Sunday 28 June 2020

जाॅर्ज फ्लाॅयड की हत्या और हालिया अमरीकी जन विक्षोभ- तुहिन देब


 गत 25 मई को ऐसी घटना घटी जिसने वैश्विक स्तर पर कोरोना के आंतक सेे आतंकित विश्व को झकझोर दिया। 25 मई को अमरीका के मिनियापोलिस शहर में अश्वेत अमरीकी नागरिक जाॅर्ज फ्लाॅयड को पुलिस हिरासत में मार डाला गया था। फ्लाॅयड पर नकली बिल के जरिए भुगतान करने का आरोप था। हत्या के वीडियो के वायरल होने के बाद अमेरिका की जनता में जबरदस्त नाराजगी फैली। इस वीडियो में डेरेक शाॅविन नामक श्वेत पुलिस अधिकारी, जाॅर्ज फ्लाॅयड की गर्दन पर घुटना टेककर उसे दबाता हुआ दिखता है जिससे जाॅर्ज की मौत हो जाती है। जाॅर्ज, पुलिस अधिकारी से ‘‘आई कान्ट ब्रिद’’ कहकर उसे छोड़ने की अपील करते हैं लेकिन, पुलिस अधिकारी पर इसका कोई असर नहीं होता। वह घुटने से दबाकर 46 वर्षीय जाॅर्ज फ्लाॅयड को मार डालता है। विडियो को दुनिया भर के लोगों ने देखा।
जाॅर्ज की गर्दन पर घुटना दबाकर मारने वाले पुलिस अधिकारी डेरेक शाॅविन को गिरफ्तार कर लिया गया है और उस पर हत्या के आरोप लगाए गए हैं। इस घटना के संबंध में अब तक 4 पुलिसकर्मियों को बर्खास्त किया जा चुका है। घटना के बाद अमेरिका के 75 से अधिक शहरों में जनविक्षोभ फुट पड़ा। गोरे-काले मिश्रित जनता नस्लवाद के खिलाफ उदारवादी, शांतिवादी विचारधारा से प्रभावित जनता ने ‘‘ब्लैक लाइव्स मैटर’’, ‘नस्लवाद अमेरिका की महामारी है’ ‘‘पुलिसी कु्ररता खत्म करो’’ और ‘‘निर्दोषांे की हत्या बंद करो’’ जैसे नारे लिखी हुई तख्तियाॅं और बैनर लेकर लाखों-लाख लोग न्यूयार्क सहित तमाम शहरों की सड़कों पर प्रतिरोध में उतर आए। न्यूयाॅंर्क सिटी के मेयर बिल डी ब्लासियो भी प्रदर्शन में शामिल हुए। प्रदर्शन मे शामिल लोग जाॅर्ज फ्लाॅयर्ड के लिए न्याय की मांग करते हुए प्रदर्शन कर रहे हैं। इसी तारतम्य में पुलिस कु्ररता और पूंजीवादी सामाजिक दमन के खिलाफ अमेरिका, ब्रिटेन, डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, न्यूजीलैण्ड, आॅस्ट्रेलिया और कनाडा समेत दुनिया के कई देशों में जागरूक जनता लाॅक डाउन के बावजूद जबरदस्त प्रदर्शन कर रही हैं। ब्रिटेन मे जनता के प्रदर्शन के दौरान 18वी शताब्दी के एक दास व्यापारी एडवर्ड कोलस्टन की मूर्ति को ध्वस्त कर दिया है।
इधर अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय व्हाइट हाउस के बाहर प्रदर्शनकारियों को जबरन हटाने के कारण अमेरिका की संघीय अदालत में राष्ट्रपति ट्रम्प के खिलाफ अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन (एसीएलयू) और ‘ब्लैक लाईव्स मैटर’ ने मुकदमा दायर किया है। हयूस्टन के पुलिस प्रमुख ने ट्रंप को अनावश्यक बोल कर विवाद पैदा न करने की नसीहत दी है। अमेरिका के पूर्व विदेशमंत्री काॅलिन पावेल ने भी राष्ट्रपति ट्रम्प के नस्लभेद विरोधी प्रदर्शनों से निपटने के तरीके की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने संविधान से हटकर काम किया है। नेशनल गार्ड के अधिकारियों ने कहा है कि हमारे पास एक संविधान है और हमें उस संविधान का पालन करना है। इधर अमेरिका में नस्लभेद विरोधी, पुलिस अत्याचार विरोधी, सामाजिक न्याय के लिए हो रहे जंगी प्रदर्शन के दरम्यान फिर एक अश्वेत नागरिक पुलिस जुल्म का शिकार हो गया जब अटलांटा में 12 जून को वैंडी रेस्टोरेंट की पार्किंग में अश्वेत रेशार्ट बु्रक्स को पुलिस अधिकारी जैरेट रोल्फ ने शरीर के पिछले हिस्से में 2 गोली मारकर हत्या कर दी। बु्रक्स की हत्या ने जाॅर्ज फ्लाॅयड की हत्या से उपजे आग को और भड़का दिया है।
जाॅर्ज फ्लाॅयड का जन्म अमेरिका के नाॅर्थ कैरोलिना में हुआ था और उन्होंने ह्यूस्टन में अपने जीवन का लम्बा वक्त गुजारा था। नस्लभेद और पुलिस बर्बरता के खिलाफ देशव्यापी जंगी प्रदर्शनों के बीच ह्यूस्टन में जाॅर्ज फ्लाॅयड का अंतिम संस्कार किया गया। इस दौरान 6000 से अधिक लोग उन्हें अंतिम विदाई देने और श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा हुए थे। पेशेवर मुक्केबाज फ्लाॅयड मेवेदर ने जाॅर्ज के अंतिम संस्कार का पूरा खर्च उठाया।
आंदोलन का चरित्र जंगी और पंूजीवादी व्यवस्था विरोधी हो गया। बड़े स्तर पर तोड़फोड़ हुई और जनता की पुलिस से झड़प की घटनाएं भी सामने आई। आंदोलन इतना विशाल हो गया कि जनता ने वाशिंगटन में राष्ट्रपति निवास व्हाईट हाउस पर धावा बोल दिया और दुनिया के साम्राज्यवादियों के सरगना ट्रम्प को बंकर में शरण लेनी पड़ी। अमरीकी साम्राज्यवाद को इस आंदोलन ने हिलाकर रख दिया है और जनता की ताकत का शानदार नमूना पेश किया है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस आंदोलन के लिए जनता को दोष दे रहे हैं और अप्रत्यक्ष रूप से नस्लवाद का समर्थन करते हुए दिख रहे हैं। उन्होंने पहले तो विरोध प्रदर्शन के दमन के लिए नेशनल गार्ड को तैनात किया फिर इस कदम के खिलाफ उठ रहे प्रबल विरोध को देखते हुए वाशिंगटन डी.सी. से नेशनल गार्ड की वापसी का आदेश दिया। दूसरी ओर हम देखते हैं कि मिनियापोलिस शहर के पुलिस कर्मियों ने  घुटनों के बल बैठ कर सार्वजनिक रूप से जनता से इस कृत्य के लिए माफी मांगा। इस बात की हम भारत देश में कल्पना भी नहीं कर सकते। अमेरिका के मिनियापोलिस शहर की नगर परिषद ने बहुमत के साथ स्थानीय पुलिस विभाग को खत्म करने का संकल्प लिया है। उनका कहना है कि शहर में नागरिक सुरक्षा का नया माॅडल बनाया जायेगा।

‘‘आई कांट ब्रीद’’ (मैं सांस नहीं ले पा रहा हॅूं) यह वाक्य पहले भी कई बार कहा जा चुका है-2014 में न्यूयार्क सिटी के एक कोने में एक निहत्थे अश्वेत एरिक गार्नर की हत्या के बाद छतों पर से और राष्ट्रीय बास्केटबाॅल संघ (एनबीए) के खिलाड़ियों की जर्सियों पर लिखा हुआ था। मिस्टर गार्नर की मौत पर ढेरों कवरेज के बाद भी, जैसा होता रहा है, इस घटना के पश्चात कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। पिछले दशक में अमेरिका ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के चक्र में फंसता ही चला गया है जिसमें ज्यादातर घटनाओं में निहत्थे अश्वेत लोग पुलिस द्वारा मारे गये और जिनकी संख्या बढ़ती ही चली गई है। इनमें उन हत्यारों के खिलाफ कोई विशेष कार्यवाही नहीं हुई और वे वर्दी के पीछे छिपकर आराम से घूमते रहे।
दशकों से अफ्रीकी-अमेरिकन अपने पास-पड़ोस में पुलिस के दुव्र्यवहार की शिकायतें करते रहे हैं। इस स्थिति में ज्यादातर अमेरिकीयों ने उपेक्षा ही की, चाहे उनके अस्तित्व को उन्होंने पूरी तरह से इनकार नहीं किया हो। स्मार्ट फोन व तकनीकी विकास ने लोगों को उनकी अपनी आंखों से पुलिसिया ताकत के दुरूपयोग की सच्चाइयों को देखने का मौका दिया। जार्ज फ्लाॅयड की हत्या से उपेक्षा का यह गुब्बारा पूरी तरह फूट गया। डेरेक शाॅविन द्वारा फ्लाॅयड की गर्दन को अपने घुटने से 8 मिनट तक दबाए रखने के इस विडियों में अधिक चिंताजनक बात यह है कि मानों इतना ही पर्याप्त नहीं था और एक या दो नहीं बल्कि तीन अधिकारी वहाॅं मौजूद थे। कोई कार्यवाही करने की बजाय वे मूर्ति बनकर खड़े रहे जब फ्लाॅयड जान की भीख मांग रहा था तथा मदद की गुहार लगा रहा था।
ऐसे समय में मौन काफी कुछ कहता है, और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मौन से अधिक मुखर किसी की चुप्पी नहीं है। मुक्त विश्व के नेता के जरिए एक टिवटर पेज से व्यथित कर देने वाले कंटेंट का प्रसार होता है। एक कहता है- सचमुच महान काम की रिपोर्ट। प्रेसिडेंट ट्रम्प आप जोरदार चल रहे हैं (बचकाना लेकिन सत्य) ! कोई और कहता है-‘यह तो जबरदस्त जाॅब रिपोर्ट है।’ जब देश दंगों की भेंट चढ़ जाता है, उसका नेता दूसरी तरफ देखने लगता है। फ्लाॅयड की मौत पर कुछ क्षणभंगुर टिप्पणियों और देशव्यापी विरोध के दौरान कुछ प्रदर्शनकारियों द्वारा किये गये नुकसान की आलोचना करते हुए मूल प्रश्न की पूर्णतः उपेक्षा कर दी गई एक व्यवस्थित रंगभेद व चुप्पी के सवालों का जवाब देने की बजाये ट्रम्प ने प्रदर्रूान के तरीकों पर अपना फोकस बनाये रखने को तय किया। न कि वे उसके कारणों पर गये। उन्होंने अमेरिकी पुलिस की समस्या को स्वीकार करने की बजाये कुछ टूटी खिड़कियों का दुखड़ा रोया। ट्रम्प आक्रामक बनते रहे हैं। निर्धारित व्यवहार की सीमाओं को लांघते रहने वाले एक राष्ट्रपति के लिए सटीक कार्यवाही करना इस पद की प्रमुख जिम्मेदारी हैं। संकट की इस घड़ी में जनता अपने नेताओं की ओर देखती है। संवाददाताओं और सरकारी अधिकारियों के लिए गुस्सा और ताकत का बढ़कर प्रदर्शन रंगभेद के अवसर पर कहीं भी दिखाई नहीं दिया, जो ऐसा विषय है जिस पर दुनिया का सबसे वाचाल व्यक्ति सर्वाधिक मौन रहा है। न्याय मांगती लाखों नाराज आवाजों के बीच ट्रम्प कहीं भी नहीं पाए गए।

