लगभग पांच दशकों तक सैन्य शासन में रहने के बाद म्यांमार एक बार फिर तख़्तापलट का शिकार हो सैन्य शासन के अधीन हो गया है। म्यामांर में लोकतंत्र के लिए करीब 22 सालों की लंबी लड़ाई आंग सान सू ची के नेतृत्व में जनता ने संघर्ष किया। जीवन के दो दशक आंग सान सू की ने नजरबंदी में गुजारे और देश में लोकतंत्र स्थापित करने के बाद स्टेट काउंसलर बनी। लेकिन अब चुनावों में गड़बड़ी और कोरोना के नाम पर सैन्य तानाशाही कायम हो गई है।
1 फरवरी को सेना ने देश की सर्वोच्च नेता और स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची और राष्ट्रपति विन मिंट समेत कई वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और आपातकाल की घोषणा कर दी। अब शासन की कमान एक साल के लिए उपराष्ट्रपति मींट स्वे के हाथ में सेना ने दी है, स्वे पहले सैन्य अधिकारी रह चुके हैं। लेकिन देश में सर्वाधिक शक्तिमान सशस्त्र बलों के कमांडर जनरल मिन आंग लाइंग ही हैं।
जनरल लाइंग इस साल जुलाई में सेवानिवृत्त होने वाले थे, लेकिन अब उनके पास अपार शक्ति है। अपने कार्यकाल में रोहिंग्या मुसलमानों पर अत्याचार के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने तो उनके लिए मानवता के खिलाफ युद्ध के आरोप में सजा मिलने की बात कही थी। लेकिन इसके बावजूद जनरल लाइंग का म्यांमार में दबदबा बरकरार रहा। तब रोहिंग्याओं के पक्ष में खड़े न होने के लिए नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू ची की काफी आलोचना भी हुई थी। वास्तव में सू ची रोहिंग्या समुदाय के निर्मम दमन के लिए जिम्मेदार सेना का बचाव करती रहीं, साथ ही देश में सच्चे प्रजातंत्र की स्थापना के लिए न तो उन्होंने कोई ठोस कदम उठाए और न ही मेहनतकश वर्ग समेत आम जनता के जीवन मे बेहतरी लाने हेतु कोई प्रयास किया।
2016 में संपन्न चुनावों में जब आंग सान सू ची की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी सत्ता में आई। एनएलडी ने संविधान परिवर्तन कर सैन्य शक्ति को सीमित करने के प्रयास किए थे, लेकिन जनरल लाइंग ने ये सुनिश्चित किया कि संसद में सेना के पास 25 फीसदी सीटें रहें और सुरक्षा से जुड़े सभी अहम पोर्टफोलियो सेना के पास रहें। आंग सान सू ची ने फौजी हुक्मरानों के साथ और साम्राज्यवादी ताकतों के साथ अच्छा संबंध बनाए रखा।
म्यांमार में बीते नवंबर में ही संसदीय चुनाव हुए, जिसमें एनएलडी को 476 सीटों में से 396 सीटों पर जीत मिली। सेना ने चुनावों में फर्जीवाड़े का दावा किया, लेकिन चुनाव आयोग ने इसे नकार दिया। नई संसद को 1 फरवरी को प्रभावी होना था, सू ची समेत अन्य सांसदों को शपथ लेनी थी, लेकिन इससे पहले ही सैन्य तख्तापलट कर दिया गया। सेना के स्वामित्व वाले ‘मयावाडी टीवी’ ने देश के संविधान के अनुच्छेद 417 का हवाला दिया, जिसमें सेना को आपातकाल में सत्ता अपने हाथ में लेने की अनुमति हासिल है।
राजधानी नेपिताओ समेत कई शहरों में इंटरनेट बंद है, सिटी हिल जैसे प्रमुख सरकारी भवनों पर सेना तैनात है। जगह-जगह सड़कें जाम कर दी गई हैं। लोकतंत्र सेना के जूतों के तले क्रूरता से रौंदा गया है। दुनिया भर में म्यांमार के इस राजनैतिक घटनाक्रम की आलोचना हो रही है। न्यूजीलैंड समेत कई देश इसके बाद म्यांमार पर प्रतिबंधात्मक कार्रवाई कर रहे हैं। लोकतांत्रिक नेताओं को रिहा करने की आवाजें उठ रही हैं। मानवाधिकार संगठन चिंतित हैं कि अल्पसंख्यकों, राजनैतिक विरोधियों, पत्रकारों पर दमनात्मक कार्रवाई बढ़ती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर सू की समेत तमाम राजनैतिक नेताओं को रिहा करने की मांग की है। साम्राज्यवादी ताकतों का सरगना अमेरिका हालांकि सैन्य तानाशाही की आलोचना कर रहा है लेकिन म्यांमार में साम्राज्यवादी निवेश और चीन के साथ अन्तरसाम्राज्यवादी द्वंद के चलते वह सैन्य तानाशाही के खिलाफ कोई कड़ा कदम उठाने से बच रहा है। 