जनवरी 2021 से कोरोना वैक्सीन के भारत में आ जाने की बात जोर-शोर से प्रचारित की जा रही है। यह कितनी कारगर होगी, इसे देखना अभी बाकी है, क्योंकि इसके आने से पहले ही ये संदेह के घेरे में आने लगी है। कोरोना वैक्सीन के बारे में जानने से पहले थोड़ा वैक्सीन के इतिहास पर और इस से जुड़े तथ्यों के बारे में जान लें, ताकि कोरोना वैक्सीन के साथ ही आगे विकसित होने वाले किसी भी वैक्सीन के बारे सटीक राय बना पाएं कि यह कितना प्रभावी होगा ।
भारत में और पूरी दुनिया में टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का बहुत ही आक्रामक प्रचार किया जाता है और निश्चित समय पर टीकाकरण अभियान भी लिया जाता है। ऐसा लगता है कि यही एक काम सरकार बेहद ईमानदारी से करती है। और इससे किसी को दिक्कत भी नही है। सभी लोग अपने नन्हे-मुन्ने बच्चों को भावी बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण के लिए सरकारी अस्पतालों की लाइन में लगे रहते हैं। जिनके पास पैसा है वे निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं। यह सब सामान्य गति से चलता है। लेकिन यदि कोई आपसे पूछे कि क्या टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का कोई गम्भीर साइड इफेक्ट्स भी है, तो 99 प्रतिशत लोग यही कहेंगे कि ‘नहीं’। यदि आप भी इन 99 प्रतिशत लोगों में शामिल है तो आपको scilence, on vaccine; shots in the dark नामक डाकूमेन्ट्री जरुर देखनी चाहिए। फिल्म देखकर आपको यह जरुर लगेगा कि 99 प्रतिशत लोगो की यह राय, ‘नोम चोम्स्की’ की भाषा में कहें तो ‘मैनुफैक्चर्ड कन्सेन्ट’ है।
दरअसल पिछले 15-20 सालों का ‘स्वतंत्र शोध’ यह साबित करता हैं कि टीकाकरण के गम्भीर ‘साइड इफेक्ट्स’ हैं। विशेषकर दिमाग सम्बन्धी ज्यादातर रोगों का सम्बन्ध टीके में पाये जाने वाले तत्वों से है। इस फिल्म में विभिन्न वैज्ञानिकों, वरिष्ठ डाक्टरों और प्रभावित बच्चों के अभिभावकों के हवाले से बताया गया है कि टीकाकरण के ज्यादातर ‘साइड इफेक्ट्स’ कुछ समय बाद (कभी कभी 15-20 सालों बाद भी) सामने आते हैं। इसलिए ज्यादातर सामान्य डाक्टरों और अभिभावकों के लिए इसे टीके के ‘साइड इफेक्ट’ के रुप में देखना संभव नहीं होता। दरअसल ज्यादातर टीकों में ‘मर्करी’ और ‘एल्यूमिनियम’ जैसे हानिकारक तत्व होते हैं, जो शरीर के लिए बेहद हानिकारक होते है। वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों का दावा होता है कि ये हानिकारक तत्व इतनी कम मात्रा में होते हैं, कि शरीर पर इनका कोई बुरा असर नहीं होता है। लेकिन इस फिल्म में बहुत साफ और सरल तरीके से यह बताया गया है, कि भले ही शरीर पर इस अल्प मात्रा का असर उतना ना होता हो, लेकिन हमारे दिमाग के न्यूरॉन्स को प्रभावित करने के लिए यह ‘अल्प मात्रा’ काफी है। न्यूरॉन्स के प्रभावित होने से ‘सर दर्द’ से लेकर autism‘मिर्गी’ और ‘अल्जाइमर’ जैसे अनेक रोग हो सकते है। दरअसल मर्करी, एल्यूमिनियम जैसे हानिकारक तत्व दिमाग की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देते हैं या खत्म कर देते हैं।
