Saturday 13 June 2020

कोरोना, लॉकडाउन और आर्थिक जनसंहार- मनीष आज़ाद

मार्क्स ने कुगेलमान को लिखे अपने पत्र में लिखा है- ‘प्रत्येक बच्चा यह जानता है कि यदि कोई राष्ट्र, साल भर की तो कौन कहे, हफ्ते भर के लिए भी काम रोक देता है तो वह नष्ट होने लगता है।’ 1868 में यह लिखते हुए मार्क्स ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि 2020 में भारत का बुर्जुआ इतना दिवालिया साबित होगा कि वह इतनी छोटी बात भी नहीं समझेगा और हफ्ते भर के लिए नहीं बल्कि पूरे दो माह से ज्यादा के लिए सब काम रोक कर सर के बल खड़ा हो जायेगा। और पूरे देश को सर के बल खड़ा होने के लिए बाध्य कर देगा। इस शीर्षासन का नतीजा हमारे सामने है।
24 मार्च को शीर्षासन करते हुए जब मोदी ने अचानक पूरा देश ठप कर दिया, तो देश में कोरोना के 564 केस थे और कुल 10 लोगों की मौत हुई थी। 73 दिन बाद यानी 8 जून को जब ‘सफलतापूर्वक’  लॉकडाउन उठाया जा रहा है तो कुल कोरोना केसेस 3 लाख के करीब हैं और मरने वालों की संख्या 8107 पहुंच चुकी है। जब दिवालियापन दिखाने की होड़ लगी हो तो नीति आयोग के सदस्य और कोराना पर बनी टास्क फोर्स के चेयरमैन विनोद पाल कहां पीछे रहने वाले थे। उन्होंने 24 अप्रैल की प्रेस कांफ्रेस में एक स्लाइड शो दिखाते हुए जोर-शोर से ऐलान कर दिया कि 16 मई के बाद कोविड 19 का कोई नया केस नहीं आयेगा (या उस दिन शायद वे कोरोना को ही सम्बोधित कर रहे हों कि 16 मई के बाद तुम मत आना क्योंकि इसी दिन उनका सरदार तख्तनशीं हुआ था)। बहरहाल कोरोना ने विनोद पाल की बात नहीं सुनी और उनके इस ऐलान की धज्जियां उड़ाते हुए 17 मई को उस समय तक के सबसे ज्यादा कोरोना के केस (एक ही दिन में 5034 पाजिटिव केसेस) आ गये और एक ही दिन में मरने वालों की सबसे ज्यादा संख्या दर्ज की गयी। आज की तारीख में प्रतिदिन 10000 नए पॉजिटिव केसेस आ रहे है। और आज हालात यह है कि आईएसआरसी (indian scientists responce to covid-19) की माने तो अभी इसका चरम (peak) आया ही नहीं है। यह जुलाई या अगस्त तक आयेगा। मजदूरों के महापलायन के बाद अब कोरोना देश के दूर दराज के गांवों में भी पहुंच चुका है। उपरोक्त ‘आईएसआरसी’ से जुड़े और अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर (फिजिक्स और बायोलाजी) ‘गौतम मेनन’ के अनुसार कुल परीक्षित  और अपरिक्षित  कोरोना मरीजों की संख्या इस समय 1 करोड़ से ऊपर हो सकती है। यह भयावह तस्वीर है।
विनोद पाल ने किन आंकड़ों और किस ‘डिसीज माडल’ के आधार पर यह कहा था कि मई 16 के बाद कोई नया केस नहीं आयेगा, इस पर अभी भी रहस्यमय पर्दा पड़ा हुआ है। दरअसल सरकार अपने वक्तव्यों में और प्रेस कान्फ्रेन्सों में जो प्रोजेक्शन बताती है और जो मॉडल पेश करती है, उसका कोई आधार नहीं बताती। आकड़ों के पीछे छिपने की सरकारों की पुरानी बीमारी है। सैमुअल जानसन आज यदि जिन्दा होते तो अपने मशहूर कथन में ये जरूर जोड़ते- ‘‘दुष्टों की अन्तिम शरणस्थली राष्ट्रवाद ही नहीं आकड़े भी हैं।’’
तमाम संसाधनों से लैस यदि सरकार के आंकड़े और उसके प्रोजेक्शन इतने हास्यास्पद स्तर तक असफल और गैर जिम्मेदार हैं तो आप समझ सकते हैं कि सरकार कोरोना से लड़ने में कितनी गंभीर है, और उसकी तैयारी क्या हैं। दरअसल सरकार कोरोना से नहीं बल्कि आकड़ों से लड़ती दिख रही है।

 situation before and after lockdown 