जब प्रदर्शनकारी व्हाईट हाउस के सामने पहुंचकर उनकी उपस्थिति की मांग करने लगे तो ऐसा लगा जैसे ट्रम्प राष्ट्र को विचलित कर देने वाले इन मुद्दों से टक्कर लेंगे। इसकी बजाये वे छिप गए। विशेषकर एक ऐसे सुरक्षित बंकर में जो व्हाइट हाउस के तलघर में बना हुआ है। जो ट्रम्प खुद की मार्केटिंग शक्तिशाली नेता के रूप में करते रहे हैं, उनके द्वारा कायरता के इस खुले प्रदर्शन से उनकी चुनावी लोकप्रियता अचानक घटी है। प्रदर्शनकारी आने वाले 2020 के चुनाव में अपनी नापसंदगी अपनी पीठों पर जाहिर कर चुके हैं। कुछ हफ्ते पहले यहां तक कि कोविड-19 की महामारी के बीच ट्रम्प पुनर्निवाचन में जीत के तगड़े दावेदार थे। अब उनके और उनके विरोधी जो बिडेन के स्थानों की अदला-बदली हो गई है। क्योंकि एक अमेरिकन ब्राॅडकास्टिंग कंपनी (एबीसी) के अनुसार चुनाव में बिडेन को ट्रम्प पर 8 अंकों की बढ़त मिल गई है। गणना करने वाले कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि अब बिडेन ही पहली पसंद है। हालंाकि बिडेन भी केन्द्रीय आवाज नहीं बन पाये हैं या कहा जाये कि उन्होंने आंदोलन के दौरान आवाज तक नहीं उठाई।
दास प्रथा का खात्मा चाहे डेढ़ सौ साल पहले हो गया हो परंतु उसके विषाणु दुनिया में वैसे ही मौजूद है जिस प्रकार भारत में छुआछुत संवैधानिक तौर पर खत्म तो कर दिया गया है। लेकिन हिंसक जाति व्यवस्था वाले भारतीय समाज में वह अब भी व्याप्त है। सामाजिक व धार्मिक रूप से श्रेष्ठी भाव रखने वाला व विशेषाधिकारों से सज्जित वर्ग इन कानूनी प्रावधानों को नहीं मानता, वैसे ही अनेक गोरों में अश्वेतों के प्रति नफरत का भाव अंतर्मन मंे बना हुआ है। यह जहर रह-रहकर सामने आता है। सड़कों से लेकर राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय मंचों तक अक्सर नस्लीय या रंगभेदवाची टिप्पणियां सामने आती है।
भारत में हर साल क्रिकेट टूर्नामेंट आईपीएल बहुत लोकप्रिय हो चला है। इसमें खिलाड़ियों की अच्छी फीस पर अपने क्लब के लिए अनुबंधित किया जाता है। क्रिकेट खेलने वाले लगभग सभी देशों के खिलाड़ी भारतीयों के साथ मिल जुलकर इसमें खेलते हैं क्रिकेट की ही तरह नस्लीय भेदभाव व रंगभेद का उदय व प्रसार उन्हीं अंगे्रजों की देन है जो या तो यूरोप में रह गये अथवा अमेरिका जाकर बस गये। बहरहाल अगर हम सोचते हो कि एक साथ क्रिकेट या विभिन्न खेल खेलने से नस्लीय भेदभाव कम हुआ होगा। तो ऐसा नहीं है। वेस्टइंडीज के खिलाड़ी डेरेन सैमी हैदराबाद सनराईजर्स की ओर से खेलते रहे हैं। उन्होंने जाॅर्ज फ्लाॅयड की मौत पर उठे तूफान के बीच में बताया है कि जब वे भारत में खेलते थे तो उनका और श्रीलंका के तिसारा परेरा का ‘कालू’ कहकर मजाक उड़ाया जाता था। कैशियस क्ले से मुस्लिम बने मुहम्मद अली सर्वकालिक महान बाॅक्सर थे जिन्होंने तीन बार के हैवीवेट चैंपियन जो फ्रेजियर को आज भी ‘सुपर फाईट’ के नाम से याद किये जाने वाले 1971 के मुकाबले में हराया था। अली ने विश्व चैंपियन का मैडल नस्लवादी टिप्पणी से क्षुब्ध होकर नदी में फेंक दिया था। मोहम्मद अली वो जांबाज अमरीकी प्रतिरोध के प्रतीक थे। जिन्होंने अमरीका द्वारा वियतनाम पर बर्बर आक्रमण के दौरान वियतनाम जाकर सेना की ओर से लड़ने के लिए मना कर दिया था। 
    नस्लीय भेदभाव बहुआयामी है। दास प्रथा के दौरान इसका संबंध जहांॅं सामाजिक या उत्पादन शक्ति में इस्तेमाल तक सीमित था, वहीं कालांतर व हाल के वर्षों में उसका संबंध पूंजीवाद और नवउपनिवेदशवाद से जुड़ता नजर आता है। दास प्रथा के उन्मूलन के बाद पिछले लगभग सौ बरसों में अमेरिका में अश्वेत अस्मिता न सिर्फ जागृत हुई है बल्कि विभिन्न मानवीय गतिविधियों में भी वे खूब आगे बढ़े हंेै। विशेषकर साहित्य, संगीत, खेल आदि में। अनेक एशियाई खासकर भारतीय उपमहाद्वीप, चीनी, लातिन अमेरिकी व अफ्रीकी भी वहां बसे हैं। वे जब अपने परिश्रम व प्रतिभा के बल पर अमेरिकियांें से टक्कर लेने लगे, तो इस मुद्दे का राजनीतिकरण वैसा ही होने लगा जिस प्रकार भारत में सांप्रदायिकता, जातिवाद, प्रांतवाद व भाषावाद का होता है। प्रथम विश्वयुद्ध के दरमियान गदरी क्रांतिकारियों की स्मृति मंे भी हम पाते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में भारत के पंजाब से गये प्रवासी मजदूरों को अमरीका व कनाडा में खूनी प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा था। अभी अमेरिका को डोनाल्ड ट्रम्प के रूप में ऐसा शासक मिला है जो नस्लवाद और साम्राज्यवाद को भरपूर बढ़ा रहा है। जिस प्रकार भारत में अनेक तरह के भेदभाव को प्रोत्साहित कर उनका राजनैतिक फायदा उठाया जा रहा है। अमेरिका के संदर्भ में यह अच्छी बात है कि उस देश के साथ ही दुनिया भर में खासकर यूरोप में नस्लवाद का जबर्दस्त विरोध हो रहा है। पिछले साल चार अश्वेत महिला सीनेटरों ने भी ट्रम्प की इस प्रवृत्ति का विरोध किया था। भारत में गैरबराबरी विरोधी आवाज कमजोर है, क्योंकि राजनैतिक प्रतिपक्ष अधोगति को प्राप्त हो चुका है, तो जनता ने इसके भावी परिणामों की चिंता किये बगैर इसे स्वीकृत कर लिया है। हमारे शासकों के लिए सांप्रदायिक वा जातिवादी धु्रवीकरण ही चुनाव जीतने की कुंजी है।
वेस्टइंडीज के प्रसिद्ध पेसर माईकल होल्डिंग का यह कहना सही है कि क्रिकेट फुटबाॅल के मैदानों में जो नस्लीय टिप्पणियां करते हैं वे इसी समाज से आते हैं। इसलिए आवश्यक है कि नस्लवाद से पीड़ित यह समाज ही खत्म कर ऐसा समाज रचा जाये जो इनसे ऊपर हो।’
आज जो लोगों का गुस्सा फूट रहा है वो सिर्फ एक घटना की बात नहीं है। हमें याद रखना होगा कि अमेरिका बना ही है अफ्रीकी अमरिकीयों की दासता के बल पर 1492 में कोलम्बस द्वारा अमरीकी महाद्वीप के खोजे जाने के बाद उत्तर और दक्षिण अमेरिका के मूल निवासी - माया. एजटेक, इन्का सरीखे कितने ही जनजातीय समुदाय जिन्हें रेड इंडियन कहा गया का निर्मम रूप से सफाया कर यूरोपीयन उपनिवेशवादियों ने अपनी लूट और विनाश की दुनिया बसाई। उस समय ब्रिटीश, फ्रांसीसी, डच, डेनिश, पुर्तगाली, व स्पेनिश उपनिवेशवादियो ने गुलामो के व्यापार को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। गुलामो के व्यापार से यूरोपीयन उपनिवेशवादी समृद्धि के शिखर पर पहुंचे। सबसे ज्यादा गुलाम अफ्रीकी महादेश के थे जिन्हें नयी अमरीका बसाने के लिए बड़ी संख्या में भीषण दमन उत्पीड़न के जरिये यूरोपीयन उपनिवेशवादी, जहाजों में भर-भर कर अमरीका लाते थे। उनमें से कई सारे तो भूखे-प्यासे, दम घुंटकर या भीषण अत्याचार से अमरीका के जहाजों में खोल में ही मर जाते थे। जो बच जाते थे वे अमरीका के श्वेत जालिम अमीरों के खेतों-खलिहानों, जंगलों, खदानों में अमानवीय परिस्थिति में पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम बनने के लिए अभिशप्त थे।

    ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ आजाद अमरीका के निर्माण के लिए जाॅर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में लेक्सिंगटन से शुरू होकर साराटोगा तक जो लम्बा मुक्ति युद्ध चला उसमें भी दासप्रथा के उन्मूलन की मांग उठी थी। अब्राहम लिंकन के समय दक्षिण के दासप्रथा समर्थक राज्यों के खिलाफ लड़ा गया गृह युद्ध और दासप्रथा का खात्मा ऐतिहासिक धटना थी। अमेरिकी गृहयुद्ध के बाद पहली बार 19 जून 1865 को टेक्सास राज्य में दासों को मुक्त करने की घोषणा की गई थी। इसे जूनटीन्थ कहा जाता है। अमेरिकी संविधान के 13वें अधिनियम के जरिए दासप्रथा का अधिकारिक रूप से खात्मा तो हुआ लेकिन उसमें यह कहा गया कि ‘‘कोई भी व्यक्ति दास नहीं है जब तक वो जेल में न हो।’’ इस चीज का फायदा उठाकर अफ्रीकी अमरीकी लोगों को छोटे-छोटे जुर्मों के जेलों में डाला गया जो आज भी बदस्तुर जारी है। कई बार तो बिना सुनवाई के ही लम्बे समय तक जेल में रहने को मजबूर किया गया। यहां तक कि कई नियम अफ्रीकी अमरीकी लोगों की निशाना बनाने के लिए बनाए गए। जेल के अश्वेत कैदियों से बिना मजदूरी के या सस्ते में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए काम करवाया जाता है। इससे इजारेदार कंपनियों को बहुत फायदा होता है। कई टीकों, दवाओं, गर्भनिरोधकों का अवैध परीक्षण बहुराष्ट्रीय कंपनियाॅं प्रशासन की मिलीभगत से, जेलों में बंद अश्वेतों पर करती हंै।

    दासप्रथा के उन्मूलन के खिलाफ अमेरिका के दक्षिण के राज्य के कुलीन जमींदार वर्ग दासप्रथा व रंगभेद नीति के कट्टर समर्थक रहे हैं। उन्होंने अश्वेतों पर भीषण अत्याचार ढाने के लिए आतंकवादी दल क्लू-क्लक्स-क्लान का गठन किया था। पुराने किस्म की बंदूक में गोली चलाते समय/घोड़ा दबाते समय क्लू-क्लक्स-क्लान की ध्वनि सुनाई देती है। पिछले 200 वर्षों से क्लू-क्लक्स-क्लान अफ्रीकी अमरीकीयों पर हर तरीके से जुल्म ढाते आ रहा है। जिसमें अश्वेतों को दौड़ा-दौड़ा कर, समूह में पीट-पीट कर या धारदार हथियार से घांेप घोंप कर मारने (माॅब लिचिंग) जैसे जघन्य अपराध शामिल हंै। पिछले 6 वर्षो से हमारे देश में संघीय काॅर्पोरेट फासिस्टों के राज में मुलसमानों व दलितों के खात्मे के लिए माॅब लिचिंग का तरीका संघ परिवार ने अपने मार्गदर्शक अमेरीका से ही सीखा है।
    जैसे-जैसे अमरीका में पूंजीवादी साम्राज्यवादी नीतियां परवान चढ़ती रही वैसे-वैसे अश्वेतों के खिलाफ नफरत, भेदभाव व हिंसक घटनाएं बढ़ती रही। क्लू-क्लक्स-क्लान की नस्लभेदी सोच अमरीकी प्रशासन एवं पंूजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंदर तक घर कर गई है। नस्ल भेद/रंग भेद के खिलाफ आंदोलन के दौरान बसों में अश्वेतों पर लगी पाबंदियों के खिलाफ रोजा पाक्र्स और 60-70 के दशक में अश्वेतों के लिए समानाधिकार के पक्ष में न्याय के लिए लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर, मेलकम एक्स, एंजेलो डेविस और ब्लैक पैंथर आंदोलन (जिनके प्रभाव से भारत में दलितों का दलित पैंथर आंदोलन उभरा) मील के पत्थर माने जाते हैं। इन प्रतिवादियों की पहल से अश्वेतों को कई अधिकार मिले उनके दुःख को आक्रोश में बदलने की आवाज मिली।
    इसी अफ्रीकन अमेरिकन समुदाय ने अपने श्रम उत्पादन मेहनत से अमेरिका को बसाया, विकसित अमेरिका बनाया। अमेरिका ने साबित कर दिया कि कोरोना से खतरनाक है नस्लवाद और पंूजीवाद। असल में पूंजीवाद ही नस्लवाद व सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है। हमारे भारत में भी क्रांतिकारी जनवादी तबकों ने 4 जून को नस्लीय हिंसा, न्याय के पक्ष में व असमानता के खिलाफ अमरीकी जनता के साथ एकजूटता प्रदर्शित किया। लेकिन विडंबना यह है कि देवताओं की भूमि कहे जाने वाले भारत में हर रोज जाॅर्ज फ्लायड जैसे दलित, गुजरात के उना से लेकर उ.प्र. के जौनपुर तक हिंसक जाति व्यवस्था की श्रेष्ठता के नाम पर प्रताड़ित किये जाते हैं व मार डाले जाते हैं। भारत में जाॅर्ज फ्लायड को मूंछ रखने पर, घोड़ी पर चढ़ने पर, बुलेट मोटरसाइकल खरीदने पर, उंचा मकान बनाने पर, उच्च शिक्षा हासिल करने पर, अच्छे कपड़े पहनने पर, अंतरजातीय विवाह करने पर, डांडिया नाच देखने के नाम पर, गौ रक्षा के नाम पर, मंदिर को अपवित्र करने में नाम पर ब्राम्हणवाद/मनुवाद अपने पैरों से उनकी गर्दन दबाकर हत्या कर देता है।
    जाॅर्ज फ्लाॅयड के लिए न्याय का आंदोलन जो ‘‘काले भी इंसान हैं उनका जीवन भी अत्यंत महत्वपूर्ण है’’ कि भावना से ओतप्रोत अमरीकी जनता में इस अभूतपूर्व विक्षोभ जो कि आॅक्यूपाई वाल स्ट्रीट व न्याय व शांति के लिए मार्टिन लूथर किंग के एतिहासिक मार्च से भी अधिक ताकतवर है ने अमरीका में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहने दिया है। अमरीकी संघीय प्रशासन व राज्यों के प्रशासन, पुलिस प्रणाली में सुधार करने के बारे में गहराई से सोच रहे है। न्यूयार्क पुलिस विभाग ने अपने नस्लीय पूर्वाग्रहों के लिए बदनाम अपराध विरोधी इकाई को भंग करने का निर्णय लिया है। न्यूयार्क पुलिस विभाग ने अपने पुलिस बजट में कटौती करने की घोषणा की है। अश्वेत फिल्म निर्माता-निर्देशक व लेखकों ने मनोरंजन उद्योग में व्याप्त नस्लीय पूर्वाग्रह को दूर करने का प्रस्ताव रखा है। भूतपूर्व हैवीवेट बाॅक्सिंग चैंपियन मोहम्मद अली (कैशियस क्ले) से लेकर प्रथम अश्वेत विम्बलडन चैंपियन आर्थर ऐश से बास्केटबाॅल किंवदंती रह चुके माईकल जाॅर्डन तक रंगभेद की यंत्रणा झेल चुके क्रीड़ा उद्योग से भी यही मांग उठी है।
    अमरीका के मीडिया घरानों के न्यूज रूम में पसरे नस्लभेद व भेदभाव पर भी गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। न्यूजर्सी के एटाॅर्नी जनरल गुरबीर गे्रवाल ने सभी कानून व्यवस्था का पालन करने वाली एजेंसियों को निर्देशित किया है कि वे गंभीर अनुशासनहीनता और जनता का दमन करने वाले पुलिस अधिकारियों की सूची बनाएं। अमरीका जैसे एक पंूजीवादी जनवादी समाज व भारत जैसे एक नवउपनिदेशिक दासता वाले समाज की चेतना में कितना फर्क है।
    अमरीका से शुरू हुआ जन विद्रोह जो ‘हमारी गर्दन से हाथ हटाओ, ‘नस्लवाद ही अमरीका का असल पाप है’ नारों को बुलंद कर रहा है, पूरे विश्व में पंूजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के लिए चुनौती पैदा कर रहा है। जैसा कि कुछ विचारकों ने बताने का प्रयास किया है कि यह अश्वेतों का अश्वेतों के लिए आंदोलन है, लेकिन इसे गलत साबित कर कोरोना के सर्वदेशीय महामारी के प्रकोप के दरम्यान अमरीका की मेेहनतकश वा उत्पीड़ित जनता ने बर्बर अमरीकी पंूजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ जंग का आगाज किया है एक बेहतर समतावादी नए अमरीकी समाज के लिए। क्या अमरीका में क्रांति होगी और देश समाजवाद की ओर आगे बढ़ेगा ? माक्र्सवाद-लेनिनवाद यही सिखाता है कि एक मजबूत क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के बिना जनविक्षोभ को क्रांति में बदलना असंभव है। मिस्र समेत मध्यपूर्व के कई देशों में शासन व्यवस्था विरोधी वसंत विद्रोह के बावजूद साम्राज्यवाद ने वहां शासकों को बदलकर विद्रोह को ठंडा कर दिया। लेकिन आज की तारीख में यह बात तो हमारे मन में क्रांतिकारी आशावाद का जन्म देती ही है कि दुनिया की जनता का दुश्मन नंबर एक साम्राज्यवादी ताकतों का सरगना अमरीकी में जब जनता अन्याय-अत्याचार के खिलाफ उठकर निजाम को हिला सकती है तो अमरीकी साम्राज्यवाद के जूनियर पार्टनर घोर सांप्रदायिक नस्लवादी भगवा फासिस्ट राज को उखाड़ फेंकने के लिए यहां भी जनता का सैलाब एक दिन जरूर सड़कों पर उमड़ पड़ेगा।

