नक्सलबाड़ी आन्दोलन के 53वीं
सालगिरह पर 25 मई 2020 को
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
के आईआईटी में
सक्रिय संगठन ‘‘स्टूडेंट
फॉर चेंज’’ ने
‘विक्षणम’ पत्रिका के संपादक
और ‘‘अण्डरस्टैण्डिग माओइज्म’’
जैसी कई पुस्तकें
लिखने वाले प्रख्यात
विद्वान एन वेणुगोपाल
को फेसबुक लाइव
के लिए आमन्त्रित
किया। उन्होंने नक्सलबाड़ी
के आन्दोलन को
आज के समय
से जोड़ते हुए
छात्रों को सम्बोधित
किया, जो कि
बेहद जीवंत और
काव्यात्मक भी था।
उनके इस 1 घण्टे
के वक्तव्य को
संत विनोबा भावे
परास्नातक विवि के
रिटायर्ड प्रधानाघ्यापक असीम सत्यदेव
ने हिन्दी में
लिपिबद्ध कर दिया।
यहां हम इसे
प्रस्तुत कर रहे
हैं।
नक्सलवाद उस प्रक्रिया
का नाम है
जिसमें मेहनतकश जनता ने
जमीन पर कब्जा
करना शुरू किया!
कागज पर जमीन
तो भू-स्वामियों
के नाम थी,
लेकिन असल में
उस पर मेहनतकश
जनता के खून
पसीने के ही
फसल लहराती थी।
नक्सलबाड़ी में चारू
मजुमदार जंगल संथाल
कानू सान्याल काम
कर रहे थे।
1967 की जनवरी फरवरी माह
में कांग्रेस से
अलग हुए नेता
ने भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी (मार्क्सवादी) के साथ
मिलकर सरकार बनाई।
ज्योति बासु इस
सरकार के गृह
मंत्री थे। इस
सरकार के कृषि
मंत्री किसानों को भूमि
का स्वामित्व दिलाने
की बात करते
थे। चारू मजुमदार,
कानू सान्याल और
जंगल संथाल यह
उम्मीद कर रहे
थे कि ‘जमीन
जोतने वाले को’ का
नारा लागू हो
जायेगा। इन्होने जमीन पर
कब्जा करना शुरू
किया दो महीनो
में नक्सलबाड़ी से
पंचदेवा तक 300 वर्गमील क्षेत्र
में जमीन पर
कब्जा करने की
60 घटनायें पुलिस में दर्ज
की! पश्चिम बंगाल
सरकार ने महसूस
किया कि वर्ग
संघर्ष शुरू हो
गया है। पुलिस
से लड़ने वाले
ज्यादातर संथाल आदिवासी थे।
वे पुलिस से
डरे नहीं। इन
लोगों ने तय
किया कि हम
राजसत्ता का विरोध
करेंगे उससे लड़ेगें।
तीर धनुष कुल्हाड़ी
हसिया से ही
पुलिस बल का
सामना किया। राज्य
सरकार ने इसे
चुनौती के रूप
में लिया। नक्सलबाड़ी
लाइन की विशेषता
थी कि- ‘तुम
हमला करो- राज
सत्ता को चुनोती
दो और संभव
हो तो कब्जा
भी कर लो।’
दरअसल 21 अक्टूबर 1951 में जब
कम्युनिस्ट पार्टी ने तेलंगाना
संघर्ष से औपचारिक
रूप से हाथ
खींच लिया, तबसे
उसने किसी संघर्ष
का नेतृत्व नहीं
किया। कम्युनिस्ट पार्टी ने
संसदीय रास्ता अख्तियार कर
लिया और संसद
विधानसभाओं में अधिक
से अधिक सीट
हसिल कर ली
और पूंजीवादी राजनीतिक
पार्टियों से गठजोड़
करने में लग
गयी! 1962-63 में इसने
भूमि पर कब्जे
की लड़ाई लड़ी,
लेकिन ये लड़ाई
जिलाधिकारी ऑफिस तथा
रेवेन्यू ऑफिसों तक सीमित
थी। जमीन पर
स्वामित्व का संघर्ष
जमीन पर नहीं
उतरा। यह काम
नक्सलबाड़ी ने किया
जिसका देशव्यापी असर
हुआ। 1968 सिरकाकुलम संघर्ष जमीन
पर मेहनतकश जनता
के अधिकार को
लेकर हुआ। मुसहरी,
लखीमपुर खीरी, पंजाब, वीर
भूमि केरल में
संघर्ष की आग
जली! मार्च 1967 से
1968-69 तक पूरे भारत
में संघर्ष फूट
पड़े। नवम्बर 1967 में