लॉकडाउन को सफल बताने के लिए 22 मई की एक प्रेस कांफ्रेंस में भारत सरकार ने एक अमरीकी मैनेजमेंट फर्म ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ को उद्धृत करते हुए कहा कि यदि लॉकडाउन नहीं होता तो 1 लाख 20 हजार से 2 लाख 20 हजार तक लोगों की मौत हो जाती। हमेशा की तरह इस बार भी इस आंकड़े तक पहुंचने का आधार नहीं बताया गया। बाद में इस क्षेत्र के तमाम विशेषज्ञों ने सरकार से मांग की कि उस मेथोडोलाजी को सार्वजनिक किया जाय, जिसके माध्यम से इस निष्कर्ष तक पहुंचा गया है, ताकि लोग स्वतंत्र तरीके से इसकी पड़ताल कर सकें। लेकिन सरकार ने आज तक नहीं बताया कि वो किस कड़ाही में अपनी यह खिचड़ी पका रही है। लेकिन आश्चर्य तो तब हुआ, जब 28 मई को एनडीटीवी ने अपनी एक स्पेशल रिपोर्ट में इसका खुलासा किया कि भारत सरकार का स्वास्थ्य विभाग दरअसल इस ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ का एक क्लाइंट है। और यह कम्पनी स्वास्थ्य मत्रालय के साथ मिल कर काम कर रही है। ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ एक मार्केटिंग कम्पनी है। इसका कोरोना जैसी महामारी के बारे में क्या विशेषज्ञता है? एनडीटीवी के उसी प्रोग्राम में जब एनडीटीवी के पत्रकार श्रीनिवासन ने ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ के भारत प्रमुख जनमेजय सिन्हा से यह पूछा कि आप दवा कम्पनियों के लिए भी कन्सल्टिंग करते हैं और सरकार के लिए भी। तो क्या यह हितों का टकराव (conflict of interest) नहीं है? इस प्रश्न का जनमेजय सिन्हा ने कोई जवाब नहीं दिया। इसी जनवरी में ‘इंटरनेशनल कन्सोर्टियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट’ ने यह खुलासा किया था कि कैसे ‘बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप’ ने अंगोला के सबसे अमीर राजनीतिक घराने के साथ मिलकर अंगोला की प्राकृतिक सम्पदा को किस तरह लूटा है।
बहरहाल, जब सरकार अपना गाल बजाते हुए  लॉकडाउन की सफलता का ऐलान कर रही है तो ‘इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन’, ‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेन्टिव एण्ड सोशल मेडिसिन’, और ‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ इपिडिमेयोलाजिस्ट’ ने 30 मई को अपने संयुक्त बयान में यह भयानक खुलासा कर दिया कि अब हम सामुदायिक संक्रमण (community transmission) की अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं। स्थिति यह है की मुंबई की एक चौथाई आबादी कैंटोनमेंट जोन में रह रही है।
यह सरकार की गलत नीतियों का ही परिणाम है की सरकार ने मजदूरों को वापस उनके घरों को भेजना तब शुरू किया जब कोरोना मरीजों की संख्या 1 लाख पार कर गयी थी। और आज स्थिति यह है कि बिहार पहुंचने वाला हर चौथा मजदूर कोरोना पाजिटिव है। और उत्तर प्रदेश में कुल कोरानों मरीजों में से 28 प्रतिशत बाहर से आने वाले मजदूर हैं।
सरकार की नीयत पर इसलिए भी शक होता है क्योंकि सरकारी संस्था ‘नेशनल सेन्टर फार डिजीज कन्ट्रोल’  इनफ्लुएंजा के बारे में साप्ताहिक रिपोर्ट जारी करती है। लेकिन इसने 24 फरवरी के बाद बिना कोई कारण बताए साप्ताहिक रिपोर्ट देना बन्द कर दिया। और आपको आश्चर्य होगा कि 24 फरवरी तक ही कुल इनफ्लुएंजा के 14803 कन्फर्म केस आ चुके थे, जबकि 2018 के पूरे साल में 14992 कन्फर्म केस आये थे। और 2018 में इनफ्लुएंजा के कारण होने वाली मौतों (1,103) का आधा (448) 24 फरवरी तक ही हो चुका था। यानी सरकार को आने वाले तूफान का अंदाजा हो गया था। फिर भी इसने कुछ नहीं किया। उस बात को तो अभी