उत्तर प्रदेश जो कि पिछड़ा और सामंती इलाका रहा है, में क्रांतिकारी संघर्षों का इतिहास समृद्ध है। नक्सलबाड़ी आन्दोलन का असर यहां के कुछ क्षेत्रों में गहरा रहा है, लेकिन इसका लिखित इतिहास नहीं है। केवल एक ही पुस्तक है जिससे इसके विषय मंे जानकारी मिलती है। वो है शिवकुमार मिश्र की ‘काकोरी से नक्सलबाड़ी’। जैसा कि नाम से स्पष्ट हो जाता है कि शिवकुमार मिश्र उत्तर प्रदेश के स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े रहे, और नक्सलबाड़ी के आन्दोलन में भी वे सक्रिय थे। वे उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव भी रहे और उन्हांेने कई आन्दोलनों का नेतृत्व किया। इस पूरे दौर के अनुभवों का संकलन है यह पुस्तक। उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारी आंदोलन और नक्सलबाड़ी आन्दोलन को बयान करने वाली शायद यह एकमात्र पुस्तक है। कम से कम मेरी जानकारी में दूसरी कोई पुस्तक नहीं है। मेरी जो भी समझ बनी है, वो इसी किताब को पढ़कर बनी है। क्योंकि इस समय उत्तर प्रदेश के इस इतिहास पर बात करने वाला या इसकी मुकम्मल तस्वीर खींचने वाला भी कोई नहीं नहीं है। इसलिए शिवकुमार मिश्र जी के हम बहुत शुक्रगुजार हैं, कि उन्होंने आज के क्रांतिकारियों को उनका अतीत, या उनका इतिहास सौंपा है।
इस किताब को पढ़ने
के बाद मेरी
जो समझ बनी,
वो ये कि
उत्तर प्रदेश के
अन्दर सशस्त्र संघर्ष
या क्रांतिकारी आंदोलनों
की जो धारा
है वो हमेशा
रही है, नक्सलबाड़ी
के पहले से
ही। यहां कम्युनिस्ट
पार्टियों के अन्दर
दो लाइनों का
संघर्ष हमेशा चलता ही
रहा। कम्युनिस्ट पार्टी
के अन्दर भी
और बाहर भी।
बल्कि स्वतंत्रता आन्दोलन
के दौरान चौरीचौरा
काण्ड जनता की
इसी स्वतःस्फृूर्त मिलिटेन्सी
का ही परिणाम
थी, जब वहां
की जनता ने
अंग्रेजी राज से
आजिज आकर पुलिस
थाना फूंक दिया
था। गांधी जी
ने इसे ‘हिंसक
कार्यवाही’ कह कर
इसकी निंदा की,
अफसोस जताया और
‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ वापस
ले लिया। भगत
सिंह का गांधी
जी से मोहभंग
भी यहीं से
हुआ। पूरे देश
के साथ उत्तर
प्रदेश की क्रांतिकारी जनता
भी निराश हुई।
इसके बाद भी
उत्तर प्रदेश के
क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास
में ये बार-बार हुआ
कि जनता आगे
बढ़ रही थी
और उन्हें नेतृत्व
देने वाले लोग
उनके पीछे थे।
बल्कि उन्हें भी
पीछे आने के
लिए मजबूर कर
रहे थे। उत्तर
प्रदेश के इस
इतिहास में नक्सलबाड़ी
वो महत्वपूर्ण बिन्दु
था, जहां पहली
बार कम्युनिस्ट पार्टी
से अलग हुआ
नेतृत्व और जनता
दोनों ने सशस्त्र
क्रांतिकारी आन्दोलन को सही
रास्ता माना और
दोनों इस पर
एक साथ आगे
बढ़े। भले ही
