Sunday, 28 June 2020

जाॅर्ज फ्लाॅयड की हत्या और हालिया अमरीकी जन विक्षोभ- तुहिन देब


 गत 25 मई को ऐसी घटना घटी जिसने वैश्विक स्तर पर कोरोना के आंतक सेे आतंकित विश्व को झकझोर दिया। 25 मई को अमरीका के मिनियापोलिस शहर में अश्वेत अमरीकी नागरिक जाॅर्ज फ्लाॅयड को पुलिस हिरासत में मार डाला गया था। फ्लाॅयड पर नकली बिल के जरिए भुगतान करने का आरोप था। हत्या के वीडियो के वायरल होने के बाद अमेरिका की जनता में जबरदस्त नाराजगी फैली। इस वीडियो में डेरेक शाॅविन नामक श्वेत पुलिस अधिकारी, जाॅर्ज फ्लाॅयड की गर्दन पर घुटना टेककर उसे दबाता हुआ दिखता है जिससे जाॅर्ज की मौत हो जाती है। जाॅर्ज, पुलिस अधिकारी से ‘‘आई कान्ट ब्रिद’’ कहकर उसे छोड़ने की अपील करते हैं लेकिन, पुलिस अधिकारी पर इसका कोई असर नहीं होता। वह घुटने से दबाकर 46 वर्षीय जाॅर्ज फ्लाॅयड को मार डालता है। विडियो को दुनिया भर के लोगों ने देखा।
जाॅर्ज की गर्दन पर घुटना दबाकर मारने वाले पुलिस अधिकारी डेरेक शाॅविन को गिरफ्तार कर लिया गया है और उस पर हत्या के आरोप लगाए गए हैं। इस घटना के संबंध में अब तक 4 पुलिसकर्मियों को बर्खास्त किया जा चुका है। घटना के बाद अमेरिका के 75 से अधिक शहरों में जनविक्षोभ फुट पड़ा। गोरे-काले मिश्रित जनता नस्लवाद के खिलाफ उदारवादी, शांतिवादी विचारधारा से प्रभावित जनता ने ‘‘ब्लैक लाइव्स मैटर’’, ‘नस्लवाद अमेरिका की महामारी है’ ‘‘पुलिसी कु्ररता खत्म करो’’ और ‘‘निर्दोषांे की हत्या बंद करो’’ जैसे नारे लिखी हुई तख्तियाॅं और बैनर लेकर लाखों-लाख लोग न्यूयार्क सहित तमाम शहरों की सड़कों पर प्रतिरोध में उतर आए। न्यूयाॅंर्क सिटी के मेयर बिल डी ब्लासियो भी प्रदर्शन में शामिल हुए। प्रदर्शन मे शामिल लोग जाॅर्ज फ्लाॅयर्ड के लिए न्याय की मांग करते हुए प्रदर्शन कर रहे हैं। इसी तारतम्य में पुलिस कु्ररता और पूंजीवादी सामाजिक दमन के खिलाफ अमेरिका, ब्रिटेन, डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, न्यूजीलैण्ड, आॅस्ट्रेलिया और कनाडा समेत दुनिया के कई देशों में जागरूक जनता लाॅक डाउन के बावजूद जबरदस्त प्रदर्शन कर रही हैं। ब्रिटेन मे जनता के प्रदर्शन के दौरान 18वी शताब्दी के एक दास व्यापारी एडवर्ड कोलस्टन की मूर्ति को ध्वस्त कर दिया है।
इधर अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय व्हाइट हाउस के बाहर प्रदर्शनकारियों को जबरन हटाने के कारण अमेरिका की संघीय अदालत में राष्ट्रपति ट्रम्प के खिलाफ अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन (एसीएलयू) और ‘ब्लैक लाईव्स मैटर’ ने मुकदमा दायर किया है। हयूस्टन के पुलिस प्रमुख ने ट्रंप को अनावश्यक बोल कर विवाद पैदा न करने की नसीहत दी है। अमेरिका के पूर्व विदेशमंत्री काॅलिन पावेल ने भी राष्ट्रपति ट्रम्प के नस्लभेद विरोधी प्रदर्शनों से निपटने के तरीके