सभी चित्र- सरिता पांडेय से साभार

Wednesday 24 June 2020

भारत चीन सीमा विवाद: मिथक और यथार्थ- मनीष आज़ाद


अंधकार के इस दौर में ठगी और धोखधड़ी का प्रचार हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित कर रहा है। राजनीतिक यथार्थ का निजीकरण हो चुका है। भ्रम को वैधानिकता प्रदान कर दी गयी है। सूचना का युग वस्तुतः मीडिया का युग है। यहां मीडिया द्वारा राजनीति की जाती है, मीडिया द्वारा सेन्सरसिप लागू की जाती है और मीडिया द्वारा ही युद्ध चलाया जाता है। - जॉन पिल्जर

15 जून को गलवान घाटी में चीनी सैनिकों से झड़प के बाद 20 भारतीय सैनिकों की निर्मम मौत हो गयी और 10 को चीन ने बंधक बना लिया (हालांकि बाद में उन्हें छोड़ दिया गया)। पूरा देश सन्नाटे में आ गया। ऐसे कठिन समय में जब सरकार को आगे आना चाहिए था और स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए थी, तो सरकार ने अपना काम सुपर देशभक्तटी वी चैनलों को आउटसोर्स कर दिया। और जैसा कि उम्मीद थी इन चैनलों पर एक हिस्टीरिया सा छा गया। अचानक उनका वाल्यूम ऊंचा से ऊंचा होता गया। टीवी चैनल के एंग्री यंग मैनअरनव गोस्वामी ने चाइना गेट आउटका पूरा अभियान ही छेड़ दिया। लेकिन इस हिस्टीरिया में किसे याद था कि चाइना गेट आउटनामक टीवी प्रोग्राम को चीन की ही दो बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां वीवोऔर शियोमीप्रायोजित कर रही हैं।

जी टीवीभी कहां पीछे रहने वाला था। उसने अपने प्रोग्राम को नाम दिया-छेड़ोगे तो छोड़ेंगे नहीं।पता नहीं मोदी ने इनसे जुमलेबाजी सीखी है या इन्होंने मोदी से। बहरहाल जब जी टीवीके सुधीर चौधरी चीन का डीएनए टेस्ट कर रहे थे तो जी टीवीचीन में वहां की मंडरीन भाषा में चीनियों को सास बहू के सीरियल दिखा कर उनका मनोरंजन कर रहा था। जी टीवीपहला भारतीय टीवी चैनल है जिसे 2012 में चीन में अपना प्रोग्राम दिखाने का अधिकार मिला। जी टीवीने चीन में अपने लैडिंग राइट्सहासिल करने के लिए बहुत पापड़ बेले हैं।


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंचजब चीन के सामान के बायकाट का नारा दे रहा है और सड़कों पर चीनी सामानों की होली जलाने के दृश्य सभी मीडिया चैनल ज़ोर-शोर से दिखा रहे हैं तो उसी समय आरबीआई की सहमति से दिल्ली में बैंक ऑफ चाइनाकी शाखा खुल रही है। ठीक इसी तरह जब 2017 में भारत चीन के बीच डोकलाम संकटआया था तो ठीक डोकलाम संकट के बाद चीन के इण्डस्ट्रियल एण्ड कमर्शियल बैंकको भारत में काम करने की अनुमति प्रदान की गयी थी। आपको याद होगा कि उस समय देश में चीन विरोधी लहर आज से ज़्यादा तेज़ थी और जी न्यूज उस समय समान नहीं सम्मानतथा हिन्दी-चीनी बाय बायका अभियान छेड़े हुए था। उसी समय मोदी के चहेते पूंजीपति अदानी ने डोकलाम के तुरन्त बाद ही पावर चाइनाके साथ एक बड़ा समझौता किया था। यहां तक कि अपने मुन्द्रा पावर प्रोजेक्ट के लिए चाइना डेवलपमेन्ट बैंक से भारी कर्ज़ भी लिया था। और तो छोड़िये मोदी के गृह प्रदेश गुजरात ने चीन के साथ 1 अक्टूबर 2019 को एक बिजनेस डील पर हस्ताक्षर किया। जिसके तहत गुजरात में चाइना इण्डस्ट्रियल पार्कबनना है जहां विशेषकर चीनी कम्पनियां अपना निवेश करेंगी। 15 अगस्त 20017 को लांच हुए जिओ फोन की पहली खेप चीन से आयी थी। आज हालत यह है की भारत की लगभग सभी बड़ी कंपनियां चीन में अपना उत्पादन कर रही है


यानी पाखण्ड हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन चुका है। इसका डीएनए टेस्ट कौन करेगा।

बहरहाल काफी दबाव पड़ने के बाद अंततः 4 दिन बाद प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक में बयान दिया कि कुछ भी नहीं हुआ है। चीनी सेना एक इंच भी भारत की जमीन में प्रवेश नहीं की है। मज़ेदार बात यह है कि ठीक यही बयान चीन की तरफ से भी आया कि कुछ भी नहीं हुआ है और चीनी सेना ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया है। यहीं पर रूककर पुलवामा और बालाकोट याद कीजिए। घर में घुसकर मारने वाली वीरता कहां चली गई। यहां तो इस बात से ही इंकार कर दिया गया कि कोई घर में घुसा भी है। आज चीन मोदी से बहुत खुश है क्योंकि 15 जून की झड़प में चीन ने पूर्वी लद्दाख और उत्तरी सिक्किम में लाइन ऑफ एक्चुअल कण्ट्रोलको अपने फ़ायदे में बदल दिया है, और यह बात अब किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर नहीं उठेगी। मोदी अपने ही बनाये सुपर मैनके इमेज में खुद फंस गया। याद कीजिए जेपी नड्डा का बयान कि मोदी देश के ही नहीं भगवानों के भी नेता है। और कोई भगवान हार कैसे सकता है। गलवान घाटी अभी तक कभी भी विवादास्पद क्षेत्र नहीं रहा है। और आज गलवान घाटी की पहाड़ियों पर चीन का कब्जा हो चुका है। वहां पहाड़ की ऊंचाइयों से वह अब भारत की तरफ 224 किमी लंबी डीबीओ (Darbuk-Shyok-Daulet Beg Oldie) सड़क पर रणनीतिक निगरानी रख सकता है, जिसका इस्तेमाल भारतीय सेना करती है। यह भारत की बड़ी रणनीतिक हार है। भारत के पास वो क्षमता तो नहीं है कि वो सैन्य कार्यवाही के माध्यम से चीन को इस क्षेत्र से खदेड़ सके, लेकिन कूटनीतिक तौर पर वह चीन द्वारा किये गये इस अतिक्रमण को अन्तरराष्ट्रीय मंच पर उठा सकती है और चीन पर निर्णायक दबाव बना सकती है। लेकिन ऐसा करने से मोदी की सुपरमैन भगवानवाली छवि का क्या होगा। मोदी की इस छवि की कीमत आज पूरा देश चुका रहा है। 5 मई से 15 जून के बीच चीन लगभग 3 से 5 किमी तक लाइन ऑफ एक्चुअल कण्ट्रोलको भारत की तरफ खिसका चुका है। रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण गोलवान की पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया है और वहां स्थाई सैन्य बेस बना लिया है। तमाम सैटेलाइट इमेज, और प्रवीन साहनी, अजय शुक्ला, एच एस पनाग, शेखर गुप्ता जैसे सुरक्षा विशेषज्ञ इसकी पुष्टि कर चुके हैं और सरकार से जवाब मांग रहे हैं। डबल आई डबल एस [www.iiss.org] जैसी अन्तरराष्ट्रीय सैन्य शोध सस्थाएं भी इसी तथ्य को बयां कर रही हैं। और इधर सिर्फ मोदी की सुपरमैन छवि को बचाने के लिए सरकार और सुपर देशभक्त मीडियाने इस जलते तथ्य को पूरी तरह पचा लिया है, और जो लोग इस तथ्य को रखते हुए सरकार से जवाब मांग रहे हैं उन्हें देशद्रोही घोषित किया जा रहा है।


ठीक इसी खतरे को देखते हुए लेफ्टिनेन्ट जनरल के पद से रिटायर हुए एच एस पनागने 18 जून को इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में साफ किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा को घरेलू राजनीति से अलग किया जाना चाहिए। लेकिन यहां तो मामला और भी आगे बढ़ चुका है। पिछले 6 सालों में भाजपा ने भारत की विदेश नीति को घरेलू राजनीति का विस्तार बना दिया है। और घरेलू राजनीति को साम्प्रदायिक राजनीति में संकुचित कर दिया है। इसी कारण से हमारी विदेश नीति पाकिस्तान नीति बनके रह गयी है। इस राजनीति के कारण आज भारत इस स्थिति में भी नहीं है कि वह किसी अन्तरराष्ट्रीय मंच पर यह मुद्दा उठा सके कि चीन ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया है।

चैनलों में और सड़कों पर मोदी भक्त यह कहते नहीं थक रहे कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं हैं। लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि आज का चीन 1962 का चीन नहीं है। 1962 के युद्ध में भारत की हार के बाद पूरी दुनिया को आश्चर्य में डालते हुए चीन एकतरफा युद्धविराम करके पीछे लौट गया था, क्योंकि वह माओ का समाजवादी चीन था। सन्त विनोबा भावे ने इसे इतिहास की एक अनूठी घटना करार दिया। लेकिन आज का चीन साम्राज्यवादी चीन है जो पूरी दुनिया में ज़मीन और खनिज सम्पदा पर कब्जे के लिए कुछ भी करने को तैयार बैठा है।

