Monday, 1 March 2021

ऐतिहासिक किसान आन्दोलन और फासीवादी साजिशें-सीमा आज़ाद

 


खेती भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, और इस बार इस रीढ़ पर जोरदार हमला हुआ है, फलस्वरूप तीन महीने से किसानों ने दिल्ली को घेर रखा है। उनकी मांग महज इतनी है कि सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस ले ले, और समर्थन मूल्य की गारण्टी करे। लेकिन सरकार जिद पर अड़ी है। वह इस खतरनाक कानून की भाषा में अगर-मगर का हेर-फेर करने को तो तैयार है, लेकिन कानून वापस लेने के लिए बिल्कुल नहीं। इन तीन कृषि कानूनों का असर वैसे तो पूरे देश पर पड़ने वाला है, लेकिन पंजाब, जो कि पहले ही साम्राज्यवादी किसानी से नत्थी और ग्रस्त है, इससे सबसे पहले प्रभावित होंगे। इसलिए आन्दोलन की शुरूआत भी सबसे पहले यहीं से हुई, जिसे आगे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ने भी फॉलो किया। सितम्बर-अक्टूबर के प्रदर्शन के बाद जब सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी, तब किसानों के जत्थेबंदियों ने दिल्ली कूच करने की योजना बनाई और इसके लिए 26 नवम्बर, यानिसंविधान दिवसके उस दिन को चुना, जो भारत में लोकतन्त्र की मुनादी करता है। इन्हें रोकने के लिए खुद सरकार ने सड़कों पर टीले बनाकर सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने का काम किया, किसानों पर आंसू गैस के गोले और वाटर कैनन का इस्तेमाल किया, लेकिन किसान आर-पार की सोचकर आये थे। पंजाब से दिल्ली प्रवेश के बार्डर सिंघू पर वे डट गये। उधर पंजाब के कुछ हिस्से और हरियाणा से चली जत्थेबंदियां टीकरी बार्डर पर डट गयीं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आगे बढ़े लोग गाजीपुर बार्डर पर। शुरूआती डेढ़ महीने की 11 राउण्ड की वार्ता में सरकार ने किसानों को अपमानित किया और कानून वापसी से इन्कार कर दिया। जबकि किसानों का नारा है- ‘पहले कानून वापसी, फिर घर वापसी किसानों की दृढ़ता को देखते हुए सरकार ने फिर एक दांव चला-‘डेढ़ साल के लिए कानून वापस लेने का।इस प्रस्ताव ने थोड़ा भ्रम की स्थिति पैदा की और लगा कि अब किसान आन्दोलन में फूट पड़ जायेगी और यह समाप्त हो जायेगा, लेकिन किसानों ने एकजुटता दिखाते हुए इस सरकारी दांव को समझ ही नहीं लिया, बल्कि पलट भी दिया। उन्हें कानून वापसी से कम कुछ भी मंजूर नहीं। इसके बाद से सरकार की बौखलाहट बढ़ गयी है और इसके बाद से ही हर दिन बार्डर पर डटे किसान किसी किसी  फासीवादी साजिश का शिकार हो रहे हैं। आन्दोलन को तोड़ने के लिए गुण्डा-पुलिस गठजोड़, सड़कों पर सीमेण्टेड बैरीकेटिंग और कील ठोंकने, आन्दोलन में विदेशी लिंक प्रचारित करना और आन्दोलनकारियों कोपरजीवीबोलकर उनका मजाक उड़ाना तक शामिल है। दरअसल सरकार ने किसानों की बात बेशक नहीं सुनी, लेकिन उसे उसकी ताकत का एहसास हो गया है, और वह धरने पर बैठी जनता से बचने का बन्दोबस्त करने में लगी है। गोरख पाण्डे ने इसी स्थिति पर क्या खूब लिखा है-

वे डरते हैं

किस चीज से डरते हैं वे

तमाम धन दौलत

गोला-बारूद, पुलिस -फौज के बावजूद?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे।

 ऐसा लगता है कि सरकारी मुखबिर भी आन्दोलन स्थल पर जाने से डर रहे हैं इसी कारण सरकार ड्रोन उड़ाकर आन्दोलन स्थल की निगरानी कर रही है। ऐसा लगता है पुलिस के जवानों ने धरना स्थल की सीमा के अन्दर जाने से इन्कार कर दिया है, इससे डर कर कीलों कीलक्ष्मण रेखाखींची गई है, ताकि निहत्थे किसानों का जत्था इससे बाहर सके।

इतना कुछ आपराधिक कार्य करने के बाद सरकार ने आन्दोलन का अपराधीकरण करने का प्रयास और तेज कर दिया है। इसका ताना-बाना बुनने की शुरूआतटूलकिटका बहाना लेकर कर दी है। किसी भी आन्दोलन को व्यापक करने के लिए, और उसे आगे बढ़ाने के लिए लोग योजना बनाते ही हैं और उसका प्रचार भी करते हैं, कथितटूलकिटमें इसी बात का होना खुद सरकार भी बता रही है, लेकिन इसे अपराधिक कार्यवाही बताते हुए लोगों को जेल में डालने की शुरूआत हो गयी है। वास्तव में भीमाकोरेगांव के आयोजन, सीएए एनआरसी के खिलाफ चले धरने की तरह सरकार किसान आन्दोलन को खत्म करने के लिए भी वैसी ही फासीवादी साजिश कर रही है। लेकिन वास्तविकता ये है कि किसान आन्दोलन ने इस सरकार को जितना एक्सपोज़ किया है, किसी और आन्दोलन ने शायद ही किया हो। लेकिन इन सब पर बात करने से पहले आइये प्रदर्शन स्थल का एक हल्का सा नजारा कर लेते हैं-

