Friday 24 July 2020

भंवरी देवी से खुशी तक, आसाम से कर्नाटक तकः न्यायव्यवस्था की पितृसत्तात्मक सोच- आकांक्षा आज़ाद


कोरोना लॉकडाउन में महिलाओं पर होने वाली घरेलू हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई है और के समाचार पत्रों में फिर से यह खबर आयी है कि कोरोना प्रभावित ‘रेड जोन’ क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा में और भी अधिक बढ़ोत्तरी हुई है। ये आंकड़े भारतीय समाज के बारे में बहुत कुछ कहते है। ऐसा नहीं है कि यह भारत के अनपढ़ अशिक्षित घरों की कहानी है। बल्कि इन घरों में ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि हमारे देश में कथित लोकतन्त्र के सभी खम्भे अपनी सोच में सामंती और पितृसत्तात्मक हैं। कारोना के समय में ही कम से कम तीन ऐसे फैसले न्यायालयों से आ चुके हैं, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय समाज मूलतः एक पितृसत्तात्मक समाज है जिसकी नींव में सामंतवाद है। पितृसत्ता अर्थात पिता की सत्ता वाला समाज, जहां पिता ही घर का मुखिया हो। हमारे परिवार से लेकर राज्य भी इसी नींव पर टिका है। कानून बनाने वाली विधायिका (संसद और विधानसभा) और कानून लागू करने वाली कार्यपालिका (सरकार) के पितृसत्तात्मक चरित्र से तो फिर भी लोग रूबरू है लेकिन विशेष बात तब आती है जब न्याय दिलाकर संविधान और नागरिकों (विशेष तौर पर महिलाओं) के अधिकारी की रक्षा की जिम्मेदारी वाली संस्था में भी पितृसत्ता की जड़ें गहरी दिखने लगे। सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों के बारे में सामान्यजन में यही धारणा है कि यह स्वतंत्र, निरपेक्ष, और कभी गलत गलत न होने वाली संस्था है। कुछ ही समय पहले कर्नाटक हाई कोर्ट और गुवाहाटी हाई कोर्ट ने जो फैसले सुनाए है उसने कोर्ट के प्रति इस धारणा एक धक्का जरूर दिया है। ताजा मामला बिहार के अररिया का है। जहाँ एक रेप पीड़िता और उसके साथियों को सरकारी काम में बाधा डालने का आरोप लगाकर जेल भेज दिया गया। रेप सर्वाइवर को आलोक धन्वा के शब्दों में कहे तो ‘भागी हुई लड़की’ होने के कारण 10 दिनों तक जेल में रहना पड़ा वह फिलहाल जमानत पर बाहर है। पूरा मामला सामुहिक बलात्कार का है जिसमें सर्वाइवर के एक दोस्त ने मोटरसाइकिल सिखाने के बहाने अपने जान-पहचान के लोगों से लड़की का बलात्कार करवाया। सर्वाइवर, कल्याणी और तन्मय नाम के लोगों के साथ काम करती थी और उनके कहने पर इस मामले की एफआईआर दर्ज करवाई। कल्याणी और तन्मय अब भी जेल में है। तीनों एक ही संगठन का हिस्सा भी है। सवाल यह है कि आखिर इन तीनों ने ऐसा क्या कर दिया कि गुनहगारों की जगह इन्हें ही जेल भेज दिया गया। हुआ ये था कि जब सर्वाइवर का बयान निचली अदालत के जज साहब के सामने दर्ज हुआ और हस्ताक्षर के लिए पढ़ा जाने लगा तब सर्वाइवर ने जज साहब से यह कहने की हिमाकत कर दी कि ‘सर हमको समझ नहीं आ रहा आप मुँह पर से रुमाल हटा कर बताइये’ और इसे ठीक से सुनने के बाद ही वह इसपर हस्ताक्षर करेगी। क्या सर्वाइवर की इतनी सी मांग गलत थी की उसका बयान साफ शब्दों में उसे पढ़कर सुनाया जाए? या फिर एक गरीब अनपढ़ लड़की का इतने पढ़े लिखे ‘पुरुष’ जज साहब को इस तरह से टोक देना ही काफी था जेल भेज देने को? इस ‘हिमाकत’ के बाद कल्याणी और सर्वाइवर दोनों के माफी मांग लेने के बाद भी जज ने लड़की को ‘बदतमीज’ बताते हुए सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में जेल भेज दिया, सिर्फ उसे ही नहीं इस मामले में पीड़ित लड़की का साथ देने वाले दो लोगों को भी उस जज ने जेल में भेज दिया। बाकि इसकी किसे चिंता थी कि सामूहिक बलात्कार के आरोपी को जेल भेजे जाने की जरूरत थी, जो अब भी खुले बाहर घूम रहे और लड़की पर ही दबाव बना रहे है। सर्वाइवर की इस तरह की मामूली मांग को सामूहिक बलात्कार से ज्यादा गम्भीर मानकर उसे जेल भिजवाकर जज साहब ने खुद के साथ ‘न्याय’ किया। बीबीसी से बातचीत के दौरान सर्वाइवर कहती हैं ‘सब परिवार, सारा समाज क्या कहेगा? क्या हमको ही दोष देगा? क्या मेरा साईकिल चलाना आजादी से घूमना-फिरना, संगठन के लोगों का साथ देना प्रदर्शन में आना जाना, क्या इस सब मेरे रेप की वजह ढूंढी जाएगी?’ पितृसत्ता ठहाका लगाकर कहेगा -‘बिल्कुल, लड़कियों के लिए ये सब वर्जित है कि वह यूं उन्मुक्त घूमे, साइकिल चलाये, मोटरसाइकिल तो मर्दों की ही सवारी है, उस पर भला लड़की सवार होगी, तो उसके साथ यही सब होगा।’

