Friday 27 November 2020

किसानी कानूनों के निहितार्थ--डी0 एम0 दिवाकर

 

भारत सरकार ने 2020 में किसान के नाम पर तीन कानूनों को लागू कर दिया है।
एक- किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन एवं खेती सेवा समझौता कानून, दो- किसान उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य (प्रोत्साहन एवं सहूलियत) कानून और तीन- आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश। भारत सरकार दावा करती है कि ये कानून किसानों के सशक्तीकरण, संरक्षण और सहूलियत के लिये है। इन कानूनों से किसानों की कठिनाइयां दूर होंगी और किसान खुशहाल होंगे। ये कानून किसानों के बेहतरी के लिये है। इन कानूनों से किसान अपनी उपज कहीं भी बेचने के लिये आज़ाद होगा। यदि यह सच है कि यह कानून किसानों के हित में बना है तो किसानों को विश्वास में लेकर उनकी सलाह से इन कानूनों को बनाना अच्छा होता। किसानों को विश्वास में नहीं लेने से लोकतंत्र का पहले सिद्धांत की अनदेखी की गयी है। आइये इन कानूनों की पड़ताल करें।

किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण कीमत) आश्वासन एवं खेती सेवा समझौता कानून चार अध्यायों में विभाजित है। पहला अध्याय अनुच्छेद 1 और 2 में इस कानून में प्रयुक्त शब्दों की परिभाषा है। दूसरे अध्याय में अनुच्छेद 3 से 12 तक लिखित करार सम्बंधी प्रावधानों का वर्णन है, जिसके मुताबिक किसान अब किसी भी निजी कम्पनी से अपने उत्पादन और खेती संबंधी सेवा के लिये स्पष्ट लिखित करार कर सकता है, जिसमें फसल, उसकी आपूर्ति का समय, गुणवत्ता, कीमत, खेती के लिये विभिन्न तरह की सेवाएं, आदि का परस्पर स्वीकार्य शर्तों पर निश्चय किया जा सकता है। यह करार सामान्यतः एक फसल से लेकर पांच साल तक का हो सकता है। अगर कोई फसल पांच साल से अधिक समय की हो तो किसान और कंम्पनी की परस्पर सहमति से तय की जा सकेगी। करार के अनुसार किसान तयशुदा कीमत पर कम्पनी को बेचने के लिये बाध्य है। वह तयशुदा कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य हो, यह भी जरूरी नहीं होगा। साथ ही अगर बाजार में फसल का भाव अधिक हो भी, तो करार के कारण किसी दूसरे खरीददार को नहीं बेच सकता है, जबकि पहले न्यूनतम समर्थन मूल्य से बाजार भाव अधिक होने पर किसान अपनी फसल किसी को भी और किसी भी मंडी में बेचने के लिये आज़ाद था। इस हालात में किसान पहले अपेक्षाकृत अधिक आज़ाद था। अतः न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल की कीमत की कोई गारंटी नहीं है। इस प्रकार कीमत आश्वासन कानून का शीर्षक भी भ्रामक है। दावा किया जाता है कि इस कानून से किसानों को आज़ादी मिलेगी, लेकिन जब किसानों का कम्पनी से लिखित करार हो जाता है, तो उन्हें वही फसल लगानी होगी जो करार में शामिल है चाहे परिस्थिति बदल भी जाये। कीमत बाजार में बढ़ भी जाय, तो किसानों को वही दाम मिलेगा, जिस पर करार हुआ है। हिंदुस्तान की खेती आज भी मुख्यतः मानसून पर ही निर्भर है। यदि मानसून कमजोर हुआ तो उपज कम होगी और फसल का दाम बाजार में बढ़ जायेगा, किंतु करार में जो दाम तय होगा, वही मिलेगा। साथ ही खेती के लिये जो सेवा कम्पनी देगी, उसका भुगतान भी करना ही होगा। इस प्रकार न तो फसल लगाने की आज़ादी और ना बेचने की आज़ादी। फसल की कीमत की कमी और लागत का नुकसान तो हुआ ही, कम्पनी द्वारा लगाये गये लागत को भी वापस चुकाना पड़ेगा।
इस कानून से पहले आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अधीन व्यापारी को एक सीमा से अधिक जमाखोरी की इजाज़त नहीं थी, लेकिन इस कानून में अब अनुच्छेद 7 के अधीन असीमित जमाखोरी की इजाज़त तो है ही, यह कानून राज्यों में पहले से जमाखोरी के खिलाफ बने कानून को भी समाप्त कर देता है। सरकार यद्यपि बिचौलियों को खत्म करने के लिये इन कानूनों को ज़रूरी बताती है, लेकिन अनुच्छेद 10 में नये बिचौलियों का भी प्रावधान किया गया है। इस प्रकार आवश्यक वस्तु कानून 1955 में संशोधन 2020 ला कर जमाखोरी की छूट दे दी गयी है, जिससे व्यापारी फसल कटनी के समय से ही सस्ते दामों में अनाज खरीदकर जमा कर सकेंगे और बनावटी अभाव पैदा कर मंहगे दामों पर बेच कर मुनाफा कमा सकेंगे। फसल कटाई से छह सप्ताह तक की कीमत को फसल कटनी कीमत कहते हैं, जो अमूमन न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाजार मूल्य से कम होता है। इसे ‘अवसादी बिक्री’ भी कहते हैं। किसान अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये व्यापारियों और लोगों से उधार लेने के एवज में सस्ते दामों पर अनाज बेचते हैं। इस अवसादी बिक्री को रोकने के लिये सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था की है। अन्यथा जो मुनाफे के लिये खेती करते हैं और जिनके पास तैयार फसल रखने की सुविधा होती है, साथ ही तत्काल नकदी की जरूरत नहीं होती है, वैसे किसान तो बाज़ार भाव चढ़ने पर ही फसल बेंचते आये हैं। यद्यपि सच्चाई यह है कि बहुत थोड़े से किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाता है। शांताकुमार समिति के अनुसार केवल छह फीसदी किसानों को समर्थन मूल्य मिल पाता है, शेष 94 फीसदी आज भी अवसादी बिक्री ही करते हैं या भाव चढ़ने पर मुनाफे के लिये बाजार में बेच पाते हैं, तो बेचते हैं। यदि खेती उत्पादन बाजार समिति से बाहर निकल कर बेचना ही निदान होता, तो आज हिंदुस्तान का लगभग 94 फीसदी किसान खुशहाल होते और किसानों की आत्महत्या नहीं बढ़ रही होती। फिर भी खेती बाज़ार समिति किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देता है। यदि बाज़ार में फसल की कीमत खेती बाज़ार समिति से ज्यादा हो, तो किसान को अपनी फसल बाज़ार में बेचने की आज़ादी होती है। चूंकि खेती उत्पादन मंडी समिति औसतन चालीस किलोमीटर दूर होता है, छोटे किसान मंडी नहीं जा पाते हैं तो व्यापारी उनसे सस्ते दामों में खरीद कर मंडी में बेचते हैं और किसानों का लाभ व्यापारी ले जाते हैं।
सरकार अब किस आज़ादी की बात करना चाहती है? यह सच है कि खेती उत्पादन बाज़ार समिति में कई कमियां हैं, जिसे दूर करने की जरूरत है, लेकिन एक समानान्तर बाज़ार खड़ा करना इसका हल नहीं हो सकता है। बिहार इसका उदाहरण है। बिहार में खेती बाज़ार समिति 2006 में ही भंग कर दी गयी थी। अब लगभग 15 साल होने को आाये हैं पर किसानों की माली हालात नहीं सुधरी। ‘प्राथमिक खेती साख सहकारी समिति’ अर्थात् ‘पैक्स’ के माध्यम से किसानों की फसल खरीद होती है। अधिकांश किसान मिलेंगे जिन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं के बराबर मिला है, अधिक मिलने की तो बात ही नहीं है। यदि सरकार किसान के हित की बात करना चाहती है, तो इस कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी बाध्यकारी क्यों नहीं बनाना चाहती है?