प्रदर्शन स्थल

किसानों ने सिंघु, टीकरी और गाजीपुर बार्डर पर टैक्टर ट्राली और टेन्ट का ऐसा शहर बसा दिया है, जो इस वक्त देश भर के आन्दोलनकारियों के लिए तीर्थ स्थल बना हुआ है, साथ ही दिल्ली के आम लोगों के लिए भी यह देखने की एक रोचक जगह बन गयी है। जहां इतनी भीड़ होने के बावजूद कोई धक्का-मुक्की नहीं है। महिलाओं के साथ बदतमीजी या बदसलूकी की कोई घटना नहीं है। रात के वक्त भी लड़कियां इन छोटे शहरों में आराम से घूम सकती हैं। जहां सभी को खाने के लिए प्यार से लंगरों में आमन्त्रित किया जाता है, जहां खाना बनाने के लिए लोग अपनी सेवायें खुद दे रहे हैं महिला और पुरूष दोनों ही। लोगों के लिए निःशुल्क अस्पताल की सुविधा है। बड़े-बुजुर्गों की सेवा साथ में चल रही है। कपड़े धोने सुखाने और इस्तरी के लिए निःशुल्क सुविधा है। रात के समय टेंटों ट्रालियों, तंबुओं को गर्म रखने के लिए लोगों ने बड़े पैमाने पर कम्बल और गरम पानी की थैली भिजवाई है। कुछ संगठनों ने  छोटे टेंण्ट का भी सहयोग किया है। आन्दोलन को आगे बढ़ता देख अब टेण्टों में एसी लगने की शुरूआत भी हो गयी है। इन शहरों में घूमते हुए हर 10 कदम पर कोई आपको पानी पूछने वाला मिल जायेगा। टैक्टर-ट्राली, जो कि खेतों के काम आते थे, आन्दोलनकारियों के घर बने हुए हैं। ऐसे घर, जिनकी सजावट कुछ अलग है। 


 हर ऐसे घर किसान आन्दोलन से जुड़े और साम्राज्यवाद-साम्प्रदायिकता विरोधी पोस्टरों से सजे हुए है। भगत सिंह हर जगह मौजूद हैं, कई जगह उनके साथ अम्बेडकर भी हैं। मोदी और अमित शाह भी हैं, लेकिन अजीबो-गरीब रूपों में।

जहां ये शहर बसे हैं वहां से साम्राज्यवादी बाजार गाायब है। सिंघू के इस शहर में सड़कों के किनारों पर बसे बड़े मॉल पूरी तरह सिर्फ बन्द हैं, बल्कि उनके बड़े हॉल पर किसानों का कब्जा है। इस हॉल के अन्दर हर तरफ सिक्ख लड़ाकाओं की बड़ी-बड़ी तस्वीरें सजी हैं। 


 पंजाब के लोग संघर्षों का अपना इतिहास साथ लेकर चल रहे हैं। बात करने पर भी वे अपने ऐतिहासिक संघर्षों का हवाला जरूर देते हैं। मोदी कीकभी झुकनेकी बात के जवाब में कई पोस्टरों पर लिखा हुआ है किआपका 5 सालों का झुकने का इतिहास है और हमारा 500 सालों का।मॉल के अन्दर कुछ दुकानें जो बन्द पड़ी थीं, उन्हें कुछ किसान संगठनों ने किराये पर लेकर अपना ऑफिस बना लिया है। मॉल के अन्दर मौजूद साम्राज्यवाद का प्रतीक बन चुकेकेएफसीबंद पड़ा है, नौजवान आन्दोलनकारियों ने उसका नामकिसान फूड प्लाजारख दिया है। एक और साम्राज्यवादी कम्पनीफोर्डका शोरूम और कई ऐसे बैंक, जो सड़क के किनारे थे, सब बंद पड़े हैं। हां, छोटी दुकानें चल रही हैं और उन्हें इस आन्दोलन से कोई शिकायत भी नहीं है। टेलीफोन के ऊंचे टावरांे पर किसान आन्दोलन के झण्डे लहरा रहे हैं। भगत सिंह के बड़े-बड़े पोस्टर काफी दूर से ही देखे जा सकते हैं। आस-पास के कई टोल प्लाजा अभी भी टोल मुक्त हैं। जनता की सड़क जनता को समर्पित हैं।

टीकरी बार्डर के आन्दोलन स्थल पर नये मील के पत्थर लग गये हैं। लगभग तीन-चार किलोमीटर व्यास में फैले इस आन्दोलन स्थल पर अलग-अलग गांवों के अलग -अलग समूह है। और आने वालों को उन तक पहुंचाने के लिए यहां भी गांवों के नाम से मील के पत्थर लगा दिये गये हैं-‘‘जैसे फंला गांव- 0 किमी।’’

