Friday, 17 April 2020

भीमाकोरेगांव : गिरफ्तारियां और इतिहास - मनीष आज़ाद, सीमा आज़ाद



14 अप्रैल बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का जन्मदिन इस बार दमन की एक और मिसाल देकर गया। इसी दिन उनके विचारों को लोगों तक पहुँचाने वाले प्रख्यात चिंतक-लेखक प्रो आनन्द तेलतुम्बड़े को एनआईए ने उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब वे खुद तय समय पर अपनी गिरफ्तारी देने जा रहे थे। उनके अलावा प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक गौतम नवलखा को भी इसी दिन एनआईए कोर्ट में सरेंडर करने के लिए मजबूर कर दिया गया। उस समय में भी इन दोनों को गिरफ्तारी से छूट नहीं मिली, जबकि देश में कोरोना संकट को देखते हुए जेलों में न सिर्फ मुलाकात रोक दी गयी है, बल्कि जेलों में कैदियों की संख्या कम करने की बात की जा रही है। यह सब ठीक उसके बाद हुआ, जब इसी दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी टीवी पर ‘राष्ट्रीय गरिमा और एकजुटता’ बनाने और ‘अग्निपरीक्षा से गुजरने’ जैसी बातें बोलकर ‘प्यारे देशवासियों’ को मोहित करके जा चुके थे। आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा दोनों देश के बेहद सम्मानित नागरिक, बुद्धिजीवी और देश को आगे ले जाने वाला विचार देने वाले नागरिक हैं, फिर इन्हें गिरफ्तार क्यों किया गया? जवाब है- 2018 में पुणे में ‘एल्गार परिषद’ आयोजित करने के लिए। इसके पहले इसी केस में सरकार ने 80 साल के बुजुर्ग प्रख्यात कवि वरवर राव, प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, जनपक्षधर वकील सुरेन्द्र गाडलिंग, अरूण फरेरा, संस्कृतिकर्मी सुधीर ढावले, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक वर्नन गोंजालविस, नारीवादी आन्दोलनों से जुड़ी नागपुर विश्वविद्यालय की प्रोफेसर शोमा सेन, जेएनयू के शोध छात्र और दिल्ली के जाने-माने राजनीतिक कार्यकर्ता रोना विल्सन और प्रख्यात संस्थान TISS के छात्र रहे सामाजिक कार्यकर्ता महेश राउते को गिरफ्तार कर चुकी है। क्या था यह कार्यक्रम, जिससे बीजेपी की सरकार इतना बौखला गयी, और आनन्द तेलतुम्बड़े सहित देश के इन प्रख्यात लोगों को जेल में डाल दिया। इन सभी लोगों को अलग-अलग समय पर गिरफ्तार किया गया, जिसकी नवीनतम कड़ी इस बार 14 अप्रैल को हुई ये दो गिरफ्तारियां हैं।


2018 में आयोजित एल्गार परिषद कार्यक्रम पर दमनात्मक कार्यवाही और उसके बाद उससे जोड़कर लोगों की गिरफ्तारियां दोनों ही अम्बेडकर के विचारों के प्रति सरकार के रूख का बयान करती है। सन 2018 की शुरूआत ऐतिहासिक भीमा कोरेगांव लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ मनाये जाने के साथ हुई। ‘नवी पेशवाई’ यानि नव ब्राह्मणवादी मनुवादी सत्ता इससे इतनी बौखलाई कि उस वक्त से दमन का सिलसिला शुरू हो गया, जो आज तक जारी  है। उसी साल के 6 जून से गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हो गया। इस मनुवादी सत्ता की दोहरी मंशा को उसकी कार्यवाहियों से समझा जा सकता है कि उसने पहले मनुवादी वर्णव्यवस्था पर चोट कर ‘हिन्दुत्व’ के संघी विचार की धज्जियां उड़ाने वाले भीमाकोरेगांव के इतिहास को देशव्यापी बनने से रोकने का पूरा प्रयास किया, इसमें असफल रहने पर वह ‘एल्गार परिषद’ को माओवादियों का आयोजन बताने में लग गयी, जैसेकि मात्र माओवादियों द्वारा आयोजित किये जाने से ही भीमा कोरेगांव में दलितों की शौर्यगाथा बदल जायेगी और पुराना और नया दोनों पेशवाराज दलित समर्थक दिखने लगेगा।