अध्याय तीन में करार में विवाद की हालात में निपटारे का प्रावधान अनुच्छेद 13 से 15 तक में दिया गया है, जिसके अनुसार यदि क़रारनामा में समझौता समिति का उल्लेख है, तो उक्त समिति दोनो पक्षों के बीच विवादों का निपटारा करेगी। संतोषजनक निपटान नहीं होने की स्थिति में अनुमंडल अधिकारी या अपीलीय प्राधिकार को विवाद निपटारे का अधिकार है। लेकिन यहां संतोषजनक निपटान नहीं होने पर अनुच्छेद 18 एवं 19 में यह कानून केंद्र एवं राज्य सरकारों, निबंधन प्राधिकार, अनुमंडल प्राधिकार, अपीलीय प्राधिकार का निर्णय के खिलाफ किसान कम्पनी पर कानूनी कारवाई नहीं कर सकता है। यह कानून सिविल कोर्ट को भी इस मामले में सुनने का अधिकार नहीं देता है। मेरी जानकारी में यह पहली बार हुआ है कि सरकार का कोई कानून के लागू होने पर विवाद की स्थिति में कोर्ट को इस विवाद को सुनने का हक नहीं होगा। यही हालात खेती उत्पादन और वाणिज्य कानून का भी है, जिसमें अनुच्छेद 15 में भी इसी तरह का प्रावधान है। जहां तक करारनामा का सवाल है, सरकार द्वारा किसान को कोई कानूनी सहायता देने का प्रावधान नहीं है। ऐसे में कम्पनी अपने वकीलों के बल पर करार और अनुमंडल एवं अपीलीय प्राधिकार को आसानी से प्रभावित कर पायेगा और किसान के लिये हमेशा घाटे का सौदा रहेगा। यह हिंदुस्तान के नागरिकों के मौलिक अधिकार के हनन जैसा ही है। फिर भी हमारे देश के प्रधानमंत्री कहते हैं कि ये कानून किसानों को सशक्त करेगा और संरक्षण देगा, जबकि सभी प्रावधान कम्पनी खेती के पक्ष में है। कम्पनी अपने लाभ के लिये सुविधानुसार क़रार आसानी से कर पायेगा। किसान उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य प्रोत्साहन एवं सहूलियत अध्यादेश 2020 में सिर्फ किसान ही नहीं, व्यापारी को भी एक राज्य से दूसरे राज्य में किसानों के उत्पादन को एक राज्य से दूसरे राज्यों में ले जाने की छूट हो गयी है। हिंदुस्तान के अधिकांश किसान सीमांत और लघु आकार के जोत का है, जो अपनी उपज बेचने दूसरे राज्य में नहीं जा सकेंगे। सरकार की तरफ से कोई एजेंसी बहाल करने का प्रावधान नहीं किया गया है, जो सीमांत एवं लघु किसानों के उत्पादन को लेकर दूसरे राज्यों में बेचकर उसे लाभ दे सके।

जाहिर है कि यह कानून व्यापारियों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इन व्यापारियों के लिये राज्य के खेती उपज मंडी समिति के अधीन लगने वाले बाजार शुल्क से मुक्त रखा गया। ऐसे में सरकारी मंडी में अनाज बेचने के बजाय मंडी से बाहर निजी मंडी में फसल बेचने को सरकार प्रोत्साहित कर रही है। निजी मंडी की पहुंच किसानों के घर, फैक्टरी, भंडार, शीतगृह, भूमिगत भंडारण आदि तक होगी। यद्यपि सरकारी मंडी को बंद करने की बात नहीं कही गयी है, पर निजी मंडी को बाजार शुल्क, आढ़तिया कमीशन आदि नहीं लगने के कारण व्यापारी सरकारी मंडी में नहीं जायेंगे। परिणामतः सरकारी मंडी बंद हो जायेगी। मंडी से जुड़े रोजगार पानेवाले लाखांे लोग बेरोजगार होंगे। एक तरफ जहां इससे सरकारी खजाने पर बुरा असर पड़ेगा, वहीं सरकारी मंडियों में आधारभूत संरचना के विकास के लिये धन का अभाव होगा। पहले से कमजोर आधारभूत संरचना की कमी झेल रहा यह क्षेत्र और भी बदतर हालात में होगा। अतः सम्भव है कि कुछ वर्ष भले ही निजी खरीददार लाभप्रद दाम भी दे, लेकिन अंततः कम्पनी खेती करार का दंश झेल रहे पंजाब में किसान जान देने को मजबूर है। अगर कम्पनी खेती किसानों के हित में होती, तो पंजाब के किसान आत्महत्या नहीं करते। कर्नाटक का फलता-फूलता किसान दुग्ध उत्पाद सहकारी समिति ‘काफका’ को ‘कैडबरी’ ने किस तरह निगल लिया, इसे भरत डोगरा के ‘ईकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में छपा लेख इसका आइना दिखाता है।