की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने संविधान से हटकर काम किया है। नेशनल गार्ड के अधिकारियों ने कहा है कि हमारे पास एक संविधान है और हमें उस संविधान का पालन करना है। इधर अमेरिका में नस्लभेद विरोधी, पुलिस अत्याचार विरोधी, सामाजिक न्याय के लिए हो रहे जंगी प्रदर्शन के दरम्यान फिर एक अश्वेत नागरिक पुलिस जुल्म का शिकार हो गया जब अटलांटा में 12 जून को वैंडी रेस्टोरेंट की पार्किंग में अश्वेत रेशार्ट बु्रक्स को पुलिस अधिकारी जैरेट रोल्फ ने शरीर के पिछले हिस्से में 2 गोली मारकर हत्या कर दी। बु्रक्स की हत्या ने जाॅर्ज फ्लाॅयड की हत्या से उपजे आग को और भड़का दिया है।
जाॅर्ज फ्लाॅयड का जन्म अमेरिका के नाॅर्थ कैरोलिना में हुआ था और उन्होंने ह्यूस्टन में अपने जीवन का लम्बा वक्त गुजारा था। नस्लभेद और पुलिस बर्बरता के खिलाफ देशव्यापी जंगी प्रदर्शनों के बीच ह्यूस्टन में जाॅर्ज फ्लाॅयड का अंतिम संस्कार किया गया। इस दौरान 6000 से अधिक लोग उन्हें अंतिम विदाई देने और श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा हुए थे। पेशेवर मुक्केबाज फ्लाॅयड मेवेदर ने जाॅर्ज के अंतिम संस्कार का पूरा खर्च उठाया।
आंदोलन का चरित्र जंगी और पंूजीवादी व्यवस्था विरोधी हो गया। बड़े स्तर पर तोड़फोड़ हुई और जनता की पुलिस से झड़प की घटनाएं भी सामने आई। आंदोलन इतना विशाल हो गया कि जनता ने वाशिंगटन में राष्ट्रपति निवास व्हाईट हाउस पर धावा बोल दिया और दुनिया के साम्राज्यवादियों के सरगना ट्रम्प को बंकर में शरण लेनी पड़ी। अमरीकी साम्राज्यवाद को इस आंदोलन ने हिलाकर रख दिया है और जनता की ताकत का शानदार नमूना पेश किया है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस आंदोलन के लिए जनता को दोष दे रहे हैं और अप्रत्यक्ष रूप से नस्लवाद का समर्थन करते हुए दिख रहे हैं। उन्होंने पहले तो विरोध प्रदर्शन के दमन के लिए नेशनल गार्ड को तैनात किया फिर इस कदम के खिलाफ उठ रहे प्रबल विरोध को देखते हुए वाशिंगटन डी.सी. से नेशनल गार्ड की वापसी का आदेश दिया। दूसरी ओर हम देखते हैं कि मिनियापोलिस शहर के पुलिस कर्मियों ने  घुटनों के बल बैठ कर सार्वजनिक रूप से जनता से इस कृत्य के लिए माफी मांगा। इस बात की हम भारत देश में कल्पना भी नहीं कर सकते। अमेरिका के मिनियापोलिस शहर की नगर परिषद ने बहुमत के साथ स्थानीय पुलिस विभाग को खत्म करने का संकल्प लिया है। उनका कहना है कि शहर में नागरिक सुरक्षा का नया माॅडल बनाया जायेगा।