दूसरे, इसके बहाने से सत्ता ने देश में ‘कारपोरेटी विकास’ के सच का खुलासा करने वाले लोगों पर हमले करना शुरू कर दिया, उन्हें अलग-थलग करने का प्रयास वह लगातार कर रही हैं। वास्तव में जो लोग सत्ता के मनुवादी फासीवाद पर बौद्धिक हमला कर रहे थे, उन्हें ‘मोदी पर हमला’ करने के संकुचित दायरे में बांधने का प्रयास किया गया, ताकि जनता का ध्यान उस ओर से हट जाय। लेकिन वे असफल रहे- भीमा कोरेगांव का इतिहास इस दमन से देशव्यापी हो गया। इसके अगले ही साल यानि सन 2019 की शुरूआत देश भर में भीमा कोरेगांव के इतिहास को याद किये जाने और उसे सलाम किये जाने से हुई। इस रूप में सरकार की जबर्दस्त हार हुई है कि इतने दुष्प्रचार के बाद भी नये साल का पहला दिन ही मनुवादी-फासीवादी निजाम की कब्र खोदने वाले इतिहास को जन-जन तक पहुंचाने का दिन बन जाये। भीमाकोरेगांव का इतिहास जो कि महाराष्ट्र और कुछ बुद्धिजीवियों तक ही सीमित था अब जन-जन तक फैल गया। आइये हम भी इस ऐतिहासिक घटना के बारे में जानते हैं-
1 जनवरी 1818 को महाराष्ट्र में पूना के नजदीक ‘भीमा कोरेगांव’ में अंग्रेजों की फौज के साथ मिलकर लड़ते हुए महारों की 500 की सेना ने मराठा पेशवाओं की 20000 से भी ज्यादा की फौज को शिकस्त देते हुए उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया था। बाद में 1851 में इस युद्ध में मारे गये सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने यहां एक ‘स्तम्भ’ का निर्माण करवाया जिसके ऊपर ज्यादातर महार सैनिकों के ही नाम खुदे हैं। ‘मुख्यधारा’ का इतिहास आज भी इस महत्वपूर्ण घटना की ओर आंखे मूंदे हुए है।

1 जनवरी 1927 को डाॅ अम्बेडकर ने यहां अपने साथियों के साथ आकर उन महार सैनिकों को याद किया जिन्होंने भयंकर जातिवादी और प्रतिक्रियावादी पेशवाओं की सेना को शिकस्त देते हुए कई सारे जातिगत मिथकों को तोड़ डाला था और दलितों के आत्म सम्मान को ऊंचा उठाया था। (शायद यहीं से प्रेरणा लेते हुए डाॅ अम्बेडकर ने 1926 में ‘समता सैनिक दल’ की स्थापना की थी) तब से हर साल यहां लाखों की भीड़ उमड़ती है और दलित आन्दोलन व जनवाद की लड़ाई से जुड़े लोग यहां आकर अनेकों कार्यक्रम पेश करते हैं और जाति व्यवस्था के खात्मे की शपथ लेते हैं। 2018 में यहां केवल दलित संगठन ही नहीं, बल्कि देशभर के जनवादी संगठन भी आयोजकों में शामिल थे। क्योंकि इस इतिहास के 200 साल पूरे हो रहे थे। इस साल इस कारण यह जमावड़ा काफी बड़ा था। लेकिन दक्षिणपंथ के साथ कुछ वाम संगठनों ने इस आयोजन का यह कहकर विरोध किया था कि इस लड़ाई में दलित अंग्रेजों के साथ मिलकर भारतीय राजा के खिलाफ लड़े थे।
महारों की सेना द्वारा पेशवाओं की सेना पर इस विजय के महत्व को हम तभी अच्छी तरह समझ सकते है जब हम पेशवाओं के राज्य में महारों की क्या स्थिति थी यह जानें और उनकी छटपटाहट को समझें। पेशवाओं के राज्य में महारों को सार्वजनिक स्थलों पर निकलने से पहले अनिवार्य रुप से अपने गले में घड़ा और कमर में पीछे झाड़ू बांधनी पड़ती थी। जिससे उनके पैरों के निशान खुद ब खुद मिटते रहें और उनकी थूक सार्वजनिक स्थलों पर ना गिरे ताकि सार्वजनिक स्थल ‘अपवित्र’ न हो। अपनी इसी स्थिति के कारण महारों के दिलो-दिमाग में ब्राह्मणों और तथाकथित ऊंची जातियों के प्रति सदियों से जो नफरत बैठी होगी, उसी नफरत ने उन्हें वह ताकत दी जिससे वे अपने से संख्या में कहीं ज्यादा पेशवाओं की सेना को वापस भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध ने वर्णव्यवस्था के उस मिथक को भी चूर-चूर कर दिया कि क्षत्रियों में ही लड़ने की काबिलियत है, और राज करने और राज को बचाने की काबिलियत वर्ण विशेष के लोगों में ही होती है।