एक नजर अपने समाज पर डाले तो हम पाते हैं कि महिला और पुरुष दोनों को ही समाज अलग-अलग ढांचे में रखना चाहता है। समाज में ‘आदर्श भारतीय महिला’ के कई ‘गुण’ माने गए हैं जैसे एक ‘आदर्श भारतीय महिला’ को एक अच्छी गृहणी होना चाहिए, पति को स्वामी मानकर दिन रात उसकी सेवा करनी चाहिए, पति अगर मारपीट भी करे तो चुपचाप सहते रहना चाहिए आदि आदि। इन्ही ‘गुणों’ में कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक और ‘गुण’ जोड़ा है। चीफ जस्टिस कृष्णा एस. दीक्षित ने बताया है कि ‘बलात्कार के बाद आदर्श भारतीय महिला को कैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए।’
शादी का झांसा देकर बलात्कार के इस मामले में चीफ जस्टिस ने आरोपी को बेल देते हुए महिला पर टिप्पणी की कि- ‘महिला का कहना है कि वह अपराध के बाद थकी हुई थी और सो गई थी, एक भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है, हमारी महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसे व्यवहार नहीं करती हैं।’ पितृसत्ता यहां भी अट्टहास करती हुई कह रही है- ‘बिल्कुल ठीक।’
वास्तव में चीफ जस्टिस दीक्षित उसी बीमार मानसिकता के शिकार है जहां लड़कियों के देर रात तक बाहर आने-जाने और शराब पीने से ‘स्त्री धर्म’ भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए शिकायतकर्ता महिला को ही उन्होंने भरोसे लायक नहीं माना। उनका कहना है कि ‘शिकायतकर्ता ने यह नहीं बताया कि वो रात 11 बजे उनके (आरोपी) के दफ्तर क्यों गई थीं। उन्होंने आरोपी के साथ अल्कोहल लेने से भी एतराज नहीं जताया और सुबह तक उन्हें अपने साथ रहने दिया। उन्होंने यह भी नहीं बताया की उन्होंने शुरुआत से ही अदालत से सम्पर्क क्यों नहीं किया जब आरोपी ने कथित तौर पर उनपर यौन संबंध के लिए दबाव बनाया था।’ भारत में छेड़खानी से लेकर सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की संख्या लाखों में है। हर घण्टे न जाने कितनी महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे। इनमें से कुछ मामले दर्ज होते हैं और कोर्ट तक पहुँचते है। ज्यादातर दर्ज होकर भी पुलिस स्टेशन के फाइलों में धूल फांकते है। भारत में इन आरोपियों को सजा मिलने की दर सिर्फ 18 प्रतिशत है जिसका मतलब है कि 100 में से 72 आरोपियों को कभी उनके अपराध की सजा नहीं मिलती। जिस तरह के सवाल चीफ जस्टिस दीक्षित ने शिकायतकर्ता से की क्या बिल्कुल उसी तरह के सवाल एक बलात्कार की सर्वाइवर से उसका घर, परिवार, समाज नहीं पूछता?
‘इतनी देर रात अकेली क्यों बाहर गई थी?’, ‘ये कैसे कपड़े पहन रखें है तुमने? ऐसे कपड़ो के कारण ही बलात्कार होते हैं।’, ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती जरूर तुमने ही शह दी होगी।’, ‘तुम्हे देखकर तो नहीं लगता कि तुम्हारे साथ रेप हुआ है। तुम खुश कैसे रह सकती हो?’ और अगर रेप हुआ तो भी तुम पहले क्यों नहीं बताया?...आदि आदि। और इन्ही सब सवालों के माध्यम से जिस तरह से सर्वाइर को ही दोषी ठहराया जाता है उसी का नतीजा है कि लड़कियां और महिलाएं इन सब गम्भीर मामलों पर चुप्पी साध लेती हैं।
तीसरा मामला गुवाहाटी हाई कोर्ट का है। जहाँ 21वीं में भी सदी में चीफ जस्टिस अजय लाम्बा और न्यायाधीश सौमित्रा सैकिया का कहना है कि ‘अगर एक महिला हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार शादी करती है और सिंदूर और शाखा (शंख से बनी चूड़ियां) पहनने से मना करती है तो इसका मतलब है कि वह महिला इस शादी को अस्वीकार कर रही है।‘ इस तरह के महिला विरोधी बयान देकर कोर्ट महिलाओं की स्वतंत्रता खुद ही छीन रही। ऐसी हजारों हिन्दू महिलाएं है जो शादी को मानते हुए भी सिंदूर और शाखा पहनना नहीं पसन्द करती हैं, क्योंकि ये सब महिलाओं पर सामंती पितृसत्ता द्वारा थोपा गया है। क्या कोर्ट के बयान के अनुसार यह सभी महिलाएं अपनी शादियों को अस्वीकार कर रहीं?

