Monday 1 March 2021

आन्दोलन भी हमारा हक है- हरिन्दर बिन्दु [साक्षात्कार]

 

 
किसान आन्दोलन में महिलाओं की सबसे बड़ी उपस्थिति बीकेयू उग्राहा संगठन के झण्डे तले है। इनका नेतृत्व कर रही हैं संगठन की सूबा प्रधान हरिन्दर बिन्दु। महिलाओं ने इस आन्दोलन तक आने के लिए किस तरह से अपनी मानसिक और शारीरिक तैयारी की, यहां उनकी क्या भूमिका है, और किसान आन्दोलन में महिलाओं की उपस्थिति को महिलायें कैसे देख रही हैं इस बारे में दस्तक ने उनसे 30 जनवरी को लम्बी बातचीत की, यहां उस लम्बी बात का सम्पादित अंश दिया जा रहा है। पंजाबी में दिये गये इस रिकार्डेड साक्षात्कार का हिन्दी लिप्यान्तरण किया हैभगतसिंह छात्र एकता मंचके रविन्दर ने।

सीमा आज़ादः पंजाब में औरतों का आन्दोलन बहुत मजबूत नहीं रहा है, ऐसे में आपके संगठन में इतने बड़े स्तर पर औरतों की भागीदारी कैसे हो सकी?

हरिन्दर बिन्दुःभारतीय किसान यूनियन (एकता) उग्राहाके कार्यक्रम में यह मौजूद है कि महिलाओं को समान रूप से आगे लेकर आना है और उसके लिए हम विशेष रुप से कोशिश करते आए हैं। जैसे कि पिछले समय में हमने जो संघर्ष लड़े, कर्ज के खिलाफ, किसानों की आत्महत्या के खिलाफ, सफेद मक्खी के कारण फसल खराब होने पर मुआवजे के लिए, कुर्की के खिलाफ, उन संघर्षों के अंदर महिलाओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी को लाया गया। पहले समय में भी महिलाएं इन संघर्षों में शामिल होती रही हैं, चाहे वह अब के मुकाबले कम गिनती ही क्यों ना हो, परंतु वह शामिल रहती थी। पंजाब में महिलाओं पर होते अत्याचार के खिलाफ संघर्षों में भी महिलाओं की बड़ी भागीदारी रही है। जैसे कि पिछले समय में फरीद कोट में श्रुति कांड हुआ था जिसमें गुंडे उस लड़की को उसके मां-बाप से जबरदस्ती छीनकर ले गए थे, उसको इंसाफ दिलाने के लिए और वापस घर लाने के लिए एक संघर्ष लड़ा गया, जिसमें महिलाएं बड़ी संख्या में शामिल हुई। इस समाज के अंदर महिलाएं दोहरी गुलामी का शिकार हैं। एक सामाजिक गुलामी जो औरत और मर्द