Thursday, 31 December 2020

भीमा कोरेगांवः पेशवाई का आतंक, कल और आज-सीमा आज़ाद

1 जनवरी 1818 मनुवाद आधारित पेशवा राज की 28000 की सेना को महारों की 500-600 संख्या वाली सेना ने कोरेगांव भीमा में हरा दिया, जिनकी याद में अंग्रेजों ने वहां एक स्मारक का निर्माण कराया। बेशक महार सेना अंग्रेजों की ओर से बाजीराव पेशवा की सेना से लड़ रही थी, लेकिन इस ऐतिहासिक घटना में अछूत माने जाने वाले दबे-कुचले महारों का पेशवाओं की सेना को हराना मुख्य बात थी। उन्होंने उस पेशवा राज को हराया, जिनके शासनकाल में महारों को अपने गले में मटका और कमर में पीछे की ओर झाड़ू बांधकर निकलने का आदेश था, ताकि उनके स्पर्श को झाड़ू साफ करती चले और उनके थूक से धरती अपवित्र होने पाये। वास्तव में तो यह सब मनुवादी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, दलित समुदाय को दबाये रखने, उन्हें अपमानित अहसास कराये रखने के लिए किया जाता था। दलित कौम कभी पेशवाओं के आगे सर उठा सकें, इसके लिए सर उठाने वाले दलित का सर कलम करके पेशवा उससे फुटबाल खेलते थे। ऐसे बर्बर, दमनकारी राज में 500 महारों द्वारा 28000 की पेशवा सेना को हरा देना अदम्य साहस का काम तो था ही। अपमान का बदला लेने का ऐतिहासिक काम भी था। दलितों के शौर्य के इस भुला दिये गये इतिहास को फिर से दुनिया के सामने लाने का काम बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने किया।

1 जनवरी 1927 को  भीमराव अम्बेडकर ने इस वॉर मेमोरियल की यात्रा कर और यहां एक बड़ा जुटान करके यह शौर्यगाथा दलितों को सौंपी। तब से हर साल इसे याद करने के लिए यहां 1 जनवरी को बड़ा जमावड़ा होता रहा है। उना में हुए दलित उत्पीड़न के खिलाफ बड़े जमावडे़ की पृष्ठभूमि में सन 2018 में जब भीमाकोरेगांव की शौर्यगाथा के 200 साल पूूरे होने थे, देश भर के लगभग 200 जनवादी और दलित संगठनों ने यहां एक बड़े जमावड़े के साथ देश में पनप रही नयी पेशवाई यानि नये तरीके के मनुवाद के खिलाफ एकजुटता दिखाने की योजना बनाई। इसकी तैयारी को देखते हुए ही मनुवाद के संरक्षक सहम गये। 1 जनवरी को हुए लाखों लोगों के जमावड़े के बाद लौटती भीड़ पर हिन्दुवादी संगठनों ने हमले किये। हमलावरों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी केगुरूसंभाजी भिडे और मिलिंद एकभोटे भी शामिल थे, जिन्होंने इन पर हमले के लिए उकसाने वाले भाषण दिये। दो-तीन दिन तक चली इस हिंसा आगजनी के बाद इन दोनों पर एफआईआर भी दर्ज हुआ, लेकिन सत्ता की गोद में बैठे इन लोगों को गिरफ्तारी से छूटने का ईनाम भी जल्द ही मिल गया। दलितों के इतने बड़े जमावड़े से घबराकर इसके छः महीने के भीतर ही इस आयोजन को टारगेट करके सरकार ने एक बड़ी साजिश रची। 2018 की 6 जून को देश भर से बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारियों का सिलसिला जो शुरू हुआ, वो 2020 तक जारी है। तब से अब तक कुल 16 लोग जेल भेजे जा चुके हैं, कइयों को एनआई के मुंबई ऑफिस में बुलाकर पूछताछ की जा चुकी है, कईयों के घर कई-कई बार छापेमारी की जा चुकी है और कई एनआईए की सूची में अब भी शामिल है, जिनको कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। इन सभी पर भीमाकोरेगांव का आयोजन करने, उसके लिए माओवादियों से पैसा लेने, और सबसे हास्यास्पद प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया गया है। इन 16 लोगों में से कुछ के पास से कई पत्र बरामद दिखाये गये हैं, जिनकी खास बात यह है कि इन पत्रों की भाषा वह नहीं है, जो इसका लेखक, वाहक या रखने वालों की भाषा है, बल्कि यह वह भाषा है, जो मामले कीजांचकर रहे लोगों की भाषा है। मामले की जांच एनआईए के पहले मुम्बई पुलिस के जिम्मे थी, इसलिए इन पत्रों की भाषा भी मराठी है। शायद यह सरकारी साजिशों के इतिहास का सबसे हास्यास्पद और झूठा मुकदमा साबित होने वाला है। लेकिन फिलहाल तो देश के 16 प्रतिष्ठित लोग इस साजिश का शिकार होकर जेल में पड़े हैं। ये देश के ऐसे लोग हैं, जिनके कामों के कारण भारत को पूरी दुनिया में प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये और बात है कि ये सभी सरकार की जनविरोधी नीतियों के मुखर आलोचक है। इस कारण सरकार इन्हें आतंकवादी मानकर उन पर यूएपीए लगा चुकी है। इतना ही नहीं, कोरोना का फायदा उठाकर सरकार इनका दमन भी सभी कैदियों से अधिक कर रही है। किसी को जमानत देना तो दूर, गौतम नवलखा को चश्मे के लिए, 80 साल के कवि वरवर राव को इलाज के लिए, 83 साल के फादर स्टेन स्वामी को पानी पीने के लिए  स्ट्रा की मांग को लेकर कोर्ट जाना पड़ रहा है और कोर्ट सभी मामलों में न्याय का नहीं सरकार का मुंह देख रही है। यह पूरा मुकदमा भारत की न्याय व्यवस्था और लोकतन्त्र पर एक बहुत बड़ा धब्बा है। यह धब्बा ही इस फासीवादी सरकार के लिए बहुत बड़ा तमगा है।