जाने ही देते हैं कि हवाई जहाज से कोरोना केसेस लेकर आने वाले शुरूआती अमीरों की टेस्टिंग क्योँ नहीं की गयी, उन्हें क्वारन्टीन क्योँ नहीं किया गया। और इस महामारी के विषय में ‘डब्ल्यू एच ओ’  की चेतावनी के बावजूद ‘नमस्ते ट्रम्प’ का आयोजन क्योँ किया गया, जो बाद में गुजरात के लिए ‘नमस्ते कोरोना’ साबित हुआ। वास्तव में इस कोरोना के दबाव से पूरी सरकारी मशीनरी चरमरा गयी है। पिछले 30 वर्षो के निजीकरण के कारण  भारत का स्वास्थ्य विभाग तो पहले ही 'आई सी यू' में था। कोरोना ने इसे कोमा में पंहुचा दिया है।

स्मार्ट सिटीज या ‘प्लेनेट ऑफ स्लम’-
दरअसल भारत में लॉकडाउन कोरोना का ही एक घातक म्यूटेशन साबित हो रहा है। भारत की जनता पर कोरोना से कहीं ज्यादा लॉकडाउन कहर बन कर टूटा है। ‘सीएमआईई’ (center for monitering indian economy) के आंकड़ों के अनुसार सिर्फ अप्रैल के महीने में कुल 12 करोड़ 20 लाख रोजगार नष्ट हो गये हैं। यदि एक व्यक्ति के पीछे 5 लोग निर्भर माने जाये तो प्रभावित लोगों की संख्या होगी 61 करोड़। यानी कुल जनसंख्या का लगभग आधा। हालांकि फिर भी यह आंकड़ा सच से थोड़ा दूर है। इसे इस तरह से समझा जा सकता है। 2001 से 2011 के बीच भारत ने अब तक का सबसे बड़ा ‘आन्तरिक पलायन’ (internal migrration, गांव से शहर, शहर से शहर और गांव से गांव भी) देखा है।
 इसी आकड़े के आधार पर उत्साहित होकर चिदम्बरम ने वह प्रसिद्ध बयान दिया था कि 2025 तक कुल जनसंख्या का 50 प्रतिशत शहरों में आ चुका होगा (यह विदेशी कम्पनियों के लिए एक संकेत था कि शहरों में मजदूरों की भीड़ के कारण मजदूरी और गिरेगी और कम्पनियों का मुनाफा और बढ़ेगा)। विदेशी कम्पनियों और निवेशकों की गिद्ध दृष्टि इसी ‘स्लेव वेज’ पर रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार आन्तरिक प्रवासियों (internal migrants) की कुल संख्या 45 करोड़ थी। 2001 में यह 30 करोड़ के आसपास थी। लॉकडाउन ने इस 45 करोड़ आन्तरिक प्रवासियों को सीधे-सीधे प्रभावित किया है। मशहूर अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरूण कुमार की माने तो इस लॉकडाउन में कुल 35 प्रतिशत जीडीपी बर्बाद हुई है। आमतौर पर दो देशों के बीच युद्ध में भी इस पैमाने पर जीडीपी की हानि नहीं होती। इतनी व्यापक तबाही के बावजूद जब 67 प्रतिशत लोगो के पास अगले महीने के राशन की कोई व्यवस्था नहीं है तो सरकार 77 मिलियन टन अनाज पर पालथी मारकर बैठी हुई है। लाखों टन अनाज खुले में बारिश और धूप में यूं ही सड़ रहा है। लेकिन आप यह मत समझिये की ये सरकार की कोई लापरवाही है। इस सड़े अनाज को शराब बनाने वाली कंपनियों को बेचा जाता है और उससे राजस्व कमाया जाता है। यानी सरकार को हमारी भूख से ज्यादा चिंता शराब की है।
दरअसल भारत आंकड़े इकट्ठा करने के मामले में दुनिया का सबसे गरीब देश है। आकड़ों को दबाने के मामले में भी भारत का कोई प्रतिद्वन्दी नजर नहीं आता। नोटबन्दी का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका कोई सुसंगत आकड़ा सरकार ने आज तक जारी नहीं किया है। सरकार श्रद्धा भाव से सिर्फ जनसंख्या के आकड़े जुटाती है। क्योकि यह आंकड़ा उसके ‘माल्थीसियन’ विचारों से मेल खाता है जहां वह जनता की किसी भी समस्या के लिए बढ़ती जनसंख्या की आड़ ले लेती है। दूसरी गैर सरकारी सस्थाओं के पास संसाधनों की कमी के कारण उनका सैम्पल सर्वे इतना छोटा होता है कि वास्तविक सच तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए अजीम प्रेमजी का प्रसिद्ध सर्वे (जिसके अनुसार 67 प्रतिशत जनसंख्या के पास अगले माह का राशन नहीं है और शहरो में 10 में 8 और गांवों में 10 में 6 लोगों का रोजगार छिन चुका है) 12 राज्यों से महज 4000 मजदूरों पर आधारित है। और यह सर्वे भी फोन द्वारा किया गया है। यानी तस्वीर आंकड़ों से कहीं ज्यादा भयावह है। मार्क्सवादी शब्दावली में कहें तो उत्पादक शक्तियों का यह निर्मम कत्लेआम है। ऐसे कत्लेआम में खून बहता नहीं बल्कि खून सूखता है। यह आर्थिक जनसंहार है।

जैसा कि मार्क्स ने कहा था कि पूंजी अपने जन्म से ही मजदूरों के खून और पसीने में लिथड़ी हुई है। इसके अलावा अपने स्वभाव से ही पूंजीवाद लगातार युद्धरत रहता है। जिन शहरों से इन लाखों मजदूरों को जाने के लिए बाध्य किया गया है वहां भी इन मजदूरों के खिलाफ पूंजीवाद शुरू से ही लगातार एक युद्ध चला रहा था। एंगेल्स ने अपनी मशहूर कृति ‘इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की दशा’ में इस युद्ध को ‘सामाजिक युद्ध’ (social war) की संज्ञा दी है। दरअसल शहरीकरण मजदूरों के खिलाफ एक प्रच्छन्न युद्ध ही है। भारत में शहरी योजना (urban planing) या वर्तमान में स्मार्ट सिटी का एकमात्र मकसद मजदूरों या सटीक रूप में कहें तो शहरी गरीबों को मुख्य शहर के बाहर फेंकना और मजदूरों-गरीबों की झुग्गियों और उनकी गरीबी-बदहाली को ‘चीन की दीवार’ से ढक देना है। इस प्रतीक को वस्तुतः यथार्थ में उतारते हुए ‘नमस्ते ट्रम्प’ के समय गुजरात में कितनी ही ऐसी झुग्गियों को वस्तुतः दीवार से ढक दिया गया था। इसी कारण से भारत में प्रत्येक मजदूर के काम के घण्टे औसतन 2 से 3 घण्टे ज्यादा होते हैं। क्योंकि इतना उसे कार्यस्थल पर पहुंचने और फिर वापस अपने घर आने में लग जाते है। यह महज संयोग नहीं है कि चंडीगढ़ शहर की प्लानिंग करने वाले वास्तुकार लुको बिजीए (Le Corbusier) फासिस्ट विचारधारा से जुड़े हुए थे। आनन्द पटवर्धन ने अपनी मशहूर डाकूमेन्ट्री ‘बम्बईः हमारा शहर’ में प्रमुख पूंजीपति गोदरेज को यह कहते हुए कैमरे में कैद किया है- ‘बाहर से आने वाले ये मजदूर चूहों की तरह रहते है और इन्हें शहर के अन्दर रहने का हक नहीं है। इनसे काम लो और फिर पैक करके उन्हें वहीं भेज दो जहां से ये लोग आये है।’ यह युद्ध की भाषा नहीं तो और क्या है। उसी फिल्म में तत्कालीन पुलिस प्रमुख जे एफ रिबेरो  एक सेमीनार में खुलेआम मजदूरों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर रहे हैं - ‘यदि इन्हें यहां से दूर नहीं हटाया गया तो कल ये फुटपाथों पर कब्जा करेंगे, उसके बाद सड़कों पर आ जायेंग और फिर हमारे आपके घरों में घुस जायेंगे। जैसा कि रूस और चीन में हुआ।’
‘प्लैनेट ऑफ स्लम’  के लेखक माइक डेविस ने शहरो के स्लम में रहने वाले इन गरीबों को ‘मानव शोषण का जीता जागता म्यूजियम’ (a living museam of human exploitation) बताया है। लॉकडाउन के बाद इसी ‘म्यूजियम’ से निकल कर ये लाखों मजदूर 1000 से 2000 किमी तक की यात्रा प्रायः पैदल चलते हुए अपने उसी गांव की ओर निकल पड़े, जहां से विगत में शोषण, गरीबी, बेकारी और जातिगत अपमान के कारण वे शहर की ओर आये थे। राजमार्गो पर पैदल ही निकल पड़े मजदूरों के खिलाफ यह युद्ध नहीं तो और क्या है कि उस वक्त पूरे देश में शाम 7 से सुबह 7 तक का कर्फ्यू लगाकर मजदूरों को चिलचिलाती धूप में सफर करने के लिए बाध्य कर दिया गया।

अतीत की ओर लौटना-