दरअसल भारत की अन्य तमाम समस्याओं की तरह सीमा विवाद भी साम्राज्यवादी अग्रेजों की देन है। 1950 के बाद भारत के पास चीन के साथ सीमा विवाद सुलझाने का एक सुनहरा अवसर था। लेकिन नेहरू की ज़िद थी कि अंग्रेजों द्वारा 1914 में बनायी गयी 'मैकमोहन रेखा' को ही चीन और भारत के बीच सीमा रेखा मान लिया जाय। इसके अलावा अक्साई चीन पर भी नेहरू ने अपना दावा ठोक दिया। जबकि खुद नेहरू ने ही संसद में बयान दिया था कि अक्साई चीन में घास का एक तिनका भी नहीं उगता। चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने नेहरू के साथ कई राउण्ड की बातचीत में नेहरू को यही समझाने का प्रयास करते रहे कि हम दोनों देश ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद के शिकार रहे हैं। तो हम क्यों उनकी बनायी रेखा को मान्यता दें। हमें मिल बैठकर इस मसले को हल करना चाहिए। लेकिन नेहरू इसी पर अड़े थे कि मैकमोहन रेखा को ही चीन मान्यता दे। 1960 में चीन का सोवियत रूस के साथ सम्बन्ध काफ़ी खराब हो चुका था और चीन-रूस सीमा पर भी कई झड़पें हो चुकी थी। अमरीका ने तो उस वक्त तक चीन को मान्यता ही नहीं दी थी। अन्ततः रूस और अमरीका के उकसावे पर भारत ने चीन पर आक्रमण कर दिया। नतीजा सबके सामने है।

लेकिन भारत ने उसके बाद भी कोई सबक नहीं लिया। आज भी वह एशिया में अमरीकी रणनीतिक योजना का हिस्सा बनने में ही अपनी सफलता मान रहा है और चीन के साथ अपने रिश्ते को अमरीकी नज़र से ही देख रहा है। चीन के साथ भारत के तनावपूर्ण रिश्तों का एक बड़ा कारण भारत का अमरीका की गोदी में बैठना है।

1971 में बांग्लादेश युद्ध के हीरो माने जाने वाले जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने 1998 में दिये अपने एक साक्षात्कार में भारत चीन युद्ध के बारे में ये निचोड़ दिया -'अगर नेहरू समझदार होते तो चीन से युद्ध नहीं होता। दरअसल बात यह है कि हमारी चीन के साथ जो मैकमोहन सीमा रेखा है वह कोई सर्वमान्य सीमा नहीं है। अंग्रेजों की तय की हुई सीमा है। अंग्रेजों द्वारा नक्शे में खींची गयी रेखा की सीमा है।..............हमारी तैयारी नहीं थी कि हम उन पर आक्रमण कर दे। लेकिन सेना को आदेश दिया गया कि हम चीन पर आक्रमण कर दें। सरकार ने यह सब समझने के बाद ऐसा निर्णय लिया और हम असफल हुए। एक तरह से हमने यह लड़ाई जानबूझ कर मोल ली।

सैन्य व सुरक्षा मामलों की पत्रिका फोर्सके सम्पादक प्रवीन साहनी और ग़ज़ाला बहाव की लिखी एक किताब ड्रैगन एट योर डोर स्टेप[2017] ने भारत के सुरक्षा विशेषज्ञों की नींद उड़ा दी। दोनो ने तमाम तर्को और तथ्यों से यह निष्कर्ष पेश किया कि भारत जहां सैन्य 'फोर्स' को बढ़ा रहा है वहीं चीन और पाकिस्तान सैन्य 'पावर' को बढ़ा रहे हैं। फोर्सऔर पावरका अन्तर बहुत बारीकी से समझाया गया है। भारत जहां अपना पूरा ध्यान सीमापार आतंकवाद पर लगा रहा है वहीं चीन अपने युद्ध प्रयासों को बहुआयामी बना रहा है। अन्त में प्रवीन साहनी और ग़ज़ाला बहाव का सनसनीखेज निष्कर्ष यह है कि पूर्ण युद्ध में भारत चीन को तो नहीं ही हरा सकता, वह पाकिस्तान को भी हराने में अब सक्षम नहीं है।

लेकिन इन सबकी चिन्ता किसे है। जब तक टीवी चैनलों की फौज और आईटी सेल के गोला बारूद मोदी के साथ है, और सच को झूठ और झूठ को सच बनाने की इण्डस्ट्री बदस्तूर जारी है उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसलिए किसी ने सच कहा था कि जब झूठ और धोखाधड़ी का साम्राज्य हो तो सच बोलना एक क्रान्तिकारी कार्य है। आज भारत में इस क्रान्तिकारी कार्य की सख्त जरूरत है। राजा को नंगा बोलने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा बच्चोंकी ज़रूरत है।

 

Saturday 13 June 2020

कोरोना, लॉकडाउन और आर्थिक जनसंहार- मनीष आज़ाद

मार्क्स ने कुगेलमान को लिखे अपने पत्र में लिखा है- ‘प्रत्येक बच्चा यह जानता है कि यदि कोई राष्ट्र, साल भर की तो कौन कहे, हफ्ते भर के लिए भी काम रोक देता है तो वह नष्ट होने लगता है।’ 1868 में यह लिखते हुए मार्क्स ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि 2020 में भारत का बुर्जुआ इतना दिवालिया साबित होगा कि वह इतनी छोटी बात भी नहीं समझेगा और हफ्ते भर के लिए नहीं बल्कि पूरे दो माह से ज्यादा के लिए सब काम रोक कर सर के बल खड़ा हो जायेगा। और पूरे देश को सर के बल खड़ा होने के लिए बाध्य कर देगा। इस शीर्षासन का नतीजा हमारे सामने है।
24 मार्च को शीर्षासन करते हुए जब मोदी ने अचानक पूरा देश ठप कर दिया, तो देश में कोरोना के 564 केस थे और कुल 10 लोगों की मौत हुई थी। 73 दिन बाद यानी 8 जून को जब ‘सफलतापूर्वक’  लॉकडाउन उठाया जा रहा है तो कुल कोरोना केसेस 3 लाख के करीब हैं और मरने वालों की संख्या 8107 पहुंच चुकी है। जब दिवालियापन दिखाने की होड़ लगी हो तो नीति आयोग के सदस्य और कोराना पर बनी टास्क फोर्स के चेयरमैन विनोद पाल कहां पीछे रहने वाले थे। उन्होंने 24 अप्रैल की प्रेस कांफ्रेस में एक स्लाइड शो दिखाते हुए जोर-शोर से ऐलान कर दिया कि 16 मई के बाद कोविड 19 का कोई नया केस नहीं आयेगा (या उस दिन शायद वे कोरोना को ही सम्बोधित कर रहे हों कि 16 मई के बाद तुम मत आना क्योंकि इसी दिन उनका सरदार तख्तनशीं हुआ था)। बहरहाल कोरोना ने विनोद पाल की बात नहीं सुनी और उनके इस ऐलान की धज्जियां उड़ाते हुए 17 मई को उस समय तक के सबसे ज्यादा कोरोना के केस (एक ही दिन में 5034 पाजिटिव केसेस) आ गये और एक ही दिन में मरने वालों की सबसे ज्यादा संख्या दर्ज की गयी। आज की तारीख में प्रतिदिन 10000 नए पॉजिटिव केसेस आ रहे है। और आज हालात यह है कि आईएसआरसी (indian scientists responce to covid-19) की माने तो अभी इसका चरम (peak) आया ही नहीं है। यह जुलाई या अगस्त तक आयेगा। मजदूरों के महापलायन के बाद अब कोरोना देश के दूर दराज के गांवों में भी पहुंच चुका है। उपरोक्त ‘आईएसआरसी’ से जुड़े और अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर (फिजिक्स और बायोलाजी) ‘गौतम मेनन’ के अनुसार कुल परीक्षित  और अपरिक्षित  कोरोना मरीजों की संख्या इस समय 1 करोड़ से ऊपर हो सकती है। यह भयावह तस्वीर है।
विनोद पाल ने किन आंकड़ों और किस ‘डिसीज माडल’ के आधार पर यह कहा था कि मई 16 के बाद कोई नया केस नहीं आयेगा, इस पर अभी भी रहस्यमय पर्दा पड़ा हुआ है। दरअसल सरकार अपने वक्तव्यों में और प्रेस कान्फ्रेन्सों में जो प्रोजेक्शन बताती है और जो मॉडल पेश करती है, उसका कोई आधार नहीं बताती। आकड़ों के पीछे छिपने की सरकारों की पुरानी बीमारी है। सैमुअल जानसन आज यदि जिन्दा होते तो अपने मशहूर कथन में ये जरूर जोड़ते- ‘‘दुष्टों की अन्तिम शरणस्थली राष्ट्रवाद ही नहीं आकड़े भी हैं।’’
तमाम संसाधनों से लैस यदि सरकार के आंकड़े और उसके प्रोजेक्शन इतने हास्यास्पद स्तर तक असफल और गैर जिम्मेदार हैं तो आप समझ सकते हैं कि सरकार कोरोना से लड़ने में कितनी गंभीर है, और उसकी तैयारी क्या हैं। दरअसल सरकार कोरोना से नहीं बल्कि आकड़ों से लड़ती दिख रही है।