‘‘आई कांट ब्रीद’’ (मैं सांस नहीं ले पा रहा हॅूं) यह वाक्य पहले भी कई बार कहा जा चुका है-2014 में न्यूयार्क सिटी के एक कोने में एक निहत्थे अश्वेत एरिक गार्नर की हत्या के बाद छतों पर से और राष्ट्रीय बास्केटबाॅल संघ (एनबीए) के खिलाड़ियों की जर्सियों पर लिखा हुआ था। मिस्टर गार्नर की मौत पर ढेरों कवरेज के बाद भी, जैसा होता रहा है, इस घटना के पश्चात कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। पिछले दशक में अमेरिका ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के चक्र में फंसता ही चला गया है जिसमें ज्यादातर घटनाओं में निहत्थे अश्वेत लोग पुलिस द्वारा मारे गये और जिनकी संख्या बढ़ती ही चली गई है। इनमें उन हत्यारों के खिलाफ कोई विशेष कार्यवाही नहीं हुई और वे वर्दी के पीछे छिपकर आराम से घूमते रहे।
दशकों से अफ्रीकी-अमेरिकन अपने पास-पड़ोस में पुलिस के दुव्र्यवहार की शिकायतें करते रहे हैं। इस स्थिति में ज्यादातर अमेरिकीयों ने उपेक्षा ही की, चाहे उनके अस्तित्व को उन्होंने पूरी तरह से इनकार नहीं किया हो। स्मार्ट फोन व तकनीकी विकास ने लोगों को उनकी अपनी आंखों से पुलिसिया ताकत के दुरूपयोग की सच्चाइयों को देखने का मौका दिया। जार्ज फ्लाॅयड की हत्या से उपेक्षा का यह गुब्बारा पूरी तरह फूट गया। डेरेक शाॅविन द्वारा फ्लाॅयड की गर्दन को अपने घुटने से 8 मिनट तक दबाए रखने के इस विडियों में अधिक चिंताजनक बात यह है कि मानों इतना ही पर्याप्त नहीं था और एक या दो नहीं बल्कि तीन अधिकारी वहाॅं मौजूद थे। कोई कार्यवाही करने की बजाय वे मूर्ति बनकर खड़े रहे जब फ्लाॅयड जान की भीख मांग रहा था तथा मदद की गुहार लगा रहा था।
ऐसे समय में मौन काफी कुछ कहता है, और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मौन से अधिक मुखर किसी की चुप्पी नहीं है। मुक्त विश्व के नेता के जरिए एक टिवटर पेज से व्यथित कर देने वाले कंटेंट का प्रसार होता है। एक कहता है- सचमुच महान काम की रिपोर्ट। प्रेसिडेंट ट्रम्प आप जोरदार चल रहे हैं (बचकाना लेकिन सत्य) ! कोई और कहता है-‘यह तो जबरदस्त जाॅब रिपोर्ट है।’ जब देश दंगों की भेंट चढ़ जाता है, उसका नेता दूसरी तरफ देखने लगता है। फ्लाॅयड की मौत पर कुछ क्षणभंगुर टिप्पणियों और देशव्यापी विरोध के दौरान कुछ प्रदर्शनकारियों द्वारा किये गये नुकसान की आलोचना करते हुए मूल प्रश्न की पूर्णतः उपेक्षा कर दी गई एक व्यवस्थित रंगभेद व चुप्पी के सवालों का जवाब देने की बजाये ट्रम्प ने प्रदर्रूान के तरीकों पर अपना फोकस बनाये रखने को तय किया। न कि वे उसके कारणों पर गये। उन्होंने अमेरिकी पुलिस की समस्या को स्वीकार करने की बजाये कुछ टूटी खिड़कियों का दुखड़ा रोया। ट्रम्प आक्रामक बनते रहे हैं। निर्धारित व्यवहार की सीमाओं को लांघते रहने वाले एक राष्ट्रपति के लिए सटीक कार्यवाही करना इस पद की प्रमुख जिम्मेदारी हैं। संकट की इस घड़ी में जनता अपने नेताओं की ओर देखती है। संवाददाताओं और सरकारी अधिकारियों के लिए गुस्सा और ताकत का बढ़कर प्रदर्शन रंगभेद के अवसर पर कहीं भी दिखाई नहीं दिया, जो ऐसा विषय है जिस पर दुनिया का सबसे वाचाल व्यक्ति सर्वाधिक मौन रहा है। न्याय मांगती लाखों नाराज आवाजों के बीच ट्रम्प कहीं भी नहीं पाए गए।