आइये अब एक नजर उन गांवो की ओर डाल लिया जाय जहां अब ये मजदूर पहुंच रहे है। बिहार की प्रति व्यक्ति आय अफ्रीका के सबसे गरीब देशों में से एक सूडान के बराबर है। लॉकडाउन ने इन गांवों की मामूली आमदनी को भी लगभग रोक दिया। लगभग सभी कृषि उत्पाद लॉकडाउन में बिकने के अभाव में या तो सड़ गये या फिर औने पौने दामों पर बिकने पर बाध्य हुए। मध्य प्रदेश में प्याज 2 रूपये किलो के भाव से बिका है। दूध जैसे उत्पादों को तालाबों में फेकने का दृश्य हम सबने देखा।

आज से 53 साल पहले नक्सलबाड़ी ने जिस भूमि समस्या को राजनीति के केन्द्र में रखा था, वह आज भी जस का तस बना हुआ है। पूरे देश में 5 प्रतिशत बड़े किसानों/सामंतो के पास कुल कृषि योग्य भूमि का 32 प्रतिशत है। लगभग 55 प्रतिशत किसान परिवार भूमिहीन है। आज शहरों से गांव लौट रहे मजदूरों का अधिकांश यही भूमिहीन किसान हैं (जिसमें बड़ी आबादी दलितों व अन्य छोटी जातियों की है), जिसे कृषि विश्लेषक देवेन्द्र शर्मा ‘खेतिहर शरणार्थी’ (agriculture refugee) की संज्ञा देते हैं। बिहार के गांवों में लगभग 33 प्रतिशत खेती अधिया बटैया पर होती है। हालांकि सरकारी आंकड़ो में यह 10 प्रतिशत के अन्दर है। गांवों में इन ‘खेतिहर शरणार्थियों’ के पहुंचने से अधिया बटैया की शर्ते बड़े किसानों या सामंतों के हक में और झुक जायेगी। यूपी के चंदौली में जहां ‘हुण्डा सिस्टम’ है और जहां कोरोना से पहले 1 बीघा का साल भर का कान्ट्रैक्ट औसतन लगभग 15 हजार में होता था, अब शहरों से लौटने के कारण गांव में हुण्डा पर लेने के लिए जमीन की मांग और बढ़ेगी जिससे यह राशि और ऊपर जायेगी और इससे जमीन के मालिकों को फायदा होगा। जमीन लेने वाले गरीब के हाथ में पहले से कम पैसे बचेंगे। जमीन पर दबाव बढ़ने से सामंती सम्बन्ध और मजबूत होगा।
पहले से चले आ रहे कृषि संकट को आप इस तथ्य से भी समझ सकते हैं कि कृषि संकट के कारण 1991 से 2011 के बीच 1 करोड़ 50 लाख लोगों को कृषि छोड़नी पड़ी है। और 2011 की जनगणना के अनुसार 2000 कृषक प्रतिदिन खेती छोड़ रहे हैं। अधिकांश खेतो में आज फसल नहीं बल्कि घाटा पैदा हो रहा है। ये किसान घाटा जोतते है, घाटा बोते है और घाटा ही काटते है। आज जो 55 किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे है, उसका कारण यही कृषि संकट है।
आइये, अब एक नजर तथाकथित पूंजीवादी क्षेत्रों जैसे पंजाब और हरियाणा पर डाल लेते है। पंजाब की आबादी में करीब 32 प्रतिशत दलित है और सभी लगभग भूमिहीन है। लॉकडाउन के कारण जब बिहार व यूपी के मजदूर पलायन कर गये तो पंजाब व हरियाणा में खेती में काम करने के लिए (विशेषकर इस समय धान की रोपाई के लिए) मजदूरों की बेहद कमी हो गयी। पूंजीवादी तर्क से यानी डिमांड-सप्लाई के तर्क से अब मजदूरी बढ़ जानी चाहिए थी। लेकिन हुआ क्या? एक एक करके अधिकांश पंचायतों (जाट पंचायतों) ने अपना ‘कानून’ पास कर दिया की एक खास धनराशि (जो कोरोना काल से पहले दी जाने वाली मजदूरी से भी कम है) से ज्यादा मजदूरी कोई नही दे सकता और अपने गांव का काम खत्म होने के बाद ही गांव के मजदूर (जाहिर है अधिकांश दलित मजदूर) दूसरे गांवों में जा सकते हैं। इस ‘कानून’ के पास होने से वहां के खेतिहर मजदूरों में डर व्याप्त हो गया है। क्योकि वे जानते है कि ये पंचायते अपना कानून कैसे लागू कराती हैं। भारत में कृषि को पूंजीवादी साबित करने में ऐड़ी चोटी का जोर लगाने वाले ‘सुच्चा सिंह गिल’ जैसे बुद्धिजीवियों को यह बात काफी नागवार गुजर रही है। उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि वह हस्तक्षेप करें और ‘पूंजीवादी तर्क’ के हिसाब से खेल कराये। लेकिन सरकार भी उन सामंती पंचायतों के पक्ष में ही खड़ी नजर आ रही है। लॉकडाउन के शुरूआती पलायन में तो हद ही हो गयी थी जब बिहार के मजदूरों को जबरन रोक कर रखा गया था और बस स्टैण्डों और रेलवे स्टेशनों पर उन्हें पहचान पहचान कर पुलिस पीट रही थी और पंजाब छोड़ने से उन्हें रोक रही थी क्योकि धान की रोपाई का सीजन आने वाला था। एक झटके में हजारों मजदूरों को बंधुआ बना दिया गया। ‘मुक्त मजदूर’ का मिथक चूर चूर हो गया। दरअसल इन मजदूरों के साथ साथ समाज भी सामंतवाद की ओर पलायन कर रहा है। भाजपा का तो नारा ही है-‘अतीत की ओर चलो।’  इसलिए भाजपा को कोरोना काफी पसन्द आ रहा है।

एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक रोग-
शायद इसी कोरोना प्रेम के कारण भाजपा सरकार ने कोरोना काल में टीबी, कैन्सर, मलेरिया जैसी बीमारियों का अस्तित्व ही मानने से इंकार कर दिया। सिर्फ कोरोना कोरोना और कोरोना। सरकार के इसी कोरोना प्रेम के कारण नोएडा की एक गर्भवती महिला को 12 घण्टे में 8 अस्पतालों ने भर्ती करने से इंकार कर दिया और अन्ततः उस महिला की मौत हो गयी। मुंबई में ऐसी ही घटना एक डाक्टर के साथ हुई और उसकी भी मौत हो गयी। इस कोरोना समय में टीबी,  कैन्सर, व अन्य बीमारियों से ईलाज ना मिल पाने और जरूरी टीकाकरण ना हो पाने के कारण कितने लोगों की जाने गयी हैं, इसे हम कभी नहीं जान पायेंगे। वास्तव में एक ही रोग कोराना पर सरकार का फोकस उसकी विचारधारा ‘एकात्मवाद’ से मेल खाती है- एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक भाषा और एक रोग।

कोराना से यह प्रेम हो भी क्यों ना। इसी प्रेम ने भाजपा के फासीवादी मंसूबों को यथार्थ के धरातल पर उतारने में जितनी मदद की है वह सामान्य समय में असम्भव नहीं तो मुश्किल जरूर थी। ‘डिसास्टर कैपिटलिज्म’ की लेखिका नोमी क्लेम ने अपनी किताब में तमाम उदाहरणों से यह स्थापित किया है कि शासक वर्गो के लिए आपदा या महामारी एक अवसर लेकर आती है। इसकी निर्लज्ज अभिव्यक्ति नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त ने इन शब्दों में की-‘सरकार इस अवसर को अभी नहीं तो कभी नहीं के रूप में देख रही है,  विशेषकर मूलभूत क्षेत्रों जैसे कृषि क्षेत्र में बोल्ड रिफार्म करने के मामले में। खेती में यह ‘बोल्ड रिफार्म’ ‘एपीएमसी एक्ट’ में परिवर्तन के रूप में आया। जिसके बाद कारपोरेट फार्मिंग को अनुमति मिल गयी और अब व्यापारी व कारपोरेट घराने सामान्य किसानों और एफसीआई से सीधे और अपने मनचाहे दामो पर अनाज खरीद सकेगी। सूत्र में कहें तो इन सारे रिफार्म का मतलब पूरे देश का विदर्भीकरण करना है। इसके अलावा एयरपोर्टो को बेचना, सार्वजनिक उद्यमों को बेचना,  डिफेन्स में 71 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी देना और इन सबसे बढ़कर लेबर रिफार्म के नाम पर मजदूर को गुलाम में तब्दील करने का काम इसी कोराना काल में कोरोना की आड़ में हो रहा है। उत्तर प्रदेश में 6 माह तक किसी भी प्रदर्शनों पर रोक इसी कारण लगाया गया है। गुजरात में 1 साल तक यूनियन बनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