लोगों के आने और जाने का सिलसिला लगातार चलता रहता है, इसलिए आन्दोलन स्थल पर टैक्टर-ट्रालियों के आने और जाने का सिलसिला जारी रहता है, (जिन्हें 26 जनवरी के बाद गोदी मीडिया द्वारा प्रचारित किया गया कि किसान वापस लौट रहे हैं) इन ट्रालियों पर आन्दोलन के गीत बजते रहते हैं और उन पर सवार लोग इन गीतों पर थिरकते या झूमते रहते हैं। वास्तव में उनका आगमन किसी झांकी से कम नहीं होता। हर आने वाला एक खास आन्दोलनकारी मुद्रा में आन्दोलन के इन बार्डरों पर प्रवेश करता है, कोई नारे लगाता हुआ, कोई गानों पर झूमता हुआ, तो कोई आने-जाने हर किसी को अभिवादन करता हुआ। सबके चेहरे पर आन्दोलन में शामिल हो जाने की खुशी और जीतने का विश्वास साफ दिखता है। मोदी और अमित शाह के खिलाफ बेतहाशा नारे लगाते नौजवान दिख जायेंगे। हर तरफ तिरंगे, किसान आन्दोलन के झण्डे के साथ बीजेपी के गुण्डों के हमलों का जवाब देने के लिए हाथों में तरह-तरह के डण्डे थामे लोग दिख जायेंगे।

 निहंग सिक्ख भी किसान आन्दोलन का मजबूत हिस्सा हैं, अपने पारम्परिक घोड़ों और बाज के साथ। 29 जनवरी को जब सिंघु बार्डर पर आरएसएस के गुण्डों का हमला हुआ, तो उनसे लड़ने में ये ही सबसे आगे थे, जिसमें कई निहंग सिक्खों को चोटें आई।आरएसएस की धार्मिकता और निहंगों की धार्मिकता में क्या अंतर है?’, पूछने पर वे कहते हैंवे बांटने की, दंगे कराने की बात करते हैं, हम प्यार और मानवता की बात करते हैं।’ 

 टीकरी और गाजीपुर बार्डर पर खापों की अपने नामों के साथ उपस्थिति कुछ अजीब सी लगती है, लेकिन ये किसान आन्दोलनों का सच बन चुके हैं। खाप जो अब तक महिला और दलित विरोधी फरमान सुनाने के लिए ही चर्चा में आती रही हैं। यहां अपनी जैसी सोच वाली सरकार के खिलाफ आन्दोलन का हिस्सा बनी हुई हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में 28 जनवरी को गाजीपुर बार्डर पर राकेश टिकैत की अपील के बाद खापों की जितनी बड़ी सभायें इस सरकार के खिलाफ हो रही हैं, वह किसी भी समाज शास्त्री को चौंकाने वाली हो सकती है, लेकिन यह किसान आन्दोलन की भुलाने वाली और रेखांकित करने वाली सच्चाई बन चुकी हैं। बेशक आन्दोलन स्थल पर भी ये अपनी सामंती ठसक के साथ उपस्थित हैं, लेकिन इनकी सभाओं में ही नहीं, मंचों पर भी औरतों की उपस्थिति दर्ज हो चुकी है। दुश्मन के खिलाफ लड़ाई और आन्दोलन का मैदान इंसान को बहुत सिखा देता है, किसान आन्दोलन भी बहुत कुछ सिखा रहा है। कम से कम ये तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि इन सामंती संस्थाओं में जनवादी मूल्यों की सेंध लग चुकी हैं। आन्दोलन की जमीन से लौटकर अपने गांवों की ओर लौटने पर बेशक वे फिर से उसी सामंती प्रैक्टिस की ओर लौटें, लेकिन जनवादी मूल्यों के साथ जो उनका आंतरिक संघर्ष है, वो निश्चित ही तेज होगा।

 किसान आन्दोलन में महिलाओं की उपस्थिति

आन्दोलन में महिलाओं की उपस्थिति कई वजहों से चिन्हित किये जाने योग्य है। हरियाणा जहां कि सामंती खापों की सत्ता चलती हैं, जहां महिलायें घर की देहरी के अन्दर भी घूंघट में दिखती हैं, महिलाओं का किसानों के आन्दोलन का हिस्सा बनने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। यहां खाप और किसानी की जमीन दोनों पुरूष सत्ता की प्रतीक है। इस बाबत बात करने पर आन्दोलनकारी पुरूष किसान भी इस सवाल को अटपटा मानते हैं किक्या वे अपनी जमीन अपनी बेटियों और बहनों के साथ बांटना चाहेंगे?’