 situation before and after lockdown 

लॉकडाउन को सफल बताने के लिए 22 मई की एक प्रेस कांफ्रेंस में भारत सरकार ने एक अमरीकी मैनेजमेंट फर्म ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ को उद्धृत करते हुए कहा कि यदि लॉकडाउन नहीं होता तो 1 लाख 20 हजार से 2 लाख 20 हजार तक लोगों की मौत हो जाती। हमेशा की तरह इस बार भी इस आंकड़े तक पहुंचने का आधार नहीं बताया गया। बाद में इस क्षेत्र के तमाम विशेषज्ञों ने सरकार से मांग की कि उस मेथोडोलाजी को सार्वजनिक किया जाय, जिसके माध्यम से इस निष्कर्ष तक पहुंचा गया है, ताकि लोग स्वतंत्र तरीके से इसकी पड़ताल कर सकें। लेकिन सरकार ने आज तक नहीं बताया कि वो किस कड़ाही में अपनी यह खिचड़ी पका रही है। लेकिन आश्चर्य तो तब हुआ, जब 28 मई को एनडीटीवी ने अपनी एक स्पेशल रिपोर्ट में इसका खुलासा किया कि भारत सरकार का स्वास्थ्य विभाग दरअसल इस ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ का एक क्लाइंट है। और यह कम्पनी स्वास्थ्य मत्रालय के साथ मिल कर काम कर रही है। ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ एक मार्केटिंग कम्पनी है। इसका कोरोना जैसी महामारी के बारे में क्या विशेषज्ञता है? एनडीटीवी के उसी प्रोग्राम में जब एनडीटीवी के पत्रकार श्रीनिवासन ने ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ के भारत प्रमुख जनमेजय सिन्हा से यह पूछा कि आप दवा कम्पनियों के लिए भी कन्सल्टिंग करते हैं और सरकार के लिए भी। तो क्या यह हितों का टकराव (conflict of interest) नहीं है? इस प्रश्न का जनमेजय सिन्हा ने कोई जवाब नहीं दिया। इसी जनवरी में ‘इंटरनेशनल कन्सोर्टियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट’ ने यह खुलासा किया था कि कैसे ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ ने अंगोला के सबसे अमीर राजनीतिक घराने के साथ मिलकर अंगोला की प्राकृतिक सम्पदा को किस तरह लूटा है।
बहरहाल, जब सरकार अपना गाल बजाते हुए  लॉकडाउन की सफलता का ऐलान कर रही है तो ‘इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन’, ‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेन्टिव एण्ड सोशल मेडिसिन’, और ‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ इपिडिमेयोलाजिस्ट’ ने 30 मई को अपने संयुक्त बयान में यह भयानक खुलासा कर दिया कि अब हम सामुदायिक संक्रमण (community transmission) की अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं। स्थिति यह है की मुंबई की एक चौथाई आबादी कैंटोनमेंट जोन में रह रही है।
यह सरकार की गलत नीतियों का ही परिणाम है की सरकार ने मजदूरों को वापस उनके घरों को भेजना तब शुरू किया जब कोरोना मरीजों की संख्या 1 लाख पार कर गयी थी। और आज स्थिति यह है कि बिहार पहुंचने वाला हर चौथा मजदूर कोरोना पाजिटिव है। और उत्तर प्रदेश में कुल कोरानों मरीजों में से 28 प्रतिशत बाहर से आने वाले मजदूर हैं।
सरकार की नीयत पर इसलिए भी शक होता है क्योंकि सरकारी संस्था ‘नेशनल सेन्टर फार डिजीज कन्ट्रोल’  इनफ्लुएंजा के बारे में साप्ताहिक रिपोर्ट जारी करती है। लेकिन इसने 24 फरवरी के बाद बिना कोई कारण बताए साप्ताहिक रिपोर्ट देना बन्द कर दिया। और आपको आश्चर्य होगा कि 24 फरवरी तक ही कुल इनफ्लुएंजा के 14803 कन्फर्म केस आ चुके थे, जबकि 2018 के पूरे साल में 14992 कन्फर्म केस आये थे। और 2018 में इनफ्लुएंजा के कारण होने वाली मौतों (1,103) का आधा (448) 24 फरवरी तक ही हो चुका था। यानी सरकार को आने वाले तूफान का अंदाजा हो गया था। फिर भी इसने कुछ नहीं किया। उस बात को तो अभी जाने ही देते हैं कि हवाई जहाज से कोरोना केसेस लेकर आने वाले शुरूआती अमीरों की टेस्टिंग क्योँ नहीं की गयी, उन्हें क्वारन्टीन क्योँ नहीं किया गया। और इस महामारी के विषय में ‘डब्ल्यू एच ओ’  की चेतावनी के बावजूद ‘नमस्ते ट्रम्प’ का आयोजन क्योँ किया गया, जो बाद में गुजरात के लिए ‘नमस्ते कोरोना’ साबित हुआ। वास्तव में इस कोरोना के दबाव से पूरी सरकारी मशीनरी चरमरा गयी है। पिछले 30 वर्षो के निजीकरण के कारण  भारत का स्वास्थ्य विभाग तो पहले ही 'आई सी यू' में था। कोरोना ने इसे कोमा में पंहुचा दिया है।

स्मार्ट सिटीज या ‘प्लेनेट ऑफ स्लम’-
दरअसल भारत में लॉकडाउन कोरोना का ही एक घातक म्यूटेशन साबित हो रहा है। भारत की जनता पर कोरोना से कहीं ज्यादा लॉकडाउन कहर बन कर टूटा है। ‘सीएमआईई’ (center for monitering indian economy) के आंकड़ों के अनुसार सिर्फ अप्रैल के महीने में कुल 12 करोड़ 20 लाख रोजगार नष्ट हो गये हैं। यदि एक व्यक्ति के पीछे 5 लोग निर्भर माने जाये तो प्रभावित लोगों की संख्या होगी 61 करोड़। यानी कुल जनसंख्या का लगभग आधा। हालांकि फिर भी यह आंकड़ा सच से थोड़ा दूर है। इसे इस तरह से समझा जा सकता है। 2001 से 2011 के बीच भारत ने अब तक का सबसे बड़ा ‘आन्तरिक पलायन’ (internal migrration, गांव से शहर, शहर से शहर और गांव से गांव भी) देखा है।
 इसी आकड़े के आधार पर उत्साहित होकर चिदम्बरम ने वह प्रसिद्ध बयान दिया था कि 2025 तक कुल जनसंख्या का 50 प्रतिशत शहरों में आ चुका होगा (यह विदेशी कम्पनियों के लिए एक संकेत था कि शहरों में मजदूरों की भीड़ के कारण मजदूरी और गिरेगी और कम्पनियों का मुनाफा और बढ़ेगा)। विदेशी कम्पनियों और निवेशकों की गिद्ध दृष्टि इसी ‘स्लेव वेज’ पर रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार आन्तरिक प्रवासियों (internal migrants) की कुल संख्या 45 करोड़ थी। 2001 में यह 30 करोड़ के आसपास थी। लॉकडाउन ने इस 45 करोड़ आन्तरिक प्रवासियों को सीधे-सीधे प्रभावित किया है। मशहूर अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरूण कुमार की माने तो इस लॉकडाउन में कुल 35 प्रतिशत जीडीपी बर्बाद हुई है। आमतौर पर दो देशों के बीच युद्ध में भी इस पैमाने पर जीडीपी की हानि नहीं होती। इतनी व्यापक तबाही के बावजूद जब 67 प्रतिशत लोगो के पास अगले महीने के राशन की कोई व्यवस्था नहीं है तो सरकार 77 मिलियन टन अनाज पर पालथी मारकर बैठी हुई है। लाखों टन अनाज खुले में बारिश और धूप में यूं ही सड़ रहा है। लेकिन आप यह मत समझिये की ये सरकार की कोई लापरवाही है। इस सड़े अनाज को शराब बनाने वाली कंपनियों को बेचा जाता है और उससे राजस्व कमाया जाता है। यानी सरकार को हमारी भूख से ज्यादा चिंता शराब की है।
दरअसल भारत आंकड़े इकट्ठा करने के मामले में दुनिया का सबसे गरीब देश है। आकड़ों को दबाने के मामले में भी भारत का कोई प्रतिद्वन्दी नजर नहीं आता। नोटबन्दी का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका कोई सुसंगत आकड़ा सरकार ने आज तक जारी नहीं किया है। सरकार श्रद्धा भाव से सिर्फ जनसंख्या के आकड़े जुटाती है। क्योकि यह आंकड़ा उसके ‘माल्थीसियन’ विचारों से मेल खाता है जहां वह जनता की किसी भी समस्या के लिए बढ़ती जनसंख्या की आड़ ले लेती है। दूसरी गैर सरकारी सस्थाओं के पास संसाधनों की कमी के कारण उनका सैम्पल सर्वे इतना छोटा होता है कि वास्तविक सच तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए अजीम प्रेमजी का प्रसिद्ध सर्वे (जिसके अनुसार 67 प्रतिशत जनसंख्या के पास अगले माह का राशन नहीं है और शहरो में 10 में 8 और गांवों में 10 में 6 लोगों का रोजगार छिन चुका है) 12 राज्यों से महज 4000 मजदूरों पर आधारित है। और यह सर्वे भी फोन द्वारा किया गया है। यानी तस्वीर आंकड़ों से कहीं ज्यादा भयावह है। मार्क्सवादी शब्दावली में कहें तो उत्पादक शक्तियों का यह निर्मम कत्लेआम है। ऐसे कत्लेआम में खून बहता नहीं बल्कि खून सूखता है। यह आर्थिक जनसंहार है।