चारू व कानु
ने सोचा कि
इन सबमे तालमेल
होना चाहिए। सीपीआई
(एम) से इन्हे
निष्कासित कर दिया
गया। नवम्बर 1967 में
आल इंडिया कोआर्डिनेशन
कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट
रिवोल्यूशनरीज़ (एआईसीसीआर) का गठन
होने की प्रक्रिया
में देश के
विभिन्न हिस्से से लोग
जुड़े और 1969 को
इसका गठन हो
गया।
गौरतलब बात यह
है कि 1920 के
दशक में गठित
मूल कम्युनिस्ट पार्टी
द्वारा यह तय
नहीं किया कि
भारत में किस
तरह की क्रांति
करनी है! पार्टी
क्रांति के रास्ते
पर चलने वाले
प्रगतिशील तलाश करती
रही। कम से
कम तीन आन्दोलन
तेलंगाना, तिभागा, पुनप्पा वायलार
ऐसे हैं, जिनमें
जनमानस ने संघर्ष
किया और पार्टी
ने इसके नेतृत्व
करने का दायित्व
नहीं निभाया। 1948 में
रामेश्वर राव ने
आन्ध्र प्रदेश के अनुभव
के अधार पर
नवजनवादी क्रांति की बात
रखी थी। लेकिन
इसे आगे नहीं
बढाया गया। नक्सलबाड़ी
ने न केवल
इसे रास्ता दिखाया
बल्कि पूरे देश
में इसका नेतृत्व
किया। 28 अप्रैल 1969 को लेनिन
की शताब्दी वर्षगांठ
के अवसर पर
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी
लेनिनवादी) गठित हुई।
नक्सलबाड़ी संघर्ष में हजारों
लोग गिरफ्तार हुए,
मारे गए। 1971 से
इस मार्ग के
बारे में सवाल
उठने लगे! संघर्ष के
दौरान विश्वासघात हुए,
कुछ लोगों ने
संशोधनवादी रास्ता पकड़ लिया।
सरकार द्वारा क्रूर
दमन किया गया,
फिर भी नक्सलबाड़ी
लगातार जारी है।
चारू मजुमदार ने
अपने जीवन के
अंतिम काल में
लिखा था कि
‘नक्सलबाड़ी ज़िन्दा है और
रहेगा। कई
कठिनाइयां इसे झेलनी
पड़ेगी, विश्वासघात भी होगा, झटके
लगेंगे लेकिन भारत में
कई नक्सलबाड़ीं हैं
और यह जिंदा
रहेगा।’ इस आन्दोलन
की वह कौन
सी ताकत है,
जिसने इसे आज
भी जिंदा रखा
है।
इसकी 5 विशेषताए
हैं-
1- भारतीय समाज का
इसने सही विश्लेषण
किया और निष्कर्ष
निकाला कि यह
अर्ध-सामंती अर्ध
औपनिवेशिक चरित्र का है।
‘जमीन जोतने वाले
को’ का नारा
दिया! इस कार्यभार
के लिए 4 वर्गों
का संयुक्त मोर्चा
बनाना तय किया।
2- इसने वर्ग-संघर्ष के मुद्दे
को वापस लाने
का काम किया।
इसके पहले तेलंगाना
संघर्ष के छोटे
से काल के
अलावा कम्युनिस्टों ने
राजसत्ता पर कब्जा
करने का लक्ष्य
कभी नहीं अपनाया।
दीर्घकालिक लोक युद्ध के
जरिये इस लक्ष्य
को अपनाने का
रास्ता नक्सलबाड़ी ने अख्तियार
था। इसीलिए यह
आज तक जारी
है! वास्तव में
राजसत्ता पर कब्जा
करना एक कम्युनिस्ट पार्टी का
लक्ष्य होना चाहिए।
3- संसदीय रास्ते को
खारिज करना-भारत
में संसद सही
अर्थो में गठित
नहीं हुई। ब्रिटेन
में पूंजीवादी लोकतंत्र
आने पर संसद
गठित हुई थी,
भारत में ऐसा
नहीं हुआ। यहाँ
लोकतंत्र का फल
ही नहीं, इसका
पेड़ ही नहीं
लगा। बरगद इत्यादि
पेड़ो में भी
फूल खिलते है,
फल भी निकलते
है जिन्हें खाया
नहीं जाता, यहाँ
तो लोकतंत्र का
फल-फूल निकला
ही नहीं। इसलिए
यंहा की संसद
में जनता के
मुद्दे सही ढंग
से विचारार्थ रखे
नहीं जा सकते।
यहां नवजनवादी क्रांति
जरुरी है!