पंजाब, जो बाकी कई मामलों में अन्य राज्यों से आगे है, महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण के मामले में कई राज्यों से पिछड़ा है। दोनों राज्यों में महिलाओं की आबादी का अनुपात सबसे कम है। सिर्फ यहीं आकड़ा यहां औरतों की स्थिति को बयान कर देता है। समाज में ही नहीं, अधिकांश जनवादी संगठनो में भी महिलाओं के प्रति ऐसा ही दृष्टिकोण रहा है, जिससे आन्दोलनकारी महिलायें दो-चार होती रहती हैं।

पूरे देश की तरह यहां भी खेती का 75 प्रतिशत काम महिलायें ही करती हैं, लेकिन उन्हें किसान नहीं माना जाता। इनके नाम एक प्रतिशत जमीन भी नहीं है। जिस जमीन के कॉरपोरेटों के हाथ चले जाने वाले कानून के खिलाफ किसान धरने पर बैठे हैं, उस जमीन पर औरतों को कोई मालिकाना नहीं है, फिर भी वे इस आन्दोलन का मजबूत हिस्सा हैं।

देश के स्तर पर महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण का जो हाल है, उसे पूरी दुनिया ने 12 जनवरी को देख लिया, जब भारत के मुख्य न्यायधीश एसए बोबडे ने किसान आन्दोलन पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘महिलायें बच्चे और बूढे इस आन्दोलन में क्यों हैं, इन्हें वापस भेज देना चाहिए।इसके बाद किसान महिलाओं ने सिर्फ चीफ जस्टिस को राजनीतिक पत्र लिखकर औरमहिला किसान दिवसमनाकर इसका जवाब दिया, बल्कि उनके इस बयान ने आन्दोलन में शामिल महिलाओं का और अधिक राजनीतिकरण किया। सिर्फ महिलाओं का बल्कि आन्दोलन में शामिल पुरूषों का भी। फिर दोनों ने मिलकर पूरे देश को यह सन्देश दिया कि औरतें हर लड़ाई का मजबूत हिस्सा हैं ये बात स्वीकार की जानी चाहिए।

वास्तव में सीएए एनआरसी के खिलाफ चले शानदार आन्दोलनों ने पूरी दुनिया के सामने महिलाओं की आन्दोलनकारी भूमिका को सिर्फ रेखांकित कर दिया था, बल्कि आगे आने वाले हर आन्दोलन पर अपना स्थाई असर छोड़ा है। किसान आन्दोलन में सपरिवार भागीदारी से लेकर व्यवस्था के जनवादी स्वरूप तक इसका असर ही दिख रहा है। लेकिन आन्दोलन की अपने जनवादी प्रकृति की बात करें, तो यह सीएए एनआरसी के खिलाफ चले आन्दोलनों से अभी पीछे ही है, उस आन्दोलन ने परिवारों की सामंती संस्था के अन्दर जनवाद की सेंध लगाने में सफलता हासिल की थी, शायद इसलिए भी कि वह देश के साम्प्रदायिक फासीवाद को रोकने के लिए मुख्यतः महिलाओं का आन्दोलन था, जो उनके घरों को भी बदल रहा था। इस सन्दर्भ में सिंघु बार्डर के आन्दोलन में शामिल लड़कियों और औरतों ने बताया कि शुरूआती दिनों में अपनी जगह बनाने के लिए हमें काफी मशक्कत करती पड़ी, क्योंकि लड़कों और आदमियों को लगता था, यहां इनका क्या काम है? अगर हम अपने किसी पुरूष दोस्त के साथ उचित दूरी के साथ भी बात करते थे तो लोग अजीब निगाह से देखते थे। हमने इन सबके खिलाफ बोलना शुरू किया, लड़ना शुरू किया, तो अब स्थिति बेहतर है।महिला किसान दिवसके दिन भी हमारे पुरूष साथियों को लग रहा था, कि हम स्टेज नहीं संभाल सकेंगे, वे हमें बार-बार सलाह देने जाते थे। लेकिन वहां भी हमें उनसे कहना पड़ा कि आज हमारा दिन है, बेहतर है कि आप मंच के सामने दर्शक दीर्घा में आकर बैंठे, तब वे माने।’ ‘बेखौफ आजादीकी अर्पण मंजनीक का कहना है कि आन्दोलन में शामिल पुरूष पितृसत्ता से अभी भी लैस हैं, लेकिन आन्दोलन उन्हें धीरे-धीरे बदल भी रहा है, जब यहां से वे अपने घरों को लौटेंगे, तो निश्चित ही वे वो नहीं होंगे जो यहां आये थे।

हरियाणा के किसान संगठनों में महिलाओं को लेकर संकीर्णता थोड़ी ज्यादा है, लेकिन यहां भी इस संकीर्णता से लड़ने और तोड़ने का काम औरतों ने जारी रखा हुआ हैं।

आन्दोलन में शामिल होने भर से बहुत कुछ बदल जाता है। इसके साथ यह भी सच है कि जितने तरह के शोषित तबके किसी आन्दोलन में शामिल होते हैं, वह आन्दोलन अपनी प्रकृति में उतना ही अधिक जनवादी होता है और जनवाद का बीज पूरे समाज में बिखेरने में उतना ही अधिक सफल होता है। इस मायने में टीकरी बार्डर का आन्दोलन अधिक समृद्ध है क्योंकि यहां भारतीय किसान यूनियन (एकता) उग्राहा के नेतृत्व में बड़ी संख्या में महिलाओं की मौजूदगी है, जो पहले दिन 26 नवम्बर से यहां मौजूद है। इन्हें नेतृत्व देने का काम हरिन्दर बिन्दु कर रही हैं, आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका, उनकी यहां आने की तैयारी के सन्दर्भ में उन्होंनेदस्तकसे बातचीत की, जो कि अलग से उनके साक्षात्कार के रूप में प्रकाशित है। 