जब प्रदर्शनकारी व्हाईट हाउस के सामने पहुंचकर उनकी उपस्थिति की मांग करने लगे तो ऐसा लगा जैसे ट्रम्प राष्ट्र को विचलित कर देने वाले इन मुद्दों से टक्कर लेंगे। इसकी बजाये वे छिप गए। विशेषकर एक ऐसे सुरक्षित बंकर में जो व्हाइट हाउस के तलघर में बना हुआ है। जो ट्रम्प खुद की मार्केटिंग शक्तिशाली नेता के रूप में करते रहे हैं, उनके द्वारा कायरता के इस खुले प्रदर्शन से उनकी चुनावी लोकप्रियता अचानक घटी है। प्रदर्शनकारी आने वाले 2020 के चुनाव में अपनी नापसंदगी अपनी पीठों पर जाहिर कर चुके हैं। कुछ हफ्ते पहले यहां तक कि कोविड-19 की महामारी के बीच ट्रम्प पुनर्निवाचन में जीत के तगड़े दावेदार थे। अब उनके और उनके विरोधी जो बिडेन के स्थानों की अदला-बदली हो गई है। क्योंकि एक अमेरिकन ब्राॅडकास्टिंग कंपनी (एबीसी) के अनुसार चुनाव में बिडेन को ट्रम्प पर 8 अंकों की बढ़त मिल गई है। गणना करने वाले कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि अब बिडेन ही पहली पसंद है। हालंाकि बिडेन भी केन्द्रीय आवाज नहीं बन पाये हैं या कहा जाये कि उन्होंने आंदोलन के दौरान आवाज तक नहीं उठाई।
दास प्रथा का खात्मा चाहे डेढ़ सौ साल पहले हो गया हो परंतु उसके विषाणु दुनिया में वैसे ही मौजूद है जिस प्रकार भारत में छुआछुत संवैधानिक तौर पर खत्म तो कर दिया गया है। लेकिन हिंसक जाति व्यवस्था वाले भारतीय समाज में वह अब भी व्याप्त है। सामाजिक व धार्मिक रूप से श्रेष्ठी भाव रखने वाला व विशेषाधिकारों से सज्जित वर्ग इन कानूनी प्रावधानों को नहीं मानता, वैसे ही अनेक गोरों में अश्वेतों के प्रति नफरत का भाव अंतर्मन मंे बना हुआ है। यह जहर रह-रहकर सामने आता है। सड़कों से लेकर राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय मंचों तक अक्सर नस्लीय या रंगभेदवाची टिप्पणियां सामने आती है।
भारत में हर साल क्रिकेट टूर्नामेंट आईपीएल बहुत लोकप्रिय हो चला है। इसमें खिलाड़ियों की अच्छी फीस पर अपने क्लब के लिए अनुबंधित किया जाता है। क्रिकेट खेलने वाले लगभग सभी देशों के खिलाड़ी भारतीयों के साथ मिल जुलकर इसमें खेलते हैं क्रिकेट की ही तरह नस्लीय भेदभाव व रंगभेद का उदय व प्रसार उन्हीं अंगे्रजों की देन है जो या तो यूरोप में रह गये अथवा अमेरिका जाकर बस गये। बहरहाल अगर हम सोचते हो कि एक साथ क्रिकेट या विभिन्न खेल खेलने से नस्लीय भेदभाव कम हुआ होगा। तो ऐसा नहीं है। वेस्टइंडीज के खिलाड़ी डेरेन सैमी हैदराबाद सनराईजर्स की ओर से खेलते रहे हैं। उन्होंने जाॅर्ज फ्लाॅयड की मौत पर उठे तूफान के बीच में बताया है कि जब वे भारत में खेलते थे तो उनका और श्रीलंका के तिसारा परेरा का ‘कालू’ कहकर मजाक उड़ाया जाता था। कैशियस क्ले से मुस्लिम बने मुहम्मद अली सर्वकालिक महान बाॅक्सर थे जिन्होंने तीन बार के हैवीवेट चैंपियन जो फ्रेजियर को आज भी ‘सुपर फाईट’ के नाम से याद किये जाने वाले 1971 के मुकाबले में हराया था। अली ने विश्व चैंपियन का मैडल नस्लवादी टिप्पणी से क्षुब्ध होकर नदी में फेंक दिया था। मोहम्मद अली वो जांबाज अमरीकी प्रतिरोध के प्रतीक थे। जिन्होंने अमरीका द्वारा वियतनाम पर बर्बर आक्रमण के दौरान वियतनाम जाकर सेना की ओर से लड़ने के लिए मना कर दिया था। 