फिल्म में इस पर भी सवाल उठाया गया है कि एक दो साल के बच्चे को जब उसकी प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह विकसित नहीं हुई होती है, तो उसे लगातार टीके की इतनी खुराक देना क्या ठीक है। अमरीका में बच्चे के डेढ़ साल का होते-होते 38 टीके लगा दिये जाते है। और कुल टीकों की संख्या वहां करीेब 70-80 के आसपास है। हमारा देश भी इससे ज्यादा पीछे नहीं है।
फिल्म में एक चार्ट के माध्यम से साफ दिखाया गया है कि जैसे-जैसे टीकों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे विभिन्न तरह की दिमागी बीमारियां बढ़ रही हैं। आज अमरीका में हर 6 बच्चों पर 1 बच्चा किसी ना किसी तरह की दिमागी बीमारी से पीड़ित है। फिल्म में बच्चों को दिये जाने वाले कुछ टीकों को एकदम अनावश्यक बताया गया है। जैसे ‘हेपेटाइटिस बी’ का टीका। जब यह बात सिद्ध है, कि ‘हेपेटाइटिस बी’ रक्त हस्तान्तरण से और सेक्स सम्बन्धों से ही हो सकता है तो फिर इस टीके को बच्चे को देने की क्या जरुरत है।
आइये अब जानते हैं कोरोना के लिए बन रहे वैक्सीन के बारे में-किसी भी बीमारी के लिए टीका विकसित करने में काफी समय की जरूरत होती है। किसी भी वैक्सीन के विकास और उसके सफल परीक्षण में 4 से 5 सालों का समय लग जाता है। लेकिन वैक्सीन को इतनी तेजी से बाजार में लाने का मकसद सिर्फ मुनाफे के एजेंडे को आगे बढ़ाना है। तेजी का मतलब है कि किसी भी वैक्सीन को निर्माण करने और आम जनता के लिए उपलब्ध कराने के पहले उसको तीन फेज ट्रायल स्टेज से गुजारना होता है। लेकिन इस वैक्सीन को विकसित करने में इन सब को नजरअंदाज किया जा रहा है। कोरोना की वैक्सीन भी इस कड़ी में शामिल है। कोविड-19 महामारी से जो डर और स्वास्थ्य असुरक्षा का माहौल बना है, उसको सभी वैक्सीन विकसित करने वाली कंपनियां मोटे मुनाफे के रूप में भुनाना चाहती हैं। इसलिए ‘फाइजर’ से लेकर ‘मोडर्ना’ जैसी कंपनियां जल्द से जल्द टिका लाने की होड़ में शामिल हैं। क्योंकि इन कंपनियों के मालिक यह भली-भांति जानते हैं कि जैसे-जैसे वायरस का डर आम जनता के बीच से गायब होगा, वैक्सीन की बिक्री उतनी ही कम होती जाएगी। साथ ही साथ डर के इस महौल में उनकी वैक्सीन आसानी से बिना किसी प्रचार माध्यम व डॉक्टरों पर बड़ी राशि खर्च किये बिना ही बिक जाएगी। तो सामने मोटे मुनाफे को देखकर इन कंपनियों के मुंह में पानी आ रही है और वो जल्द से इस मुनाफे को अपनी तिजोरी में बंद करना चाहते हैं। पूंजीपतियों द्वारा मुनाफे पाने की दौड़ ने वैक्सीन बनाने के कई मानकों को नजरअंदाज किया है और आनन-फानन में इन्हें लांच कर दिया गया है या उसकी तैयारी चल रही है। आगे निकलने की होड़ ने मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरनाक उत्पन्न कर दिया है। हम मेडिकल फील्ड के तकनीकी विशेषज्ञ तो नहीं हैं, इसलिए वैक्सीन की आंतरिक प्रकृति पर तो कोई टिप्पणी नहीं कर सकते हैं, लेकिन इतना तो हम देख और समझ ही सकते हैं या जांच-पड़ताल तो कर ही सकतें है कि जो भी वैक्सीन विकसित की जा रही है - क्या वह बुनियादी पैमाने पर खरी उतर रही है और सही प्रक्रियाओं से गुजर रही है या नहीं? अगर नहीं गुजर रही है तो उससे क्या-क्या खतरा उत्पन्न होने की संभावना है? इसी प्रश्न को ध्यान में रख कर और देश-दुनिया में प्रकाशित खबरों और न्यूज व तथ्यों के आधार पर यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। कुछ उदाहरणों पर नजर डालिये-