दोनों ही झेलते हैं और दूसरी पितृसत्तात्मक गुलामी जो औरत सहती है। इसी कारण से महिलाओं को संगठित होने की और अपने हकों के प्रति जागृत होने की बहुत ज्यादा जरूरत है। जितनी देर वह जागरूक नहीं होंगी, वह अपने हकों के लिए नहीं लड़ पाएंगी। महिलाओं का जमाती संघर्षों में हिस्सा लेना उनको इसके प्रति जागरूक करेगा। इसीलिए हमने गरीब किसानी और मजदूर वर्ग के अंदर काम शुरू किया और हमारे साथ जितनी महिलाएं हैं वह ज्यादातर कम पढ़े-लिखे वर्ग से हैं। इसी कारण से हम उनको जो भी नीतियां, जैसे कि हमारे सरकारी स्कूल क्यों छीने गए, अस्पताल क्यों छीने गए, ट्रांसपोर्ट क्यों छीनी गई, बिजली बोर्ड क्यों छीनी गई, इनका प्राइवेटाइजेशन क्यों हुआ, इन सब सरकारी क्षेत्रों को क्यों बेचा जा रहा है? इससे हमारी हालत बुरी होगी, बिजली महंगी होगी, इलाज महंगा होगा, बच्चों की पढ़ाई महंगी होगी, रोजगार आगे नहीं मिलेगा, इन सबके प्रति हम लगातार जागरुक करते रहे हैं। खेती सेक्टर के अंदर लागत खर्चा ज्यादा है, जैसे कि बीज खरीदना महंगा है खाद्य और कीटनाशक महंगे है, जो मशीनरी है वह महंगी है परंतु जो हम फसल पैदा करते हैं उसका कोई मूल्य नहीं मिलता है। उसको व्यापारी, आढ़ती और एजेंसिया कौड़ियों के भाव खरीदती हैं। सरकारी मूल्य नही मिलता है,  लगातार हमें गेहूं बेचने के लिए भी लड़ना पड़ता है, धान बेचने के लिए भी लड़ना पड़ता है, रेल रोकनी पड़ती है। इन सब चीजों की चेतना के बारे में हम महिलाओं को जागरूक करते रहे हैं। 2012 में हमने महिलाओं का एक अलग संगठन बनाया था। फिर हमने गांव के अंदर कमेटियां बनाई, फिर ब्लॉक कमेटी बनाई और जिला कमेटी भी तैयार की, फिर उसके बाद हमने बठिंडा जिले में हमने काम को शुरू किया और लगातार जारी रखा। महिलाओं को समान रूप से आगे लाने के लिए जागरूक करने की कोशिश करते रहे। महिलाओं का पढ़ने-लिखने का अधिकार, रोजगार का अधिकार ,समानता का अधिकार ,महिलाओं के साथ मर्दों द्वारा घरेलू ूमारपीट को रोकना, दान-दहेज रोकना, इन सब को साथ-साथ हम बताते रहे।