    नस्लीय भेदभाव बहुआयामी है। दास प्रथा के दौरान इसका संबंध जहांॅं सामाजिक या उत्पादन शक्ति में इस्तेमाल तक सीमित था, वहीं कालांतर व हाल के वर्षों में उसका संबंध पूंजीवाद और नवउपनिवेदशवाद से जुड़ता नजर आता है। दास प्रथा के उन्मूलन के बाद पिछले लगभग सौ बरसों में अमेरिका में अश्वेत अस्मिता न सिर्फ जागृत हुई है बल्कि विभिन्न मानवीय गतिविधियों में भी वे खूब आगे बढ़े हंेै। विशेषकर साहित्य, संगीत, खेल आदि में। अनेक एशियाई खासकर भारतीय उपमहाद्वीप, चीनी, लातिन अमेरिकी व अफ्रीकी भी वहां बसे हैं। वे जब अपने परिश्रम व प्रतिभा के बल पर अमेरिकियांें से टक्कर लेने लगे, तो इस मुद्दे का राजनीतिकरण वैसा ही होने लगा जिस प्रकार भारत में सांप्रदायिकता, जातिवाद, प्रांतवाद व भाषावाद का होता है। प्रथम विश्वयुद्ध के दरमियान गदरी क्रांतिकारियों की स्मृति मंे भी हम पाते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में भारत के पंजाब से गये प्रवासी मजदूरों को अमरीका व कनाडा में खूनी प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा था। अभी अमेरिका को डोनाल्ड ट्रम्प के रूप में ऐसा शासक मिला है जो नस्लवाद और साम्राज्यवाद को भरपूर बढ़ा रहा है। जिस प्रकार भारत में अनेक तरह के भेदभाव को प्रोत्साहित कर उनका राजनैतिक फायदा उठाया जा रहा है। अमेरिका के संदर्भ में यह अच्छी बात है कि उस देश के साथ ही दुनिया भर में खासकर यूरोप में नस्लवाद का जबर्दस्त विरोध हो रहा है। पिछले साल चार अश्वेत महिला सीनेटरों ने भी ट्रम्प की इस प्रवृत्ति का विरोध किया था। भारत में गैरबराबरी विरोधी आवाज कमजोर है, क्योंकि राजनैतिक प्रतिपक्ष अधोगति को प्राप्त हो चुका है, तो जनता ने इसके भावी परिणामों की चिंता किये बगैर इसे स्वीकृत कर लिया है। हमारे शासकों के लिए सांप्रदायिक वा जातिवादी धु्रवीकरण ही चुनाव जीतने की कुंजी है।
वेस्टइंडीज के प्रसिद्ध पेसर माईकल होल्डिंग का यह कहना सही है कि क्रिकेट फुटबाॅल के मैदानों में जो नस्लीय टिप्पणियां करते हैं वे इसी समाज से आते हैं। इसलिए आवश्यक है कि नस्लवाद से पीड़ित यह समाज ही खत्म कर ऐसा समाज रचा जाये जो इनसे ऊपर हो।’