जैसा कि मार्क्स ने कहा था कि पूंजी अपने जन्म से ही मजदूरों के खून और पसीने में लिथड़ी हुई है। इसके अलावा अपने स्वभाव से ही पूंजीवाद लगातार युद्धरत रहता है। जिन शहरों से इन लाखों मजदूरों को जाने के लिए बाध्य किया गया है वहां भी इन मजदूरों के खिलाफ पूंजीवाद शुरू से ही लगातार एक युद्ध चला रहा था। एंगेल्स ने अपनी मशहूर कृति ‘इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की दशा’ में इस युद्ध को ‘सामाजिक युद्ध’ (social war) की संज्ञा दी है। दरअसल शहरीकरण मजदूरों के खिलाफ एक प्रच्छन्न युद्ध ही है। भारत में शहरी योजना (urban planing) या वर्तमान में स्मार्ट सिटी का एकमात्र मकसद मजदूरों या सटीक रूप में कहें तो शहरी गरीबों को मुख्य शहर के बाहर फेंकना और मजदूरों-गरीबों की झुग्गियों और उनकी गरीबी-बदहाली को ‘चीन की दीवार’ से ढक देना है। इस प्रतीक को वस्तुतः यथार्थ में उतारते हुए ‘नमस्ते ट्रम्प’ के समय गुजरात में कितनी ही ऐसी झुग्गियों को वस्तुतः दीवार से ढक दिया गया था। इसी कारण से भारत में प्रत्येक मजदूर के काम के घण्टे औसतन 2 से 3 घण्टे ज्यादा होते हैं। क्योंकि इतना उसे कार्यस्थल पर पहुंचने और फिर वापस अपने घर आने में लग जाते है। यह महज संयोग नहीं है कि चंडीगढ़ शहर की प्लानिंग करने वाले वास्तुकार लुको बिजीए (Le Corbusier) फासिस्ट विचारधारा से जुड़े हुए थे। आनन्द पटवर्धन ने अपनी मशहूर डाकूमेन्ट्री ‘बम्बईः हमारा शहर’ में प्रमुख पूंजीपति गोदरेज को यह कहते हुए कैमरे में कैद किया है- ‘बाहर से आने वाले ये मजदूर चूहों की तरह रहते है और इन्हें शहर के अन्दर रहने का हक नहीं है। इनसे काम लो और फिर पैक करके उन्हें वहीं भेज दो जहां से ये लोग आये है।’ यह युद्ध की भाषा नहीं तो और क्या है। उसी फिल्म में तत्कालीन पुलिस प्रमुख जे एफ रिबेरो  एक सेमीनार में खुलेआम मजदूरों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर रहे हैं - ‘यदि इन्हें यहां से दूर नहीं हटाया गया तो कल ये फुटपाथों पर कब्जा करेंगे, उसके बाद सड़कों पर आ जायेंग और फिर हमारे आपके घरों में घुस जायेंगे। जैसा कि रूस और चीन में हुआ।’
‘प्लैनेट ऑफ स्लम’  के लेखक माइक डेविस ने शहरो के स्लम में रहने वाले इन गरीबों को ‘मानव शोषण का जीता जागता म्यूजियम’ (a living museam of human exploitation) बताया है। लॉकडाउन के बाद इसी ‘म्यूजियम’ से निकल कर ये लाखों मजदूर 1000 से 2000 किमी तक की यात्रा प्रायः पैदल चलते हुए अपने उसी गांव की ओर निकल पड़े, जहां से विगत में शोषण, गरीबी, बेकारी और जातिगत अपमान के कारण वे शहर की ओर आये थे। राजमार्गो पर पैदल ही निकल पड़े मजदूरों के खिलाफ यह युद्ध नहीं तो और क्या है कि उस वक्त पूरे देश में शाम 7 से सुबह 7 तक का कर्फ्यू लगाकर मजदूरों को चिलचिलाती धूप में सफर करने के लिए बाध्य कर दिया गया।

अतीत की ओर लौटना-
आइये अब एक नजर उन गांवो की ओर डाल लिया जाय जहां अब ये मजदूर पहुंच रहे है। बिहार की प्रति व्यक्ति आय अफ्रीका के सबसे गरीब देशों में से एक सूडान के बराबर है। लॉकडाउन ने इन गांवों की मामूली आमदनी को भी लगभग रोक दिया। लगभग सभी कृषि उत्पाद लॉकडाउन में बिकने के अभाव में या तो सड़ गये या फिर औने पौने दामों पर बिकने पर बाध्य हुए। मध्य प्रदेश में प्याज 2 रूपये किलो के भाव से बिका है। दूध जैसे उत्पादों को तालाबों में फेकने का दृश्य हम सबने देखा।

आज से 53 साल पहले नक्सलबाड़ी ने जिस भूमि समस्या को राजनीति के केन्द्र में रखा था, वह आज भी जस का तस बना हुआ है। पूरे देश में 5 प्रतिशत बड़े किसानों/सामंतो के पास कुल कृषि योग्य भूमि का 32 प्रतिशत है। लगभग 55 प्रतिशत किसान परिवार भूमिहीन है। आज शहरों से गांव लौट रहे मजदूरों का अधिकांश यही भूमिहीन किसान हैं (जिसमें बड़ी आबादी दलितों व अन्य छोटी जातियों की है), जिसे कृषि विश्लेषक देवेन्द्र शर्मा ‘खेतिहर शरणार्थी’ (agriculture refugee) की संज्ञा देते हैं। बिहार के गांवों में लगभग 33 प्रतिशत खेती अधिया बटैया पर होती है। हालांकि सरकारी आंकड़ो में यह 10 प्रतिशत के अन्दर है। गांवों में इन ‘खेतिहर शरणार्थियों’ के पहुंचने से अधिया बटैया की शर्ते बड़े किसानों या सामंतों के हक में और झुक जायेगी। यूपी के चंदौली में जहां ‘हुण्डा सिस्टम’ है और जहां कोरोना से पहले 1 बीघा का साल भर का कान्ट्रैक्ट औसतन लगभग 15 हजार में होता था, अब शहरों से लौटने के कारण गांव में हुण्डा पर लेने के लिए जमीन की मांग और बढ़ेगी जिससे यह राशि और ऊपर जायेगी और इससे जमीन के मालिकों को फायदा होगा। जमीन लेने वाले गरीब के हाथ में पहले से कम पैसे बचेंगे। जमीन पर दबाव बढ़ने से सामंती सम्बन्ध और मजबूत होगा।
पहले से चले आ रहे कृषि संकट को आप इस तथ्य से भी समझ सकते हैं कि कृषि संकट के कारण 1991 से 2011 के बीच 1 करोड़ 50 लाख लोगों को कृषि छोड़नी पड़ी है। और 2011 की जनगणना के अनुसार 2000 कृषक प्रतिदिन खेती छोड़ रहे हैं। अधिकांश खेतो में आज फसल नहीं बल्कि घाटा पैदा हो रहा है। ये किसान घाटा जोतते है, घाटा बोते है और घाटा ही काटते है। आज जो 55 किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे है, उसका कारण यही कृषि संकट है।
आइये, अब एक नजर तथाकथित पूंजीवादी क्षेत्रों जैसे पंजाब और हरियाणा पर डाल लेते है। पंजाब की आबादी में करीब 32 प्रतिशत दलित है और सभी लगभग भूमिहीन है। लॉकडाउन के कारण जब बिहार व यूपी के मजदूर पलायन कर गये तो पंजाब व हरियाणा में खेती में काम करने के लिए (विशेषकर इस समय धान की रोपाई के लिए) मजदूरों की बेहद कमी हो गयी। पूंजीवादी तर्क से यानी डिमांड-सप्लाई के तर्क से अब मजदूरी बढ़ जानी चाहिए थी। लेकिन हुआ क्या? एक एक करके अधिकांश पंचायतों (जाट पंचायतों) ने अपना ‘कानून’ पास कर दिया की एक खास धनराशि (जो कोरोना काल से पहले दी जाने वाली मजदूरी से भी कम है) से ज्यादा मजदूरी कोई नही दे सकता और अपने गांव का काम खत्म होने के बाद ही गांव के मजदूर (जाहिर है अधिकांश दलित मजदूर) दूसरे गांवों में जा सकते हैं। इस ‘कानून’ के पास होने से वहां के खेतिहर मजदूरों में डर व्याप्त हो गया है। क्योकि वे जानते है कि ये पंचायते अपना कानून कैसे लागू कराती हैं। भारत में कृषि को पूंजीवादी साबित करने में ऐड़ी चोटी का जोर लगाने वाले ‘सुच्चा सिंह गिल’ जैसे बुद्धिजीवियों को यह बात काफी नागवार गुजर रही है। उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि वह हस्तक्षेप करें और ‘पूंजीवादी तर्क’ के हिसाब से खेल कराये। लेकिन सरकार भी उन सामंती पंचायतों के पक्ष में ही खड़ी नजर आ रही है। लॉकडाउन के शुरूआती पलायन में तो हद ही हो गयी थी जब बिहार के मजदूरों को जबरन रोक कर रखा गया था और बस स्टैण्डों और रेलवे स्टेशनों पर उन्हें पहचान पहचान कर पुलिस पीट रही थी और पंजाब छोड़ने से उन्हें रोक रही थी क्योकि धान की रोपाई का सीजन आने वाला था। एक झटके में हजारों मजदूरों को बंधुआ बना दिया गया। ‘मुक्त मजदूर’ का मिथक चूर चूर हो गया। दरअसल इन मजदूरों के साथ साथ समाज भी सामंतवाद की ओर पलायन कर रहा है। भाजपा का तो नारा ही है-‘अतीत की ओर चलो।’  इसलिए भाजपा को कोरोना काफी पसन्द आ रहा है।

एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक रोग-
शायद इसी कोरोना प्रेम के कारण भाजपा सरकार ने कोरोना काल में टीबी, कैन्सर, मलेरिया जैसी बीमारियों का अस्तित्व ही मानने से इंकार कर दिया। सिर्फ कोरोना कोरोना और कोरोना। सरकार के इसी कोरोना प्रेम के कारण नोएडा की एक गर्भवती महिला को 12 घण्टे में 8 अस्पतालों ने भर्ती करने से इंकार कर दिया और अन्ततः उस महिला की मौत हो गयी। मुंबई में ऐसी ही घटना एक डाक्टर के साथ हुई और उसकी भी मौत हो गयी। इस कोरोना समय में टीबी,  कैन्सर, व अन्य बीमारियों से ईलाज ना मिल पाने और जरूरी टीकाकरण ना हो पाने के कारण कितने लोगों की जाने गयी हैं, इसे हम कभी नहीं जान पायेंगे। वास्तव में एक ही रोग कोराना पर सरकार का फोकस उसकी विचारधारा ‘एकात्मवाद’ से मेल खाती है- एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक भाषा और एक रोग।