5 जून 2020 को यह ऑर्डिनेंस जारी किए गए, जिस पर बुद्धिजीवियों पत्रकारों और अर्थशास्त्रियों ने लिखा कि यह देश विरोधी और जनविरोधी है, यह एक देश एक मंडी करना चाहते हैं इसी कारण से इसका असर बहुत बुरा होने वाला है। इसी के चलते फिर हमने जून महीने से लगातार लोगों को संगठित किया उन लोगों में हमने यह बातें रखीं उनको बताया कि अगर यह कानून लागू होते हैं फिर यह जो हमारे पास जमीन है यह सब खत्म हो जाएंगी, जो हमारी बेटे और बेटियों की भांति पाली-पोसी फसलें हैं, जिस पर सारी जिंदगी का गुजारा करते हैं, वह कौडियों़ के भाव बिकेगी और जब हम उसको वापस खरीदेंगे वह बहुत महंगी मिलेगी, यह बहुत बड़े स्तर पर लूट है। यह जमीन का मामला है ,रोजी रोटी का मामला है हमसे हमारी रोटी छीनी जा रही है, यह बात हम घर-घर तक लेकर गए, महिलाओं को बताई, नौजवान लड़कियों को बताई, नौजवान लड़कों को बताई, गांव के अंदर इसी को लेकर फिर हमने अर्थियां जलाई, मजारे (प्रदर्शन) किए, ढोल मार्च की, जागो मार्च निकाली, हर एक इंसान को इसमें शामिल किया। हमने बड़े स्तर पर यह मुहिम छेड़ी। इसमें फिर हमने पहले ट्रैक्टर मार्च किया, फिर हमने गांवों के अंदर धरना प्रदर्शन किया, गांव की चौपाल में धरने लगाकर बैठे। 25 तारीख से लेकर 29 तारीख तक हमने यह धरना प्रदर्शन किया और लगातार ही इसमें लोगों की संख्या बढ़ती रही। 25 से 29 के बीच महिलाओं की संख्या 25 से 30,000 तक पहुंच गई। जिनमें से बहुत सारी महिलाओं ने बोलना शुरू किया ,वक्ता बनी ,गीत गाने लगी और मोदी सरकार को कोसने लगी। इसके बाद से लगातार यह संख्या बढ़ती चली गई। महिलाओं को आते देख नौजवानी भी आने लगी। बहुत सारे परिवार इस मोर्चे के अंदर शामिल हुए। फिर हमने यह बादल और कैप्टन के गांव में लगाने शुरू किए। वहां पर भी महिलाएं अपने परिवारों के साथ आती थी वहां पर रहती भी थीं। महिलाओं की गिनती लगातार बढ़ती चली गई। उसके बाद हमने दशहरे वाले दिन रावण की जगह पर मोदी, साम्राज्यवादी कंपनियों, कॉरपोरेट घरानों के पुतले जलाए। यहजो प्रोग्राम गांवों और शहरों में हुआ इसमें लगभग 25 हजार के करीब महिलाओं ने अपनी भागीदारी दर्ज की। इसी के चलते महिलाएं लगातार संगठित होती चली गई। जब अकाली दल ने बीजेपी से अपना नाता तोड़ लिया और जो पहले किसानों के विरोध में थे वह किसानों के हक में मार्च करने लगे, वहीं पर कैप्टन अमरिंदर सिंह, जिसने पहले कहा था कि 5 लोगों से ज्यादा किसी को इकट्ठा होने नहीं दिया जाएगा, उन पर केस दर्ज किए जा रहे थे और चालान काटे जा रहे थे उसकी भी बोलती लोगों ने बन्द करवा दी।  इसी तरह कई रैलियां हुई। जो 32 किसान संगठन है वह भी इस आंदोलन का हिस्सा थे।संयुक्त किसान मोर्चाबनने से पहले जो किसान संगठनों की सांझी मीटिंग हुई उस मीटिंग में हमने भी यह रखा, कि यह जो लड़ाई है उसकी दिशा कॉर्पोरेट घरानों और मोदी सरकार की ओर करनी चाहिए। जिसके चलते हमें टोल प्लाजा, अदानी और अंबानी के मॉल, स्टोर ,गोडाउन, रिलाइंस और म्ैै।