दरअसल जिस तरह का सामंती हमारा समाज है कोर्ट की महिला विरोधी अभिव्यक्ति उसी समाज का प्रतिबिंब है। कभी यह खुले रूप में सामने आता है कभी छुपे रूप में। हमारा समाज खासतौर पर महिलाओं को उनके ‘आदर्श भारतीय महिला’ वाले रूप से अलग देखना नहीं चाहता है। यह तमाम कोर्ट- कचहरी, सरकारें, परिवार जैसी संस्थाएं इसी ‘आदर्श रूप’ को बनाये रखने के लिए ही हैं।
यह ऐसा पहली बार नहीं है जब हमारी न्यायव्यवस्था ने महिला विरोधी फैसले दिए हो या महिला द्वेषी टिप्पणी की हो। अगर ठीक से देखे तो इस तरह के फैसलों के अंबार लगा है। अक्टूबर 2016 में भी स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए कि शिकायतकर्ता महिला का व्यवहार इस तरह का नहीं था जैसा बलात्कार के दौरान होना चाहिए, कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था।
यह सोचना अंदर तक हिला कर रख देता है कि किस तरह यह व्यवस्था महिलाओं के प्रति इतना कठोर और असंवेदनशील हो सकता है कि वह इन सब पर भी नियंत्रण रखना चाहता है कि बलात्कार के दौरान या उसके उसके बाद महिलाएं किस तरह से व्यवहार करें। इस तरह के ट्रॉमा के दौरान किस व्यक्ति का शरीर और दिमाग किस तरह से रिएक्ट करेगा इसपर भी समाज ने मानक गढ़ कर रखें है। क्या इस तरह के न्यायालयों से औरतें कभी न्याय की उम्मीद लगा सकती हैं?
इस न्याय व्यवस्था में कभी जाति के कारण, कभी हैसियत के कारण तो कभी सिर्फ महिला होने के कारण हजारो-लाखों महिलाएं न्याय से वंचित रह जाती है। सन 1992 के सितम्बर के भंवरी देवी केस (राजस्थान) को याद करें तो इस केस ने सरकार और कोर्ट के मिलीभगत के साथ-साथ यह भी बताया कि जब भारतीय समाज की दूसरी सबसे मजबूत नींव जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का मेल होता है तो उसका रूप कैसा होता है। भंवरी देवी नाम की एक दलित महिला की महिला ने गांव के गुज्जर परिवार में  हो रहे बाल विवाह होने से रोका तो गुज्जर जाति के पांच लोगों लोगों ने भवंरी देवी को उसकी ‘औकात’ बताने के लिए सामूहिक बलात्कार किया। पुलिस से लेकर तत्कालीन सरकार के बड़े बड़े नेताओं ने मामले को दबाने की भरपूर कोशिश की। मामला जब निचली अदालत में गया तब अदालत ने सभी आरोपियों को बरी करते हुए फैसला दिया कि-
’गांव का प्रधान कभी बलात्कार नहीं कर सकता।
’60 साल का बुजुर्ग व्यक्ति कभी भी किसी का बलात्कार नहीं कर सकता।
’आरोपियों में चाचा भतीजा भी शामिल हैं। कोई भी व्यक्ति अपने रिश्तेदार के सामने किसी महिला का बलात्कार नहीं कर सकता।
’ ऊंची जातियों के लोग अशुद्ध नीची जाति की महिला का बलात्कार नहीं कर सकता क्योंकि इससे सभी अशुद्ध हो जाएंगे।
’ कोई पति अपने पत्नी का बलात्कार होते नहीं देख सकता।
अभी मामला हाईकोर्ट में है जिसमें आजतक मात्र एक सुनवाई हुई है और इसी तरह दो दशक से भंवरी देवी न्याय का इंतजार कर रही है। अदालत के इस फैसले में किस हद का महिला द्वेष भरा पड़ा है ये देख पाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है, विशेषतौर पर नीची जातियों के महिलाओं के प्रति। इसी फैसले के साथ इस अदालत ने इन सभी बलात्कारों को झूठा ठहरा दिया जो ऊंची जाति के लोगों ने नीची जाति के लोगों को उनकी औकात बताने के लिए की थीं।
एक अन्य पहलू पर बात करें तो जिन न्यायाधीशों पर न्याय देने के जिम्मेदारी है उनमें कई न्यायाधीशों पर खुद ही महिलाओं यौन शोषण का आरोप है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर उनकी एक पूर्व महिला कर्मचारी ने उनपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इस मामले को देखने के लिए तीन सदस्यीय कमिटी भी बनी जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश को बेगुनाह पाया और सभी आरोपों को निराधार बता दिया। गौरतलब है इस कमिटी पर सही न्यायिक प्रकिया नहीं अपनाने के आरोप भी लगे थे। जब स्वयं मुख्य न्यायाधीश पर इस तरह के गम्भीर आरोप लग रहे तो इस न्याय व्यवस्था की सच्चाई उघड़ के सामने आ जाती है।