आज जो लोगों का गुस्सा फूट रहा है वो सिर्फ एक घटना की बात नहीं है। हमें याद रखना होगा कि अमेरिका बना ही है अफ्रीकी अमरिकीयों की दासता के बल पर 1492 में कोलम्बस द्वारा अमरीकी महाद्वीप के खोजे जाने के बाद उत्तर और दक्षिण अमेरिका के मूल निवासी - माया. एजटेक, इन्का सरीखे कितने ही जनजातीय समुदाय जिन्हें रेड इंडियन कहा गया का निर्मम रूप से सफाया कर यूरोपीयन उपनिवेशवादियों ने अपनी लूट और विनाश की दुनिया बसाई। उस समय ब्रिटीश, फ्रांसीसी, डच, डेनिश, पुर्तगाली, व स्पेनिश उपनिवेशवादियो ने गुलामो के व्यापार को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। गुलामो के व्यापार से यूरोपीयन उपनिवेशवादी समृद्धि के शिखर पर पहुंचे। सबसे ज्यादा गुलाम अफ्रीकी महादेश के थे जिन्हें नयी अमरीका बसाने के लिए बड़ी संख्या में भीषण दमन उत्पीड़न के जरिये यूरोपीयन उपनिवेशवादी, जहाजों में भर-भर कर अमरीका लाते थे। उनमें से कई सारे तो भूखे-प्यासे, दम घुंटकर या भीषण अत्याचार से अमरीका के जहाजों में खोल में ही मर जाते थे। जो बच जाते थे वे अमरीका के श्वेत जालिम अमीरों के खेतों-खलिहानों, जंगलों, खदानों में अमानवीय परिस्थिति में पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम बनने के लिए अभिशप्त थे।

    ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ आजाद अमरीका के निर्माण के लिए जाॅर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में लेक्सिंगटन से शुरू होकर साराटोगा तक जो लम्बा मुक्ति युद्ध चला उसमें भी दासप्रथा के उन्मूलन की मांग उठी थी। अब्राहम लिंकन के समय दक्षिण के दासप्रथा समर्थक राज्यों के खिलाफ लड़ा गया गृह युद्ध और दासप्रथा का खात्मा ऐतिहासिक धटना थी। अमेरिकी गृहयुद्ध के बाद पहली बार 19 जून 1865 को टेक्सास राज्य में दासों को मुक्त करने की घोषणा की गई थी। इसे जूनटीन्थ कहा जाता है। अमेरिकी संविधान के 13वें अधिनियम के जरिए दासप्रथा का अधिकारिक रूप से खात्मा तो हुआ लेकिन उसमें यह कहा गया कि ‘‘कोई भी व्यक्ति दास नहीं है जब तक वो जेल में न हो।’’ इस चीज का फायदा उठाकर अफ्रीकी अमरीकी लोगों को छोटे-छोटे जुर्मों के जेलों में डाला गया जो आज भी बदस्तुर जारी है। कई बार तो बिना सुनवाई के ही लम्बे समय तक जेल में रहने को मजबूर किया गया। यहां तक कि कई नियम अफ्रीकी अमरीकी लोगों की निशाना बनाने के लिए बनाए गए। जेल के अश्वेत कैदियों से बिना मजदूरी के या सस्ते में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए काम करवाया जाता है। इससे इजारेदार कंपनियों को बहुत फायदा होता है। कई टीकों, दवाओं, गर्भनिरोधकों का अवैध परीक्षण बहुराष्ट्रीय कंपनियाॅं प्रशासन की मिलीभगत से, जेलों में बंद अश्वेतों पर करती हंै।

    दासप्रथा के उन्मूलन के खिलाफ अमेरिका के दक्षिण के राज्य के कुलीन जमींदार वर्ग दासप्रथा व रंगभेद नीति के कट्टर समर्थक रहे हैं। उन्होंने अश्वेतों पर भीषण अत्याचार ढाने के लिए आतंकवादी दल क्लू-क्लक्स-क्लान का गठन किया था। पुराने किस्म की बंदूक में गोली चलाते समय/घोड़ा दबाते समय क्लू-क्लक्स-क्लान की ध्वनि सुनाई देती है। पिछले 200 वर्षों से क्लू-क्लक्स-क्लान अफ्रीकी अमरीकीयों पर हर तरीके से जुल्म ढाते आ रहा है। जिसमें अश्वेतों को दौड़ा-दौड़ा कर, समूह में पीट-पीट कर या धारदार हथियार से घांेप घोंप कर मारने (माॅब लिचिंग) जैसे जघन्य अपराध शामिल हंै। पिछले 6 वर्षो से हमारे देश में संघीय काॅर्पोरेट फासिस्टों के राज में मुलसमानों व दलितों के खात्मे के लिए माॅब लिचिंग का तरीका संघ परिवार ने अपने मार्गदर्शक अमेरीका से ही सीखा है।