कोराना से यह प्रेम हो भी क्यों ना। इसी प्रेम ने भाजपा के फासीवादी मंसूबों को यथार्थ के धरातल पर उतारने में जितनी मदद की है वह सामान्य समय में असम्भव नहीं तो मुश्किल जरूर थी। ‘डिसास्टर कैपिटलिज्म’ की लेखिका नोमी क्लेम ने अपनी किताब में तमाम उदाहरणों से यह स्थापित किया है कि शासक वर्गो के लिए आपदा या महामारी एक अवसर लेकर आती है। इसकी निर्लज्ज अभिव्यक्ति नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त ने इन शब्दों में की-‘सरकार इस अवसर को अभी नहीं तो कभी नहीं के रूप में देख रही है,  विशेषकर मूलभूत क्षेत्रों जैसे कृषि क्षेत्र में बोल्ड रिफार्म करने के मामले में। खेती में यह ‘बोल्ड रिफार्म’ ‘एपीएमसी एक्ट’ में परिवर्तन के रूप में आया। जिसके बाद कारपोरेट फार्मिंग को अनुमति मिल गयी और अब व्यापारी व कारपोरेट घराने सामान्य किसानों और एफसीआई से सीधे और अपने मनचाहे दामो पर अनाज खरीद सकेगी। सूत्र में कहें तो इन सारे रिफार्म का मतलब पूरे देश का विदर्भीकरण करना है। इसके अलावा एयरपोर्टो को बेचना, सार्वजनिक उद्यमों को बेचना,  डिफेन्स में 71 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी देना और इन सबसे बढ़कर लेबर रिफार्म के नाम पर मजदूर को गुलाम में तब्दील करने का काम इसी कोराना काल में कोरोना की आड़ में हो रहा है। उत्तर प्रदेश में 6 माह तक किसी भी प्रदर्शनों पर रोक इसी कारण लगाया गया है। गुजरात में 1 साल तक यूनियन बनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
कोरोना से निपटने के नाम पर सरकार ने पता नहीं कहां से खोद कर 1897 का ‘इपीडेमिक डिसीसेस एक्ट’ ले आयी और इसे एक साथ पूरे देश पर लागू कर दिया। अंग्रेजों ने भी इसे उस वक्त पूरे देश पर लागू नहीं किया था। इस एक्ट से सरकारों को वो अधिकार मिल गये कि एक तानाशाह या पुराने जमाने का राजा भी शरमा जाये। लगभग सभी डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट 1897 के प्लेग कमीशनर ‘डब्ल्यू सी रैन्ड’ की भूमिका में आ गये। शहर व गांवों में मनमाने नियम कानून बनाये व बदले जाने लगे (तमिलनाडु में कुछ जगहों पर बाल कटवाने के लिए आधार कार्ड अनिवार्य कर दिया गया)। क्वारन्टीन सेन्टर कुछ जगहों पर वस्तुतः जेल में बदल गये जहां जमातियों मुस्लिमों को 14 दिन से ज्यादा 40-50 दिन तक रखा गया। इस पर सवाल उठाने पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा ठोक दिया गया। दूसरी जगहों पर क्वारन्टीन सेन्टर मजाक बन कर रह गये। जहां लोग खाना खाने अपने घर चले जाते और रात में सोने के लिए आ जाते। 1897 में जब महाराष्ट्र में प्लेग फैला और सरकार ने उपरोक्त कानून लागू करके जनता के जीवन के प्रत्येक पहलू को अपने नियंत्रण में ले लिया तो लोग प्लेग से डरने की बजाय प्लेग अधिकारियों से डरने लगे। जब प्लेग अधिकारी घरो में प्लेग मरीजों की तलाश करते तो जिन महिलाओं को प्लेग हुआ होता वो तुरन्त उठकर या तो गाना गाने लगती या चक्की पीसने लगती ताकि प्लेग अधिकारियों को पता ना चले कि उन्हें प्लेग हुआ है। प्लेग प्रभावित पुरूषों को यहां वहां छिपा दिया जाता। आज भी वही स्थिति है। जिन्हें कोरोना टेस्ट के लिए सरकार मजबूर कर रही है वे ‘पैरासिटामाल’ खाकर टेस्ट करा रहे हैं ताकि तापमान नार्मल आये और वे क्वारन्टीन नामक जेल से और सामाजिक व सरकारी अपमान-उत्पीड़न से बच जाये। 1897 में सरकार के साथ जनता का जो भयानक ‘ट्रस्ट डेफिसिट’ था, वह आज भी उसी रूप में बरकरार है। ‘बजट डेफिसिट’ को सरकार जनता पर अतिरिक्त कर लगाकर और देश की बहुमूल्य संपदा को बेचकर पूरा करने का प्रयास करती है, वही ‘ट्रस्ट डेफिसिट’ को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर दंगे कराये जाते है, एक खास (भारत के सन्दर्भ में मुस्लिम) समुदाय को निशाना बनाया जाता है। उनका सुनियोजित तरीके से अखबारों, टीवी चैनलों के माध्यम से अमानवीकरण किया जाता है और इसकी प्रतिक्रिया में ‘बहुसंख्यक’ (भारत के सन्दर्भ में हिन्दू) सम्प्रदाय को अपना भक्त बनाकर इस ‘ट्रस्ट डेफिसिट’ को पूरा करने का प्रयास किया जाता है।
दरअसल लॉकडाउन में जब सब कुछ बन्द था तो लॉकअप खुला हुआ था। बदली परिस्थिति का फायदा उठाकर मनचाही गिरफ्तारियां की गयी। नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलनकारियों को चुन-चुन कर इसी समय गिरफ्तार किया जा रहा है और खतरनाक ‘यूएपीए’ से उन्हें नवाजा जा रहा है। शायद ऐसा पहली बार हुआ कि इस कोरोना समय में न्याय भी स्थगित कर दिया गया। लॉकडाउन की घोषणा करते समय प्रधानमंत्री ने कहा कि आवश्यक सेवाओं को इससे बाहर रखा जायेगा। इस बयान में मोदी ने साफ कर दिया कि न्याय इस देश में आवश्यक सेवा नहीं है। अदालतें बन्द होने और जेल की मुलाकात बन्द होने से देश की सभी जेलों के लगभग साढे 4 लाख कैदी इस समय भयानक अवसाद में चले गये है। भविष्य में यह कोई भी खतरनाक रूप ले सकता है।
इसी कोरोना काल में यह अहसास गहरा हो रहा है कि शायद भारत में ही यह संभव है कि संविधान के साथ साथ उन कानूनों का भी सह अस्तित्व है जो सीधे सीधे संविधान में दिये गये मूल अधिकारों की हत्या से पैदा हुए हैं। अनुच्छेद 21 आपको जीवन का अधिकार देता है तो वहीं ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट’  महज शक के आधार पर आपकी जान लेने का अधिकार सरकार को देता है। आर्टिकल 11 आपकों संगठित तरीके से विरोध करने का अधिकार देता है तो वहीं शहर के डीएम को साल में 365 दिन धारा 144 लगाने का भी अधिकार देता है। संविधान देश के नागरिको के गरिमापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करने की बात करता है तो 1897 का ‘इपीडेमिक डिसीसेस एक्ट’  पूरे देश को जेल की अपमानजनक घुटन में तब्दील कर देता है। इसलिए भारत में संविधान या तो महज कागज का टुकड़ा रह गया है या फिर एक पवित्र धर्मग्रन्थ। जिसे कभी कभी बांचकर मानसिक-आध्यात्मिक सुकून लेने के अलावा अब इसकी कोई वकत नही रही।
कोरोना काल में या इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने जो भूमिका निभाई है, वो या तो संविधान बांचने की भूमिका रही है या फिर सरकार की जनविरोधी नीतियों को नजरअन्दाज करने या फिर उसे तार्किक जामा पहनाने की। वर्तमान में मजदूरों के पलायन से सम्बंधित याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार का बचाव करते हुए उल्टे याचिका कर्ता हर्ष मंदर और प्रशांत भूषण को ही बेहद अपमान जनक तरीक से फटकार लगायी। सुप्रीम कोर्ट अपने ही हाथो अपनी गरिमा का गला घोट रही है। 

छाले पैरों में हैं सपनों पर नहीं-
लेकिन इसी दौरान चाहे अनचाहे एक महत्वपूर्ण चीज भी घटित हुई। लौटते मजदूरों ने तपते राजमार्गो पर अपने छालों भरे पैरों तले कई मिथकों और चित्रों को चूर-चूर कर डाला। पिछले 30 सालों की ‘नवउदारवादी’ पूंजीवादी चकाचौंध को धता बताते हुए मजदूरों ने इन 30 सालों में पहली बार अखबारों, टीवी चैनलों, फेसबुक व अन्य मीडिया माध्यमों के मुखपृष्ठ पर कब्जा जमा लिया।
 राजमार्गो पर चलते हुए उनके पसीने से तरबतर पपड़ी खाये चेहरे राजमार्गो पर होर्डिगों में लगे ‘खूबसूरत’  नवउदारवादी चेहरों पर भारी पड़ने लगे। और मजदूरों के इन सख्त वास्तविक चेहरों के सामने होर्डिगों के ये नरम गोरे चिट्टे, अघाये हुए आभासी चेहरे बुरी तरह अश्लील लगने लगे। 'नीरो की गेस्ट पार्टी' में चल रहे डांस की खबरों से जो अखबार भरे होते थे, वे आज बेहद अश्लील नजर आ रहे है। मशहूर पत्रकार पी.साईनाथ के अनुसार मुख्य धारा के अखबारों व चौनलों में मजदूरों-किसानों को महज 0.18 से 0.24 प्रतिशत जगह ही मिलती रही है। पी.साईनाथ के अनुसार इन अखबारों-चनलों के लिए भारत की 75 प्रतिशत आबादी अस्तित्व में ही नहीं है। आज की तारीख में यह 75 प्रतिशत आबादी आंख मिला कर इस व्यवस्था को चुनौती देती  नजर आ रही है। मध्य वर्ग का एक हिस्सा इनसे आंख मिला कर बात करने का साहस कर पा रहा है, यह भी इन 30 सालों में पहली बार हो रहा है। हालांकि अभी भी बड़ा हिस्सा अपने अपराध बोध में इनसे नजरें चुरा रहा है। तपते राजमार्गो पर चलते हुए इन मजदूरों ने अपना सब कुछ लुटा दिया है, लेकिन इसी प्रक्रिया में उसने इस सड़े गले पूंजीवाद को भी पूरी तरह नंगा कर दिया है। आज इस पूंजीवाद के बदन पर मास्क के अलावा और कोई आवरण नहीं बचा है। आज इसे सभी लोग अपनी नंगी आंखों से देख पा रहे है। अखबारों, चौनलों में आये दिन आने वाले इन मजदूरों के दृश्य कोई निष्क्रिय दृश्य नहीं हैं, बल्कि वे इस नंगे हो चुके बेशर्म पूंजीवाद की ओर इशारा करते हुए चीख-चीख कर कह रहे हैं - हमारे पैरों में छाले पड़े हैं सपनों में नहीं।