Friday 27 November 2020

किसानी कानूनों के निहितार्थ--डी0 एम0 दिवाकर

 

भारत सरकार ने 2020 में किसान के नाम पर तीन कानूनों को लागू कर दिया है।
एक- किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन एवं खेती सेवा समझौता कानून, दो- किसान उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य (प्रोत्साहन एवं सहूलियत) कानून और तीन- आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश। भारत सरकार दावा करती है कि ये कानून किसानों के सशक्तीकरण, संरक्षण और सहूलियत के लिये है। इन कानूनों से किसानों की कठिनाइयां दूर होंगी और किसान खुशहाल होंगे। ये कानून किसानों के बेहतरी के लिये है। इन कानूनों से किसान अपनी उपज कहीं भी बेचने के लिये आज़ाद होगा। यदि यह सच है कि यह कानून किसानों के हित में बना है तो किसानों को विश्वास में लेकर उनकी सलाह से इन कानूनों को बनाना अच्छा होता। किसानों को विश्वास में नहीं लेने से लोकतंत्र का पहले सिद्धांत की अनदेखी की गयी है। आइये इन कानूनों की पड़ताल करें।

किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण कीमत) आश्वासन एवं खेती सेवा समझौता कानून चार अध्यायों में विभाजित है। पहला अध्याय अनुच्छेद 1 और 2 में इस कानून में प्रयुक्त शब्दों की परिभाषा है। दूसरे अध्याय में अनुच्छेद 3 से 12 तक लिखित करार सम्बंधी प्रावधानों का वर्णन है, जिसके मुताबिक किसान अब किसी भी निजी कम्पनी से अपने उत्पादन और खेती संबंधी सेवा के लिये स्पष्ट लिखित करार कर सकता है, जिसमें फसल, उसकी आपूर्ति का समय, गुणवत्ता, कीमत, खेती के लिये विभिन्न तरह की सेवाएं, आदि का परस्पर स्वीकार्य शर्तों पर निश्चय किया जा सकता है। यह करार सामान्यतः एक फसल से लेकर पांच साल तक का हो सकता है। अगर कोई फसल पांच साल से अधिक समय की हो तो किसान और कंम्पनी की परस्पर सहमति से तय की जा सकेगी। करार के अनुसार किसान तयशुदा कीमत पर कम्पनी को बेचने के लिये बाध्य है। वह तयशुदा कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य हो, यह भी जरूरी नहीं होगा। साथ ही अगर बाजार में फसल का भाव अधिक हो भी, तो करार के कारण किसी दूसरे खरीददार को नहीं बेच सकता है, जबकि पहले न्यूनतम समर्थन मूल्य से बाजार भाव अधिक होने पर किसान अपनी फसल किसी को भी और किसी भी मंडी में बेचने के लिये आज़ाद था। इस हालात में किसान पहले अपेक्षाकृत अधिक आज़ाद था। अतः न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल की कीमत की कोई गारंटी नहीं है। इस प्रकार कीमत आश्वासन कानून का शीर्षक भी भ्रामक है। दावा किया जाता है कि इस कानून से किसानों को आज़ादी मिलेगी, लेकिन जब किसानों का कम्पनी से लिखित करार हो जाता है, तो उन्हें वही फसल लगानी होगी जो करार में शामिल है चाहे परिस्थिति बदल भी जाये। कीमत बाजार में बढ़ भी जाय, तो किसानों को वही दाम मिलेगा, जिस पर करार हुआ है। हिंदुस्तान की खेती आज भी मुख्यतः मानसून पर ही निर्भर है। यदि मानसून कमजोर हुआ तो उपज कम होगी और फसल का दाम बाजार में बढ़ जायेगा, किंतु करार में जो दाम तय होगा, वही मिलेगा। साथ ही खेती के लिये जो सेवा कम्पनी देगी, उसका भुगतान भी करना ही होगा। इस प्रकार न तो फसल लगाने की आज़ादी और ना बेचने की आज़ादी। फसल की कीमत की कमी और लागत का नुकसान तो हुआ ही, कम्पनी द्वारा लगाये गये लागत को भी वापस चुकाना पड़ेगा।