4- त्याग की महान
परंपरा-लक्ष्य के प्रति
जीवन समर्पित करने
की परंपरा नक्सलबाड़ी
की विशेषता रही
है, जो आज
तक चली आ
रही है!
5- इसकी बड़ी
शक्ति है -निरंतरता।
नक्सलबाड़ी के बाद
यह फैला और
चलता रहा है।
आज कई पार्टियां
है जो इसकी
विरासत का दावा
करती है। कुछ
ने संसदीय रास्ता
अपना लिया है
और कुछ ने
संघर्ष जारी रखा
है। इस तरह
आज भी कहीं
न कहीं झंडा
बुलंद किया हुआ
है! इस कारण
चारू ने कहा
था- ‘नक्सलबाड़ी मरा
नहीं है।’
बेशक इस रास्ते
पर चलते हुए
गलतियां हुई है,
कही-कही भयंकर
गलतियां भी हुई
हैं। लेकिन जैसा
कि इतिहासकार इ0एच0कर
ने कहा है
की ‘आप मुर्दों
से हिसाब नहीं
ले सकते।’ लेकिन
गलती ठीक करने
की प्रक्रिया में
दूसरी गलतियाँ भी
होती हैं। मध्यमवर्गीय
पृष्ठभूमि के कारण
वाम-दक्षिण दोनों
भटकाव होते रहे
है! साफ तौर
पर कई अतिवादी
रवैया गलतियों सज
कारण बना। जैसे-वर्गशत्रु का सफाया
ही एकमात्र रास्ता
है। बेशक वर्ग-शत्रु का सफाया
करना जरुरी हो
जाता है लेकिन
यह एक मात्र
रास्ता नहीं हो
सकता। 1975 का वर्ष
मुक्ति का वर्ष
होगा यह मध्यवर्गीय
आशा है। इस
तरह जनसंगठन को
महत्व नहीं देने
की गलती थी!
यह ठीक है
कि संशोधनवादियों ने
जनसंगठन के जरिये अर्थवाद
को बढ़ावा दिया,
जुझारू संघर्ष को धीमा
कर दिया, लेकिन
जनसंगठन के जरिये
यही होगा, ऐसा
मानना गलती थी,
जो नक्सलवाद से
हुई थी। इसी
वजह से विद्यार्थी-संगठन तक नहीं
गठित किये गए।
प्रेसिडेंसी कॉलेज सहित भारत
के उच्च संस्थानों से कई
जगह विद्यार्थी अपने
कैरिअर को छोड़कर
आये थे! उन्हें
जंगल, गाँव में
संघर्ष हेतु भेज
दिया!
नक्सलवाद और विद्यार्थी
इसके 4-5 चरण हैं
-
1- 1967 से 1972 - इन पांच
वर्षो में कोई
विद्यार्थी संगठन नहीं गठित
हुआ। इनका कोई
दूसरा मोर्चा नहीं
खुला।
2- 1972-75 तक (आपात
काल तक)-पूरे
देश में इस
काल में गलतियां
ठीक करने की
कोशिशें हो रही
थी। जनसंगठन को
पूरी तरह खारिज
करना एक बड़ी
गलती थी यह
महसूस किया गया।
नयी सोच यह
बनी कि जन-संगठन के जरिये
वर्ग चेतना जगायी
जा सकती है!