त् के पेट्रोल पंप और इन के थर्मल वगैरह का घेराव करना चाहिए। उसके अंदर भी महिलाएं बड़ी संख्या में शामिल होती रही। महिलाओं के अंदर यह चेतना भी स्थापित हुई कि उनका इस आंदोलन का हिस्सा बनना बहुत जरूरी है। बीजेपी हुकूमत को जो यह लगता था, कि अब तो धान की फसल गई है, अब तो यह आंदोलन छोड़ देंगे और धरने प्रदर्शन होने बंद हो जाएंगे और इनकी बात कौन ही सुनेगा, और इनकी बात को क्या ही तवज्जो दिया जाएगा। परंतु इस धान की फसल के समय पर महिलाओं ने इस मोर्चे को संभाला और महिलाओं ने हजारों की संख्या में टोल प्लाजा पर ,मॉल पर, गोडाउनों पर, वनावाली थर्मल, राजपुरा थर्मल पर धरना लगाया। और बड़ी गिनती में महिलाएं अपने घर से बाहर निकली। इसी तरह जब भारत बंद का बुलावा आया कि 4 घंटे के लिए सब जाम करना है, उस समय केवल उग्राहा संगठन की करीबन 30, 000 महिलाएं और बाकी दूसरे संगठनों से भी महिलाएं उसमें शामिल हुई। उसके बाद हमारा 26 नवंबर को दिल्ली आने का प्रोग्राम था। दिल्ली जाने के लिए फिर हमने गांवों के अंदर तैयारी शुरू की। जहां-जहां पर हमारे मोर्चे लगे हुए थे वहां पर भी हमदिल्ली चलोका बुलावा देते थे। हमारे दिल्ली आने का मकसद यह भी था, कि हमें और भी राज्य जैसे कि हरियाणा ,राजस्थान और अन्य स्टेट्स को भी जागरूक करना है। इस आंदोलन को पूरे भारत का आंदोलन बनाना है ना कि सिर्फ पंजाब का। और यह भी हमने लोगों में रखा कि महिलाओं का ेइसमें ज्यादा से ज्यादा संख्या में हिस्सेदारी लेनी चाहिए। इसी के चलते फिर हमने केवल महिलाओं के मजारे आयोजित किए। 21, 22 और 23, यह 3 दिन हमने यह मजारे आयोजित किए ,जिसमें 11 बजे से लेकर 3 बजे तक महिलाएं यह मजारे करती थीं। जिसमें हजारों की संख्या में महिलाएं शामिल हुई। दिन में ढोल-मजारे हुआ करते थे और रात को नौजवानों के मशाल मार्च होते थे। इनमें 26 नवंबर कोदिल्ली चलोके नारों के साथ दिल्ली जाने का बुलावा दिया जाता था। जो राशन गावों से इकट्ठा किया गया वह महिलाओं के द्वारा ही किया गया। ट्रैक्टर के पीछे ट्रॉली डाल कर हाथों में बाल्टियां और गट्टे (बोरियाँ) लेकर आटा ,चावल, चीनी ,चायपत्ती, अचार ,दालें, गुड़, यह सब महिलाओं ने इकट्ठा किया। 6-6 महीने का राशन एक-एक गांव से इकट्ठा किया गया, क्योंकि यह सिर्फ चार दिनों का धरना नहीं है अगर हमें 6 महीने भी बैठना पड़ा तो हम बैठेंगे। 23 तारीख तक हमारे यह धरने चले, राशन इकट्ठा किया गया, लकड़िया काटी गई ,गर्म कपड़े, रजाइयां, कंबल, इन सब की तैयारी की गई जिसके अंदर महिलाओं ने बहुत बड़ा योगदान दिया। 26 नवंबर को हमारे खनोरी और डबवाली के मोर्चों पर हजारों की संख्या में महिलाएं पहुंची। वहां पर आगे नाकाबन्दी लगाई गई थी, जिसे तोड़ कर ही हम आगे बढ़ सकते थे। 27 नवंबर को जब हम यह नाकाबन्दी को तोड़कर आगे बढ़े तो खरौली और डबवाली दोनों ही जगहों से महिलाएं हमारे साथ आई। 5 से 10 हजार की संख्या में महिलाएं हमारे साथ आई थी। अभी भी 2 महीनों से ऊपर हो चुका है, परंतु औरतें वापस नहीं जा रही है, वह यहीं पर डटी हुई है। महिलाएं यहां पर बोलती है और मर्दों के मुकाबले ज्यादा दम के साथ बोलती है। आज उनके परिवार को, अपने बच्चों के भविष्य को और अपने आपको बचाने की लड़ाई है, और महिलाओं ने अपना वर्चस्व, लड़ने के बाद ही स्थापित किया है और अपनी जगह बनाई है। जब हम घर में ाम करते हैं वहां पर हमारी कोई कदर नहीं होती, हम सुबह 4 बजे जाग जाती हैं और रात के 11 बजे सोती हैं परंतु वहां पर कभी औरत के काम को काम नहीं माना जाता और हमें यह बोला जाता है कि इनको क्या ही काम है, यह तो खाली रहती है। इस आंदोलन में महिलाएं जिस तरीके से डटी हुई हैं और जिस जोर से वह इस आंदोलन में आई है उन्होंने पूरी दुनिया में अपनी एक जगह स्थापित की है, कि महिलाएं भी मर्दों से कम नहीं है, महिलाएं मर्दों से आगे होकर लड़ती हैं।

