गत 11 जून 2020 को एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। तमिलनाडु के विभिन्न राजनीतिक दलों ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) के तहत मेडिकल साइंस में प्रवेश के लिए आयोजित किये जाने वाले NEET परीक्षा में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 50% आरक्षण की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक मुकदमा दायर किया था। इस मुकदमे की सुनवायी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एल नागेश्वर राव, कृष्ण मुरारी और एस रविन्द्र भाटिया ने कहा कि, "आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है, आप इस मुकदमे को लेकर मद्रास हाई कोर्ट जाएं।"
यह कोई पहला मामला नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कहा है। इसके पहले भी 7 फरवरी 2020 को उत्तराखंड सरकार के एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नागेश्वर राव, हेमंत गुप्ता व मनोज कुमार की पीठ ने कहा था कि राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। न तो नियुक्तियों में और न ही प्रमोशन में क्योंकि आरक्षण मूलभूत अधिकार नहीं है। वैसे तो आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख भारत का संविधान लागू होने के समय से ही आरक्षण विरोधी रहा है। लेकिन इधर मोदी के आने के बाद से यानी जब से देश में ब्राह्मणवादी फासीवाद और हमलावर हुआ है, न्यायपालिका भी खुल कर मनुपालिका की मुद्रा में आ गयी है।
16 वीं शताब्दी में भारत में व्यापार के लिए अंग्रेजों का आगमन हुआ। प्लासी के युद्ध 1757 से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 तक अंग्रेजों ने पूरी तरह भारत पर अपना शासन व नियंत्रण स्थापित कर लिया। 1857 से 1947 तक भारतीय समाज पूरी तरह औपनिवेशिक दासता में जकड़ा हुआ एक ब्राह्मणवादी अर्धसामंती समाज था। पूरी 19वीं और 20वीं सदी अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद व ब्राह्मणवादी सामंतवाद से मुक्ति के लिए चल रहे संघर्ष की सदी थी। एक ओर जहाँ पूरा देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति चाहता था वहीं इस देश की बहुसंख्यक आबादी हजारों वर्षों से चली आ रही जातिव्यवस्था और सामंतवाद से भी मुक्ति चाहती थी। जातिव्यवस्था विरोधी आंदोलन भी 19 वीं शताब्दी में जोर पकड़ने लगे, खासकर महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में। पेरियार, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब अम्बेडकर, छत्रपति साहूजी महाराज और अन्य आंदोलनकारियों ने पिछड़े वर्गों की स्थिति में सुधार के लिए और जातिव्यवस्था के खात्मे के लिए अथक प्रयास किया। विश्व के पैमाने पर भी अगर देखें तो पूरी 19वीं और 20वीं सदी सामंतवाद और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों की सदी है। इस सदी में यूरोप के तमाम देश स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के नारे के साथ अपने देश व समाज के जनवादीकरण के लिए संघर्षरत थे।
अगर हमें भारत की वर्तमान स्थिति को समझना है, भारत में आरक्षण की व्यवस्था को समझना है तो हमें भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को भी समझना होगा। 1947 में आज़ादी के नाम पर हुए सत्ता के स्थानांतरण को समझना होगा। स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्षरत जनता की यह आकांक्षा थी कि आजादी के बाद एक ऐसे भारत का निर्माण होगा, जहाँ सब कुछ सबके लिए होगा। जाति, धर्म, लिंग और भाषा के आधार पर किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं होगा। जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया जाएगा और देश में क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू होगा। लेकिन जैसा कि भगत सिंह ने 1930 में ही यह कहा था कि गोरे अंग्रेज़ चले जाएं और काले अंग्रेज़ गद्दी पर बैठ जाएं तो इससे आज़ादी नहीं आने वाली है। हुआ भी यही ब्रिटिश पार्लियामेंट में पास सत्ता हस्तानांतरण अधिनियम के तहत अंग्रेजों ने सत्ता अपने दलालों के हाथ में सौंप दी। न तो पूरी तरह से देश को साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति मिली और न ही ब्राह्मणवादी सामंतवाद से। आज़ादी, बराबरी और न्याय की बातें एक छलावा साबित हुईं।
गांधी, नेहरू और पटेल ने एक साजिश के तहत उन बाबा साहेब अंबेडकर को संविधान सभा में शामिल कर लिया जिनके बारे में पटेल ने कभी कहा था कि, "आम्बेडकर के लिए संविधान सभा के दरवाजे तो क्या, खिड़कियां तो क्या, रौशनदान तक बंद हैं।" आंबेडकर को संविधान सभा में इसलिए शामिल किया गया ताकि दलितों और वंचितों का भरोसा उस संविधान सभा पर बना रहे। अम्बेडकर को सामंतों, रजवाड़ों और दलाल पूंजीपतियों से खचाखच भरी संविधान सभा में प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। जिसके लिए बाद के वर्षों में अम्बेडकर को बार- बार यह बोलना पड़ा कि मुझे भाड़े के लेखक के तौर पर इस्तेमाल किया गया।