कुल मिलाकर यह कहना कि इस तंत्र के बाकी संस्थाओं की तरह ही यह न्याय व्यवस्था खुद ही पितृसत्ता से लिपटी हुई है, यह जरा भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। कभी ‘आदर्श भारतीय महिला’ की विशेषता बताते हुए तो कभी औरतों की सिंदूर लगाना या न लगाने की छोटी सी चॉइस को ही शादी की प्रमाण घोषित करते हुए, कभी दर्ज बयान को ठीक से पढ़े जाने की मांग करने पर सर्वाइवर  और उसका साथ देने वालों को ही जेल भेज देने तक कोर्ट की असलियत को ढकने वाला मुखौटा नीचे सरक ही जाता है और उनका भद्दा महिला विरोधी चरित्र दिखने ही लगता है। जब बुद्धिजीवी और ‘न्याय’ करने वाले खुद ही इस तरह की मानसिकता में जकड़े होंगे तो इस समाज में किस तरह की सोच महिलाओं के प्रति होगी ये समझना मुश्किल बिल्कुल नहीं है।
अररिया रेप सर्वाइवर खुद को जेल भेजे जाने पर कहती हैं ‘हम अगर गरीब नहीं होते तो मेरी बात सुनी जाती ना ? हमारी आवाज तेज है शायद हम ऊंचा बोलते हैं। क्या मेरा ऊंचा बोलना गलत था?’ एक महिला का यह कहना निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट से बनी न्याय व्यवस्था को गरीब विरोधी, महिला विरोधी प्रमाणित कर देता है। कोरोना लॉकडाउन के दौरान महिलाओं पर बढ़ती हिंसा का राज भी इससे ही उजागर हो जाता है।
 
सभी चित्र -अनुप्रिया

Thursday 23 July 2020

वरवर राव इस देश की चेतना हैं - मनीष आज़ाद

समुद्र न भी हूं फिर भी
मैं स्वयं समुद्र की गर्जना हूं
समुद्र का मुख हूं।
.....तूफान से प्रेम करने वाला गीत हूं मैं
तूफान का संकेत हूं मैं। 
--वरवर राव

मुक्तिबोध ने 1964 में अपनी महत्वपूर्ण कविता 'अंधेरे में' लिखी। मुक्तिबोध की कविताओं में 'बेचैनी' मूल स्वर है। लेकिन यह बेचैनी यूं ही नही हैं, बल्कि मानव मुक्ति के रास्ते की तलाश की बेचैनी है। इसलिए सृजनात्मक बेचैनी है। 'मुझे पुकारती हुई पुकार कहीं खो गयी'- इस 'पुकार' को दुबारा ढूंढने की बेचैनी है। मुक्तिबोध को यह 'पुकार' नहीं मिली और 1964 में इसी बेचैनी में उनकी मृत्यु हो गयी। ठीक इसी समय तत्कालीन आन्ध्र प्रदेश में मुक्तिबोध जैसा ही एक और बेचैन युवा कवि आकार ले रहा था। उसका नाम था- 'पेन्द्याला वरवर राव'। लेकिन वरवर राव को मुक्तिबोध जितना नहीं भटकना पड़ा और उन्हें जल्द ही 'नक्सलबाड़ी की बसंत गर्जना' में अपनी 'पुकार' मिल गयी। और उनकी 'बेचैनी' 'गर्जना' में तब्दील हो गयी।  मुक्तिबोध का नया 'काव्य जन्म' हो गया।
दाहिनी तरफ़ युवा वरवर राव  
वरवर राव की रचनाओं का सच अपने समय के क्रान्तिकारी आन्दोलन के सच के साथ उसी तरह गुंथा हुआ है जैसे उपरोक्त कविता में समुद्र के साथ समुद्र की गर्जना गुथी हुई है। वरवर राव अपने समय के क्रान्तिकारी आन्दोलन की उसी तरह साहित्यिक अभिव्यक्ति हैं, जिस तरह श्रीकाकुलम क्रान्तिकारी आन्दोलन की साहित्यिक अभिव्यक्ति सुब्बाराव पाणिग्रही, बंगाल के नक्सलवादी आन्दोलन की साहित्यिक अभिव्यक्ति सरोज दत्त या तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष की साहित्यिक अभिव्यक्ति मखदूम मोउनुद्दीन थे।
भारत के बाहर जैसे लोर्का, काडवेल, राल्फ फाक्स आदि स्पेनिश गृह युद्ध में जनवाद के समर्थन में फासीवाद के खिलाफ संघर्षो से जुड़े थे, ठीक वैसे ही वरवर राव भी अपने समय के फासीवाद के खिलाफ चल रहे क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़े हुए है।
फ्रांस में 1968 के अभूतपूर्व छात्र आन्दोलनों और कुछ ही समय पहले फ्रांस के उपनिवेश अल्जीरिया में चल रहे सशस्त्र स्वतंत्रता आन्दोलन को अपना समर्थन देने के कारण 'ज्या पाल सात्र' को गिरफ्तार करने की मांग शासक वर्गो की तरफ से उठने लगी तो फ्रांस के तत्कालिन राष्ट्रपति 'चार्ल्स दि गाल' ने कहा कि सात्र फ्रांस की चेतना हैं और चेतना को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। ठीक इसी तरह वरवर राव भी भारत की चेतना हैं। और हमारी सरकार ने भारत की चेतना को कैद करने की बेवकूफ़ी भरी हरकत की है. वरवर राव की रिहाई की मांग के साथ इस चेतना का भी विस्तार हो गया है।

