Wednesday, 24 June 2020

भारत चीन सीमा विवाद: मिथक और यथार्थ- मनीष आज़ाद


अंधकार के इस दौर में ठगी और धोखधड़ी का प्रचार हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित कर रहा है। राजनीतिक यथार्थ का निजीकरण हो चुका है। भ्रम को वैधानिकता प्रदान कर दी गयी है। सूचना का युग वस्तुतः मीडिया का युग है। यहां मीडिया द्वारा राजनीति की जाती है, मीडिया द्वारा सेन्सरसिप लागू की जाती है और मीडिया द्वारा ही युद्ध चलाया जाता है। - जॉन पिल्जर

15 जून को गलवान घाटी में चीनी सैनिकों से झड़प के बाद 20 भारतीय सैनिकों की निर्मम मौत हो गयी और 10 को चीन ने बंधक बना लिया (हालांकि बाद में उन्हें छोड़ दिया गया)। पूरा देश सन्नाटे में आ गया। ऐसे कठिन समय में जब सरकार को आगे आना चाहिए था और स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए थी, तो सरकार ने अपना काम सुपर देशभक्तटी वी चैनलों को आउटसोर्स कर दिया। और जैसा कि उम्मीद थी इन चैनलों पर एक हिस्टीरिया सा छा गया। अचानक उनका वाल्यूम ऊंचा से ऊंचा होता गया। टीवी चैनल के एंग्री यंग मैनअरनव गोस्वामी ने चाइना गेट आउटका पूरा अभियान ही छेड़ दिया। लेकिन इस हिस्टीरिया में किसे याद था कि चाइना गेट आउटनामक टीवी प्रोग्राम को चीन की ही दो बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां वीवोऔर शियोमीप्रायोजित कर रही हैं।

जी टीवीभी कहां पीछे रहने वाला था। उसने अपने प्रोग्राम को नाम दिया-छेड़ोगे तो छोड़ेंगे नहीं।पता नहीं मोदी ने इनसे जुमलेबाजी सीखी है या इन्होंने मोदी से। बहरहाल जब जी टीवीके सुधीर चौधरी चीन का डीएनए टेस्ट कर रहे थे तो जी टीवीचीन में वहां की मंडरीन भाषा में चीनियों को सास बहू के सीरियल दिखा कर उनका मनोरंजन कर रहा था। जी टीवीपहला भारतीय टीवी चैनल है जिसे 2012 में चीन में अपना प्रोग्राम दिखाने का अधिकार मिला। जी टीवीने चीन में अपने लैडिंग राइट्सहासिल करने के लिए बहुत पापड़ बेले हैं।


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंचजब चीन के सामान के बायकाट का नारा दे रहा है और सड़कों पर चीनी सामानों की होली जलाने के दृश्य सभी मीडिया चैनल ज़ोर-शोर से दिखा रहे हैं तो उसी समय आरबीआई की सहमति से दिल्ली में बैंक ऑफ चाइनाकी शाखा खुल रही है। ठीक इसी तरह जब 2017 में भारत चीन के बीच डोकलाम संकटआया था तो ठीक डोकलाम संकट के बाद चीन के इण्डस्ट्रियल एण्ड कमर्शियल बैंकको भारत में काम करने की अनुमति प्रदान की गयी थी। आपको याद होगा कि उस समय देश में चीन विरोधी लहर आज से ज़्यादा तेज़ थी और जी न्यूज उस समय समान नहीं सम्मानतथा हिन्दी-चीनी बाय बायका अभियान छेड़े हुए था। उसी समय मोदी के चहेते पूंजीपति अदानी ने डोकलाम के तुरन्त बाद ही पावर चाइनाके साथ एक बड़ा समझौता किया था। यहां तक कि अपने मुन्द्रा पावर प्रोजेक्ट के लिए चाइना डेवलपमेन्ट बैंक से भारी कर्ज़ भी लिया था। और तो छोड़िये मोदी के गृह प्रदेश गुजरात ने चीन के साथ 1 अक्टूबर 2019 को एक बिजनेस डील पर हस्ताक्षर किया। जिसके तहत गुजरात में चाइना इण्डस्ट्रियल पार्कबनना है जहां विशेषकर चीनी कम्पनियां अपना निवेश करेंगी। 15 अगस्त 20017 को लांच हुए जिओ फोन की पहली खेप चीन से आयी थी। आज हालत यह है की भारत की लगभग सभी बड़ी कंपनियां चीन में अपना उत्पादन कर रही है


यानी पाखण्ड हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन चुका है। इसका डीएनए टेस्ट कौन करेगा।