यहाँ तक कि
चारू मजुमदार ने
आखिरी पत्र में
जनसंगठन और जनसंघर्ष
को महत्वपूर्ण बताया।
फलस्वरूप देश भर
में विद्यार्थियों के
मंच-संगठन बनने
लगे! तिरुपति, हैदराबाद,
गुंटूर में डेमोक्रेटिक
स्टूडेंट, रेडिकल स्टूडेंट जैसे
संगठन बने। प्रदेश
स्तर पर इनको
संगठित करने के
लिए 1974 में प्रयास
किया गया। नवम्बर
में प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक
स्टूडेंट यूनियन गठित होने का
कार्यक्रम बना। वह
बहस हुई जिसमें
यह गलत दलील
दी गयी कि
विद्यार्थियों को केवल
विद्यार्थियों की समस्याओ
के लिए काम
करना चाहिए। बेशक
विद्यार्थियों के मुद्दे
फीस वृद्धि इत्यादि
जरुरी होते है, लेकिन
इसी मोर्चे तक
सीमित रहना ठीक
नहीं है। यह
अर्थवाद की ओर
ले जाता है।
वाद-विवाद हुआ। फूट
पड़ी तो ‘रेडिकल
स्टूडेंट यूनियन’ की स्थापना
हुई, लेकिन आपातकाल
लागू होने के
कारण फरवरी 1975 के
बाद खुले तौर
पर काम करने
का मौका नहीं
मिला। कार्यकर्ता भूमिगत
होकर गाँव चले
गए। गाँव में
रहकर अध्ययन के
दौरान यह पता
चला कि भारतीय
समाज के बारे
में नक्सलबाड़ी का
रास्ता सही है।
आपातकाल में विपक्षी
संसदीय पार्टियों के नेताओं
को गिरफ्तारियां भी
हुई थी, इसलिए
आपातकाल के बाद
जनवादी उभर तेज
हुए। मार्च 1977 के
बाद ऐसा हुआ।
3- 1977 से 1985 - इस दौरान
महत्वपूर्ण सफलतायें मिली। फरवरी
1975 में आन्ध्र प्रदेश में
रेडिकल स्टूडेंट यूनियन (आर०एस०यू०)
गठित हुई। इसकी
वारंगल में दूसरी
कांफ्रेंस हुई। ‘गाँव चलो’
का आह्वान किया
गया था। यह
नारा 1967 में चारू
ने भी दिया
था, लेकिन उस
समय गाँव में
सशस्त्र संघर्ष में उन्हें
शामिल करने का
कार्यक्रम लिया गया
था, जबकि 1976 में
विद्यार्थियों को गाँव
जाने पर जनमानस
से घुल-मिलकर
उनके बारे में
जानने-समझने, क्रान्तिकारी
सन्देश देने, उनके विभिन्न
संगठन बनाने जैसे
युवा संगठन किसान
संगठन, अल्पसंख्यक संगठन गठित
करने का कार्यक्रम
किया गया। इस
प्रक्रिया में रेडिकल
यूथ लीग, आंध्र
प्रदेश रैयत कुली
संघम, हेत्कारी सिंगरौली,
कामख्या जैसे संगठन
गठित हुए। विद्यार्थी
मोर्चे तथा सामाजिक
क्रांति के मोर्चे
पर सफलता मिली
थी। 1984 में ‘रेडिकल
मार्च’ का मै
सदस्य था। गाँव
जाने वाली टीम
में 7-8 विद्यार्थी एक गायक,
एक राजनीतिक कार्यकर्ता
होता था। निर्देश
था कि दलित
बस्ती में जाकर
खाना मांगे, गाना
गाये, लोगों के
बीच जाकर उनसे
बात करे और
संभव हो तो
उनका संगठन बनाये।
1984 में मैंने ‘रेडिकल मार्च’
पत्रिका के लिए
रिपोर्ट तैयार की! मैंने
देखा कि 1100 विद्यार्थियों
ने जिनमे 105 लडकियां
थी, 2419 गांवांे का दौरा
किया। वे एक
गाँव में 7 से
दस दिन तक
रहते, 50 लाख लोगो
में क्रन्तिकारी सन्देश
दिया। राजनीतिक अर्थशास्त्र,
नवजनवादी, क्रांति के बारे
में अध्ययन चक्र
चलाये गए। एक
साल में यह
सब हुआ। इस