वरवर राव ने कहीं लिखा है- 'लेखक इस धरती का प्रथम नागरिक है।' हमारे लिए हमारे वरवर राव भारत के प्रथम नागरिक है। तुम्हारा प्रथम नागरिक राष्ट्रपति भवन या एंटीलिया में हजारों सेवकों के बीच ऐशो आराम में रहता है, जहां जनता के खिलाफ योजनाएं बनाई जाती है और उन पर सुनहरे दस्तखत किये जाते है। हमारा प्रथम नागरिक अकेले, अंधेरी कारा में पेशाब से लथपथ है। इसे नहीं सहा जा सकता। आज के आन्दोलन के मुहावरे में कहें तो 'सब याद रखा जायेगा और सबका हिसाब किया जायेगा।' वरवर राव के शब्दों में ही तुम्हें यह चेतावनी हैं-

                                    'मैंने बम नहीं बांटा था

                                    ना ही विचार

                                       तुमने ही रौंदा था

                                       चीटिंयों के बिल को

                                       नाल जड़े जूतों से

                               रौंदी गई धरती से, तब फूटी थी प्रतिहिंसा की धारा।'

वरवर राव हमारे लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योकि वे उस धारा के कवि हैं जो बुत में जान फूंकता है ना कि जीवन को बुत बनाता है- 'जीवन को बुत बनाना शिल्पकार का काम नहीं, पत्थर को जीवन देना उसका काम है।' वरवर राव का महत्व आज के इस फासीवादी दौर में और भी बढ़ जाता है जहां कवि पर अपनी ही कविता की हत्या करने का दबाव बढ़ता जा रहा है। याद कीजिए 'सुरजीत पातर' की वह कविता- 'तुम कवि हो या कविता के हत्यारे।' ऐसे ही कवियों को संबोधित करते हुए वरवर राव कहते हैं- 'मत हिचको ओ शब्दों के जादूगर, जो जैसा है वैसा कह दो, ताकि वह दिल को छू ले।'
वरवर राव की एक अन्य महत्वपूर्ण और बेहद प्रतीकात्मक कविता है- 'तिथियों को शहद के छत्ते की तरह हिलाइये, तो वे सच्चाई के डंक मारेंगी।' वरवर राव ने अपनी कविताओं, आलोचनाओं और जन वक्तव्यों में ना जाने कितनी ही महत्वपूर्ण तिथियों को शहद के छत्ते की तरह हिलाया और उन तिथियों के मिथिकीय आवरण को छीलकर लहूलुहान सच को सामने लाये। सच को जानना कोई निष्क्रिय क्रिया नहीं है। सच्चाई का डंक सहे बिना सच्चाई से साक्षात्कार संभव नही। ऐसी ही एक मिथकीय तिथि है- 15 अगस्त 1947 यानी 'आजादी' का दिन। भारत पाकिस्तान विभाजन के फलस्वरूप बही खून की नदियों, तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष को फौजी बूटों तले दबाने, एकीकरण के दौरान हैदराबाद व जम्मू में सुनियोजित मुस्लिम जनसंहार के बीच से ही यह तथाकथित आजादी का बोनसाई पौधा पनपा था और तब से लेकर आज तक यह अपना पोषण इस देश की मिट्टी से नहीं बल्कि क्रान्तिकारियों के खून और जनता के दमन से पा रहा है। वरवर राव अपनी कविता में शासक वर्ग को डांटते हुए कहते है- 'जनदमन को जनतंत्र कहते हो।' यदि सचमुच में जनतंत्र होता तो भारत की 'चेतना' को गिरफ्तार ही क्यों किया जाता।