इस कानून से पहले आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अधीन व्यापारी को एक सीमा से अधिक जमाखोरी की इजाज़त नहीं थी, लेकिन इस कानून में अब अनुच्छेद 7 के अधीन असीमित जमाखोरी की इजाज़त तो है ही, यह कानून राज्यों में पहले से जमाखोरी के खिलाफ बने कानून को भी समाप्त कर देता है। सरकार यद्यपि बिचौलियों को खत्म करने के लिये इन कानूनों को ज़रूरी बताती है, लेकिन अनुच्छेद 10 में नये बिचौलियों का भी प्रावधान किया गया है। इस प्रकार आवश्यक वस्तु कानून 1955 में संशोधन 2020 ला कर जमाखोरी की छूट दे दी गयी है, जिससे व्यापारी फसल कटनी के समय से ही सस्ते दामों में अनाज खरीदकर जमा कर सकेंगे और बनावटी अभाव पैदा कर मंहगे दामों पर बेच कर मुनाफा कमा सकेंगे। फसल कटाई से छह सप्ताह तक की कीमत को फसल कटनी कीमत कहते हैं, जो अमूमन न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाजार मूल्य से कम होता है। इसे ‘अवसादी बिक्री’ भी कहते हैं। किसान अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये व्यापारियों और लोगों से उधार लेने के एवज में सस्ते दामों पर अनाज बेचते हैं। इस अवसादी बिक्री को रोकने के लिये सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था की है। अन्यथा जो मुनाफे के लिये खेती करते हैं और जिनके पास तैयार फसल रखने की सुविधा होती है, साथ ही तत्काल नकदी की जरूरत नहीं होती है, वैसे किसान तो बाज़ार भाव चढ़ने पर ही फसल बेंचते आये हैं। यद्यपि सच्चाई यह है कि बहुत थोड़े से किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाता है। शांताकुमार समिति के अनुसार केवल छह फीसदी किसानों को समर्थन मूल्य मिल पाता है, शेष 94 फीसदी आज भी अवसादी बिक्री ही करते हैं या भाव चढ़ने पर मुनाफे के लिये बाजार में बेच पाते हैं, तो बेचते हैं। यदि खेती उत्पादन बाजार समिति से बाहर निकल कर बेचना ही निदान होता, तो आज हिंदुस्तान का लगभग 94 फीसदी किसान खुशहाल होते और किसानों की आत्महत्या नहीं बढ़ रही होती। फिर भी खेती बाज़ार समिति किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देता है। यदि बाज़ार में फसल की कीमत खेती बाज़ार समिति से ज्यादा हो, तो किसान को अपनी फसल बाज़ार में बेचने की आज़ादी होती है। चूंकि खेती उत्पादन मंडी समिति औसतन चालीस किलोमीटर दूर होता है, छोटे किसान मंडी नहीं जा पाते हैं तो व्यापारी उनसे सस्ते दामों में खरीद कर मंडी में बेचते हैं और किसानों का लाभ व्यापारी ले जाते हैं।
सरकार अब किस आज़ादी की बात करना चाहती है? यह सच है कि खेती उत्पादन बाज़ार समिति में कई कमियां हैं, जिसे दूर करने की जरूरत है, लेकिन एक समानान्तर बाज़ार खड़ा करना इसका हल नहीं हो सकता है। बिहार इसका उदाहरण है। बिहार में खेती बाज़ार समिति 2006 में ही भंग कर दी गयी थी। अब लगभग 15 साल होने को आाये हैं पर किसानों की माली हालात नहीं सुधरी। ‘प्राथमिक खेती साख सहकारी समिति’ अर्थात् ‘पैक्स’ के माध्यम से किसानों की फसल खरीद होती है। अधिकांश किसान मिलेंगे जिन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं के बराबर मिला है, अधिक मिलने की तो बात ही नहीं है। यदि सरकार किसान के हित की बात करना चाहती है, तो इस कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी बाध्यकारी क्यों नहीं बनाना चाहती है?