‘आवश्यक वस्तु कानून 1955’ में संशोधन कर 2020 में केवल असाधारण परिस्थिति जैसे युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि और गम्भीर प्राकृतिक आपदा के हालात को छोड़कर जमाखोरी की छूट दे दी गयी है। खेत की उपज का व्यापारी विभिन्न राज्यों से अनाज की खरीद बिक्री कर सकेंगे और किसान ज्यादातर अपना उत्पादन फसल की कटनी के समय में अवसादी कीमत पर बेचने को मजबूर होंगे। अतः लाभ किसानों के बजाय व्यापारी को होना है। साथ ही अनाज का बनावटी अभाव आम बात होगी। ऐसे में सवाल उठता है कि इस कानून के जरिये सरकार किसान को क्या देना चाहती है, जो किसान को हासिल नहीं था। न्यूनतम समर्थन मूल्य को प्रभावी और बाध्यकारी करना था जो इस कानून ने किया नहीं। किसान को अपना अनाज जमा रखने में कोई मनाही नहीं थी। किसान को नहीं थी, तो रखने की जगह और तत्काल कुछ नगदी जो खेती में मदद कर सके और अनाज का भाव चढ़ने पर उसका दाम, जिससे वे अपने अनाज का लाभकारी दाम पा सके। लेकिन इस कानून में तो ऐसा कुछ भी नहीं है। अगर किसी को इसका लाभ है तो वो निजी क्षेत्र का व्यापारी है। पहले जमाखोरी की मनाही थी, अब नहीं रहेगी। पहले बाजार उसके नियंत्रण में नहीं था, अब लिखित करार के साथ नियंत्रण होगा। पहले एक राज्य से दूसरे राज्य के आवाजाही पर रोक थी, अब नहीं रहेगी। अतः यह कानून व्यापारी के लाभ के लिये बना है किसानों के लिये नहीं। किसानों का तो नुकसान ही नुकसान है। यदि देश की खेती में संस्थागत सुधार और आवश्यक संरचनात्मक निवेश हुआ रहता, तो जीवन निर्वाह की खेती लाभकर हो पाती और खेती में बचत और पूंजी निर्माण से खेती में निवेश हो सकता था, जिससे खेती का पूंजीगत रूपांतरण हो सकता था। खेती उद्योग बन सकता था। जहां भी खेती में सार्वजनिक निवेश हुआ है वहां की खेती जीवन निर्वाह की दशा से बाहर निकल कर पूंजीगत खेती में रूपांतरित हो सकी है। पूंजीगत खेती में उत्पादन बाजार और लाभ कमाने के लिये होता है। जैसा कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, गोदावरी वेसिन, आदि जगहों में हो सका है। लेकिन खेती में उत्पादन सापेक्ष कीमत लोच के कारण फसलों की कटाई का बाजार कीमत अक्सर अवसादी ही रहता है। जबकि उद्योगपति औद्योगिक उत्पादन की आपूर्ति पर नियंत्रण के द्वारा उसकी कीमत को गिरने से रोकता है। फलतः खेती-उद्योग व्यापार शर्त खेती के खिलाफ और उद्योग के पक्ष में होता है जिससे खेती का नुकसान और उद्योग को लाभ होता है। उद्योग को सस्ता कच्चा माल मिलता है और औद्योगीकरण को बल मिलता है। यदि सार्वजनिक उद्योग हो तो इसका लाभ देश को मजबूत बनाता है और औद्योगीकरण से श्रमिक को खेती से उद्योग में जाने का अवसर मिलता है। लेकिन निजी क्षेत्र के औद्योगीकरण में औद्योगिक विवाद से बचने के लिये श्रम बहुलता के बजाय मशीन परक उद्योग को चुनते हैं, जिससे रोजगार के अवसर अपेक्षाकृत कम मिलते हैं और कारपोरेट जगत को लाभ पहुंचाता है। यह भी कारण है कि कारपोरेट जगत इन कानूनों को लाभकारी मानता है, जबकि किसानो का सदैव नुकसान ही होता है। खेती में बचत नहीं होने की स्थिति में निवेश की संभावना घट जाती है। सार्वजनिक निवेश के घटने से निजी निवेश की सम्भावना घटती जाती है और खेती अलाभकर होती जाती है। हिंदुस्तान की खेती की हालात कुछ अपवादों को छोड़कर अमूमन ऐसी ही है।

उदारीकरण के दौर में सरकारों ने खेती में पूंजी निवेश के लिये निजी क्षेत्र के लिये अवसर बनाया है लेकिन यह बचत आधारित उत्पादक पूंजी के बजाय व्यावसायिक पूंजी है जो सामंती महाजनी के स्थान पर आयी है। जिसे हम करारी खेती या कारपोरेट खेती के नाम से भी जानते हैं। इसमें कम्पनियां करारी निवेश करती है और मुनाफा कमाती है। चूंकि किसानों की खेती अलाभकर हो चुकी है, पूंजी के अभाव में आसानी से किसान कर्ज आधारित खेती को स्वीकार कर लिया है। खेती में बचत का कंपनियों द्वारा लूट का नतीजा सामने है। कर्ज का बोझ और फसलों के नुकसान के बाद लाखों किसानों की आत्महत्या का सिलसिला हिंदुस्तान के खेती उजाड़ और रूपांतरण के इतिहास में एक बदनुमा दाग पूंजीगत खेती की विफलता की लम्बी कहानी है। आर्थिक सुधार का दूसरा चरण और भी घातक साबित हो रहा है। नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था लुढ़कने लगी थी। वस्तु और सेवा कर से हालात और भी खराब होती चली गयी। कोराना महामारी के बीच अचानक बिना सोचे समझे और बिना किसी तैयारी के तालाबंदी से अर्थव्यवस्था ठप हो गयी है। पहली तिमाही का विकास दर 23.9 प्रतिशत नीचे गिर गया है, फिर भी खेती का विकास दर धनात्मक 3.54 प्रतिशत रहा है। सरकार एक-एक कर सार्वजनिक सम्पत्ति बेच रही है। दूरसंचार, रेल, हवाई यातायात, गैस, पेट्रोलियम, खनिज सम्पदा, आदि धीरे-धीरे कारपोरेट के हवाले कर रही है। कारपोरेट जगत की नजर खेती पर बहुत पहले से है। कम्पनी खेती को बढ़ावा देने के लिये कारपोरेट जगत ने इस अवसर का उपयोग किया है। वर्तमान सरकार ने किसानों के हित की चिंता किये बगैर खेती को कम्पनी के हवाले करने के लिये ये कानून बनाया है। यद्यपि यह कानून सार्वजनिक कृषि निवेश एवं कृषि साख का विकल्प नहीं हो सकता है, सरकार ने कम्पनी खेती को निजी निवेश का विकल्प चुना है। 
प्रथम दृष्ट्या यह खेती का पूंजीगत विकास का प्रारूप लग सकता है, किंतु यह किसानों के बढ़ते आमदनी से पूंजी निवेश नहीं होने के कारण व्यापारी के लाभ का कारण तो हो सकता है, लेकिन किसानों का नहीं। फलतः कर्ज के दबाव में किसानों की हालात बाजार का लाभ लेने में सहायक हो, यह जरूरी नहीं है। पंजाब, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों के किसानी संकट इसके उदाहरण हैं। खेती मूलतः राज्य की सूची में आता है। इस संबंध में कानून बनानें का अधिकार संविधानतः राज्य सरकार के पास है, किंतु व्यापार एवं वाणिज्य को इन कानूनों में जोड़कर बड़ी कुशलता से संघीय ढांचे पर भी चोट की गयी है। अतः यह कानून मजदूर किसानों को और भी संकट में डालकर भुखमरी पैदा करेगा, जिससे बचने के लिये किसानों को अपनी हक की लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी। देश के विभिन्न राज्यों में किसान संगठन इन कानूनों का विरोध कर भी रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, बिहार सहित अन्य राज्यों में भी विरोध जारी है। रेल चक्का जाम, धरना और प्रदर्शन का दौर चल रहा है। ग्राम सभा को सशक्त बनाकर अपने आंदोलन का संवैधानिक रास्ता अपनाया है। पंजाब और कर्नाटक में ग्रामसभा से प्रस्ताव पारित कराकर महामहिम राष्ट्र पति के विचार के लिये भेजा जा रहा है। इसी तर्ज पर बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में ग्राम सभाओं में विधिवत किसानी कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास करे। पंजाब सरकार ने विधान सभा से भी इन कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास करके नया कानून बना लिया है, और किसानों से धरना प्रदर्शन समाप्त करने की अपील की है। सरकार परस्त मीडिया बिहार में हो रहे किसान विरोध को समाचारों में जगह नहीं दे रही हैं। ऐसे में किसान मीडिया विकसित करने की जरूरत है। साथ ही किसान उत्पादन की नाकाबंदी कर गांवों में अपने उत्पादन को बेचने तथा गरीबों के बीच वितरित कर किसान अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं। निर्णय किसानों को लेना है कि किसानी अपने पास रखनी है या कम्पनी के हवाले करनी है।  