बहरहाल काफी दबाव पड़ने के बाद अंततः 4 दिन बाद प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक में बयान दिया कि कुछ भी नहीं हुआ है। चीनी सेना एक इंच भी भारत की जमीन में प्रवेश नहीं की है। मज़ेदार बात यह है कि ठीक यही बयान चीन की तरफ से भी आया कि कुछ भी नहीं हुआ है और चीनी सेना ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया है। यहीं पर रूककर पुलवामा और बालाकोट याद कीजिए। घर में घुसकर मारने वाली वीरता कहां चली गई। यहां तो इस बात से ही इंकार कर दिया गया कि कोई घर में घुसा भी है। आज चीन मोदी से बहुत खुश है क्योंकि 15 जून की झड़प में चीन ने पूर्वी लद्दाख और उत्तरी सिक्किम में लाइन ऑफ एक्चुअल कण्ट्रोलको अपने फ़ायदे में बदल दिया है, और यह बात अब किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर नहीं उठेगी। मोदी अपने ही बनाये सुपर मैनके इमेज में खुद फंस गया। याद कीजिए जेपी नड्डा का बयान कि मोदी देश के ही नहीं भगवानों के भी नेता है। और कोई भगवान हार कैसे सकता है। गलवान घाटी अभी तक कभी भी विवादास्पद क्षेत्र नहीं रहा है। और आज गलवान घाटी की पहाड़ियों पर चीन का कब्जा हो चुका है। वहां पहाड़ की ऊंचाइयों से वह अब भारत की तरफ 224 किमी लंबी डीबीओ (Darbuk-Shyok-Daulet Beg Oldie) सड़क पर रणनीतिक निगरानी रख सकता है, जिसका इस्तेमाल भारतीय सेना करती है। यह भारत की बड़ी रणनीतिक हार है। भारत के पास वो क्षमता तो नहीं है कि वो सैन्य कार्यवाही के माध्यम से चीन को इस क्षेत्र से खदेड़ सके, लेकिन कूटनीतिक तौर पर वह चीन द्वारा किये गये इस अतिक्रमण को अन्तरराष्ट्रीय मंच पर उठा सकती है और चीन पर निर्णायक दबाव बना सकती है। लेकिन ऐसा करने से मोदी की सुपरमैन भगवानवाली छवि का क्या होगा। मोदी की इस छवि की कीमत आज पूरा देश चुका रहा है। 5 मई से 15 जून के बीच चीन लगभग 3 से 5 किमी तक लाइन ऑफ एक्चुअल कण्ट्रोलको भारत की तरफ खिसका चुका है। रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण गोलवान की पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया है और वहां स्थाई सैन्य बेस बना लिया है। तमाम सैटेलाइट इमेज, और प्रवीन साहनी, अजय शुक्ला, एच एस पनाग, शेखर गुप्ता जैसे सुरक्षा विशेषज्ञ इसकी पुष्टि कर चुके हैं और सरकार से जवाब मांग रहे हैं। डबल आई डबल एस [www.iiss.org] जैसी अन्तरराष्ट्रीय सैन्य शोध सस्थाएं भी इसी तथ्य को बयां कर रही हैं। और इधर सिर्फ मोदी की सुपरमैन छवि को बचाने के लिए सरकार और सुपर देशभक्त मीडियाने इस जलते तथ्य को पूरी तरह पचा लिया है, और जो लोग इस तथ्य को रखते हुए सरकार से जवाब मांग रहे हैं उन्हें देशद्रोही घोषित किया जा रहा है।


ठीक इसी खतरे को देखते हुए लेफ्टिनेन्ट जनरल के पद से रिटायर हुए एच एस पनागने 18 जून को इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में साफ किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा को घरेलू राजनीति से अलग किया जाना चाहिए। लेकिन यहां तो मामला और भी आगे बढ़ चुका है। पिछले 6 सालों में भाजपा ने भारत की विदेश नीति को घरेलू राजनीति का विस्तार बना दिया है। और घरेलू राजनीति को साम्प्रदायिक राजनीति में संकुचित कर दिया है। इसी कारण से हमारी विदेश नीति पाकिस्तान नीति बनके रह गयी है। इस राजनीति के कारण आज भारत इस स्थिति में भी नहीं है कि वह किसी अन्तरराष्ट्रीय मंच पर यह मुद्दा उठा सके कि चीन ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया है।

चैनलों में और सड़कों पर मोदी भक्त यह कहते नहीं थक रहे कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं हैं। लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि आज का चीन 1962 का चीन नहीं है। 1962 के युद्ध में भारत की हार के बाद पूरी दुनिया को आश्चर्य में डालते हुए चीन एकतरफा युद्धविराम करके पीछे लौट गया था, क्योंकि वह माओ का समाजवादी चीन था। सन्त विनोबा भावे ने इसे इतिहास की एक अनूठी घटना करार दिया। लेकिन आज का चीन साम्राज्यवादी चीन है जो पूरी दुनिया में ज़मीन और खनिज सम्पदा पर कब्जे के लिए कुछ भी करने को तैयार बैठा है।