भारतीय इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त ‘इतिहासकारों’ ने नजरअंदाज किया, यह बात तो समझ में आती है, लेकिन ‘माक्र्सवादी’ कहे जाने वाले इतिहासकारों ने भी इसे क्यों नजरअंदाज किया, इसे भी समझने की जरुरत है।
इन इतिहासकारों के अनुसार महारों ने भीमा कोरेगांव की यह लड़ाई अंग्रेजों के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ मिलकर लड़ी थी, तो इतिहास में इसे प्रगतिशील कदम कैसे कहा जा सकता है? अपने इसी रुख के कारण आजादी के आन्दोलन के दौरान डाॅ अम्बेडकर की भूमिका पर भी उन्होंने (विशेषकर ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों ने) प्रश्न चिन्ह खड़े किये। कुछ वामदल तो उन्हें अंग्रेजों का दलाल तक मानते हैं।
इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर चर्चा से पहले चलिए विश्व इतिहास में इससे मिलती-जुलती कुछ दूसरी घटनाओं पर एक नजर डाल लेते हैं।
भीमा कोरेगांव की घटना के 42 साल पहले 4 जुलाई 1776 को अमेरिका, इंग्लैंड के खिलाफ लड़कर स्वतंत्र हुआ। ‘जार्ज वाशिंगटन’ और ‘जेफरसन’ के नेतृत्व में लड़े गये इस ‘अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम’ में वहां के काले गुलाम अफ्रीकी लोग और वहां के मूल निवासी किसके पक्ष में लड़े थे? आपको शायद आश्चर्य हो लेकिन यह सच है कि इनका अधिकांश हिस्सा इंग्लैंड के पक्ष में जार्ज वाशिंगटन की सेना के खिलाफ लड़ रहा था। 4 जुलाई 1776 के बाद का इतिहास यह दिखाता है कि उनका निर्णय सही था। क्योकि इसी दिन घोषित तौर पर दुनिया का पहला नस्ल-भेदी देश अस्तित्व में आया, जहां स्वतंत्रता सिर्फ गोरे लोगों के लिए थी और काले लोगो के लिए गुलामी करना नियम था। (‘स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी’ काले लोगों की गुलामी से जगमगा रही थी) स्वयं जार्ज वाशिंगटन और जेफरसन के पास सैकड़ों की संख्या में काले गुलाम उनकी निजी सम्पत्ति के रुप में मौजूद थे। 2014 में अमरीका के मशहूर इतिहासकार ‘गेराल्ड होर्ने’ (Gerald Horne) ने इसी विषय पर एक विचारोत्तेजक किताब लिखी-  'The Counter-Revolution of 1776' इसमें उन्होंने विस्तार से अमरीकी स्वतंत्रता सग्राम के दौरान वहां के काले गुलामों और गोरे अमरीकियों के बीच के ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों’ की चर्चा की, जिससे वहां के ‘मुख्यधारा’ के गोरे इतिहासकार नजर चुराते रहे हैं।
इसे एक रुपक मानकर यदि हम इसे तत्कालीन भारत पर लागू करें, तो कुछ ठोस समानताएं दिखती हैं। सोचने की बात है कि यहां के दलितों (विशेषकर ‘अछूतों’) का ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ यहां के ब्राह्मणवादी उच्च वर्ण के साथ होगा या बाहर से आये उन अंग्रेजों के प्रति, जो कम से कम छूआछूत का प्रयोग तो नहीं ही करते थे, और जिन्होेंने शिवाजी के बाद पहली बार महारों को अपनी सेना में प्रवेश दिया।
इतिहास कुछ सेट फार्मूलों से नहीं, बल्कि अपने वस्तुगत अन्तरविरोधों से आगे बढ़ता है। ‘देशी’  पेशवाओं और ‘बाहरी’ अंग्रेजों के बीच लड़ाई में वे किस तर्क से पेशवाओं का साथ देते?