लेखक विकास अध्ययन संस्थान, जलसैन, बिहार में मानद निदेशक हैं।

फ्रेडरिक एंगेल्स के जन्म के 200 साल - मनीष आज़ाद

 


फ्रेडरिक एंगेल्स की मृत्यु पर लिखते हुए लेनिन ने उन्हेंतर्क की शानदार मशाल और शोषितों के लिए  धड़कन वाले बेमिसाल हृदय' की संज्ञा दी थी। आज उनकी मृत्यु के 125 साल बाद भी यह मशाल उनके विचारों के रूप में धधक रही है। 28 नवम्बर 1820 को आज केयूपरटाल [Wuppertal] जर्मनी (तत्कालीन प्रशा) में एंगेल्स का जन्म हुआ था। छात्र जीवन से ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया था। मार्क्स की तरह एंगेल्स भी तत्कालीनलेफ्ट हेगीलियन ग्रुपके सदस्य थे। इसी दौरान एंगेल्स ने मार्क्स द्वारा संपादित अखबार 'Rheinische Zeitung'में कई लेख लिखे. हालाँकि अभी एंगेल्स की मार्क्स से मुलाकात नही हुई थी।

संपन्न मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे एंगेल्स के पिता मिल मालिक थे। जाहिर है वे एंगेल्स की राजनीतिक गतिविधियों को कतई पसंद नही करते थे। अंततः पिता के दबाव देने पर 1842 में एंगेल्स को ब्रिटेन के मानचेस्टर शहर जाना पड़ा, जहां उन्हें पिता की एक सहस्वामित्व वाली फैक्ट्री का मैनेजमेंट देखना था। यहीं उनकी मुलाकात उन्ही की फैक्ट्री में काम करने वाली एक आयरिश मजदूर महिला मैरी बर्न्स से हुई। यह दोस्ती जल्द ही प्यार और पार्टनरशिप में बदल गयी। हालाँकि उन्होंने औपचारिक शादी कभी नहीं की। दोनों का ही शादी की बुर्जुआ संस्था पर विश्वास नहीं था। शादी के औपचारिक बंधन में बंधने के कारण ही शायद मार्क्स भी एंगेल्स और मैरी के रिश्ते की अहमियत को नहीं समझ पाए। इसलिए 1963 में मैरी बर्न्स की मृत्यु की सूचना मिलने के बाद भी मार्क्स ने एंगेल्स को उस वक्त लिखे अपने पत्र में इस संबंध में कुछ भी नहीं लिखा। इससे एंगेल्स भीतर तक काफी दुखी हो गए। हालाँकि बाद में मार्क्स को इसका अहसास हुआ और उन्होंने एंगेल्स से माफी मांगी।

मैरी बर्न्स ने एंगेल्स के जीवन पर निर्णायक असर डाला। मैरी बर्न्स राजनीतिक रूप से सजग महिला थी और मजदूरों केचार्टिस्ट आन्दोलनकी कार्यकर्ता थी। चार्टिस्ट आन्दोलन के नेताओं से एंगेल्स का परिचय मैरी बर्न्स ने ही कराया। इसके बाद एंगेल्स चार्टिस्ट आन्दोलन के अखबारनॉर्दन स्टारके लिए लगातार लिखने लगे। मैरी बर्न्स ने ही एंगेल्स को वहां के मजदूरों की गन्दी संकरी झुग्गियों से और उनके रोजमर्रा के जीवन-संघर्ष से परिचय कराया। राउल पेक की मशहूर फिल्म यंग कार्ल मार्क्समें इस पहलू को बहुत शानदार तरीके से दिखाया है। मैरी बर्न्स ने कई बार मजदूर झुग्गी बस्तियों में एंगेल्स को पिटने से भी बचाया। क्योंकि मजदूर शुरू में एंगेल्स पर संदेह करते थे कि ये मजदूर बस्ती में किसी स्वार्थवश ही आया होगा। सच तो यह है की 1844 में लिखी एंगेल्स की क्लासिक रचना 'The condition of the Working Class in England' एंगेल्स के इसी प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित थी और इस अनुभव से परिचय कराने का पूरा श्रेय मैरी बर्न्स को जाता है. मैरी बर्न्स के साथ ही एंगेल्स ने आयरलैंड की यात्रा की। आयरिश राष्ट्रीयता के सवाल को समझने में इस यात्रा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

एंगेल्स की मार्क्स से एक संक्षिप्त मुलाकात 1842 में हो चुकी थी। लेकिन 1844 में दोनों पेरिस में मार्क्स यहाँ निर्वासित जीवन जी रहे थे, 10 दिन साथ रहे और रात दिन के जुझारू बहस मुबाहिसा के बाद दोनों उस मजबूत वैचारिक एकता की जमीन पर खड़े हो गए जिसे आज हम मार्क्सवाद के रूप में जानते है। जर्मनी के मशहूर समाजवादी फ्रेंज मेहरिंग ने [Franz Mehring] लिखा है की एंगेल्स की विनम्रता के बावजूद यह सच है की मार्क्स को  अर्थशास्त्र  के कई महत्वपूर्ण पहलुओं से एंगेल्स ने ही परिचय कराया। बहरहाल इसी के साथ दुनिया के सर्वहारा को मार्क्स और एंगेल्स के रूप में अपना कमांडर और पथप्रदर्शक मिल गया।