कोरोना से निपटने के नाम पर सरकार ने पता नहीं कहां से खोद कर 1897 का ‘इपीडेमिक डिसीसेस एक्ट’ ले आयी और इसे एक साथ पूरे देश पर लागू कर दिया। अंग्रेजों ने भी इसे उस वक्त पूरे देश पर लागू नहीं किया था। इस एक्ट से सरकारों को वो अधिकार मिल गये कि एक तानाशाह या पुराने जमाने का राजा भी शरमा जाये। लगभग सभी डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट 1897 के प्लेग कमीशनर ‘डब्ल्यू सी रैन्ड’ की भूमिका में आ गये। शहर व गांवों में मनमाने नियम कानून बनाये व बदले जाने लगे (तमिलनाडु में कुछ जगहों पर बाल कटवाने के लिए आधार कार्ड अनिवार्य कर दिया गया)। क्वारन्टीन सेन्टर कुछ जगहों पर वस्तुतः जेल में बदल गये जहां जमातियों मुस्लिमों को 14 दिन से ज्यादा 40-50 दिन तक रखा गया। इस पर सवाल उठाने पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा ठोक दिया गया। दूसरी जगहों पर क्वारन्टीन सेन्टर मजाक बन कर रह गये। जहां लोग खाना खाने अपने घर चले जाते और रात में सोने के लिए आ जाते। 1897 में जब महाराष्ट्र में प्लेग फैला और सरकार ने उपरोक्त कानून लागू करके जनता के जीवन के प्रत्येक पहलू को अपने नियंत्रण में ले लिया तो लोग प्लेग से डरने की बजाय प्लेग अधिकारियों से डरने लगे। जब प्लेग अधिकारी घरो में प्लेग मरीजों की तलाश करते तो जिन महिलाओं को प्लेग हुआ होता वो तुरन्त उठकर या तो गाना गाने लगती या चक्की पीसने लगती ताकि प्लेग अधिकारियों को पता ना चले कि उन्हें प्लेग हुआ है। प्लेग प्रभावित पुरूषों को यहां वहां छिपा दिया जाता। आज भी वही स्थिति है। जिन्हें कोरोना टेस्ट के लिए सरकार मजबूर कर रही है वे ‘पैरासिटामाल’ खाकर टेस्ट करा रहे हैं ताकि तापमान नार्मल आये और वे क्वारन्टीन नामक जेल से और सामाजिक व सरकारी अपमान-उत्पीड़न से बच जाये। 1897 में सरकार के साथ जनता का जो भयानक ‘ट्रस्ट डेफिसिट’ था, वह आज भी उसी रूप में बरकरार है। ‘बजट डेफिसिट’ को सरकार जनता पर अतिरिक्त कर लगाकर और देश की बहुमूल्य संपदा को बेचकर पूरा करने का प्रयास करती है, वही ‘ट्रस्ट डेफिसिट’ को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर दंगे कराये जाते है, एक खास (भारत के सन्दर्भ में मुस्लिम) समुदाय को निशाना बनाया जाता है। उनका सुनियोजित तरीके से अखबारों, टीवी चैनलों के माध्यम से अमानवीकरण किया जाता है और इसकी प्रतिक्रिया में ‘बहुसंख्यक’ (भारत के सन्दर्भ में हिन्दू) सम्प्रदाय को अपना भक्त बनाकर इस ‘ट्रस्ट डेफिसिट’ को पूरा करने का प्रयास किया जाता है।
दरअसल लॉकडाउन में जब सब कुछ बन्द था तो लॉकअप खुला हुआ था। बदली परिस्थिति का फायदा उठाकर मनचाही गिरफ्तारियां की गयी। नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलनकारियों को चुन-चुन कर इसी समय गिरफ्तार किया जा रहा है और खतरनाक ‘यूएपीए’ से उन्हें नवाजा जा रहा है। शायद ऐसा पहली बार हुआ कि इस कोरोना समय में न्याय भी स्थगित कर दिया गया। लॉकडाउन की घोषणा करते समय प्रधानमंत्री ने कहा कि आवश्यक सेवाओं को इससे बाहर रखा जायेगा। इस बयान में मोदी ने साफ कर दिया कि न्याय इस देश में आवश्यक सेवा नहीं है। अदालतें बन्द होने और जेल की मुलाकात बन्द होने से देश की सभी जेलों के लगभग साढे 4 लाख कैदी इस समय भयानक अवसाद में चले गये है। भविष्य में यह कोई भी खतरनाक रूप ले सकता है।