इसे और बेहतर तरीके से समझने के लिए इतिहास की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना को ले लेते हैं। 410 ईसवी में जब जर्मन कबीलों ने रोम पर भयानक हमला बोला, तो रोम के गुलामों ने क्या अपने दास स्वामियों का साथ दिया? नहीं! उन्होंने जर्मन कबीलों के साथ मिलकर रोम की नींव हिला दी। क्या यह रोम के साथ गुलामों की गद्दारी थी? इसे आप खुद ही तय कर लीजिए। उस वक्त गुलामों की क्या स्थिति थी, इसे जानने के लिए हावर्ड फास्ट की मशहूर कृति ‘स्पार्टकस’ पढ़ा जा सकता है।
1688 की ‘गौरवपूर्ण क्रान्ति’ ने गुलामों के व्यापार को अंग्रेज व्यापारियों के लिए मुक्त कर दिया। इसके पहले गुलाम व्यापार पर सिर्फ राजा का अधिकार होता था और यह सीमित था। इसके फलस्वरुप अफ्रीका से गुलामों का व्यापार सैकड़ों गुना बढ़ गया और उन्हें जहाजों में ठूंस-ठूंस कर अटलान्टिक सागर के दोनों ओर गुलामी के लिए भेजा जाने लगा। उन गुलामों की नजर से देखिये तो उनके लिए इस ‘गौरवपूर्ण क्रान्ति’ में ‘गौरवपूर्ण’ क्या था?
पुनः भारत पर लौटते हैं। यहां जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म का अनिवार्य हिस्सा है। दरअसल उस अर्थ में हिन्दू धर्म, धर्म भी नहीं है जिस अर्थ में ईसाई या मुस्लिम धर्म हैं। इसमें ना कोई एक ईश्वर है ना बाइबिल या कुरान की तरह कोई एक किताब है। और जैसा कि अम्बेडकर इसे सटीक तरीके से बताते है कि हिन्दू धर्म में एक ही चीज ऐसी है जो सभी हिन्दुओं को आपस में बांधती है, और वह है उसकी जाति व्यवस्था, जिसे सभी हिन्दू अनिवार्य रुप से मानते हैं। इस जाति व्यवस्था में सबसे निचली पायदान पर हैं ‘अछूत’, शेष जातियां जिनकी छाया से भी बचती हैं। वर्ण व्यवस्था से भी ये बाहर हैं। हिन्दू मन्दिरों और हिन्दू अनुष्ठानों में इनका प्रवेश वर्जित है। इस रुप में यह दुनिया का पहला और निश्चित रुप से आखिरी धर्म है जो अपने ही एक समुदाय के ईश्वर तक पहुंच को सचेत तरीके से रोक देता है। ज्योतिबा फुले की शिष्या ‘मुक्ता साल्वे’ ने 1855 में लिखे अपने एक लेख में इस तर्क को बहुत असरदार तरीके से रखा है-‘‘यदि वेद पर सिर्फ ब्राह्मणों का अधिकार है, तब यह साफ है कि वेद हमारी किताब नहीं है। हमारी कोई किताब नहीं है-हमारा कोई धर्म नहीं है। यदि वेद सिर्फ ब्राह्मणों के लिए है तो हम कतई बाध्य नहीं हैं कि हम वेदों के हिसाब से चले। यदि वेदों की तरफ महज देखने भर से हमें भयानक पाप लगता है (जैसा कि ब्राह्मण कहते हैं) तब क्या इसका अनुसरण करना हद दर्जे की मूर्खता नहीं है? मुसलमान कुरान के हिसाब से अपना जीवन जीते हैं, अंग्रेज बाइबिल का अनुसरण करते हैं और ब्राह्मणों के पास उनके वेद हैं। चूंकि उनके पास अपना अच्छा या बुरा धर्म है, इसलिए वे लोग हमारी तुलना में कुछ हद तक खुश हैं। हमारे पास तो अपना  धर्म ही नहीं है। हे भगवान! कृपया हमें बताइये कि हमारा धर्म क्या है?’’ इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए डाॅ अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को अमानवीय धर्म कहा है।