सीमा आज़ादः जस्टिस बोबडे ने महिलाओं के लिए बोला है कि वे यहां क्या करने आई हैं उसके बारें में क्या कहना चाहेंगी?

हरिंदर बिंदुः हमने यह दुनिया भर को दिखा दिया और इस सरकार की कुर्सी भी हिला डाली है। इस आंदोलन में बड़ी गिनती में महिलाएं हैं, बुजुर्ग महिलाएं हैं, नौजवान लड़कियां हैं और छोटे-छोटे बच्चे भी है। औरतें अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी लेकर आई हैं। इसी के चलते केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि महिलाओं को वापस घर भेजा जाए और बच्चों को भी घर भेजा जाए। परंतु जब एक महिला इतनी पीड़ा सहकर एक बच्चा पैदा कर सकती है, बहुत सारे दुख उठाकर अपने परिवार को पाल सकती है, जब उसका पति खुदकुशी कर जाता है और वह मुश्किल क्षणों में भी अपने बच्चों को पाल सकती है, तो फिर इस आंदोलन में क्यों नहीं लड़ सकती? हम हमेशा से लड़ी हैं और यह हमारा बुनियादी और लोकतांत्रिक हक भी है। इस अधिकार को ना तो कोई सुप्रीम कोर्ट रद्द कर सकता है ना ही कोई केंद्र सरकार रद्द कर सकती है। यह हमारा हक है और हम इसके लिए खड़े हैं। जैसे वह बोल रहे हैं कि इन सबको तो मर्द धक्के से ले आए हैं और यहां पर बंधुआ बनाई हुई हैं ,जबरदस्ती रखा हुआ है। हम यहां पर किसी की जबरदस्ती पर नहीं आयीं है, महिलाएं यहां पर आंदोलन की अगुवाई भी करती हैं। हम महिलाओं को संगठित करके लायीं हैं। हमारी 90 साल की महिला जब बाइट देती है, जिसको कभी यह भी नहीं पता था, कि अध्यादेश क्या है, वह जब यह बोलती है कि यह तीन अध्यादेश, जो मोदी ने पास किए हैं और फिर कानून बनाए हैं यह वो वापस कर ले, हम चले जाएंगे। अनपढ़ महिला भी इन कानूनों की समीक्षा करती हैं। मोदी और उसकी बीजेपी सरकार यह बोलती है हमें तो किसानों की आमदनी दो गुनी करनी है, हम किसान हितैषी हैं और हम किसानों का भला सोचते हैं। इस बात का हमारे छोटे बच्चे-बच्चियां भी जवाब देते हुए बताते हैं कि यह कानून किस तरह खेती विरोधी हैं। परंतु इनके (बीजेपी) मंत्रियों को तो इनके (कानून) नाम भी नहीं पता है। परंतु हम तो हर एक कानून के बारे में बताते हैं कि यह हमारी क्या हालत कर देगा। अगर कानून लागू होंगे तो औरतों पर अत्याचार बढ़ेगा, बलात्कार बढ़ेंगे, उनकी हालत बंधुआ मजदूरों से बुरी हो जाएगी, जो हमारी बच्चियों को हम पढ़ा पा रहे हैं और नौकरी के काबिल बना पा रहे हैं वह नहीं हो पाएगा। जो आज हम रोटी खाते हैं और लोगों के लिए लंगर लगाते हैं जब हमारे पास ही कुछ खाने को नहीं रह जाएगा तो हम लोगों के लिए कैसे लंगर लगाएंगे? इसी कारण से हमने महिलाओं को संगठित किया है, हम यहां से कहीं नहीं जाएंगे और यह लड़ाई जीतकर ही जाएंगे, चाहे हम पर गोली चले, चाहे हम पर लाठी चले,चाहे हमको जेलों में डाल दें ,चाहे यूएपीए लगा दे, चाहे जो मर्जी कर दे मोदी। जब नागरिकता संशोधन कानून आया, और उसके बाद जब मुस्लिम भाईचारा सड़कों पर उतर आया, खासतौर पर महिलाएं बाहर आई, उस समय भी मोदी सरकार ने यह कहा कियह तो हिंदुओं के लिए खतरा है और यह पाकिस्तान की एजेंट हैं।वहां पर आरएसएस के गुंडे भेजे, पाकिस्तान के नारे लगवाए उनका आंदोलन को कुचला, उसके बाद उन पर गोलियां चलवायी, उनका कत्ल करवाया। जो आंदोलनकारी थे उनके ऊपर यूएपीए लगाकर जेलों में डाला और अभी भी डाल रहे हैं। ऐसा ही हम पर भी किया, जब 26 जनवरी को हमें ट्रैक्टर मार्च करना था, तो हमें कभी भी लाल किले पर नहीं जाना था, ना ही कोई संसद का घेराव करना था, ना कोई उनकी परेड में अड़चन पैदा करनी थी। हमारा मकसद यह था कि एक तरफ बीजेपी सरकार जश्न मना रही है शाइनिंग इंडिया के गीत गा रही है परंतु दूसरी तरफ जो असली भारत है,  कीर्ति लोगों का (कमेंरोंका) भारत, दबे कुचले लोगों का भारत, जहां खुदकुशी है, जहां बलात्कार है ,जहां आज भी दलितों के कत्ल किए जा रहे हैं। यह हमारे देश की हालत है इसी की तस्वीर दिखाना चाहते थे।