दरअसल भारत की अन्य तमाम समस्याओं की तरह सीमा विवाद भी साम्राज्यवादी अग्रेजों की देन है। 1950 के बाद भारत के पास चीन के साथ सीमा विवाद सुलझाने का एक सुनहरा अवसर था। लेकिन नेहरू की ज़िद थी कि अंग्रेजों द्वारा 1914 में बनायी गयी 'मैकमोहन रेखा' को ही चीन और भारत के बीच सीमा रेखा मान लिया जाय। इसके अलावा अक्साई चीन पर भी नेहरू ने अपना दावा ठोक दिया। जबकि खुद नेहरू ने ही संसद में बयान दिया था कि अक्साई चीन में घास का एक तिनका भी नहीं उगता। चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने नेहरू के साथ कई राउण्ड की बातचीत में नेहरू को यही समझाने का प्रयास करते रहे कि हम दोनों देश ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद के शिकार रहे हैं। तो हम क्यों उनकी बनायी रेखा को मान्यता दें। हमें मिल बैठकर इस मसले को हल करना चाहिए। लेकिन नेहरू इसी पर अड़े थे कि मैकमोहन रेखा को ही चीन मान्यता दे। 1960 में चीन का सोवियत रूस के साथ सम्बन्ध काफ़ी खराब हो चुका था और चीन-रूस सीमा पर भी कई झड़पें हो चुकी थी। अमरीका ने तो उस वक्त तक चीन को मान्यता ही नहीं दी थी। अन्ततः रूस और अमरीका के उकसावे पर भारत ने चीन पर आक्रमण कर दिया। नतीजा सबके सामने है।

लेकिन भारत ने उसके बाद भी कोई सबक नहीं लिया। आज भी वह एशिया में अमरीकी रणनीतिक योजना का हिस्सा बनने में ही अपनी सफलता मान रहा है और चीन के साथ अपने रिश्ते को अमरीकी नज़र से ही देख रहा है। चीन के साथ भारत के तनावपूर्ण रिश्तों का एक बड़ा कारण भारत का अमरीका की गोदी में बैठना है।

1971 में बांग्लादेश युद्ध के हीरो माने जाने वाले जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने 1998 में दिये अपने एक साक्षात्कार में भारत चीन युद्ध के बारे में ये निचोड़ दिया -'अगर नेहरू समझदार होते तो चीन से युद्ध नहीं होता। दरअसल बात यह है कि हमारी चीन के साथ जो मैकमोहन सीमा रेखा है वह कोई सर्वमान्य सीमा नहीं है। अंग्रेजों की तय की हुई सीमा है। अंग्रेजों द्वारा नक्शे में खींची गयी रेखा की सीमा है।..............हमारी तैयारी नहीं थी कि हम उन पर आक्रमण कर दे। लेकिन सेना को आदेश दिया गया कि हम चीन पर आक्रमण कर दें। सरकार ने यह सब समझने के बाद ऐसा निर्णय लिया और हम असफल हुए। एक तरह से हमने यह लड़ाई जानबूझ कर मोल ली।

सैन्य व सुरक्षा मामलों की पत्रिका फोर्सके सम्पादक प्रवीन साहनी और ग़ज़ाला बहाव की लिखी एक किताब ड्रैगन एट योर डोर स्टेप[2017] ने भारत के सुरक्षा विशेषज्ञों की नींद उड़ा दी। दोनो ने तमाम तर्को और तथ्यों से यह निष्कर्ष पेश किया कि भारत जहां सैन्य 'फोर्स' को बढ़ा रहा है वहीं चीन और पाकिस्तान सैन्य 'पावर' को बढ़ा रहे हैं। फोर्सऔर पावरका अन्तर बहुत बारीकी से समझाया गया है। भारत जहां अपना पूरा ध्यान सीमापार आतंकवाद पर लगा रहा है वहीं चीन अपने युद्ध प्रयासों को बहुआयामी बना रहा है। अन्त में प्रवीन साहनी और ग़ज़ाला बहाव का सनसनीखेज निष्कर्ष यह है कि पूर्ण युद्ध में भारत चीन को तो नहीं ही हरा सकता, वह पाकिस्तान को भी हराने में अब सक्षम नहीं है।

लेकिन इन सबकी चिन्ता किसे है। जब तक टीवी चैनलों की फौज और आईटी सेल के गोला बारूद मोदी के साथ है, और सच को झूठ और झूठ को सच बनाने की इण्डस्ट्री बदस्तूर जारी है उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसलिए किसी ने सच कहा था कि जब झूठ और धोखाधड़ी का साम्राज्य हो तो सच बोलना एक क्रान्तिकारी कार्य है। आज भारत में इस क्रान्तिकारी कार्य की सख्त जरूरत है। राजा को नंगा बोलने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा बच्चोंकी ज़रूरत है।

 

3 comments:

  1. बहुत सही। सत्य को हमारे देश को जानना चाहिए और यह पहचाना जाना चाहिए कि अमरीका सहित चीन की दलाली में लगे कॉरपोरेट देश को गिरवी रख रहे हैं। उनके ही टुकड़ो पर मोदी सरकार और गोदी मीडिया छद्म राष्ट्रवाद के जुमलों में हमारे देश को नष्ट कर रहे हैं।

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  2. बहुत बढ़िया लेख है इस समस्या को समझने के लिए

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  3. वाकई संजीदा लेख।।

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