तरह विद्यार्थी जनता
में क्रान्तिकारी सन्देश
पहुंचाने का प्रमुख
साधन साबित हुए।
1977 से 1985 तक अखिल
भारतीय स्तर पर
क्रान्तिकारी विद्यार्थियों का मंच
बनाने की प्रक्रिया
चली। अब तक
कम से कम
विभिन्न राज्यों में 17 विद्यार्थी
संगठन बन चुके
थे। 1983 में कोआर्डिनेशन
कमेटी बनी और
फिर ‘आल इंडिया
रेवोल्यूशनरी स्टूडेंट फेडरेशन’ का
गठन हुआ।
4- 1985-89 इस चरण
में रेडिकल स्टूडेंट
यूनियन पर रामाराव
ने प्रतिबन्ध लगा
दिया। उन्होंने कहा
कि ‘आटा, पाटा,
माटा सब बंद’,
यानि कोई क्रान्तिकारी
गाना, नृत्य-संगीत
नहीं होगा। आज
तक यह प्रतिबन्ध
लगा हुआ है!
५- पांचवा
चरण- भूमण्डलीकरण का
है। उदारीकरण, निजीकरण,
भूमंडलीकरण का दौर
1992 से शुरू हुआ।
इस साल बाबरी
मस्जिद ध्वस्त कर दी
गयी। इन नीतियों
का असर पड़ता
है। मध्यवर्ग का
चरित्र गिरता है और
क्योंकि विद्यार्थी मध्यवर्ग से
आते हैं, तो
उन पर कैरियर बनाने का
दबाव बढ़ जाता
है। 1992 से 2000 तक कह सकते
है की इस
दौरान विद्यार्थी आन्दोलन
का स्वरुप क्रान्तिकारी
नहीं रहा। विद्यार्थियांे
की समस्याओं से
जुड़े कुछ मुद्दे.
पहचान का संकट
इत्यादी मुद्दे लिए गए
लेकिन उनका स्वरुप
क्रान्तिकारी नहीं था।
समस्याओं का मार्क्सवादी
विश्लेषण उनमें नहीं था।
2010 के बाद फिर
विद्यार्थियों ने व्यवस्था
पर सवाल दागने
शुरु कर दिए।
यह अखिल भारतीय
स्तर पर दिखाई
देने लगा। जे०एन०यू०,
दिल्ली विश्वविद्यालय, जादवपुर, पंजाब, बी०एच०यू०,
पांडिचेरी विश्वविद्यालय हैदराबाद इत्यादि में
विद्यार्थियों की गतिविधियां
तेज हुई। आंबेडकर,
फुले, भगत सिंह
के नामों तले
विद्यार्थियों के संगठन
बने। रोहित वेमुला
का मामला, जे०एन०यू०
दिल्ली, जादवपुर विश्वविद्यालय के
विद्यार्थियां का संघर्ष
इसी की अभिव्यक्ति
है।
मौजूदा दौर में
हिंदुत्व के नाम
पर फासीवाद लागू
किया जा रहा
है! कोविद-19 वायरस
से उपजा कोरोना
के लॉकडाउन कराकर
करोडांे मजदूरों पर मुसीबतों
का पहाड़ खड़ा
कर दिया। प्रवासी
मजदूर कहलाने वाली
इस आबादी को
राजकीय दमन भी
झेलना पड़ रहा
है। इनको ‘प्रवासी’
कहना ही उस
अनुमान को सही
ठहरा रहा है
जिसमें भारतीय समाज को
अर्धसामंती, अर्धऔपनिवेशिक बताया गया था।
50 वर्ष पहले किया
गया नक्सलबाड़ी के
समय का अनुमान
सही था। भूमि
सुधार नहीं हुए
इसलिए 16 करोड़ मजदूर
प्रवासी हुए। देहात
अभी भी अर्ध-सामंती बने
हुए हैं। उदारीकरण,
निजीकरण, भूमंडलीकरण के नाम
पर साम्राज्यवाद को
लूट की छूट
देने की प्रक्रिया
का विरोध कर
रहे हैं। एक
हफ्ते पहले वित्त
मंत्री निर्मला सीतारमण के
वक्तव्यों से साफ
पता चलता है,
कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों
एवं निगमों को
निमंत्रण दिया जा
रहा है। यह
सब साबित करता
है कि भारत
एक अर्धसामंती, अर्धऔपनिवेशिक
देश है। जनवादी
क्रांति करनी होगी!