60 के दशक से म्यांमार में शक्तिशाली कम्युनिस्ट आंदोलन के दमन करने और दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए अमरीकी साम्राज्यवाद, सैनिक तानाशाही का प्रमुख समर्थक व संरक्षक की भूमिका निभाते आया है।
नैविदुदाव में एक महिला, सुरक्षा बलों की गोली का शिकार हुई है। इधर सैनिक तख्ता पलट के खिलाफ जनता का आक्रोश बढ़ता ही जा रहा है। म्यांमार के रंगून और दूसरे शहरों में हजारों लोग सड़कों पर उतर आए हैं। इन प्रदर्शनों में मजदूर विशेषकर कपड़ा मिल मजदूर अगुवाई कर रहे हैं। इनके अलावा युवा, कर्मचारी, शिक्षक व शासकीय सेवक भी बड़े पैमाने पर लोकतंत्र की बहाली के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। प्रदर्शन के दौरान ऐसे कई बैनर दिखे, जिस पर लिखा था, ‘सैन्य तानाशाही का समर्थन करना बंद करो’। ये मुख्यतः चीन के लिए था जो सैन्य तानाशाह जनरल मिंन आंग हलिंग का समर्थन कर रही है। वैसे चीन, आंग सान सू की पार्टी एन एल डी तथा सैनिक तानाशाह दोनों से अपने साम्राज्यवादी मंसूबों के चलते मधुर संबंध बनाए रखता है। हालिया स्थिति सैन्य तानाशाहों के लिए दुःस्वप्न की तरह है। तेज होते जनांदोलन के दबाव में सैन्य प्रशासकों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सुरक्षा कानून के लिए नागरिकों के संरक्षण में संशोधन करते हुए एक आदेश जारी किया है और कहा है कि वो मानवाधिकार का हनन नहीं होने देगी। लेकिन हकीकत यह है कि प्रजातंत्र के समर्थकों की रात में गुपचुप गिरफ्तारी से लोगों में भय का माहौल है।
यह घटनाक्रम भारत के लिए चिंता का सबब है। भारत के पड़ोसी देश में राजनैतिक अस्थिरता है और लोकतंत्र को बंधक बना लिया गया है। वैसे म्यांमार में तो खुलकर लोकतंत्र का दमन हुआ है, लेकिन भारत समेत दुनिया के कई घोषित लोकतांत्रिक देशों में प्रकारांतर से जनता के अधिकारों को कुचला जा रहा है। हमारे देश के संघी विचारधारा वाले फासिस्ट हुक्मरान जिनकी कट्टरता, देशी विदेशी कॉरपोरेट गुलामी, मनुवादी धर्मांधता, विरोधियों को दबाने की हठधर्मिता के कारण लोकतंत्र के बचे खुचे अवशेषों पर जो भीषण खतरे मंडरा रहे हैं, उन्हें भी देखने की जरूरत है। भारत की फासीवादी मोदी सरकार के संबंध रोहिंग्या शरणार्थियों को कुचलने के मामले में म्यांमार के शासकों के साथ बहुत अच्छे रहे हैं। इसके अलावा कश्मीरी जनता के सैनिक दमन, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं समेत तमाम मेहनतकश जनता के दमन के मामले में मोदी सरकार और म्यांमार के सैन्य तानाशाहों का रिकॉर्ड एक समान है। एक अच्छी बात है कि दोनों देशों में सच्चे लोकतंत्र के लिए जनता का संघर्ष जारी है। भारत में जहां संघी कॉरपोरेट फासीवाद के खिलाफ किसानों का बहादुराना संघर्ष ढाई महीने बाद और तेज हो रहा है वहीं फासिस्टों के खिलाफ तमाम वामपंथी ताकतें संघर्षरत किसानों के साथ हैं। म्यांमार में सैन्य तानाशाही के खिलाफ जन आंदोलन में मजदूर वर्ग अगुवाई कर रहा है लेकिन वहाँ इस आंदोलन को व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में बदलने के लिए क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का नितांत अभाव है।
दस्तक मार्च -अप्रैल २०२१ अंक में प्रकाशित लेख
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