    जैसे-जैसे अमरीका में पूंजीवादी साम्राज्यवादी नीतियां परवान चढ़ती रही वैसे-वैसे अश्वेतों के खिलाफ नफरत, भेदभाव व हिंसक घटनाएं बढ़ती रही। क्लू-क्लक्स-क्लान की नस्लभेदी सोच अमरीकी प्रशासन एवं पंूजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंदर तक घर कर गई है। नस्ल भेद/रंग भेद के खिलाफ आंदोलन के दौरान बसों में अश्वेतों पर लगी पाबंदियों के खिलाफ रोजा पाक्र्स और 60-70 के दशक में अश्वेतों के लिए समानाधिकार के पक्ष में न्याय के लिए लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर, मेलकम एक्स, एंजेलो डेविस और ब्लैक पैंथर आंदोलन (जिनके प्रभाव से भारत में दलितों का दलित पैंथर आंदोलन उभरा) मील के पत्थर माने जाते हैं। इन प्रतिवादियों की पहल से अश्वेतों को कई अधिकार मिले उनके दुःख को आक्रोश में बदलने की आवाज मिली।
    इसी अफ्रीकन अमेरिकन समुदाय ने अपने श्रम उत्पादन मेहनत से अमेरिका को बसाया, विकसित अमेरिका बनाया। अमेरिका ने साबित कर दिया कि कोरोना से खतरनाक है नस्लवाद और पंूजीवाद। असल में पूंजीवाद ही नस्लवाद व सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है। हमारे भारत में भी क्रांतिकारी जनवादी तबकों ने 4 जून को नस्लीय हिंसा, न्याय के पक्ष में व असमानता के खिलाफ अमरीकी जनता के साथ एकजूटता प्रदर्शित किया। लेकिन विडंबना यह है कि देवताओं की भूमि कहे जाने वाले भारत में हर रोज जाॅर्ज फ्लायड जैसे दलित, गुजरात के उना से लेकर उ.प्र. के जौनपुर तक हिंसक जाति व्यवस्था की श्रेष्ठता के नाम पर प्रताड़ित किये जाते हैं व मार डाले जाते हैं। भारत में जाॅर्ज फ्लायड को मूंछ रखने पर, घोड़ी पर चढ़ने पर, बुलेट मोटरसाइकल खरीदने पर, उंचा मकान बनाने पर, उच्च शिक्षा हासिल करने पर, अच्छे कपड़े पहनने पर, अंतरजातीय विवाह करने पर, डांडिया नाच देखने के नाम पर, गौ रक्षा के नाम पर, मंदिर को अपवित्र करने में नाम पर ब्राम्हणवाद/मनुवाद अपने पैरों से उनकी गर्दन दबाकर हत्या कर देता है।
    जाॅर्ज फ्लाॅयड के लिए न्याय का आंदोलन जो ‘‘काले भी इंसान हैं उनका जीवन भी अत्यंत महत्वपूर्ण है’’ कि भावना से ओतप्रोत अमरीकी जनता में इस अभूतपूर्व विक्षोभ जो कि आॅक्यूपाई वाल स्ट्रीट व न्याय व शांति के लिए मार्टिन लूथर किंग के एतिहासिक मार्च से भी अधिक ताकतवर है ने अमरीका में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहने दिया है। अमरीकी संघीय प्रशासन व राज्यों