दीर्घकालिक सशस्त्र संघर्ष उसी
का हिस्सा है।
भारत की मौजूदा
संसद जनवाद नहीं
दे सकती। अतः
नक्सलबाड़ी ने जो
कहा था, उसे
हम मौजूदा समय
में कही ज्यादा
तथ्यों से स्पष्ट
करके देख सकते
है। इस समय
विद्यार्थी, बुद्धिजीवियो, लेखकांे, सक्रिय कार्यकर्ताओं
का दायित्व बनता
है कि पूरी
तस्वीर जनता के
सामने रखे। वे
दिखायें कि नक्सलबाड़ी
आज कहीं ज्यादा
प्रासंगिक है। नक्सलबाड़ी
का आह्वान था
‘गाँव चलो!’ 16 करोड़
प्रवासी मजदूरों में से
6 करोड़ वापस भेजे
गए हैं। ये
दलित हैं, आदिवासी
हैं, महिलाये हैं।
उन्हें क्रांतिकारी चेतना देने
की जरुरत हैं।
विद्यार्थी बुद्धिजीवियो, सामाजिक कार्यकर्ताओ को
यह दायित्व उठाना
होगा। इसके साथ
ही स्कूल, कालेजांे
तथा विश्वविद्यालयों को
‘प्रतिरोध के क्षेत्र’
में बदलना
है। साम्राज्यवाद, हिन्दूवाद,
आर्थिक-सामाजिक नीतियों का
विरोध जरुरी है।
‘हर जोर जुल्म
की टक्कर में
संघर्ष हमारा नारा है’-
एक चिरपरिचित आह्वान
रहा है। तो
जब आज जोर
जुल्म जारी है
तो हमारा दायित्व
है कि उसके
खिलाफ संघर्ष करें!
इसके बाद हुए
सवाल-जवाब के
सत्र में एक
सवाल का जवाब
देते हुए वेणुगोपाल
ने कहा- ‘‘ फीस
वृद्धि, विद्यार्थी यूनियन पर
प्रतिबन्ध, पाठ्यक्रम में विसंगति
इत्यादी विद्यार्थी समस्याए गंभीर
है और इन
पर संघर्ष करना
चाहिए लेकिन जरुरी
है कि शिक्षा
जगत की इन
समस्याओ का पूरी
व्यवस्था से संबंधो
को भी वस्तुपरक
ढंग से देखा
जाये
एक सवाल के
जवाब में उन्होंने
कहा कि -‘‘जाति
समस्या भारत की
एक विशिष्ट समस्या
है और नक्सलबाड़ी
ने इसे भी
गंभीरता से लिया
है! इसे वर्ग
-संघर्ष के कार्यक्रम
के तहत लिया
गया है और
यह विशिष्ट समस्या
के समाधान के
लिए आर्थिक -राजनातिक
मोर्चो के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चो को
भी गंभीरता से
लेना होगा।
एक सवाल के
जवाब में उन्होंने
कहा कि ‘‘भूमि-सुधार वस्तुतः कृषि
क्रांति का हिस्सा
है। ‘जमीन
जोतने वाले की’
का आह्वान नक्सलवाड़ी
ने इसी समस्या
को देखते हुए
किया था।
शुक्रिया असीम जी
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