बाद में नेतृत्व
ने यह रास्ता
छोड़ दिया। यहां
यह भी उल्लेखनीय
है कि पार्टी
की उत्तर प्रदेश
राज्य समिति ज्यादातर
मौकों पर केन्द्रीय
समिति से अलग
राय रखते हुए
भी अन्ततः जनता
की गति के
साथ नहीं खड़ी
हो कर पार्टी
की उच्च कमेटी
के साथ खड़ी
हो जाती थी,
और लड़ रही
जनता को हर
बार जीती जा
रही लड़ाई हारनी
पड़ी, या उसकी
पहलकदमी ही बाधित
हो गयी। उत्तर
प्रदेश में यह
कई बार हुआ।
नक्सलबाड़ी के पहले
भी और बाद
में भी।
इस सन्दर्भ में शिवकुमार
मिश्र की किताब
में उल्लेख की
गयी कुछ घटनाआंे
को बताना चाहती
हूं-
दूसरे विश्व युद्ध के
समय उत्तर प्रदेश
राज्य कमेटी ने
‘साम्राज्यवादी युद्ध को साम्राज्यवाद
विरोधी युद्ध में बदलने
के लिए प्रदेशव्यापी
लगानबन्दी की महत्वाकांक्षी
योजना ली, लेकिन
केन्द्रीय समिति ने इस
योजना की अनुमति
नहीं दी। गौरतलब
है कि इस
योजना को अंजाम
देने का काम
किसानों के साथ
प्रांतीय नवयुवक संघ को
करना था, जिसे
भगत सिंह की
पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट प्रजातांत्रिक
संघ, आरएसपी और
कम्युनिस्ट पार्टी के नौजवान
कैडरों को मिलाकर
बनाया गया था,
लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व
का आदेश आया
कि इस संघ
को सुस्त पड़े
रहने दिया जाय।
इसके बावजूद उन्नाव
में लगानबंदी का
आन्दोलन तेज हो
गया, क्योंकि जनता
इसकी तैयारी कर
चुकी थी, उसने
इस आदेश को
नहीं माना, बल्कि
प्रांतीय समिति ने नीचे
की समितियों को
मना करने के
लिए ठोस तौर
पर कोई सूचना
ही नहीं दी।
शिवकुमार
मिश्र
1946 में जब तेलंगाना
का आन्दोलन हुआ,
इसी समय उत्तर
प्रदेश में भी
कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व
में जमींदारों के
खिलाफ शायद पहली
बार सुनियोजित तरीके
से संघर्ष शुरू
हुआ। यह संघर्ष
प्रदेश के एक
छोटे से जिले
उन्नाव के हसनगंज
तहसील में हुआ।
जहां के मकूरगांव
में कम्युनिस्ट पार्टी
का इतना प्रभाव
था, कि इस
गांव की एक
बस्ती को ‘मार्क्सनगर’
नाम से बसा
दिया गया था।
यह उनका आधारा
इलाका था, यहां
बसे सभी परिवार
कम्युनिस्ट थे। ये
लोग खेती भी
साझे में करते
थे। यह बस्ती
सशस्त्र संघर्ष में विश्वास
रखने वाले किसानों
का केन्द्र बन
गयी थी। तो
इसी गांव से
‘बेदखली रोको, बेदखल जमीनें
वापस करो’ नारे
के साथ किसानों
ने आंदोलन छेड़
दिया और अपनी
जमीनें जमींदारों से वापस
छीन लीं। यह
आन्दोलन गांव से
निकलकर तहसील तक में
फैल गया था।
इन किसानों का
हथियार केवल लाठी
था। लाठी से
लैस किसान अपने
को ‘लाल सेना’
कहने लगे। क्योंकि
यह सघर्ष तेलंगाना
की पृष्ठभूमि में
उठ खड़ा हुआ
था, इसलिए उसे
यहां ‘दक्षिण का
ध्रुवतारा’ कहा जाता
था। किसान बाहर
निकलने के समय