इसी कोरोना काल में यह अहसास गहरा हो रहा है कि शायद भारत में ही यह संभव है कि संविधान के साथ साथ उन कानूनों का भी सह अस्तित्व है जो सीधे सीधे संविधान में दिये गये मूल अधिकारों की हत्या से पैदा हुए हैं। अनुच्छेद 21 आपको जीवन का अधिकार देता है तो वहीं ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट’  महज शक के आधार पर आपकी जान लेने का अधिकार सरकार को देता है। आर्टिकल 11 आपकों संगठित तरीके से विरोध करने का अधिकार देता है तो वहीं शहर के डीएम को साल में 365 दिन धारा 144 लगाने का भी अधिकार देता है। संविधान देश के नागरिको के गरिमापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करने की बात करता है तो 1897 का ‘इपीडेमिक डिसीसेस एक्ट’  पूरे देश को जेल की अपमानजनक घुटन में तब्दील कर देता है। इसलिए भारत में संविधान या तो महज कागज का टुकड़ा रह गया है या फिर एक पवित्र धर्मग्रन्थ। जिसे कभी कभी बांचकर मानसिक-आध्यात्मिक सुकून लेने के अलावा अब इसकी कोई वकत नही रही।
कोरोना काल में या इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने जो भूमिका निभाई है, वो या तो संविधान बांचने की भूमिका रही है या फिर सरकार की जनविरोधी नीतियों को नजरअन्दाज करने या फिर उसे तार्किक जामा पहनाने की। वर्तमान में मजदूरों के पलायन से सम्बंधित याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार का बचाव करते हुए उल्टे याचिका कर्ता हर्ष मंदर और प्रशांत भूषण को ही बेहद अपमान जनक तरीक से फटकार लगायी। सुप्रीम कोर्ट अपने ही हाथो अपनी गरिमा का गला घोट रही है। 

छाले पैरों में हैं सपनों पर नहीं-
लेकिन इसी दौरान चाहे अनचाहे एक महत्वपूर्ण चीज भी घटित हुई। लौटते मजदूरों ने तपते राजमार्गो पर अपने छालों भरे पैरों तले कई मिथकों और चित्रों को चूर-चूर कर डाला। पिछले 30 सालों की ‘नवउदारवादी’ पूंजीवादी चकाचौंध को धता बताते हुए मजदूरों ने इन 30 सालों में पहली बार अखबारों, टीवी चैनलों, फेसबुक व अन्य मीडिया माध्यमों के मुखपृष्ठ पर कब्जा जमा लिया।
 राजमार्गो पर चलते हुए उनके पसीने से तरबतर पपड़ी खाये चेहरे राजमार्गो पर होर्डिगों में लगे ‘खूबसूरत’  नवउदारवादी चेहरों पर भारी पड़ने लगे। और मजदूरों के इन सख्त वास्तविक चेहरों के सामने होर्डिगों के ये नरम गोरे चिट्टे, अघाये हुए आभासी चेहरे बुरी तरह अश्लील लगने लगे। 'नीरो की गेस्ट पार्टी' में चल रहे डांस की खबरों से जो अखबार भरे होते थे, वे आज बेहद अश्लील नजर आ रहे है। मशहूर पत्रकार पी.साईनाथ के अनुसार मुख्य धारा के अखबारों व चौनलों में मजदूरों-किसानों को महज 0.18 से 0.24 प्रतिशत जगह ही मिलती रही है। पी.साईनाथ के अनुसार इन अखबारों-चनलों के लिए भारत की 75 प्रतिशत आबादी अस्तित्व में ही नहीं है। आज की तारीख में यह 75 प्रतिशत आबादी आंख मिला कर इस व्यवस्था को चुनौती देती  नजर आ रही है। मध्य वर्ग का एक हिस्सा इनसे आंख मिला कर बात करने का साहस कर पा रहा है, यह भी इन 30 सालों में पहली बार हो रहा है। हालांकि अभी भी बड़ा हिस्सा अपने अपराध बोध में इनसे नजरें चुरा रहा है। तपते राजमार्गो पर चलते हुए इन मजदूरों ने अपना सब कुछ लुटा दिया है, लेकिन इसी प्रक्रिया में उसने इस सड़े गले पूंजीवाद को भी पूरी तरह नंगा कर दिया है। आज इस पूंजीवाद के बदन पर मास्क के अलावा और कोई आवरण नहीं बचा है। आज इसे सभी लोग अपनी नंगी आंखों से देख पा रहे है। अखबारों, चौनलों में आये दिन आने वाले इन मजदूरों के दृश्य कोई निष्क्रिय दृश्य नहीं हैं, बल्कि वे इस नंगे हो चुके बेशर्म पूंजीवाद की ओर इशारा करते हुए चीख-चीख कर कह रहे हैं - हमारे पैरों में छाले पड़े हैं सपनों में नहीं।




1 comment:

  1. Sahi rajnaitik bisleshan. Jaruri hai sab ko yeh padhna aur samajhna.

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