वरवर राव सहित 11 लोगों को जिस तरह भीमाकोरेगांव के फर्जी केस में फंसाया गया है, उसके बारे में वरवर राव ने बहुत पहले ही एक अलग अंदाज में अपनी कविता में इस तरह बयां किया है- 'अगर मैं लिखूं तुम्हारी अनुपस्थिति में मेरा दिल फटता है, तो शायद वे कहें कि संसद को उड़ा देने का षडयत्र है यह, और मुझे आतंक वाले कानून में गिरफ्तार कर ले।' इसी से मिलती जुलती मुनव्वर राना की कविता याद आती है- 'उसने मुझे बलवाई समझा है, क्योकि मेरे घर के बर्तन पे आईएसआई लिखा है।'
मुक्तिबोध की एक कविता है- 'कविता में कहने की आदत नहीं, फिर भी कह दूं, यह समाज चल नहीं सकता, पूंजी से जुड़ा हदय बदल नहीं सकता।' वरवर राव ने भी अपनी कविताओं में उन कड़वी बातों को कहा हैं जिसे कहने की आम तौर पर कवियों की आदत नहीं रही। मुठभेड़ प्रेमी पुलिस के लिए यह लाइन वरवर राव ही लिख सकते हैं- 'इनकाउन्टर के खून से रोज नहाकर भी प्यासी रह जाने वाली पुलिस।' उनकी कविता 'सीधी बात' की यह पंक्ति देखिये- 'नक्सलबाड़ी का तीर खींचकर जब खड़े हो, मर्यादा में रहकर बोलना सम्भव नहीं।' इसी मर्यादा में रहने के कारण ही बहुत से कवियों की कविताएं नख दन्त विहीन हो जाती है। इस सन्दर्भ में धूमिल की 'पटकथा' में वह प्रसिद्ध पंक्ति याद कीजिए- 'हवा में मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढकी रहे।'
'लू शुन' जब फ्रांस में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, तभी उन्हें यह अहसास हुआ कि डाक्टर बनकर मैं ज्यादा से ज्यादा यही कर सकता हूं कि एक गुलाम को स्वस्थ गुलाम बना दूं। लेकिन सवाल तो गुलामी खत्म करने का है। इसके बाद वे मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर वापस चीन आ गये और चीन के तत्कालीन जनयुद्ध के साथ जुड़कर लेखन का कार्य करने लगे। माओ ने उन्हें सांस्कृतिक सेना के सेनापति की संज्ञा दी। वरवर राव भी लू शुन के उसी ऐतिहासिक काम को भारत में अंजाम दे रहे है। वे भारत की सांस्कृतिक सेना के सेनापति है। इस सेनापति की रिहाई हमारे लिए जीवन मरण का प्रश्न है।

'ख्वाजा अहमद अब्बास' ने 'मखदूम मोउनुद्दीन' के लिए कहा था- 'उनकी कविताओं में बारूद की गंध, और चमेली की सुगंध दोनो है।' यह बात वरवर राव की कविताओं के लिए कही अधिक सच है। आज जिस तानाशाह की कैद में वरवर राव हैं उसी तानाशाह की कैद में कविता के अन्य विषय पहाड़, नदी, फूल पत्तियां और खुशबू भी हैं। वरवर राव ने खुद लिखा है कि जब फूल, पत्तियों, नदियों, पहाड़ों पर तानाशाह का कब्जा हो जाता है तो क्या फूल, नदी, पहाड़ पर लिखना बिना तानाशाह पर लिखे सम्भव है? इसलिए आज वरवर राव को आजाद कराना फूल, पत्तियों नदी, पहाड़ों को आजाद कराना है।
आइये वरवर राव की रिहाई की आवाज को और तेज करे। उनकी कविताओं में मौजूद सपनों को जमीन पर उतारने का प्रयास और तेज करें।

Thursday 9 July 2020

आरक्षण खैरात नहीं वंचितों और शोषितों का हक है- रितेश विद्यार्थी


गत 11 जून 2020 को एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। तमिलनाडु के विभिन्न राजनीतिक दलों ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) के तहत मेडिकल साइंस में प्रवेश के लिए आयोजित किये जाने वाले NEET परीक्षा में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 50% आरक्षण की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक मुकदमा दायर किया था। इस मुकदमे की सुनवायी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एल नागेश्वर राव, कृष्ण मुरारी और एस रविन्द्र भाटिया ने कहा कि, "आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है, आप इस मुकदमे को लेकर मद्रास हाई कोर्ट जाएं।"

यह कोई पहला मामला नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कहा है। इसके पहले भी 7 फरवरी 2020 को उत्तराखंड सरकार के एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नागेश्वर राव, हेमंत गुप्ता व मनोज कुमार की पीठ ने कहा था कि राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। न तो नियुक्तियों में और न ही प्रमोशन में क्योंकि आरक्षण मूलभूत अधिकार नहीं है। वैसे तो आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख भारत का संविधान लागू होने के समय से ही आरक्षण विरोधी रहा है। लेकिन इधर मोदी के आने के बाद से यानी जब से देश में ब्राह्मणवादी फासीवाद और हमलावर हुआ है, न्यायपालिका भी खुल कर मनुपालिका की मुद्रा में आ गयी है।