एंगेल्स ने मार्क्स के साथ मिलकर पहली किताबहोली फेमिली' लिखी और 1846 में दूसरी किताबजर्मन इडीयोलोजीलिखी।जर्मन इडीयोलोजीमें पहली बार क्रांतिकारीद्वन्दात्मक भौतिकवादी दर्शनसुव्यवस्थित रूप से सामने आया. पूँजीवाद में सर्वहारा जिस झूठी चेतना [false consciousness] का कैदी हो जाता है, उसका जिक्र पहली बार इसी किताब में आया। ‘‘मनुष्य की भौतिक स्थितियां उसकी चेतना का निर्धारण करती है, ना की उसकी चेतना उसकी भौतिक स्थितियों का’’, तमाम आदर्शवादी कुहासे को चीर देने वाली यह क्रांतिकारी पंक्ति इसी किताब से है। ‘‘परिस्थितियां मनुष्य का निर्माण करती है और पलट कर मनुष्य भी परिस्थितियों का निर्माण करता है’’, यह शानदार द्वंदात्मक सिद्धांत इसी पुस्तक में पहली बार प्रतिपादित किया गया। इसी किताब में एंगेल्स ने एलान किया किमुक्ति कोई मानसिक कार्यवाही नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक कार्यवाही है लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस क्रांतिकारी किताब को छपने के लिए इसे रूस में क्रांति होने तक का इन्तज़ार करना पड़ा। 1935 में ही जाकर सोवियत रूस में यह पहली बार प्रेस का मुंह देख सकी और सामान्य पाठकों तक पहुँच सकी।

1846 में मार्क्स एंगेल्स ने मिलकरकम्युनिस्ट करेस्पोनडंस कमेटी[Communist Correspondence Committee] बनाई ताकि समान विचारों वाले लोगों के साथ एकता बनाई जा सके. इसी प्रक्रिया में लीग ऑफ जस्टसे होते हुएकम्युनिस्ट लीगमें दोनों शामिल हो गये। इसकी तरफ से घोषणापत्र तैयार करने का काम मार्क्स और एंगेल्स के कन्धों पर पड़ा। यह घोषणापत्र फरवरी 1848 में छपकर आया। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कीकम्युनिस्ट घोषणापत्रके आने के बाद फिर दुनिया वैसी कभी नहीं रही, जैसी वह इसके पहले थी। दुनिया का अब तक का सबसे खूबसूरत और क्रांतिकारी नारादुनिया के मजदूरों एक हो, मजदूरों के पास खोने के लिए सिर्फ बेड़ियाँ है और जीतने के लिए पूरी दुनिया हैयहीं से आया।कम्युनिस्ट घोषणापत्रने दर्शन को दार्शनिकों के सर से उतार कर मजदूरों के संघर्षों के बीच स्थापित कर दिया। उसने एलान किया- ‘अब तक दार्शनिकों ने संसार की व्याख्या की है, लेकिन असल सवाल उसे बदलने का है।दर्शन के करीब 2000 सालों के इतिहास में पहली बार दुनिया बदलने का सवाल दर्शन का केन्द्रीय सवाल बन गया। मानव समाज के समस्त इतिहास को [इस वक्त तक आदिम साम्यवाद की जानकारी नहीं थी] ‘वर्ग संघर्ष के इतिहासके रूप में पहली बार सूत्रित किया गया। सामाजिक विज्ञान में इस सूत्रीकरण का महत्व ठीक वैसे ही है, जैसे भौतिक विज्ञान में आइन्स्टीन का E = mc2

कम्युनिस्ट घोषणापत्रकाकम्युनिज्म का सिद्धांतवाला हिस्सा अकेले एंगेल्स ने लिखा। यहाँ एंगेल्स ने बहुत ही सरल तरीके से कम्युनिज्म के सिद्धांत को समझाया और पहली बार हमें भावी वर्ग विहीन समाज की एक स्पष्ट रूपरेखा मिली। एंगेल्स ने सर्वहारा को एक स्वतंत्र वर्ग के रूप में मान्यता दी और उसकी मुक्ति का वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया. यहाँ एंगेल्स ने एक और महत्वपूर्ण प्रस्थापना भी दी कि बिना पूरे समाज को मुक्त किये सर्वहारा खुद को मुक्त नहीं कर सकता।

यह महत्वपूर्ण संयोग था किकम्युनिस्ट घोषणापत्रके छपते ही लगभग पूरे यूरोप में सामंतवाद और राजशाही  के खिलाफ क्रांति शुरू हो गयी। मार्क्स ने इसेकांटीनेंटल रेवोलुशनकी संज्ञा दी। अब सिद्धांत को व्यवहार में उतारने का वक्त था। दर्शन को जमीन पर उतारने का वक्त था। एंगेल्स और मार्क्स यहाँ भी अग्रिम पंक्ति में खड़े थे। दोनों तत्काल ही इस क्रांति में कूद गए।कम्युनिस्ट घोषणापत्रकी पोजीशन के अनुसार ही पहली बार सर्वहारा ने स्वतंत्र राजनीतिक वर्ग के रूप में संघर्ष शुरू किया। एंगेल्स ने लिखा- ‘हर जगह क्रांति मजदूर वर्ग की कार्यवाही थी, मजदूरों ने ही बैरिकेड खड़ी की, मजदूरों ने ही इस क्रांति में अपना जीवन न्योछावर किया।एंगेल्स और मार्क्स ने जर्मनी के कोलोंग [Cologne], को अपना संघर्ष क्षेत्र बनाया। बाद में एंगेल्स जर्मनी के राइन प्रान्त आकर बन्दूक लेकर बैरीकेटिंग की लड़ाई भी लड़ी। कम लोग यह जानते है कि एंगेल्स सैन्य मामलों के सिद्धांत और व्यवहार दोनों में सिद्धहस्त थे। एंगेल्स ने 1841 में कुछ समय प्रशा की सेना में भी काम किया था। मार्क्स के परिवार में एंगेल्स को प्यार से अक्सरमिस्टर जनरलकह कर संबोधित किया जाता था।