अध्याय तीन में करार में विवाद की हालात में निपटारे का प्रावधान अनुच्छेद 13 से 15 तक में दिया गया है, जिसके अनुसार यदि क़रारनामा में समझौता समिति का उल्लेख है, तो उक्त समिति दोनो पक्षों के बीच विवादों का निपटारा करेगी। संतोषजनक निपटान नहीं होने की स्थिति में अनुमंडल अधिकारी या अपीलीय प्राधिकार को विवाद निपटारे का अधिकार है। लेकिन यहां संतोषजनक निपटान नहीं होने पर अनुच्छेद 18 एवं 19 में यह कानून केंद्र एवं राज्य सरकारों, निबंधन प्राधिकार, अनुमंडल प्राधिकार, अपीलीय प्राधिकार का निर्णय के खिलाफ किसान कम्पनी पर कानूनी कारवाई नहीं कर सकता है। यह कानून सिविल कोर्ट को भी इस मामले में सुनने का अधिकार नहीं देता है। मेरी जानकारी में यह पहली बार हुआ है कि सरकार का कोई कानून के लागू होने पर विवाद की स्थिति में कोर्ट को इस विवाद को सुनने का हक नहीं होगा। यही हालात खेती उत्पादन और वाणिज्य कानून का भी है, जिसमें अनुच्छेद 15 में भी इसी तरह का प्रावधान है। जहां तक करारनामा का सवाल है, सरकार द्वारा किसान को कोई कानूनी सहायता देने का प्रावधान नहीं है। ऐसे में कम्पनी अपने वकीलों के बल पर करार और अनुमंडल एवं अपीलीय प्राधिकार को आसानी से प्रभावित कर पायेगा और किसान के लिये हमेशा घाटे का सौदा रहेगा। यह हिंदुस्तान के नागरिकों के मौलिक अधिकार के हनन जैसा ही है। फिर भी हमारे देश के प्रधानमंत्री कहते हैं कि ये कानून किसानों को सशक्त करेगा और संरक्षण देगा, जबकि सभी प्रावधान कम्पनी खेती के पक्ष में है। कम्पनी अपने लाभ के लिये सुविधानुसार क़रार आसानी से कर पायेगा। किसान उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य प्रोत्साहन एवं सहूलियत अध्यादेश 2020 में सिर्फ किसान ही नहीं, व्यापारी को भी एक राज्य से दूसरे राज्य में किसानों के उत्पादन को एक राज्य से दूसरे राज्यों में ले जाने की छूट हो गयी है। हिंदुस्तान के अधिकांश किसान सीमांत और लघु आकार के जोत का है, जो अपनी उपज बेचने दूसरे राज्य में नहीं जा सकेंगे। सरकार की तरफ से कोई एजेंसी बहाल करने का प्रावधान नहीं किया गया है, जो सीमांत एवं लघु किसानों के उत्पादन को लेकर दूसरे राज्यों में बेचकर उसे लाभ दे सके।

जाहिर है कि यह कानून व्यापारियों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इन व्यापारियों के लिये राज्य के खेती उपज मंडी समिति के अधीन लगने वाले बाजार शुल्क से मुक्त रखा गया। ऐसे में सरकारी मंडी में अनाज बेचने के बजाय मंडी से बाहर निजी मंडी में फसल बेचने को सरकार प्रोत्साहित कर रही है। निजी मंडी की पहुंच किसानों के घर, फैक्टरी, भंडार, शीतगृह, भूमिगत भंडारण आदि तक होगी। यद्यपि सरकारी मंडी को बंद करने की बात नहीं कही गयी है, पर निजी मंडी को बाजार शुल्क, आढ़तिया कमीशन आदि नहीं लगने के कारण व्यापारी सरकारी मंडी में नहीं जायेंगे। परिणामतः सरकारी मंडी बंद हो जायेगी। मंडी से जुड़े रोजगार पानेवाले लाखांे लोग बेरोजगार होंगे। एक तरफ जहां इससे सरकारी खजाने पर बुरा असर पड़ेगा, वहीं सरकारी मंडियों में आधारभूत संरचना के विकास के लिये धन का अभाव होगा। पहले से कमजोर आधारभूत संरचना की कमी झेल रहा यह क्षेत्र और भी बदतर हालात में होगा। अतः सम्भव है कि कुछ वर्ष भले ही निजी खरीददार लाभप्रद दाम भी दे, लेकिन अंततः कम्पनी खेती करार का दंश झेल रहे पंजाब में किसान जान देने को मजबूर है। अगर कम्पनी खेती किसानों के हित में होती, तो पंजाब के किसान आत्महत्या नहीं करते। कर्नाटक का फलता-फूलता किसान दुग्ध उत्पाद सहकारी समिति ‘काफका’ को ‘कैडबरी’ ने किस तरह निगल लिया, इसे भरत डोगरा के ‘ईकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में छपा लेख इसका आइना दिखाता है।