अपने साक्षात्कार में उन्होंने बताया यहां हम औरतें यहां सिर्फ कृषि कानूनों के खिलाफ लड़ ही नहीं रहे हैं बल्कि भविष्य के समाज को लागू भी कर रहे हैं, और लोगों को दिखा रहे हैं, कि बराबरी का समाज कितना सुन्दर और सहज हो सकता है। यहां पुरूष और औरतें दोनों काम करते हैं, लेकिन उनकी भूमिकायें बदल दी गयी हैं। खाना बनाने सफाई करने की जिम्मेदारी पुरूषों को दी गयी है, जबकि व्यवस्था सम्बन्धी काम महिलायें करती है। आन्दोलन स्थल पर इतना अच्छा माहौल है कि रात-रात भर लड़कियां आराम से घूम सकती हैं, देर रात तक अपने काम सुकून से निपटा सकती हैं, ये बाहर के समाज में सम्भव नहीं। निश्चित ही इस तरह का माहौल तभी बनाया जा सकता है, जबकि आन्दोलन में बड़ी संख्या में सिर्फ महिलायें हों, बल्कि उन्हें लाने की सोच भी हो। उग्राहा के लुधियाना जिला सचिव इस सन्दर्भ में कहते हैंहमारी शुरू से सोच रही है कि संगठन में महिलाओं को जोड़ा जाय। समाज की 50 प्रतिशत आबादी अगर महिलाओं की है, तो संगठन के अन्दर भी होनी चाहिए समाज तभी बदल सकता है।संगठन के अगुआ जोगिन्दर सिंह उग्राहां अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं-‘‘हमारे यहां अधिक संख्या में महिलाओं के जुड़ने का एक बड़ा कारण हमारा नशाबंदी अभियान है। हमारे संगठन में नशा मना है।’’ उग्राहा संगठन ऐसा संगठन है जो कि नेतृत्व के 32 संगठनों में नहीं शामिल है, लेकिन संख्या के लिहाज से सबसे अधिक कैडर इसी संगठन से है, उसमें भी सबसे अधिक महिला कैडर इसी संगठन से है। इनकी उपस्थिति से सिर्फ संगठन, बल्कि टीकरी का आंदोलन स्थल भी अधिक जनवादी हो चला है। तब, जबकि टीकरी पर खापों की भी बड़ी उपस्थिति है, जो कि अमूमन महिला विरोधी होते हैं। उग्राहां के मंच पर लगे बैनर तक में पुरूष किसानों नहीं, बल्कि महिला आन्दोलनकारी किसानों की तस्वीर लगी हुई है। विभिन्न वामदल जो कि समाज बदलाव की लड़ाई में महिलाओं की भूमिका को सिद्धांत में स्वीकार तो करते हैं, लेकिन उसे व्यवहार में उतारने में सफल नहीं हो पाते, उन सबके लिए किसान आन्दोलन में शामिल उग्राहां का किसान संगठन एक नजीर है, जहां सिर्फ महिलायें शामिल हैं, बल्कि नेतृत्वकारी भूमिका में भी हैं और ऐसा होने भर से वहां का पूरा माहौल बदल गया है।

आन्दोलन में दलित और मुसलमान

किसान आंदोलन पर ये आरोप लग रहे हैं कि ये धनी किसानों और जमींदारों का आन्दोलन है। इस आरोप के साथ कुछ लोग इस तर्क तक पहुंच गये हैं कि इसी कारण से इन आन्दोलनों में तो शामिल होना चाहिए, ही उन्हें समर्थन देना चाहिए। ऐसा तर्क करने वाले वाले लोग साम्राज्यवाद के साथ इनके अर्न्तविरोध को नहीं देख पा रहे हैं, साथ ही ये भी नहीं देख पर रहे हैं कि आन्दोलन में शामिल लोगों में सबसे बड़ा तबका मध्यम किसानों का है, जिनकी खेती साम्राज्यवादी बाजार से पहले से ग्रस्त है और नया कृषि कानून उनकी जमीन यानि देश का संसाधन छीन लेगा, जिसका असर सिर्फ खेती की जमीन के मालिकों पर नहीं, बल्कि पूरे देश की जनता पर होगा। लेकिन यह बात इस पर बहस के लिए नहीं लिख रही हूं, बल्कि इसे कहने का संदर्भ ये है कि किसान आन्दोलन के इस चरित्र के कारण इसमें भूमिहीन किसान, जो कि दलित हैं, इस आन्दोलन का हिस्सा नही हैं और इसे आन्दोलन की कमी के तौर पर चिन्हित किया जाना चाहिए। खेती को तबाह कर देने वाले कानून के खिलाफ इतने बड़े आन्दोलन में खेती से जुड़ा एक बहुत बड़ा तबका नहीं शामिल है, क्योंकि जमीन मालिकों से उनका अर्न्तविरोध है और मालिकों ने अपने आन्दोलन को मजबूत करने के लिए भी इस अर्न्तविरोध को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया। वरना आन्दोलन अपने सार और तीव्रता दोनों में और अधिक मजबूत हो सकता था। जब कई दलित संगठनों ने इस ओर ध्यान दिलाया, तो कम से कम इस कमी को चिन्हित किया गया। गाजीपुर बार्डर पर कुछ दलित संगठनों और मीडिया चैनलों की उपस्थिति इस दिशा में बढ़ने का इशारा तो करती है, लेकिन कोई सचेत गम्भीर प्रयास की कमी अभी भी है, लगता नहीं है कि संयुक्त किसान मोर्चा इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने की बात सोच रहा है।