बहरहाल मजदूरों की इस स्वतंत्र राजनीतिक पहलकदमी से बुर्जुआ वर्ग घबरा गया और उसने क्रांति को अधूरा छोड़कर सामंती शक्तियों के साथ हाथ मिला लिया और अपनी बन्दूकें अपने पूर्व सहयोगी सर्वहारा की तरफ मोड़ दी। जून आते-आते क्रांति की दिशा पलट गयी और गद्दार बुर्जुआ ने सामंती शक्तियों के साथ मिल कर मजदूरों का कत्लेआम शुरू कर दिया। मार्क्स ने इस पर बहुत तीखा कमेन्ट करते हुए लिखा कि बुर्जुआ रिपब्लिक फरवरी क्रांति में नहीं बल्कि जून प्रतिक्रांति में स्थापित हुआ था। अब पूरे यूरोप में प्रतिक्रियावाद का दौर था। एंगेल्स और मार्क्स अपने विचारों और अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण पूरे यूरोप में कुख्यात हो चुके थे। जर्मनी और फ्रांस की पुलिस खास तौर पर उन्हें खोज रही थी. अन्ततः दोनों को भाग कर इंग्लैंड आना पड़ा। जहा अपेक्षाकृत प्रतिक्रियावाद का प्रभाव कम था।

यहाँ आकर एंगेल्स ने अपनी इच्छा के विरूद्ध जाकर पुनः अपने पिता की मानचेस्टर स्थित काटन मिल में काम करने का निर्णय लिया। यह काम उन्होंने सिर्फ अपने प्रिय दोस्त कामरेड मार्क्स और उनके परिवार की मदद करने के लिए किया। इसी मदद के कारण मार्क्सकैपिटललिखने का अपना ऐतिहासिक मिशन पूरा कर सके। मार्क्स ने खुद इसे स्वीकार करते हुए एक पत्र में एंगेल्स को लिखा- ‘कैपिटल लिखने का काम पूरा हो गया। यह सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे त्याग के कारण संभव हुआ कैपिटल का भाग 2 और 3 एंगेल्स ने मार्क्स की मृत्यु के बाद मार्क्स के अधूरे और अस्त-व्यस्त नोट्स के आधार पर अपना पूरा रक्त निचोड़ कर पूरा किया। लेनिन ने तो साफ-साफ कहा कि जिस तरह से एंगेल्स ने कैपिटल भाग 2 और 3 को पूरा किया है, इसे मार्क्स और एंगेल्स, दोनों की साँझा कृति माना जाना चाहिए। एंगेल्स मार्क्स उनके परिवार की आर्थिक मदद के अलावा उन निर्वासित राजनीतिक मजदूरों की भी मदद कर रहे थे, जो मुख्यतः जर्मनी और फ्रांस के प्रतिक्रियावाद से बचकर यहाँ आये थे। शायद इसी पहलू के कारण लेनिन ने उन्हेंसबके लिए धड़कने वाले बेमिसाल हृदयकी संज्ञा दी थी। लेकिन इन्ही व्यस्तताओं के बीच 1850 में एंगेल्स ने एक और शानदार किताब लिख दी- ‘जर्मनी में किसान युद्ध इस किताब में उन्होंने प्रोटेस्टंट धर्म आन्दोलन के पीछे की सामाजिक-आर्थिक शक्तियों को सामने रखा और सिद्ध किया की धर्म के आवरण में प्रोटेस्टंट आन्दोलन वास्तव में बुर्जुआ आन्दोलन था। लेकिन इस किताब का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह था कि सर्वहारा को अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए किसानों के साथ संश्रय कायम करना होगा। निश्चय ही यह लिखते हुए एंगेल्स के दिमाग में हाल की 1848 की क्रांति की असफलता भी रही होगी।

यह सोचना भूल होगी कि इस दौरान मार्क्स महज कैपिटल लिखने में लगे रहे और एंगेल्स अपनी फैक्ट्री में व्यस्त रहे। इसके विपरीत दोनों लगातार इस प्रयास में रहे कि मजदूर आन्दोलन को कैसे फिर से अपने पैरों पर खड़ा किया जा सके। इसके लिए दोनों निर्वासित राजनीतिक मजदूरों और इंग्लैंड के मजदूर संगठनो के लगातार संपर्क में रहे और उन्हें गाइड भी करते रहे। इस दौरान एंगेल्स और मार्क्स ने संघर्षरत राष्ट्रीयताओं विशेषकर पोलिश और आयरिश रास्ट्रीयता के लिए लड़ रहे लोगों से भी संपर्क किया और उन्हें व्यापक मजदूर आन्दोलन का हिस्सा बनाने का प्रयास किया। अमेरिका के गृहयुद्ध पर भी दोनों की पैनी नजर थी और दोनों इन विषयों पर लगातार लिख भी रहे थे। अमेरिकी गृह युद्ध के सैन्य मामलों पर एंगेल्स के लिखे लेख बहुत महत्वपूर्ण थे। इन तमाम प्रयासों का ही नतीजा था, 1864 में स्थापित दुनिया का प्रथम इंटरनेशनल (‘International Workingmen’s association’ or First International)आज जिसे हम मार्क्सवाद कहते है, वह इसी इंटरनेशनल में तमाम गैर सर्वहारा प्रवित्तियोंप्रूदोवाद, लासालवाद, अर्थवाद ब्लांकिवाद, अराजकतावादआदि, से लड़ कर स्थापित  हुआ। और इन तमाम वैचारिक लड़ाइयों में एंगेल्स ने मार्क्स का भरपूर साथ दिया। हालाँकि भौतिक रूप से एंगेल्स इसके रोजमर्रा के कामों में काफी कम शामिल रहे। लेकिन अंतिम निर्णायक कांग्रेस में एंगेल्स की भूमिका महत्वपूर्ण थी, जहां उन्होंने इंटरनेशनल को अराजकतावादी बकुनिनपंथियों के हाथों में जाने से बचाया। यहाँ एंगेल्स ने बाकायदा एक रणनीतिकार की भूमिका निभाते हुए इंटरनेशनल को बकुनिनपंथियों से बचाते हुए इसके हेडक्वार्टर को 1876 में अमेरिका शिफ्ट करने में कामयाब हो गए। हालाँकि वहा जाकर यह निष्क्रिय हो गया।

यह इंटरनेशनल की ही ताकत थी कि इंग्लैंड का बुर्जुआ चाहकर भी अमेरिकी गृह युद्ध में दक्षिण [Confederate] की तरफ से हस्तक्षेप नही कर पाया और पूरे यूरोप का बुर्जुआ दूसरे देशों के मजदूरों कोहड़ताल तोड़क[strikebreaker] के रूप में इस्तेमाल नही कर पाया, जो इंटरनेशनल की स्थापना से पहले आम बात थी।