‘आवश्यक वस्तु कानून 1955’ में संशोधन कर 2020 में केवल असाधारण परिस्थिति जैसे युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि और गम्भीर प्राकृतिक आपदा के हालात को छोड़कर जमाखोरी की छूट दे दी गयी है। खेत की उपज का व्यापारी विभिन्न राज्यों से अनाज की खरीद बिक्री कर सकेंगे और किसान ज्यादातर अपना उत्पादन फसल की कटनी के समय में अवसादी कीमत पर बेचने को मजबूर होंगे। अतः लाभ किसानों के बजाय व्यापारी को होना है। साथ ही अनाज का बनावटी अभाव आम बात होगी। ऐसे में सवाल उठता है कि इस कानून के जरिये सरकार किसान को क्या देना चाहती है, जो किसान को हासिल नहीं था। न्यूनतम समर्थन मूल्य को प्रभावी और बाध्यकारी करना था जो इस कानून ने किया नहीं। किसान को अपना अनाज जमा रखने में कोई मनाही नहीं थी। किसान को नहीं थी, तो रखने की जगह और तत्काल कुछ नगदी जो खेती में मदद कर सके और अनाज का भाव चढ़ने पर उसका दाम, जिससे वे अपने अनाज का लाभकारी दाम पा सके। लेकिन इस कानून में तो ऐसा कुछ भी नहीं है। अगर किसी को इसका लाभ है तो वो निजी क्षेत्र का व्यापारी है। पहले जमाखोरी की मनाही थी, अब नहीं रहेगी। पहले बाजार उसके नियंत्रण में नहीं था, अब लिखित करार के साथ नियंत्रण होगा। पहले एक राज्य से दूसरे राज्य के आवाजाही पर रोक थी, अब नहीं रहेगी। अतः यह कानून व्यापारी के लाभ के लिये बना है किसानों के लिये नहीं। किसानों का तो नुकसान ही नुकसान है। यदि देश की खेती में संस्थागत सुधार और आवश्यक संरचनात्मक निवेश हुआ रहता, तो जीवन निर्वाह की खेती लाभकर हो पाती और खेती में बचत और पूंजी निर्माण से खेती में निवेश हो सकता था, जिससे खेती का पूंजीगत रूपांतरण हो सकता था। खेती उद्योग बन सकता था। जहां भी खेती में सार्वजनिक निवेश हुआ है वहां की खेती जीवन निर्वाह की दशा से बाहर निकल कर पूंजीगत खेती में रूपांतरित हो सकी है। पूंजीगत खेती में उत्पादन बाजार और लाभ कमाने के लिये होता है। जैसा कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, गोदावरी वेसिन, आदि जगहों में हो सका है। लेकिन खेती में उत्पादन सापेक्ष कीमत लोच के कारण फसलों की कटाई का बाजार कीमत अक्सर अवसादी ही रहता है। जबकि उद्योगपति औद्योगिक उत्पादन की आपूर्ति पर नियंत्रण के द्वारा उसकी कीमत को गिरने से रोकता है। फलतः खेती-उद्योग व्यापार शर्त खेती के खिलाफ और उद्योग के पक्ष में होता है जिससे खेती का नुकसान और उद्योग को लाभ होता है। उद्योग को सस्ता कच्चा माल मिलता है और औद्योगीकरण को बल मिलता है। यदि सार्वजनिक उद्योग हो तो इसका लाभ देश को मजबूत बनाता है और औद्योगीकरण से श्रमिक को खेती से उद्योग में जाने का अवसर मिलता है। लेकिन निजी क्षेत्र के औद्योगीकरण में औद्योगिक विवाद से बचने के लिये श्रम बहुलता के बजाय मशीन परक उद्योग को चुनते हैं, जिससे रोजगार के अवसर अपेक्षाकृत कम मिलते हैं और कारपोरेट जगत को लाभ पहुंचाता है। यह भी कारण है कि कारपोरेट जगत इन कानूनों को लाभकारी मानता है, जबकि किसानो का सदैव नुकसान ही होता है। खेती में बचत नहीं होने की स्थिति में निवेश की संभावना घट जाती है। सार्वजनिक निवेश के घटने से निजी निवेश की सम्भावना घटती जाती है और खेती अलाभकर होती जाती है। हिंदुस्तान की खेती की हालात कुछ अपवादों को छोड़कर अमूमन ऐसी ही है।