सीमा आज़ादः 26 जनवरी की घटना का महिलाओं की संख्या पर क्या कोई असर पड़ा है?

हरिन्दर बिन्दुः आने वाले दिनों में महिलाएं बड़ी गिनती में अपने परिवारों के साथ यहां रही हैं। पंजाब ,हरियाणा ,यूपी सब जगह से महिलाएं रही हैं। यह हमें बोलते थे कि घर वापस जाओ, पर महिलाएं घरबार छोड़कर यहां पर रहीहै।

सीमा आज़ादः इस आन्दोलन का महिलाओं की और पुरूषों की भी, राजनीतिक चेतना पर क्या असर पड़ा है?

हरिन्दर बिन्दुः हमारी पढ़ाई-लिखाई किसी काम की नहीं है अगर हम इस प्रबन्ध यानि सिस्टम को नहीं समझ पा रहे। इस प्रबंध को हमारे इस आंदोलन में हमारी महिलाएं चाहे कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ है, उनके अंदर इस व्यवस्था को लेकर चेतना है। इस चेतना से उनके अंदर से धर्म की कट्टरता भी खत्म होती है और वह सभी धर्मों का सम्मान करती हैं। वह हाथ जोड़कर हक मांगने के रास्ते को ठुकराते हुए अपने हकों के लिए संघर्ष करने का रास्ता अख्तियार करती हैं। जिस तरह आम चलन मेंऔरत को औरत का दुश्मन’, घर के अंदर सास और बहू को एक दूसरे का दुश्मन दिखाया जाता है वहां पर भी सुधार हुआ है। ना ही औरत-औरत की दुश्मन है और ना ही मर्द औरत का दुश्मन है, इस समाज का यह प्रबंध औरत का दुश्मन है। हमें इस प्रबंध को, उन रीति-रिवाजों को, उन कुरीतियों को बदलने की जरूरत है जो औरत विरोधी हैं। इनके विरुद्ध ही हमारी लड़ाई। इस आंदोलन में हमने यह देखा है कि बहुत सारे परिवारों से उनकी बहुएं और नौजवान बेटियां इसमें शामिल हुई है, जबकि इसके पहले यह आम चलन था कि औरत को यह बोल दिया जाता था, कि उसका वहां क्या काम है, वह घर पर रहें। इस इतने बड़े काफिले में बहुत सारे अलग-अलग तरह के मर्द हैं पर यहां पर औरतें बेफिक्र होकर रहती हैं और उनके परिवार भी पीछे बेफिक्र हैं। इससे पहले तो अगर किसी ने अपने मायके भी जाना होता था, तो जब तक वह घर नहीं पहुंचती थी उसकी घबराहट बनी रहती थी। पर यहां पर रात को 12-1 बजे पहुंचने पर भी औरतें बेफिक्री से रह सकती हैं। यह बहुत बड़ी तब्दीली है। मर्दों में भी यह चेतना रही है कि औरत सिर्फ जागीर नहीं होती, उस पर कोई कब्जा नहीं होता, औरतों पर विश्वास होता है, और यहां से हमारे रिश्ते भी मजबूत होते हैं। मैं 26 नवंबर से इस मोर्चे में हूं, अभी तक वापस नहीं गई। मेरे परिवार वाले भी मेरा पूरा समर्थन करते हैं और आगे बढ़ने के लिए उत्साहित करते है। मेरा बेटा, मम्मी, भाई और बाकी सब भी मिलकर गए हैं। हमें यह देख कर बहुत अच्छा लगता है कि यहां पर नौजवान लड़कियां और महिला पत्रकार भी रात के 11-11 बजे तक बेफिक्री से घूमती रहती है। इससे पहले वह डर के कारण रात को 8 बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकलती थी। अगर कोई निकलती भी, और उसके साथ कोई बलात्कार जैसी घटना घटित हो जाती तो इनके मंत्री यह बोलते थे कि ‘8 बजे के बाद औरत का क्या काम है, वह पैंट क्यों पहनती है, वह काजल क्यों लगाती है, वह मोबाइल क्यों रखती है’, इस तरह की बंदिशें लगाई जाती है। परंतु यहां पर ऐसी कोई बंदिशें नहीं है। यहां पर नौजवान लड़के भी लड़कियों का सम्मान करते हैं, उनकोबहनकह कर बुलाते हैं, लड़के-लड़कियां एक दूसरे का सहयोग करते हैं। यह बहुत बड़ी तब्दीली है और हम भी ऐसी ही तब्दीली चाहते हैं।

दस्तक मार्च अप्रैल अंक में प्रकाशित