इंटरनेशनल के दौरान ही 1871 में मजदूरों का पहला राज्यपेरिस कम्यूनअस्तित्व में आया। एंगेल्स नेपेरिस कम्यूनको फर्स्ट इण्टरनेशनल की संतान कहा। पेरिस कम्यून पर मशहूर फिल्मकार पीटर वाटकिंग ने बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्मला कम्यूनबनायी है। पेरिस कम्यून की हार के बाद एक बार फिर यूरोप में दमन चक्र तेज हो गया। इंग्लैंड के अलावा पूरे यूरोप में इंटरनेशनल को प्रतिबंधित कर दिया गया। इंटरनेशनल के सदस्यों के पीछे पूरे यूरोप (इंग्लैंड को छोड़कर) की पुलिस कुत्तों की तरह पीछे पड़ गयी। एक बार फिर पूरे यूरोप से क्रांतिकारी मजदूर दमन से बचने के लिए इंग्लैंड आने लगे। एंगेल्स ने रात-दिन एक करके इन मजदूरों के रहने खाने की व्यवस्था की और उनसे राजनीतिक सम्बन्ध कायम किये। आम तौर से एंगेल्स के इस मानवतावादी पहलू पर कम ध्यान दिया जाता है। लेकिन तत्कालीन प्रतिक्रियावाद के दौर में यह बेहद महत्वपूर्ण था। उनमें से कुछ मजदूरों की तो एंगेल्स ने मार्क्स की ही तरह आजीवन मदद की।

इसी समय एंगेल्स की माँ ने एंगेल्स को एक भावनात्मक पत्र लिखा- ‘तुम हमेशा गैर और अजनबियों की बात ही सुनते हो, अपनी मां की बात तो कभी नहीं सुनते। भगवान् ही जानता है की इस समय मेरी क्या स्थिति है। अखबार उठाते समय मेरे हाथ काँपते है, क्योंकि उनमे तुम्हारी गिरफ्तारी के वारंट की खबर होती है इस पत्र से एंगेल्स के व्यक्तित्व की भी एक झलक मिलती है।

1863 में मैरी बर्न्स की मृत्यु के कुछ समय बाद एंगेल्स उसी तरह के रिश्ते में मैरी बर्न्स की छोटी बहन लीडिया बर्न्स [Lydia Burns], के साथ बंध गये। 1878 में लीडिया बर्न्स की मौत के कुछ घंटों पहले ही लीडिया बर्न्स की जिद के कारण एंगेल्स ने लीडिया से शादी भी कर ली। लीडिया बर्न्स की मृत्यु के बाद जर्मनी के प्रमुख समाजवादी आगस्त बेबेल की पत्नी को लिखे पत्र में एंगेल्स लिखते है- ‘मेरी पत्नी एक ईमानदार आयरिश सर्वहारा की संतान थी, जिसका हृदय उस वर्ग के लिए धड़कता था, जिसमे उसने जन्म लिया। मेरे दिल में उसकी इज्जत उन तमाम पढ़ी-लिखी, सुसंस्कृत आकर्षक मध्यवर्गीय महिलाओं से कहीं ज्यादा है और संकट के समय यह बात मुझे हमेशा सुकून पहुचाती रही है।मार्क्स की छोटी बेटी एलीनार मार्क्स की लीडिया से बहुत अच्छी दोस्ती थी। एलीनार मार्क्स ने लीडिया के बारे में लिखा- ‘लीडिया अशिक्षित थी, वह लिख पढ़ नहीं सकती थी, लेकिन वह सच्ची और ईमानदार थी। वह एक संत महिला थी।

एंगेल्स के बहुत से बुर्जुआ जीवनीकार मैरी बर्न्स और लीडिया को एंगेल्स की बराबर की पार्टनर मानने से इंकार करते है। उनके अनुसार दोनों एंगेल्स के घर का काम करने वाली नौकरानी थी, जिससे एंगेल्स थोड़ा बेहतर व्यवहार करते थे। अपनी पूंजीवादी सोच के कारण वे इस बात को पचा ही नहीं सकते थे कि उच्च मध्य वर्ग से आने वाले इतना पढ़े-लिखे सुसंस्कृत व्यक्ति की पत्नी या पार्टनर सर्वहारा वर्ग से आने वाली एक अशिक्षित महिला कैसे हो सकती है? उन्हें इस बात की समझ नहीं थी कि एंगेल्स भविष्य का   प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

1883 में उनके प्रिय मित्र और सह वैचारिक योद्धा कार्ल मार्क्स का भी निधन हो गया। एंगेल्स ने लिखा- ‘दुनिया के सबसे बेहतरीन दिमाग ने सोचना बंद कर दिया।पत्नी लीडिया और फिर मार्क्स की मौत ने एंगेल्स को भीतर तक तोड़ दिया था, लेकिन वे सर्वहारा सेना के सच्चे सिपाही थे, दुःख मनाने का वक्त कहां था, एंगेल्स फिर मोर्चे पर डटे। उन्हें मार्क्स का बहुमूल्य अधूरा कामकैपिटलभाग 2 और 3 पूरा करना था। एंगेल्स के ही एकल प्रयासों से यह क्रमशः 1885 और 1894 में प्रकाशित हुई।

इसी बीच जर्मनी, फ्रांस इंग्लैंड आदि देशों में राष्ट्रीय स्तर पर सर्वहारा पार्टी के गठन का प्रयास शुरू हो गया था। जर्मनी की सर्वहारा पार्टी के संस्थापक आगस्त बेबेल, विल्हेम लीब्नेख्त आदि लगातार एंगेल्स के संपर्क में थे और उनसे बहुमूल्य सुझाव ले रहे थे। इतिहास की यह त्रासदी ही थी कि जर्मनी की सर्वहारा पार्टी शुरू से ही अवसरवाद से ग्रस्त थी। मार्क्स नेसोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी ऑफ जर्मनी[SAPD] के इसी अवसरवाद पर हमला बोलते हुए 1876 मेंगोथा कार्यक्रम की आलोचनालिखी थी. लेकिन सुव्यवस्थित हमला एंगेल्स ने 1878 में अपनी किताबएन्टी-डूहरिंग [Anti-Dühring] में लिखकर बोला। पहली बार मार्क्सवाद के तीनो संघटक तत्व दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र और वैज्ञानिक समाजवाद के बारे में एंगेल्स ने आम पाठको के लिए बहुत सरल रूपरेखा प्रस्तुत की। उनकी प्रसिद्ध पुस्तिकासमाजवादःकाल्पनिक और वैज्ञानिकइसी पुस्तक का हिस्सा है।

फ्रांसीसी क्रांति के दौरान बास्तीय किले पर हमले की 100वीं बरसी पर 14 जुलाई 1889 को पेरिस में दूसरे इंटरनेशनल की स्थापना हुई। इस समय तक एंगेल्स काफी बुजुर्ग हो गए थे, लेकिन फिर भी एंगेल्स वैचारिक स्तर पर इसे अपना बहुमूल्य सुझाव और मार्गदर्शन देने में कभी पीछे नहीं रहे।