यदि हम इसकी तुलना ईसाई धर्म या मुस्लिम धर्म से करते है तो पाते हैं कि वे जहां भी जाते थे, वहां के निवासियों को अपने धर्म से जोड़ने का प्रयास करते थे। अपने सभी धार्मिक अनुष्ठानों, अपने पूजा स्थलों में उन्हें शामिल करते थे और अपने ईश्वर के साथ उनका नाता जोड़ते थे। हालांकि यह कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें उनके अपने राजनीतिक व आर्थिक हित जुड़े होते थे। लेकिन इसके बावजूद हिन्दू धर्म से उनका रणनीतिक अन्तर बहुत साफ है।
यदि हम ‘अछूतों’ की आर्थिक हैसियत की बात करें, तो यह बात साफ है कि उनके पास अपनी व्यक्तिगत चीजों के अलावा कोई सम्पत्ति नहीं होती थी। वास्तव में ‘अछूतों’ के लिए सम्पत्ति रखना धार्मिक तौर पर मना था। यानि हिन्दू धर्म में ही ऐसा सम्भव है जहां समाज के एक समुदाय ‘अछूत’ को ना सिर्फ आर्थिक तौर पर गरीब रखा जाता है वरन् धर्म व ईश्वर से वंचित रखकर उसकी ‘आध्यात्मिक सम्पत्ति’ भी छीन ली जाती है।
धर्म पर इतनी बात इसलिए जरुरी है क्योकि हम समाज में मौजूद वर्गीय अन्तरविरोधों को तो पकड़ लेते हैं, लेकिन धर्म के अन्दर या धर्म के आवरण में मौजूद अन्तरविरोधों को नहीं देख पाते या उसे नजरअंदाज कर देते है। जाति उन्मूलन पर लिखे अपने क्रान्तिकारी दस्तावेज ‘जातिभेद का उच्छेद’ में अम्बेडकर हिन्दू धर्म की तमाम कुटिलताओं-शब्दाडम्बरों को भेदकर उसके भीतर या उसके आवरण में मौजूद उस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध को सामने लाते है जिस पर अब तक पर्दा पड़ा हुआ था। इस अति महत्वपूर्ण किताब के माध्यम से अम्बेडकर ने समूचे दलित समुदाय को हिन्दू धर्म से बाहर खींचकर उन्हें मानसिक गुलामी से आज़ाद कर दिया और उन्हें स्वतंत्र वैचारिक जमीन मुहैया करायी, जिस पर भावी दलित आन्दोलन की नींव रखी जानी थी। इसी किताब में निष्कर्ष के रुप में अम्बेडकर ने यह साफ कर दिया कि इस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध (अम्बेडकर ने ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन उनका मतलब यही है।) को बनाये रखते हुए समाज का जनवादीकरण करना और राष्ट्र निर्माण करना असम्भव है। डाॅ अम्बेडकर के शब्दो में-‘जातिप्रथा की नींव पर किसी भी प्रकार का निर्माण संभव नही है।’ इसीलिए कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे ‘आजादी’ के आन्दोलन को वे उचित ही शक की निगाह से देख रहे थे। उन्होंने साफ-साफ कहा-‘प्रत्येक कांग्रेसी को जो बराबरी का यह सिद्धान्त बार-बार दुहराता है कि एक देश को दूसरे देश पर राज करने का अधिकार नहीं है, उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर राज करने के योग्य नहीं है।’ कांग्रेस और गांधी को राष्ट्रीय आन्दोलन का पर्याय बताने वाले इतिहासकार यह बताना भूल जाते हैं कि गांधी आजीवन वर्णव्यवस्था और प्रकारान्तर से जाति व्यवस्था के समर्थक बने रहे। यही कारण है कि गांधी ने खुलेआम ऐलान किया कि अम्बेडकर हिन्दुत्व के लिए चुनौती हैं। दरअसल कांग्रेस में तिलक के आने के बाद से ही कांग्रेसी नेतृत्व निरन्तर रुढ़िवादी और साम्प्रदायिक होता गया है। ‘पंडित’ नेहरु इसके अपवाद नहीं, वरन इस पर पड़ा वह झीना पर्दा था जो अक्सर ही फट जाया करता था और कांग्रेस का असली चेहरा सामने आ जाया करता था। इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए कि आज हम जिस फासीवाद को अपने नंगे रुप में देख रहे हैं, उसका कितना सम्बन्ध आजादी के आन्दोलन के दौरान और उसके बाद के कांग्रेस और उसके नेतृत्व से रहा है।
आज फासीवाद की खुली प्रतिनिधि एक चुनावी पार्टी हो सकती है, लेकिन वास्तव में यह वित्तीय संकट से उत्पन्न एक व्यवस्था है, जो हमारे देश के संसाधनों को बेंचकर निवासियों को बेदखल कर रहा है, उन पर कहीं प्रत्यक्ष कहीं परोक्ष जुल्म ढा रहा है। यह निजाम दलितों सहित सभी दमितों के इतिहास को सामने लाने में बाधक है। भीमाकोरेगांव और यहां पिछले साल आयोजित ‘एल्गार’ यानि ‘आवाज’ इस व्यवस्था पर चोट करने का एक प्रतीक बन गया है। फासीवाद का मुकाबला हम ऐसे ही सैकड़ों एल्गारों से कर सकते हैं, जिसमें हम वंचितों द्वारा लड़ी गयी लड़ाइयों को याद करते हुये इस फासीवादी निजाम के खिलाफ अपनी आवाज को बुलन्द करेंगे। फासीवादी सत्ता की साजिश है कि वह हिन्दुओं के सामने मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को खड़ा करे, लेकिन जब उसके हिन्दुत्व से ही उसकी नजर में ‘शूद्रों’ का एक बड़ा हिस्सा उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है, तो उसकी फासीवादी नीति को बहुत बड़ा झटका लगता है, उसकी बौखलाहट इस झटके से खुलकर सामने आ जाती है, जो कि इस समय इससे जुड़ी गिरफ्तारियों में साफ नजर आता है।
 2018 के बाद से 1 जनवरी सिर्फ नये साल के जश्न का दिन नहीं, इस फासीवादी निजाम की नाक में दम करने वाले भीमाकोरेगांव के इतिहास और एल्गार के आयोजन की वर्षगांठ के जश्न का भी है। इसके जश्न के रूप में सामने आते ही यानि मनुवाद की हार का इतिहास सामने आते ही सरकार का बौखलाहट सामने आ गयी, और उसने झूठे मुकदमें का साजिश रच डाली।




भीमा कोरेगांव में एल्गार परिषद के आयोजन का पूरा मुकदमा ही फर्जी है। सच तो ये है कि पेशवाई यानि ब्राह्मणवाद में यकीन करने वाले मिलिंद एकभोटे और संभाजी भिड़े (जो कि नरेन्द्र मोदी के गुरू कहे जाते हैं) ने इस आयोजन के दौरान वहां हिंसक कार्यवाही के लिए अपने लोगो को भड़काया, दलितों पर हमला करवाया। जब इन दोनों के खिलाफ मुकदमे लिखवाए गए, तो भी महीनों तक इन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया। दबाव पड़ने पर गिरफ्तार हुए भी, तो जल्द ही रिहा भी कर दिया गया, क्योंकि ये लोग सत्तासीन ‘नवी पेशवाई’ को मानने वाले लोग हैं और इन्हें ही ध्वस्त करने की बात ‘ऐल्गार परिषद’ में की गई थी। लेकिन तकनीकी रूप से भी देखें, तो यह मुकदमा पूरी तरह से फर्जी है। सुधीर धावले को छोड़ गिरफ्तार सभी ऐसे लोग हैं जो न तो इस कार्यक्रम में शामिल हुए थे, न ही आयोजक मंडल का हिस्सा थे। बल्कि ये सभी लोग सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ खड़े लोग है। मुकदमें को अधिक सनसनीखेज बनाने के लिए इन सभी पर प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बनाने तक का आरोप मढ़ दिया गया। वो भी एक ऐसे पत्र के माध्यम से जिसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है। लेकिन जब तक इस पत्र को अदालत के सामने फर्जी साबित किया जाएगा, तब तक न जाने कितने साल बीत चुके होंगे। अपने क्षेत्र में शानदार काम करने वाले इन लोगों को कोर्ट से जमानत भी नहीं मिल रही। यहां तक कि इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हुए जब महाराष्ट्र में मौजूदा सरकार बनी, और वहां मुकदमा वापस लेने की मात्र फर्जी हलचल शुरू हुई, तभी इस मामले को केंद्र सरकार ने एनआईए को सौंप कर अपनी मंशा जाहिर कर दी। क्या है उसकी मंशा? इतना भर नहीं कि इसका बहाना लेकर देश के बुद्धिजीवियों का मुंह बंद करना है, बल्कि ये भी कि देश में पेशवा राज यानि हिंदुत्ववादी मनुवाद को कायम रखना है। इसके खिलाफ खड़ी हर सोच, हर विचारधारा को यह सरकार कुचल देना चाहती है। 14 अप्रैल अम्बेडकर जयंती के दिन अंबेडकरवादियों की गिरफ्तारी करके यही संदेश दिया गया है। लेकिन भीमा कोरेगांव का इतिहास उसके 200 साल पूरे होने पर दमित जनता के बीच फिर से जिंदा हो उठा है,  इसे अब झुठलाया नहीं जा सकता। इतिहास अपने आप को बार - बार दोहराता है, यह हमें इतिहास ही बताता है।

5 comments:

  1. बहुत अच्छा आलेख।

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  2. अच्छा आलेख है। मोदी सरकार की दलित / अंबेडकर विरोधी सैद्धान्तिक स्थिति और मनुवादी चेतना को ठीक से उजागर करने वाला लेख।

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  3. Very informative & supported by historical facts.The fight is on for egalitarian society.Men in governance should view the problem with open mind Rest is to be left on the judicial scrutiny beause the matter is subjudice.Though the track record of our investigating agencies is not encouraging.But i am sure justice shall prevail.

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  4. और जरूरी आलेख ।
    सचमुच 2018 के बाद 1 जनवरी सिर्फ नए साल के जश्न का दिन नहीं इस फासीवादी निजाम के नाक में दम करने वाले भीमा कोरेगांव के इतिहास और एल्गार के आयोजन की वर्षगांठ के जश्न का भी है इसके जश्न के रूप में सामने आते ही यानी मनुवाद की हार का इतिहास सामने आते ही सरकार का बौखलाहट सामने आ गया और उसने झूठे मुकदमे का साजिश रच डाला । इस फासीवादी साजिश का पर्दाफाश जरूरी है।राजेश

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  5. शानदार लेख

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