उदारीकरण के दौर में सरकारों ने खेती में पूंजी निवेश के लिये निजी क्षेत्र के लिये अवसर बनाया है लेकिन यह बचत आधारित उत्पादक पूंजी के बजाय व्यावसायिक पूंजी है जो सामंती महाजनी के स्थान पर आयी है। जिसे हम करारी खेती या कारपोरेट खेती के नाम से भी जानते हैं। इसमें कम्पनियां करारी निवेश करती है और मुनाफा कमाती है। चूंकि किसानों की खेती अलाभकर हो चुकी है, पूंजी के अभाव में आसानी से किसान कर्ज आधारित खेती को स्वीकार कर लिया है। खेती में बचत का कंपनियों द्वारा लूट का नतीजा सामने है। कर्ज का बोझ और फसलों के नुकसान के बाद लाखों किसानों की आत्महत्या का सिलसिला हिंदुस्तान के खेती उजाड़ और रूपांतरण के इतिहास में एक बदनुमा दाग पूंजीगत खेती की विफलता की लम्बी कहानी है। आर्थिक सुधार का दूसरा चरण और भी घातक साबित हो रहा है। नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था लुढ़कने लगी थी। वस्तु और सेवा कर से हालात और भी खराब होती चली गयी। कोराना महामारी के बीच अचानक बिना सोचे समझे और बिना किसी तैयारी के तालाबंदी से अर्थव्यवस्था ठप हो गयी है। पहली तिमाही का विकास दर 23.9 प्रतिशत नीचे गिर गया है, फिर भी खेती का विकास दर धनात्मक 3.54 प्रतिशत रहा है। सरकार एक-एक कर सार्वजनिक सम्पत्ति बेच रही है। दूरसंचार, रेल, हवाई यातायात, गैस, पेट्रोलियम, खनिज सम्पदा, आदि धीरे-धीरे कारपोरेट के हवाले कर रही है। कारपोरेट जगत की नजर खेती पर बहुत पहले से है। कम्पनी खेती को बढ़ावा देने के लिये कारपोरेट जगत ने इस अवसर का उपयोग किया है। वर्तमान सरकार ने किसानों के हित की चिंता किये बगैर खेती को कम्पनी के हवाले करने के लिये ये कानून बनाया है। यद्यपि यह कानून सार्वजनिक कृषि निवेश एवं कृषि साख का विकल्प नहीं हो सकता है, सरकार ने कम्पनी खेती को निजी निवेश का विकल्प चुना है। 
प्रथम दृष्ट्या यह खेती का पूंजीगत विकास का प्रारूप लग सकता है, किंतु यह किसानों के बढ़ते आमदनी से पूंजी निवेश नहीं होने के कारण व्यापारी के लाभ का कारण तो हो सकता है, लेकिन किसानों का नहीं। फलतः कर्ज के दबाव में किसानों की हालात बाजार का लाभ लेने में सहायक हो, यह जरूरी नहीं है। पंजाब, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों के किसानी संकट इसके उदाहरण हैं। खेती मूलतः राज्य की सूची में आता है। इस संबंध में कानून बनानें का अधिकार संविधानतः राज्य सरकार के पास है, किंतु व्यापार एवं वाणिज्य को इन कानूनों में जोड़कर बड़ी कुशलता से संघीय ढांचे पर भी चोट की गयी है। अतः यह कानून मजदूर किसानों को और भी संकट में डालकर भुखमरी पैदा करेगा, जिससे बचने के लिये किसानों को अपनी हक की लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी। देश के विभिन्न राज्यों में किसान संगठन इन कानूनों का विरोध कर भी रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, बिहार सहित अन्य राज्यों में भी विरोध जारी है। रेल चक्का जाम, धरना और प्रदर्शन का दौर चल रहा है। ग्राम सभा को सशक्त बनाकर अपने आंदोलन का संवैधानिक रास्ता अपनाया है। पंजाब और कर्नाटक में ग्रामसभा से प्रस्ताव पारित कराकर महामहिम राष्ट्र पति के विचार के लिये भेजा जा रहा है। इसी तर्ज पर बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में ग्राम सभाओं में विधिवत किसानी कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास करे। पंजाब सरकार ने विधान सभा से भी इन कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास करके नया कानून बना लिया है, और किसानों से धरना प्रदर्शन समाप्त करने की अपील की है। सरकार परस्त मीडिया बिहार में हो रहे किसान विरोध को समाचारों में जगह नहीं दे रही हैं। ऐसे में किसान मीडिया विकसित करने की जरूरत है। साथ ही किसान उत्पादन की नाकाबंदी कर गांवों में अपने उत्पादन को बेचने तथा गरीबों के बीच वितरित कर किसान अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं। निर्णय किसानों को लेना है कि किसानी अपने पास रखनी है या कम्पनी के हवाले करनी है।  

लेखक विकास अध्ययन संस्थान, जलसैन, बिहार में मानद निदेशक हैं।

1 comment:

  1. किसान अपने विवेक के अनुसार, कम्पनी से करार कर सकती है नये कानून मे यह नहीं लिखा है कि सब किसानों को कम्पनी के साथ ऐग्रिमेन्ट करना पढ़ेगा।
    न्यूतम सर्मथन मूल्य को अगर कानून बना दिया जाऐ तो किसान केवल अनाज का खेती करेगा, और सब्जी हमरे पहुंच से दूर हो जाऐगा। और किसान अपने उत्पादन केवल सरकार को बेचेगा तो गरीब मजदूर आटा भी नहीं खरीद पाऐगा।

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