रा शुरू होने से पहले ही बाहर निकाल दिया और निवासियों की झोपड़ी को तोड़-फोड़ दिया गया और उनके स्थान पर साफ-सुथरा सुन्दर झोपड़ियों का निर्माण किया गया। झोपड़ियों के प्रवेश द्वार और खिड़कियों को खस-चटाईयों के ऊपर पानी छिड़कर लगातार उन्हें भिगोए रखा ताकि ठंडक पैदा हो सके। स्थानीय मन्दिर की रंगाई पुताई की गई और ईटों के नवीन पथ बनाए गए।
माग्रेट, एक फोटो पत्रकार को लाइफ पत्रिका के लिए दिए गए एक साक्षात्कार में बिड़ला कम्पनी के दीनानाथ तियांगने अछूतों की कालोनी में दिए गए सुधारों के बारे में बताया–हमने पिछले बीस वर्षों से गाँधी की सुख-सुविधा का ध्यान रखा है।
पुस्तक लेखिका इस संदर्भ में विजय प्रसाद द्वारा लिखी वाल्मीकि श्रमिकों के इतिहास में बातों को कोट करती हैं -  उऩका कहना है कि जब गांधी ने मन्दिर मार्ग(पूर्व में रीडिंग रोड) स्थित वाल्मीकि कलोनी की 1946 में यात्रा की तो बाल्मीकि समाज के साथ भोजन करने से मना कर दिया।– आप मुझे बकरी का दूध भेंट कर सकते हैं उन्होंने कहा,लेकिन मैं उसकी कीमत का भुगतान जरूर करूंगा। यदि आप उत्सुक है कि मैं आप के द्वारा पकाया भोजन करू, तो आप यहां आ सकते है और मेरे लिए मेरा भोजन यहीं पका सकते है।.. उस समय के बाल्मीकिबड़े-बूढ़े क्षोभ से भरकर गांधी के पाखंड के इस किस्म के अनेकों किस्से बताते हैं। जब एक दलित ने गाँधी को सुखा मेवा दिया, तो गांधी ने वो मेवा अपनी बकरी को खिला दिया, यह कहते हुए कि मैं यह मेवा बाद में खा लूंगा, बकरी के दूध में। गांधी का लगभग सारा भोजन, मेवा अन्न बिड़ला हाऊस से आता था, वे दलितों से यह सब स्वीकार नहीं करते थे। इन्कलाबी -बाल्मीकि आंबेडकरवाद की शरण में चले गए, जो गाँधी से इन मुद्दों पर खुलकर टकराते थे।
एक था डॉक्टर एक था संत पुस्तक जितनी अपने कथ्य में पठनीय है उतनी ही अपनी जुटाई गई सामग्री की वजह से महत्वपूर्ण है। पुस्तक में गाँधी और अम्बेडकर के बीच घटे घटनाक्रम को सहज तरीके से प्रस्तुत किया है। इससे पहले अनेक दलित विद्वानों में इस विषय पर अपनी कलम चलाई है यह पुस्तक भी उसी कड़ी में शामिल हो सकती है। इस पुस्तक में संक्षिप्त रुप में ही सही शहर व गाँव, दलित अत्याचार के आंकडे, मीडिया और न्यायतंत्र में दलितो की अल्प भागीदारी, गाँधी के प्रति इतिहास व इतिहासकारों का नरम, उदार व मेहरबानी वाला रवैया, डॉक्टर अम्बेडकर के प्रति कटु और संकीर्ण रवैया, संविधान का मह्त्व, हिन्दू नेताओं का संकीर्णतावादी दृष्टिकोण, दलित संतों के योगदान पर, पितृसत्ता- ब्राहमणवाद का संबंध, गाँधी का कम्यूनऔर उनके ब्रहमचार्य के प्रयोग आदि आदि।
इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद बहुत ही सुंदर है। पठनीय है। इसके लिए डॉ रतनलाल और जयहिन्द यादव बहुत बधाई और प्रशंसा के पात्र है। हिंदी में इस पुस्तक का आना जरुरी और बहुत महत्व की बात है। दलित आंदोलन में गाँधी की भूमिका को जानने के लिए इस पुस्तक को पढ़ा जा सकता है। खासकर जाति और नस्ल के संदर्भ में। दलित साहित्य, आंदोलन व इतिहास में रुचि रखने वालों को यह किताब जरुर उपयोगी होगी।

लेखिका व सामाजिक कार्यकर्ता हैं

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