लेकिन एंगेल्स का सर्वश्रेष्ठ अभी आना बाकी था। यह था 1884 में आई उनकी किताबपरिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति आमतौर से 19 वीं शताब्दी में दो किताबों की चर्चा की जाती है जिसने उस क्षेत्र में चिंतन की पूरी दिशा ही बदल दी। पहली है चार्ल्स डार्विन कीऑन दि ओरिजिन ऑफ स्पीशीज[On the Origin of Species] और दूसरी है कार्ल मार्क्स कीदास कैपिटल लेकिन मेरे हिसाब से 19 वीं शताब्दी की तीसरी महत्वपूर्ण रचना एंगेल्स कीपरिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्तिहै। जिस तरह मार्क्स केकैपिटलने उजरती गुलामी के कारणों की पड़ताल करते हुए उसकी मुक्ति की संभावनाओं को वैज्ञानिक आधार पर स्थापित किया, ठीक उसी तरह एंगेल्स की इस क्लासिक रचना ने भी महिलाओं की गुलामी की पड़ताल की और उसकी मुक्ति की संभावनाओं को वैज्ञानिक आधार दिया। लेनिन भी इस किताब को आधुनिक समाजवाद की एक बुनियादी कृति मानते है। इस किताब ने महिलाओं को उनकी पहचान और आवाज दी।

एंगेल्स ने खुद इसके विषय वस्तु के महत्व को इस रूप में रखा है- ‘पितृ अधिकार से पहले मातृ अधिकार [mother-right] के अस्तित्व की खोज का वही महत्व है जो डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत का जीवविज्ञान के लिए और मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत का राजनीतिक अर्थशास्त्र के लिए है

एंगेल्स की प्राकृतिक विज्ञान [Natural Science] में गहरी रूचि थी। मार्क्स और एंगेल्स दोनों को ही अपने समय के विज्ञान की सभी शाखाओं की नवीनतम जानकारी थी। इसे आप इस घटना से समझ सकते है. चार्ल्स डार्विन कीऑन दि ओरिजिन ऑफ स्पीशीज’  24 नवम्बर 1859 को जब प्रकाशित हुई, तो उसे उसी दिन पंक्ति में सबसे आगे खड़े होकर खरीदने वालों में एंगेल्स थे। कुछ ही दिनों में यह किताब पढ़कर और उस पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी लिखकर इस किताब को एंगेल्स ने मार्क्स के पास भेज दिया।

1872-73 से ही एंगेल्स ने एक बेहद महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट अपने हाथ में ले लिया था। वह थाडायलेक्टिक्स ऑफ नेचर[Dialectics of Nature] लिखने का प्रोजेक्ट। यानी द्वंदवाद [Dialectics]  को समाज के अलावा समस्त प्रकृति पर लागू करना। लेकिन अफसोस उनका यह प्रोजेक्ट पूरा नहीं हो पाया। इसका मुख्य कारण यही था कि उन्होंने अपने प्रिय कामरेड दोस्त कार्ल मार्क्स के अधूरेकैपिटलको पूरा करने को अपनी प्राथमिकता बनाते हुए, अपने खुद के प्रोजेक्ट को ठन्डे बस्ते में डाल दिया था। एंगेल्स की मृत्यु के बाद जबडायलेक्टिक्स ऑफ नेचरके लिए लिए गए नोट्स को जर्मन समाजवादी पार्टी के बर्नस्टीन ने महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन को दिखाया, तो आइन्स्टीन इसकी तमाम कमियों के बावजूद इसकी गहन अंतर्दृष्टि से बेहद प्रभावित हुए और इसे उसी रूप में छापने की सिफारिश की। बाद में यह किताब 1925 में सोवियत रूस से प्रकाशित हुई। मशहूर जीव वैज्ञानिक रिचर्ड लेवाईन और रिचर्ड लेवान्तीन [Richard Levins and Richard Lewontin] 1985 में आयी अपनी पुस्तकदि डायलेक्टिकल बायोलॉजिस्ट[The Dialectical Biologist] को फ्रेडरिक एंगेल्स को समर्पित करते हुए कहते है- ‘फ्रेडरिक एंगेल्स को, जो कई मामलों में गलत साबित हुए है, लेकिन वे वहां एकदम सही साबित हुए है, जहा हमें उनकी जरूरत थी इन दोनों वैज्ञानिको ने अपने तमाम शोध का प्रस्थान बिंदु एंगेल्स की इसी पुस्तक में दी गयी स्थापनाओं को बनाया। एक अन्य मशहूर वैज्ञानिक स्टीफन जे गोल्ड [Stephen Jay Gould]  ने 1975 मेंनेचुरल हिस्ट्रीमें लिखते हुएडायलेक्टिक्स ऑफ नेचरके ही एक चैप्टरवानर से मानव बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिकाको वर्तमान जीव विज्ञान के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना।

आज विज्ञान के क्षेत्र में एक तरह का कुहासा व्याप्त है। भौतिक विज्ञान को गणित में रीडयूस [reduce] किया जा रहा है, वही जीव विज्ञान मनोविज्ञान कोजीनमें रीडयूस [reduce] किया जा रहा है। इस कुहासे को समझने के लिए एंगेल्स कीडायलेक्टिक्स ऑफ नेचरबेहद महत्वपूर्ण है. और सच तो यह है कि इस कुहासे को चीरने के लिए भी प्रस्थान बिंदुडायलेक्टिक्स ऑफ नेचरही है। समाज विज्ञान में छाये कुहासे यानीउत्तर आधुनिकताका जवाब एंगेल्स का यह महत्वपूर्ण कथन है- ‘तर्क-वितर्क से पहले व्यवहार है [There is practice before argumentation].'  सच तो यह है की एंगेल्स और मार्क्स के क्रांतिकारी विचारों से ज्ञान का कोई भी क्षेत्र निर्णायक रूप से प्रभावित हुए बिना नही रहा।

एंगेल्स के 70 वे जन्मदिन पर मार्क्स की बेटी एलीनार मार्क्स ने एंगेल्स की तारीफ करते हुए कहा कि एंगेल्स कभी बूढ़े नहीं लगते। पिछले 20 सालों से वे दिनों-दिन और जवान होते जा रहे हैं। यह बात भले ही हलके फुल्के अन्दाज में उनकी तारीफ में कही गयी हो, लेकिन यह अटल सच है कि एंगेल्स और मार्क्स के विचार दिनों दिन युवा, जीवन्त और पहले से कही अधिक प्रासंगिक होते जा रहे है। फासीवाद और पतनशील साम्राज्यवाद के इस दौर में जब सभी विचारधाराएँ औंधे मुंह गिर रही हैं तो मार्क्सवाद की मशाल आशा की मशाल के रूप में और अधिक धधक रही है। एंगेल्स के जन्म के ठीक 200 साल बाद आज यह कहना कतई अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि मार्क्सवाद है तो आशा है और आशा है तो मार्क्सवाद है।