चेन्नई में रहने वाले एक 41 साल के कारोबारी ने कोरोना वैक्सीन ट्रायल में वॉलेंटियर के रूप में भाग लिया। टीके की डोज लेने के बाद से इस वॉलेंटियर को गंभीर न्यूरोलॉजिकल व साइकोलॉजिकल दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। मेमोरी लॉस की शिकायत मिल रही है। इन्हें एक अक्टूबर को चेन्नई के श्री रामचंद्रा इंस्टिट्यूट ऑफ हायर एजुकेशन एंड रिसर्च में कोरोना वैक्सीन की एक खुराक दी गई थी। आपको बता दें कि यह ट्रायल सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे द्वारा किया जा रहा है। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ‘कोविशील्ड’ नाम से टीके (वैक्सीन) का उत्पादन ड्रग निर्माता ‘एस्ट्रजेनेका’ और ‘ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय’ की साझेदारी में कर रही है। इस वैक्सीन की भारत मंे सबसे ज्यादा चर्चा है और देश के प्रधानमंत्री भी इस इंस्टीट्यूट का दौरा कर चुके हैं। फिलहाल इस वैक्सीन ट्रायल में भाग लेने वाले चेन्नई के व्यक्ति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के लिए इस वैक्सीन को जिम्मेदार ठहराते हुए 5 करोड़ मुआवजे की मांग की है। साथ ही वैक्सीन के गंभीर साइड इफेक्ट को बताते हुए, ट्रायल को रोकने की मांग की है। वहीं दूसरी ओर सीरम इंस्टीट्यूट ने इस व्यक्ति के साथ सहानुभूति दिखाने और इसके इलाज की चिंता करने के बजाए उलटा व्यक्ति को जिम्मेदार ठहरा दिया। ऊपर से 100 करोड़ का मानहानि का मुकदमा भी ठोकने की बात कही है। इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि किसी व्यक्ति ने मानव जाति के हित में अपने अपने शरीर को ट्रायल के लिए सौपा और उसके ऊपर ही 100 करोड़ का मुकदमा ठांेक दिया ।
वही ब्रिटेन में फाइजर वैक्सीन लेने वाले दो स्वास्थ्य कर्मियों ने एलर्जी की शिकायत की है। उनका कहना है कि फाइजर कंपनी द्वारा विकसित कोरोना वैक्सीन लेने बाद उनके शरीर पर चकत्ते देखने को मिले और सांस लेने में तकलीफ होने की शिकायत की है। यह दो तथ्य काफी कुछ कह देते हैं कि आखिर कैसे मुनाफे की हवस में इंसानी जिंदगी को खतरे में डाला जा रहा है। मुनाफा कमाने की इतनी जल्दी है कि वॉलेंटियर के रूप शामिल होने वाले व्यक्ति के जीवन की भी चिंता नहीं कि जा रही है। इसके उलट वैक्सीनेशन के कारण होने वाले साइड-इफेक्ट की शिकायत करने पर कानूनी नोटिस और भारी-भरकम जुर्माना वसूलने की धमकी दी जा रही है। इस से साफ जाहिर होता है कि ये बीमारी ठीक करने के लिए वैक्सीन विकसित नहीं करना चाहते हैं बल्कि अपने फायदे के लिए। इसलिए अगर कोई व्यक्ति पूरे मानव हित को ध्यान में रखते हुए किसी वैक्सीन ट्रायल में शामिल हो रहा और अपनी जान और शरीर को जोखिम में डाल रहा है। तो उसके हर सुख-दुःख और उसकी परेशानियों को समझकर उसकी मदद करने की जरूरत होनी चाहिए।चिल्ड्रेन हेल्थ डिफेंस (ब्भ्क्) एक नॉन-प्रॉफिट संस्था है, जो एन्टी-वैक्सीन एक्टिविज्म के लिए जानी जाती है। इसके अनुसार जितने भी अभी तक कोरोना के लड़ने के लिए जो वैक्सीन विकसित किये जा रहे हैं वह असुरक्षित तकनीकों, असुरक्षित अवयवों और अपर्याप्त परीक्षण के साथ विकसित किया जा रहा है। फाइजर/बायोएनटेक की कोविड वैक्सीन की जितनी प्रभावशीलता है उस से ज्यादा बढ़-चढ़कर उसका प्रचार किया जा रहा है।