बेशक ये आन्दोलन अभी तक सवर्ण और दलित की दीवार नहीं गिरा सका, लेकिन ये महत्वपूर्ण है कि इसने भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण के रथ को सिर्फ रोक दिया है, बल्कि इसे उलटकर धार्मिक मेल-मिलाप की संभावना को बढ़ा दिया है। खास तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जहां 2013 में इतना बड़ा दंगा हुआ, जहां मुसलमानों के घर उजाड़े गये, वहां सालों बाद लोग धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जीवन के मुद्दों के आधार पर एकजुट हो रहे हैं। गाजीपुर बार्डर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मुसलमानों का बढ़ता जमावड़ा और वहां होती महापंचायतों में मुसलमानों की भागीदारी मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू किसानों के बारे में बहुत कुछ कहती है। यह कि उन्होंने अपनी गलती को समझना और सुधारने की शुरूआत कर दी है, यह कि उन्होंने धर्म के आधार पर बांटने की भाजपा की साजिश को समझने की शुरूआत कर दी है, यह किहिन्दू राष्ट्रके दर्शन में निहित सरकार का फासीवादी चेहरा उन्हें नजर आने लगा है। हलांकि ये भी सच है कि किसानों के आन्दोलन को तोड़ने के लिए भाजपा ने फिर से इसी आधार पर किसानों को बांटने की जमीन तलाश कर रहा है। 17 फरवरी को प्रधानमंत्री, गृहमंत्री ने इसी क्षेत्र के कुख्यात दंगा एक्सपर्ट संजीव बालियान और कई अन्य खाप प्रधानों के साथ एक बैठक की है। जिसके बाद से बालियान विभिन्न खाप सभाओं में घुसने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सफल नहीं हो पा रहे हैं। कई गांवों में उन्हें किसानों ने बुरी तरह बेज्जत किया है। किसानों से निपटने की यह सरकारी योजना क्या रूप लेगी यह आने वाले समय में सामने आयेगा, लेकिन फिलहाल मेल-जोल की संस्कृति फल-फूल रही है। सिंघू, टीकरी और गाजीपुर तीनों आन्दोलन स्थलों परहिन्दू मुस्लिम भाईचारावाले लंगरों की उपस्थिति भी इसकी गवाह हैं।

आन्दोलन में नौजवानों की उपस्थिति

किसान आन्दोलन की एक बेहद खास बात यहां नौजवानों की उपस्थिति है। ऐसे समय में जब ये कहा जाने लगा था कि नौजवान खेती का काम छोड़ रहे हैं और उन्हें खेती किसानी में कोई रूचि नहीं रही, यहां नौजवानों का बड़ा जमावड़ा है। वालंटियर, लंगर में सेवादार, सुरक्षा व्यवस्था, मीडिया रिपोर्टिग, आंदोलन का संयोजन, विभिन्न माध्यमों से उसका प्रचार-प्रसार से लेकर बहस मुहाबिसों तक में हर जगह नौजवानों की बड़ी उपस्थिति तीनों बार्डर पर देखी जा सकती है। सीएए एनआरसी के खिलाफ हुए आन्दोलन ने उन्हें काफी सीख दी है और वे किसान आन्दोलन को अधिक से अधिक रचनात्मक बनाने में लगे हुए हैं। तीनों आन्दोलन स्थल परसांझी सत’ ‘संगत  बनाई गयी है जहां देश-दुनिया के तमाम मुद्दों पर बहसें होती रहती है, नौजवान इसका बड़ा हिस्सा होते हैं। किताबें पढ़ने के लिए यहां पुस्तकालय हैं, जहां देश बचाने, समाज को बेहतर बनाने वाली किताबें उन्हें रास्ता दिखा रही हैं। ये नौजवान देश को कॉरपोरेट््््स के हाथों में जाने से बचाने के लिए आगे आये हैं, यह बेहद सकारात्मक संकेत है। किसान आंदोलन में शामिल होकर वे आंदोलन की धार को तेज कर रहे हैं, इसके साथ ही यह आन्दोलन खुद उनकी पाठशाला भी बना हुआ है। बाहर के समाज से लाई हुई बहुत सारी विजातीय प्रवृत्तियों को वे यहां आकर छोड़ रहे हैं और नई जनवादी संस्कृति सीख रहे हैं। नशे के लिए पंजाब इतना कुख्यात है कि उस पर फिल्में बनी हैं, लेकिन यहां आकर उन्होंने नशे को छोड़ा है, उन्होंने लड़कियों को बराबरी और सम्मान देना सीखा है। पहले वे अश्लील गानों पर थिरकते थे। अब किसान आन्दोलन से जुड़े, संघर्ष से जुड़े गीतों पर थिरकते दिखाई देते हैं, हर किसी में भगत सिंह बनने की बेताबी दिखाती है।