आरक्षण भारत की राजनीति के सबसे विवादित विषयों में से एक है। आरक्षण को समझने के लिए आइये एक नजर भारत के इतिहास पर डालते हैं। भारतीय समाज हजारों वर्षों से वर्ण और जाति के आधार पर बंटा हुआ है। सदियों से चले आ रहे ऊंच- नीच पर आधारित ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के अभ्यास के परिणामस्वरूप भारत अनेक जातियों और उपजातियों में विभाजित होता गया। परंपरागत रूप से चली आ रही जाति व्यवस्था में निचली जातियों के साथ घोर उत्पीड़न और असमानता का व्यवहार हुआ है। शिक्षा और संपत्ति के अधिकार सहित उनके विभिन्न तरह के अधिकारों को कुचला गया है। मनु स्मृति जैसे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जाति एक "वर्णाश्रम धर्म"  है। यानी सभी जातियों और वर्णों के लिए कुछ खास तरह के काम निर्धारित कर दिए गए हैं। कोई भी वर्ण या जाति अपने लिए निर्धारित सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकती। मनुस्मृति ने शूद्रों और अतिशूद्रों को शिक्षा, संपत्ति और शस्त्र तीनों के अधिकार से वंचित रखा।  शिक्षा प्राप्त करने की वजह से एक आदिवासी युवा धनुर्धर एकलव्य का अंगूठा काट लिया गया। एक दलित संबुक की हत्या कर दी गयी। सूत पुत्र होने की वजह से महान धनुर्धर कर्ण को अपमानित किया गया। जाति आधारित अन्याय के इस तरह के हजारों उदाहरण हमारे इतिहास और वर्तमान में मौजूद हैं। साथ ही साथ चार्वाकों, बौद्धों, सिद्धों, नाथों, कबीर और रैदास के वर्ण व्यवस्था विरोधी आंदोलनों का भी हमारे देश में एक लंबा इतिहास है।

16 वीं शताब्दी में भारत में व्यापार के लिए अंग्रेजों का आगमन हुआ। प्लासी के युद्ध 1757 से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 तक अंग्रेजों ने पूरी तरह भारत पर अपना शासन व नियंत्रण स्थापित कर लिया। 1857 से 1947 तक भारतीय समाज पूरी तरह औपनिवेशिक दासता में जकड़ा हुआ एक ब्राह्मणवादी अर्धसामंती समाज था। पूरी 19वीं और 20वीं सदी अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद व ब्राह्मणवादी सामंतवाद से मुक्ति के लिए चल रहे संघर्ष की सदी थी। एक ओर जहाँ पूरा देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति चाहता था वहीं इस देश की बहुसंख्यक आबादी हजारों वर्षों से चली आ रही जातिव्यवस्था और सामंतवाद से भी मुक्ति चाहती थी।  जातिव्यवस्था विरोधी आंदोलन भी 19 वीं शताब्दी में जोर पकड़ने लगे, खासकर महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में। पेरियार, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब अम्बेडकर, छत्रपति साहूजी महाराज और अन्य आंदोलनकारियों ने पिछड़े वर्गों की स्थिति में सुधार के लिए और जातिव्यवस्था के खात्मे के लिए अथक प्रयास किया। विश्व के पैमाने पर भी अगर देखें तो पूरी 19वीं और 20वीं सदी सामंतवाद और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों की सदी है। इस सदी में यूरोप के तमाम देश स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के नारे के साथ अपने देश व समाज के जनवादीकरण के लिए संघर्षरत थे।

अगर हमें भारत की वर्तमान स्थिति को समझना है, भारत में आरक्षण की व्यवस्था को समझना है तो हमें भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को भी समझना होगा। 1947 में आज़ादी के नाम पर हुए सत्ता के स्थानांतरण को समझना होगा। स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्षरत जनता की यह आकांक्षा थी कि आजादी के बाद एक ऐसे भारत का निर्माण होगा, जहाँ सब कुछ सबके लिए होगा। जाति, धर्म, लिंग और भाषा के आधार पर किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं होगा। जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया जाएगा और देश में क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू होगा। लेकिन जैसा कि भगत सिंह ने 1930 में ही यह कहा था कि गोरे अंग्रेज़ चले जाएं और काले अंग्रेज़ गद्दी पर बैठ जाएं तो इससे आज़ादी नहीं आने वाली है। हुआ भी यही ब्रिटिश पार्लियामेंट में पास सत्ता हस्तानांतरण अधिनियम के तहत अंग्रेजों ने सत्ता अपने दलालों के हाथ में सौंप दी। न तो पूरी तरह से देश को साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति मिली और न ही ब्राह्मणवादी सामंतवाद से। आज़ादी, बराबरी और न्याय की बातें एक छलावा साबित हुईं।

गांधी, नेहरू और पटेल ने एक साजिश के तहत उन बाबा साहेब अंबेडकर को संविधान सभा में शामिल कर लिया जिनके बारे में पटेल ने कभी कहा था कि, "आम्बेडकर के लिए संविधान सभा के दरवाजे तो क्या, खिड़कियां तो क्या, रौशनदान तक बंद हैं।" आंबेडकर को संविधान सभा में इसलिए शामिल किया गया ताकि दलितों और वंचितों का भरोसा उस संविधान सभा पर बना रहे। अम्बेडकर को सामंतों, रजवाड़ों और दलाल पूंजीपतियों से खचाखच भरी संविधान सभा में प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। जिसके लिए बाद के वर्षों में अम्बेडकर को बार- बार यह बोलना पड़ा कि मुझे भाड़े के लेखक के तौर पर इस्तेमाल किया गया।