वायरोलॉजिस्ट फ्लोरियन क्रैमर के अनुसार,‘यह निर्धारित करना मुश्किल होगा कि फाइजर और दूसरों के वैक्सीन कई चरणों से गुजरने के बाद भी शायद उतने प्रभावशाली न हों कि वो कोरोना को संक्रमण को पूरी तरह रोक पाए।
चिल्ड्रेन हेल्थ डिफेंस के अनुसार जो वैक्सीन बन रही है, वो कोविड को पूर्णतः रोकने की क्षमता पर आधारित नहीं होगा, इसलिए हो सकता है कि हमें कभी न खत्म होने वाले लॉकडाउन का सामना करना पड़े।
थाईलैंड मेडिकल न्यूज के मुताबिक, फाइजर मैनेजमेंट पीआर कॉन्फ्रेंस पर और अपने वैक्सीन के सकारात्मक प्रचार पर अलग से पैसे खर्च कर रही है, ताकि मीडिया को पैसे देकर अनैतिक रूप से सभी को यह विश्वास हो जाय कि उनके द्वारा विकसित वैक्सीन बिना किसी दुष्प्रभाव के कारगर है। आगे यह न्यूज बताती है कि ‘अमेरिका ने वैक्सीन के अनुमोदन और प्रभावकारिता के लिए जिन मानकों को तय किया गया था, उसको अब कम कर दिया है ... यहां तक कि (अन्य) दवाओं और दूसरे चिकित्सीय कार्यो के लिए भी। कोई डेटा यह नहीं दिखाता है कि फाइजर टीका कोरोना के गंभीर मामलों को रोकती है, जैसे जिस मामलों में मरीज को अस्पताल में भर्ती करना पड़ता है या फिर जिन मामलों में मृत्यु हो जाती है, अगर इन मामलों में वैक्सीन कारगर नहीं है तो फिर इसके होने न होने का क्या फायदा है। वहीं चूंकि इन वैक्सीनों का परीक्षण केवल कुछ महीनों तक ही चल रहा हैं, वहां यह कहना असंभव है कि यह वैक्सीन वायरस से होने वाले संक्रमण से कितनी देर तक रक्षा करेगा। इन सब तथ्यों से यह बात तो साफ होती है, कि कोरोना वैक्सीन को मानव सामज के लिए के फायदे की नीयत से कम और पूंजीपतियों के मुनाफे की नीयत से ज्यादा बनाया जा रहा है।
क्योंकि जैसे ही यह घोषणा हुई कि फाइजर कंपनी ने जिस कोरोना वैक्सीन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया वह 90 प्रतिशत प्रभावी है। खबर के बाहर आते ही फाइजर के शेयर में भारी उछाल आ गया। इस अप्रत्याशित उछाल को देखते हुए इसके सीईओ एल्बर्ट बुर्ला ने 5.6 मिलियन डॉलर का शेयर तुरंत बेच दिया। क्योंकि शायद उन्हें यह पता हो, कि उनकी कंपनी द्वारा विकसित वैक्सीन भविष्य में कारगर सिद्ध नहीं हो। इसलिए अभी ही सभी शेयर बेचकर मोटा मुनाफा निकाल लिया जाय। हालांकि जब इन पर सवाल उठने लगे, तब इन्होंने यह कह कर सफाई दी, कि यह कंपनी की पहले से निर्धारित कार्य्रकम के तहत किया गया है। वर्तमान में वैक्सीन बनाने वाली सभी कंपनियों की कमोबेश यही स्थिति है। फाइजर के साथ मोडर्ना, जे एंड जे, एस्ट्रा-जेनेका, और ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन भी कोविड के लिए वैक्सीन विकसित करने की होड़ में शामिल है।