नौजवान यहां कृषि कानून के मामले को सरकार के अन्य जनविरोधी फैसलों से जोड़ना सीख रहे हैं, ताकि आन्दोलन का स्वरूप व्यापक हो सके। 10 दिसम्बर को टीकरी र्बाडर पर भीमाकोरेगांव और सीएए एनआरसी प्रोटेस्ट में जेल भेजे गये लोगों की तस्वीरों के साथ मानवाधिकार दिवस मनाया जाना ऐतिहासिक था, जिसे खुद प्रधानमंत्री ने संसद मेंआतंकवादियों का समर्थन करने की कार्यवाहीबताया। ये इत्तेफाक है कि उनके इस बयान के दो दिन बाद ही प्रतिष्ठितआर्सेनलफोरेंसिक एक्सपर्ट कम्पनी का खुलासा सामने गया कि भीमाकोरेगांव में बंद किये गयेआतंकवादियोंके कम्प्यूटर पर मालवायर का हमला कर चिट्ठी आरोपित की गयी और उसके आधार पर उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाया गया। असली आतंकवादी कौन है, यह इसका बड़ा खुलासा है। यह सब आन्दोलन स्थल की चर्चा का विषय है।

संयुक्त किसान मोर्चे ने 24 फरवरी को आन्दोलन स्थल पर नौजवान दिवस मनाने की घोषणा की है, जिसमें देश भर से नौजवानों से इसमें शामिल होने की अपील की गयी है। निश्चित ही सीएए एनआरसी के खिलाफ चले आन्दोलन की तरह किसान आन्दोलन भी नौजवान लड़के-लड़कियों के लिए संघर्ष की एक बड़ी पाठशाला और कार्यशाला है।

26 जनवरी को क्या हुआ

किसान आन्दोलन में 26 जनवरी का दिन 26 नवम्बर के बाद अब तक का सबसे महत्वपूर्ण दिन साबित हो चुका है। इसके कुछ ही दिन पहले सरकार से वार्ता का दौर टूट चुका था, यानि सरकार ने कानून वापस लेने की बात से इंकार कर दिया था। इसे लेकर किसानों में खास तौर से नौजवानों में काफी गुस्सा था। संयुक्त किसान मोर्चा भले ही इस गुस्से को नहीं समझ सकी थी, लेकिन सरकार ने इसे समझ लिया था, इसी कारण किसान मोर्चा इस गुस्से को कोई दिशा नहीं दे सका और सरकार ने इसका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया। संयुक्त किसान मोर्चे ने 26 जनवरी की परेड के लिए दिल्ली पुलिस द्वारा सुझाये गये रूट को भले ही मान लिया, लेकिन नौजवानों ने और कई दूसरी जत्थेबंदियों ने इसे मानने से इंकार कर दिया। नौजवानों का गुस्सा 25 जनवरी को कई बार सिंघु बार्डर के मंच पर प्रदर्शित भी हुआ, लेकिन नेतृत्व उसे सम्बोधित नहीे कर सका।मजदूर किसान संघर्ष कमेटीने भी 25 को ही खुलेआम घोषित कर दिया था कि वे पुलिस द्वारा सुझाये रूट पर नहींरिंग रोडपर ही जायेंगे। सिंघु पर नौजवानों ने नारे लगाये थे- ‘परेड रोड-रिंग रोडअगले दिन सिंघु से दिल्ली पुलिस द्वारा तय रूट पर इतने कम लोग आगे बढ़े कि रैली के रूप मे चिन्हित भी नहीं हो सके। लेकिनमजदूर किसान संघर्ष समितिकी अगुवाई में बड़ी संख्या में किसानों की जत्थेबंदियां रिंग रोड की ओर मुड़ गयीं और कमाल की बात ये कि उधर किसानों को रोकने के लिए किसी पुलिस फोर्स की तैनाती भी नहीं थी, जबकिमजदूर किसान संघर्ष समितिने तो यह एक दिन पहले घोषित ही कर दिया था। निश्चित तौर पर यह एक सरकारी योजनाबद्ध साजिश थी। किसान आसानी से रिंग रोड से होते हुए लाल किले पहंुच गये। रास्ते में दिल्ली वासियों ने उन पर जो प्यार बरसाया, उसके बारे में बताते हुए कई नौजवानों ने कहा किहमारे तो आंसू गये थे। कोई फूल बरसा रहा था, तो कोई पानी पिला रहा था, या कुछ भी अपने घर से खाने को लाकर दे रहा था। दूर वाले लोग, हमें सलामी दे रहे थे औरविक्ट्री साइनदिखा रहे थे।दिल्ली निवासी मेरी एक दोस्त नीरा ने बताया कि दिल्ली में आमतौर पर गाड़ी में लिफ्ट लेना अच्छा नहीं माना जाता है, लेकिन उस दिन लोग किसान परेड में शामिल होने के लिए आसानी से लिफ्ट दे रहे थे। वे खुद अपनी एक दोस्त के साथ लिफ्ट लेते हुए ही किसान परेड देखने गयीं थीं।