स्वतंत्रता आंदोलन की आकांक्षाओं और डॉ. अम्बेडकर के अथक प्रयासों के फलस्वरूप संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। आज सुप्रीम कोर्ट यह कह रहा है कि आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है। आरक्षण पर अपनी बात रखते हुए बाबा साहेब अम्बेडकर ने यह कहा था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से पिछड़े रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसीलिए राष्ट्र-निर्माण के लिए यह जरूरी है कि सरकार शिक्षण संस्थाओं व सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उसकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दे ताकि भारतीय समाज के मुख्य धारा में वो अपना उचित स्थान प्राप्त कर सकें और तमाम संस्थाओं में उनका समुचित प्रतिनिधित्व हो सके। बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया। विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गों (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्गों को राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 में अधिसूचना जारी की गयी थी। यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है। इससे पहले ज्योतिबा फुले ने 1882 में अंग्रेजों द्वारा गठित हंटर आयोग के समक्ष नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की थी।
अब आइये आरक्षण के सैद्धांतिक आधार पर बात करते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के आकांक्षाओं और अंतराष्ट्रीय परिस्थितियों के दबाव में भारत के संविधान में समानता के अधिकार को मौलिक अधिकार के बतौर शामिल किया गया। समानता का वास्तविक मतलब ये होता है कि समान व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा। समानता का मतलब ये कत्तई नहीं होता कि असमान व्यक्तियों के साथ भी समान व्यवहार किया जाएगा। समानता के अधिकार का मतलब ये है कि समाज के कमजोर तबकों के लिए कुछ विशेष अवसर के प्रबंध किए जाएंगे। इस देश में दलित, पिछड़े और महिलाएं वो वर्ग हैं जो सदियों से जमीन, प्राकृतिक संसाधन, शिक्षा और सम्मान से वंचित हैं। उनको उच्च वर्गों के बराबर लाने के लिए व  सभी क्षेत्रों में उनके न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

यह बात जरूर है कि आरक्षण सीधे तौर पर मौलिक अधिकार नहीं है। परंतु बराबरी का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। आरक्षण का सिद्धांत सभी समुदायों के उचित प्रतिनिधित्व की बात करता है जिससे वंचित और पिछड़ी जातियों को बराबरी के स्तर तक लाया जा सके। ताकि वो खुद को एक बराबर का नागरिक और सम्मानित इंसान महसूस कर सकें।

संविधान का अनुच्छेद 46 जो कि नीति निर्देशक सिद्धांत में शामिल है वह पिछड़े वर्गों और समुदायों मुख्य रूप से एस सी- एस टी पर विशेष ध्यान देने की बात करता है। सुप्रीम कोर्ट भी अब यह मानती है कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धान्त दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। बराबरी का अधिकार मूल अधिकार है। और बराबरी हो ही तब सकती है जब दबे कुचलों को विशेष प्रबंध द्वारा ऊपर लाया जाए। इस तरह आरक्षण एक मौलिक अधिकार बन जाता है। सच्चाई तो यह है कि आरक्षण तो अब वैसे ही अर्थहीन होता जा रहा है। क्योंकि आरक्षण सिर्फ सरकारी क्षेत्र में है और मात्र एक प्रतिशत ही सरकारी नौकरियां हैं। वो भी तेजी से होते निजीकरण के दौर में कब तक और कितनी बची रहेंगी कह पाना मुश्किल है।
अगर देश की तमाम संस्थाओं में तथाकथित उच्च जातियों की एक मात्र जाति ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व देखें तो वो लगभग इस प्रकार है- लोकसभा में 48%, राज्यसभा में 36%, गवर्नर 50%, सेंट्रल गवर्नमेंट में 57%, राज्य सरकारों में 80%, बैंक में 51%, टीवी-रेडियों में 83%, सेक्रेटरी 54%, वीसी 51%, सुप्रीम कोर्ट में 60%। जबकि देश मे ब्राह्मणों की कुल आबादी मात्र 3% है। अब आप बाकियों के प्रतिनिधित्व का अंदाजा लगा सकते हैं।

आरक्षण की बात आते ही समाज का एक सुविधा सम्पन्न तबका मेरिट का रोना रोने लगता है। अशोक कुमार गुप्ता वर्सेज स्टेट ऑफ यूपी 1977 के एक मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट भी यह कहता है कि "मेरिट और एफिशिएंसी पूरी तरह एक आर्यन विचारधारा है। ताकि उनकी सत्ता व  एकाधिकार बना रहे।" मेरिट की बात तब होनी चाहिए जब सबकी परवरिश समान सुविधाओं में और समान तरीके से हो। जिनके साथ जाति के आधार पर हजारों साल अन्याय हुआ है। उन्हें विशेष अवसर दिए बगैर समाज में कभी भी बराबरी और न्याय स्थापित नहीं हो सकता। पूना पैक्ट, संविधान सभा से लेकर अब तक आरक्षण सामाजिक आधार पर दिया गया है और ऐतिहासिक तौर पर हुए अन्यायों के लिए दिया गया है। आरक्षण समानता के सिद्धांत का ही विस्तार है। इस तरह आरक्षण एक मौलिक अधिकार है।