दरअसल इन सारी चीजों के पीछे जो चीज काम कर रही है, वह है दवा कंपनियों का अकूत मुनाफा। अनिवार्य टीकाकरण की नीति के कारण टीकों की सबसे बड़ी खरीददार सरकारें हैं। इसी कारण 2013 में विश्व भर में टीके का कुल कारोबार करीब 25 बिलियन डालर था। और इसके 90 प्रतिशत कारोबार पर सिर्फ 5 दवा कंपनियों (सानोफी, मर्क, फाइजर, ग्लैक्सो, नोवार्तिस) का कब्जा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के माध्यम से ये कंपनियां दुनिया भर की सरकारों की स्वास्थ्य नीतियों को अपने हित में प्रभावित करती हैं। अमेरिका में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमरीकी सदन में लॉबिंइग में दवा कंपनियां तेल कंपनियों से भी ज्यादा पैसा खर्च करती है। यही नही दुनिया भर के प्रतिष्ठित जर्नल और शोध संस्थानों को ये दवा कंपनियां ही फंड करती हैं।
देश और दुनिया में कोरोना के लिए विकसित वैक्सीन की चर्चा बहुत जोरो पर है। इसी चर्चा के बीच भारत के कई प्राइवेट संस्थान भी वैक्सीन बना लेने का दावा कर चुके है। देश के प्रधानमंत्री भी इस संस्थानों को स्वंय जाकर वैधता प्रदान कर रहे हैं और एक तरह से वे उन निजी कंपनियों का प्रचार-प्रसार ही कर रहे हैं। इसलिए इन भारतीय कंपनियों के विषय मे जानना हम सबके लिए जरूरी हो जाता है। क्योंकि यह भारत की 130 करोड़ जनता के जीवन से जुड़ा हुआ है।
इनमें प्रमुख रूप से
1.सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, जिसकी साझेदारी ड्रग कंपनी ‘एस्ट्रजेनेका’ और ‘ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय’ के साथ है।
2. डॉ रेड्डी लैबोरेटरीज लिमिटेड जिसकी साझेदारी रूसी कंपनी ‘स्पुतनिक’ के साथ है।
3. भारत बायो-टेक,जिसकी साझेदारी सरकारी संस्था इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के साथ है।
इस समय जब यह शोर मचाया जा रहा है, कि भारत खुद का अपना वैक्सीन विकसित कर रहा है। ऐसे में इस पर ज्यादा समझदारी बनाने के लिए भारत में पोलियो वैक्सीन से जुड़ा तथ्य भी हम सभी को जान लेना चाहिए। 1990 से पहले पोलियो से रोकथाम के लिए जो वैक्सीन लगाया जाता था, उसमें भारत पूर्णतः आत्मनिर्भर था। यानी कि पोलियो वैक्सीन की तकनीक और उत्पादन दोनों भारत में ही विकसित होती थी। लेकिन 1990 के बाद पोलियो वैक्सीन पर से भारत की आत्मनिर्भरता खत्म कर दी गयी और विदेशी वैक्सीन कंपनियों के लिए पूरा दरवाजा खोल दिया। 1990 के बाद से पोलियो ड्राप को लाया गया, जो पूरी तरह से विदेशी था और वो भी इस बौने तर्क के साथ कि जो वैक्सीन भारत में विकसित होती थी उसको इंजेक्शन के जरिये लगाया जाता था और इंजेक्शन लगाने में बच्चों को काफी दर्द होता है और बच्चे को रोने से बचाने के लिए उसकी जगह विदेशी कंपनी का पोलियो ड्राप लाया गया। जिसका मकसद सिर्फ और सिर्फ इन कंपनियों को अरबों डॉलर का मुनाफा पहुंचाना था। और इस तरह भारतीय सरकार ने जनता के अरबों रुपये को विदेशी और प्राइवेट कंपनियों की जेब में डाल दिया। अब इस वैक्सीन पर पूरी तरह बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियों का कब्जा है।
भारत में जिस-जिस संस्था के द्वारा कोरोना वैक्सीन विकसित करने की बात कही जा रही है उसकी वास्तविकता यह है कि भारत के इन संस्थाओं ने वैक्सीन की तकनीक और फॉर्मूले को विदेशों से आयात किया है, या यों कहें कि रॉयल्टी देने की शर्त पर इजाजत ली है। यानी सारे संसाधन भारत के होंगे और खरीददारी भी भारत के लोग करेंगे, लेकिन मुनाफे का बड़ा हिस्सा बाहर निर्यात होगा। भारत में जो भी वैक्सीन विकसित होने की बात कही जा रही है, असल में वो भारत के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया खुद का अपना शोध नहीं है। वो विदेशों में किये गए शोध और तकनीक को आयात कर रहे हैं। विदेशी कम्पनियों ने अपना शोध क्यों बेचा? यह सवाल आना स्वाभाविक है। इसलिए ताकि उनके शोधों का परीक्षण भारत के लोगों पर ज्यादा से ज्यादा किया जाय और बड़े पैमाने पर वैक्सीन बेची जाय। बेहतर यह होता कि थोड़ा समय लेकर भारत में ही यहां के वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन को विकसित किया जाता, जैसे रूस, इसराइल, अमेरिका, चीन आदि खुद अपना विकसित कर रहे हैं। एक जरुरी बात यह है कि कोरोना के लिए जो वैक्सीन विकसित की जा रही है वह RNA टेक्नोलॉजी पर आधारित है, और यह बिल्कुल नई तकनीक है। इसलिए इस नई तकनीक पर बनने वाली वैक्सीन को और ज्यादा समय लेकर ज्यादा से ज्यादा ट्रायल व मोनिटरिंग करने की जरूरत थी। लेकिन इस तरह की जल्दबाजी मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा हो सकती है। इन सब वैक्सीन में बिल गेट्स जैसे कई पूंजीपतियों का काफी पैसा लगा हुआ है।
भारत मे विकसित लगभग सभी वैक्सीन की साझेदारी ब्रिटेन, अमेरिका और रूसी कंपनियों के साथ है। चूंकि भारत और अन्य तीसरी दुनिया के देशों में श्रम सस्ता है, इसलिए यहां वैक्सीन का सस्ती मजदूरी पर उत्पादन हो जाएगी, जिससे उनका प्रॉफिट मार्जिन बढ़ जायेगा। विदेशी कंपनियां अपनी तकनीक बेचकर, भारत में वैक्सीन विकसित इसलिए कर रही हैं, क्योंकि अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा कोरोना से संक्रमित केस भारत में ही है। इसी कारण वायरस से डर का माहौल और उसके खरीदने वालों का बाजार बहुत बड़ा है। इस कारण इन कंपनियों को यहां वैक्सीन बेचने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। वहीं भारत की जनता को आसानी से वैक्सीन परीक्षण के लिए ‘गिनी पिग’ (वैक्सीन को आजमाने के लिए जानवर) बनाया जा सके। टीके के लिए गिनी पिग बनने और उसकी विश्वसनीयता को हम हरियाणा के एक मंत्री अनिल विज के मामले में भी देख सकते हैं, जिन्होंने शोहरत बटोरने के लिए टीका लगवाया यानि खुद को गिनी पिग के तौर पर प्रस्तुत किया और फिर भी कोरोना संक्रमित हो गए। इस मामले में भी कम्पनी ने ‘अगर-मगर’ करके मामले को दफा करने का प्रयास किया है।
विश्वसनीयता स्थापित करने के लिए वैक्सीन के पहले स्टेज का ट्रायल तो पश्चिमी देशों में किया गया। लेकिन दूसरे और तीसरे ट्रायल को मिलाकर भारत में किया जा रहा है। क्योंकि पहल स्टेज काफी कम लेकिन दूसरे और तीसरे ट्रायल में काफी ज्यादा वॉलेंटियर की जरूरत होती है। जो कि इन कंपनियों को विदेशों में आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं,। इतना तो ठीक है वैक्सीन को जल्दी लाने होड़ में दूसरे और तीसरे फेज के ट्रायल को मिला दिया गया है। ताकी ट्रायल को कम लोगो पर करना पड़े और जल्द से जल्द वैक्सीन को बेचने के लिए बाजार में उतारा जाय।कोरोना के टीके के भारत में स्वागत करने के पहले टीकाकरण के विज्ञान और मुनाफाखोर व्यवस्था की इस राजनीति के बारे में अवश्य सोचें।
लेखक बीएचयू में शोध छात्र और ‘भगत सिंह छात्र मोर्चा’ के सचिव हैं।
दस्तक नए समय की में प्रकाशित लेख
भावी खतरे के प्रति सचेत करता हुआ एक शोधपरक लेख।
ReplyDelete