रिंग रोड से होते हुए लाल किले पहंुचने के बाद किसानों का सरकार पर गुस्सा किस तरह से निकला ये सभी ने देखा। नौजवानों का ये भी कहना था कि वहां तो तिरंगा भी लगाया था और सबसे ऊपर लगाया था, इसे किसी ने क्यों नहीं दिखाया।

निश्चित ही लाल किले की घटना को किसी एक दीप सिंधू या अन्य पर नहीं डाला जाना चाहिए, बल्कि यह लोगों का 2 महीनों से धीरे-धीरे बढ़ रहा गुस्सा था, जिसके लिए यह सरकार ही जिम्मेदार है। दुखद यह है कि इस गुस्से का इस्तेमालसंयुक्त किसान मोर्चाके नेतृत्व की जगह खुद सरकार ने अपने पक्ष में कर लिया।

कृषि कानून, किसान आन्दोलन और फासीवाद

खेती-किसान विरोधी कृषि कानून के खिलाफ चल रहा किसान आन्दोलन अपने 3 महीने पूरे करने जा रहा है। सरकार इसे तोड़ने का कई प्रयास कर चुकी है, लेकिन सफल नहीं हुई, आगे वो क्या करने वाली है ये तो नहीं पता, लेकिन खुद प्रधानमंत्री मोदी किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में जिस तरह के बयान दे चुके हैं, उससे उनके फासीवादी रूख का साफ पता चल जाता है। इस सन्दर्भ में उनका पहला बयान किवो कभी झुके नहीं हैं’, जैसी भाषा कोई तानाशाह ही अपनी जनता से बोल सकता है। अपने देश की जनता के खिलाफ जाकर प्रधानमंत्री आखिर किसके दम पर इतना अड़ रहे हैं, यह सोचने की बात है।

किसान आन्दोलन स्थल पर सभी का कहना है कि ये सरकार अडानी और अम्बानी की है, वे ही इसे चला रहे हैं, उन्हीं के दम पर सरकार इतना अड़ रही है और उन्हीं के इशारे पर पूरे देश के संसाधन निजी हाथ में सौंप रही है। किसान नेताओं का कहना है बात सिर्फ अम्बानी अडानी की नहीं है कि पर्दे के पीछे कोई और है-विश्व बैंक, विश्व मुद्रा कोष यानि साम्राज्यवादी वे आका हैं जिनके कहने पर मोदी चल रहे हैं। यह बात तब और सही साबित हो गयी, जब अमेरिका में चुनाव जीतने के तुरंत बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, जिन्हें जनपक्षधर बताया जाता रहा, ने मोदी सरकार द्वारा लाये गये कृषि कानूनों का समर्थन किया। जबकि उसी समय उनके देश की अन्य हस्तियां लोगों के आन्दोलन को देखते हुए इसका विरोध कर रहीं थीं।

कांग्रेस आज जो किसानों के साथ होने का दिखावा कर रही है खुद इन कानूनों की नींव डालने वाली है। ये और बात है कि वो साम्राज्यवादी मंसूबों और जनता की आकांक्षा के बीच थोड़ा ताल-मेल करते हुए आगे बढ़ रही थी, और मोदी सरकार पूरी तरह अपने साम्राज्यवादी आकाओं के साथ जाकर खड़ी हो गयी है, उनकी भाषा और बयान दरअसल अपने आकाओं को यह संदेश है किभारत को लूटने के लिए आगे बढ़ो, हम तुम्हारे पूरी तरह साथ है।भाजपा की ब्राह्णवादी, साम्प्रदायिक हिन्दुत्व की राजनीति भी एकाधिकार की है, इसलिए साम्राज्यवाद की एकाधिकारी नीति के साथ सबसे अच्छा मेल इन्हीं का बनता है। इन दोनों का मिलन ही फासीवाद है, जिसकी भाषा इन दिनों सिर्फ भाजपा के छोटे नेता भर नहीं, खुद प्रधानमंत्री भी बोल रहे हैं। उनका रूख कृषि कानून को वापस लेने का नहीं, बल्कि किसी भी तरह आन्दोलन को कुचलने का है, जिसके लिए जोड़-तोड़ बड़े पैमाने पर जारी है। इसेअन्तरराष्ट्रीय साजिशबताना यानिटूलकिट मामलासबसे नवीनतम है। लेकिन किसानों का आन्दोलन भी काफी मजबूत है, लोगों का जज्बा बुलन्द है और मात्र दो राज्यों से उठे किसानों का आन्दोलन आज जिस तरीके से पूरे देश के किसानों का आन्दोलन बन चुका है, वह इस फासीवादी सरकार को मजबूत टक्कर दे रहा है। आन्दोलन की जीत ही होगी।

दस्तक मार्च-अप्रैल २०२१ अंक में प्रकाशित लेख 

तस्वीरें - सीमा आज़ाद

 

No comments:

Post a Comment