के प्रशासन, पुलिस प्रणाली में सुधार करने के बारे में गहराई से सोच रहे है। न्यूयार्क पुलिस विभाग ने अपने नस्लीय पूर्वाग्रहों के लिए बदनाम अपराध विरोधी इकाई को भंग करने का निर्णय लिया है। न्यूयार्क पुलिस विभाग ने अपने पुलिस बजट में कटौती करने की घोषणा की है। अश्वेत फिल्म निर्माता-निर्देशक व लेखकों ने मनोरंजन उद्योग में व्याप्त नस्लीय पूर्वाग्रह को दूर करने का प्रस्ताव रखा है। भूतपूर्व हैवीवेट बाॅक्सिंग चैंपियन मोहम्मद अली (कैशियस क्ले) से लेकर प्रथम अश्वेत विम्बलडन चैंपियन आर्थर ऐश से बास्केटबाॅल किंवदंती रह चुके माईकल जाॅर्डन तक रंगभेद की यंत्रणा झेल चुके क्रीड़ा उद्योग से भी यही मांग उठी है।
    अमरीका के मीडिया घरानों के न्यूज रूम में पसरे नस्लभेद व भेदभाव पर भी गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। न्यूजर्सी के एटाॅर्नी जनरल गुरबीर गे्रवाल ने सभी कानून व्यवस्था का पालन करने वाली एजेंसियों को निर्देशित किया है कि वे गंभीर अनुशासनहीनता और जनता का दमन करने वाले पुलिस अधिकारियों की सूची बनाएं। अमरीका जैसे एक पंूजीवादी जनवादी समाज व भारत जैसे एक नवउपनिदेशिक दासता वाले समाज की चेतना में कितना फर्क है।
    अमरीका से शुरू हुआ जन विद्रोह जो ‘हमारी गर्दन से हाथ हटाओ, ‘नस्लवाद ही अमरीका का असल पाप है’ नारों को बुलंद कर रहा है, पूरे विश्व में पंूजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के लिए चुनौती पैदा कर रहा है। जैसा कि कुछ विचारकों ने बताने का प्रयास किया है कि यह अश्वेतों का अश्वेतों के लिए आंदोलन है, लेकिन इसे गलत साबित कर कोरोना के सर्वदेशीय महामारी के प्रकोप के दरम्यान अमरीका की मेेहनतकश वा उत्पीड़ित जनता ने बर्बर अमरीकी पंूजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ जंग का आगाज किया है एक बेहतर समतावादी नए अमरीकी समाज के लिए। क्या अमरीका में क्रांति होगी और देश समाजवाद की ओर आगे बढ़ेगा ? माक्र्सवाद-लेनिनवाद यही सिखाता है कि एक मजबूत क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के बिना जनविक्षोभ को क्रांति में बदलना असंभव है। मिस्र समेत मध्यपूर्व के कई देशों में शासन व्यवस्था विरोधी वसंत विद्रोह के बावजूद साम्राज्यवाद ने वहां शासकों को बदलकर विद्रोह को ठंडा कर दिया। लेकिन आज की तारीख में यह बात तो हमारे मन में क्रांतिकारी आशावाद का जन्म देती ही है कि दुनिया की जनता का दुश्मन नंबर एक साम्राज्यवादी ताकतों का सरगना अमरीकी में जब जनता अन्याय-अत्याचार के खिलाफ उठकर निजाम को हिला सकती है तो अमरीकी साम्राज्यवाद के जूनियर पार्टनर घोर सांप्रदायिक नस्लवादी भगवा फासिस्ट राज को उखाड़ फेंकने के लिए यहां भी जनता का सैलाब एक दिन जरूर सड़कों पर उमड़ पड़ेगा।

सभी चित्र- सरिता पांडेय से साभार

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