स्वतंत्रता आंदोलन की आकांक्षाओं और डॉ. अम्बेडकर के अथक प्रयासों के फलस्वरूप संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। आज सुप्रीम कोर्ट यह कह रहा है कि आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है। आरक्षण पर अपनी बात रखते हुए बाबा साहेब अम्बेडकर ने यह कहा था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से पिछड़े रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसीलिए राष्ट्र-निर्माण के लिए यह जरूरी है कि सरकार शिक्षण संस्थाओं व सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उसकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दे ताकि भारतीय समाज के मुख्य धारा में वो अपना उचित स्थान प्राप्त कर सकें और तमाम संस्थाओं में उनका समुचित प्रतिनिधित्व हो सके। बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया। विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गों (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्गों को राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 में अधिसूचना जारी की गयी थी। यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है। इससे पहले ज्योतिबा फुले ने 1882 में अंग्रेजों द्वारा गठित हंटर आयोग के समक्ष नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की थी।
अब आइये आरक्षण के सैद्धांतिक आधार पर बात करते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के आकांक्षाओं और अंतराष्ट्रीय परिस्थितियों के दबाव में भारत के संविधान में समानता के अधिकार को मौलिक अधिकार के बतौर शामिल किया गया। समानता का वास्तविक मतलब ये होता है कि समान व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा। समानता का मतलब ये कत्तई नहीं होता कि असमान व्यक्तियों के साथ भी समान व्यवहार किया जाएगा। समानता के अधिकार का मतलब ये है कि समाज के कमजोर तबकों के लिए कुछ विशेष अवसर के प्रबंध किए जाएंगे। इस देश में दलित, पिछड़े और महिलाएं वो वर्ग हैं जो सदियों से जमीन, प्राकृतिक संसाधन, शिक्षा और सम्मान से वंचित हैं। उनको उच्च वर्गों के बराबर लाने के लिए व सभी क्षेत्रों में उनके न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
यह बात जरूर है कि आरक्षण सीधे तौर पर मौलिक अधिकार नहीं है। परंतु बराबरी का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। आरक्षण का सिद्धांत सभी समुदायों के उचित प्रतिनिधित्व की बात करता है जिससे वंचित और पिछड़ी जातियों को बराबरी के स्तर तक लाया जा सके। ताकि वो खुद को एक बराबर का नागरिक और सम्मानित इंसान महसूस कर सकें।
संविधान का अनुच्छेद 46 जो कि नीति निर्देशक सिद्धांत में शामिल है वह पिछड़े वर्गों और समुदायों मुख्य रूप से एस सी- एस टी पर विशेष ध्यान देने की बात करता है। सुप्रीम कोर्ट भी अब यह मानती है कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धान्त दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। बराबरी का अधिकार मूल अधिकार है। और बराबरी हो ही तब सकती है जब दबे कुचलों को विशेष प्रबंध द्वारा ऊपर लाया जाए। इस तरह आरक्षण एक मौलिक अधिकार बन जाता है। सच्चाई तो यह है कि आरक्षण तो अब वैसे ही अर्थहीन होता जा रहा है। क्योंकि आरक्षण सिर्फ सरकारी क्षेत्र में है और मात्र एक प्रतिशत ही सरकारी नौकरियां हैं। वो भी तेजी से होते निजीकरण के दौर में कब तक और कितनी बची रहेंगी कह पाना मुश्किल है।
अगर देश की तमाम संस्थाओं में तथाकथित उच्च जातियों की एक मात्र जाति ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व देखें तो वो लगभग इस प्रकार है- लोकसभा में 48%, राज्यसभा में 36%, गवर्नर 50%, सेंट्रल गवर्नमेंट में 57%, राज्य सरकारों में 80%, बैंक में 51%, टीवी-रेडियों में 83%, सेक्रेटरी 54%, वीसी 51%, सुप्रीम कोर्ट में 60%। जबकि देश मे ब्राह्मणों की कुल आबादी मात्र 3% है। अब आप बाकियों के प्रतिनिधित्व का अंदाजा लगा सकते हैं।
आरक्षण की बात आते ही समाज का एक सुविधा सम्पन्न तबका मेरिट का रोना रोने लगता है। अशोक कुमार गुप्ता वर्सेज स्टेट ऑफ यूपी 1977 के एक मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट भी यह कहता है कि "मेरिट और एफिशिएंसी पूरी तरह एक आर्यन विचारधारा है। ताकि उनकी सत्ता व एकाधिकार बना रहे।" मेरिट की बात तब होनी चाहिए जब सबकी परवरिश समान सुविधाओं में और समान तरीके से हो। जिनके साथ जाति के आधार पर हजारों साल अन्याय हुआ है। उन्हें विशेष अवसर दिए बगैर समाज में कभी भी बराबरी और न्याय स्थापित नहीं हो सकता। पूना पैक्ट, संविधान सभा से लेकर अब तक आरक्षण सामाजिक आधार पर दिया गया है और ऐतिहासिक तौर पर हुए अन्यायों के लिए दिया गया है। आरक्षण समानता के सिद्धांत का ही विस्तार है। इस तरह आरक्षण एक मौलिक अधिकार है।
बहुत बढ़िया लेख 👍
ReplyDeleteकॉमरेड रितेश जी एक रोना और रोया जाता है जो सवाल सोनू ने पूछा था एक लेख में उसका भी उत्तर दे दीजिये