सरकार को दिक्कत क्या है? यह कि वह भीमा कोरेगांव के इतिहास को याद करने वालों को मिटा देना चाहती है, वह इस इतिहास को लोगों के जेहन से मिटाकर उसकी जगह अपने दमन को कायम कर देना चाहती है ताकि भीमा कोरेगांव के नाम पर आगे लोग महारों की शानदार शौर्यगाथा को नहीं, बल्कि मोदी सरकार के दमन को याद रखें।

वास्तव में पहले भीमाकोरेगांव पेशवाराज के खिलाफ लड़ने का प्रतीक था, 2018 में इसके 200 वें आयोजन के बाद यह नवी पेशवाई यानि नये ब्राह्मणवाद से लड़ने के प्रतीक के रूप में भी याद रखा जायेगा। यह दमन इस बात की याद दिलाता रहेगा कि पेशवाई अपना रूप बदलकर अब भी समाज में जड़ें जमाये बैठी है। भीमा कोरेगांव के शौर्यदिन आयोजन पर दमन इस बात की याद दिलाता रहेगा, कि इस नवी पेशवाई से लड़ाई अभी भी कार्यभार के रूप में बचा हुआ है, जिसे पूरा करना है। हर साल 1 जनवरी को यह संकल्प दोहराना ही होगा, जब तक की पेशवाई यानि वर्ण और जातिव्यवस्था को स्थापित करने वाले मनुवाद का खात्मा नहीं हो जाता। इस पृष्ठभूमि में इस साल भी यहां फिर से बड़े जमावड़े की तैयारी चल रही  है 250 संगठनों ने मिलकर मनुवाद के खिलाफ दलितों के इस इतिहास को याद करने का फिर से निर्णय लिया है। सरकारी साजिश और दमन के खिलाफ इससे अच्छा प्रतिरोध क्या होगा कि साल की शुरूआत में ही एक ऐसे भूले हुए इतिहास को याद करने के लिए लोग इकट्ठा हों जिसे यह सत्ता भुला देना चाहती है।

दस्तक नए समय की  पत्रिका में  प्रकाशित  लेख

 

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