नारा लगाते थे
‘लाल सितारा चमकेगा,
लट्ठ हमारा बरसेगा’। इस
आन्दोलन के बाद
हसनगंज को ‘लाल
क्षेत्र’ घोषित कर दिया
गया था। इस
संघर्ष ने पार्टी
में नये नेतृत्व
को जन्म दिया,
जो जुझारू थे।
इसी आन्दोलन के
समय पार्टी ने
महिलाओं की ताकत
का भी एहसास
किया। इसी दौरान
एक बार जब
मकूर गांव के
अधिकांश मर्द नहर
में पानी की
मांग को लेकर
लखनऊ गये थे,
उस समय जमींदारों
ने गुण्डों और
मजदूरों के साथ
धावा बोल दिया
और किसानों के
खेत में खड़ी
तैयार फसल काट
लेने का हुक्म
दिया। यह देखकर
कम्युनिस्ट पार्टी के नेता
राम गुलाम सिंह
की पत्नी जगदम्बिका
देवी ने गांव
की सभी महिलाओ
को लट्ठ के
साथ एकजुट किया
और ‘राधेलाल की
बन्दूक छीन लो’
का नारा देती
हुई जमींदार के
गुण्डों पर हमला
कर दिया। इस
अप्रत्याशित हमले से
जमींदार को अपने
गुण्डों के साथ
वापस भागना पड़ा।
शिव कुमार मिश्र
इस घटना का
जिक्र करते हुए
कहते हैं कि
‘शाम को हमारे
लौटने पर हुई
सभा में हमारे
आग्रह पर जगदम्बिका
देवी ने पूरी
बात लोगों के
सामने रखी, इसके
बाद से जगदम्बिका
देवी की गणना
भी जिले के
वक्ताओं में होने
लगी। लेकिन आज
इसे ऐसे देखा
जा सकता है
कि कम्युनिस्ट पार्टी
के लोग सशस्त्र
संघर्ष में शामिल
करने के लिए
महिलाओं की ओर
उतना नहीं बढ़े,
जितना खुद महिलायंे
उनकी ओर बढ़ीं।
ऐसा अनुभव कई
जगह का है।
इतने अच्छे संघर्ष
के बाद पार्टी
ने इसका क्या
मूल्यांकन किया इसका
जिक्र किताब में
नहीं है लेकिन
आगे जो हुआ
इससे पार्टी के
नेतृत्व के संशोधनवादी
होने का साफ
पता चल जाता
है।
इन संघर्षों के बाद
मकूरगांव में जमींदारांे
के तीस घरों
का बहिस्कार चल
रहा था। जमींदार
बार-बार इन
पर बंदूकों से
हमले कर रहे
थे, और किसान
लाठियों से ही
उनका प्रतिकार कर
रहे थे। पुलिस
जमींदार की ओर
से किसानों को
पकड़ने आती थी,
लेकिन गांव के
अन्दर घुसने में
डरती थी। लेकिन
एक दिन उत्तर
प्रदेश सरकार का मंत्री
मार्क्सनगर में आ
गया। उसने आजादी
आते ही जमींदारी
प्रथा को जल्द
खत्म करने के
वादे के साथ
सहयोग करने के
लिए कहा। सहयोग
यह मांगा गया
कि किसान जमींदारों के खिलाफ
लिखे गये नारों
को दीवार पर
से मिटा दें
और वे किसान
अपनी जमानत करा
लें, जिन पर
मुकदमे दर्ज हो
गये हैं। उसकी
लिस्ट उन्होंने 15 दिन
के अन्दर भिजवा
देने को कहा।
किसानों को यह
बहुत अपमानजनक लगा
लेकिन पार्टी ने
इस आदेश को
मान लेने की
अपील की, क्योंकि
उनके आकलन के
हिसाब से आजादी
आने वाली थी।
लोगों ने अपमानित
हो कर दीवार
पर लिखे अपने
नारे को मिटाया।
कम्युनिस्ट पार्टी ने आजादी
का स्वागत करने
का फरमान जारी
कर दिया था।
प्रांतीय कमेटी में सभी
लोग इससे सहमत
नहीं थे, लेकिन
किसी ने विरोध
भी नहीं किया।
आजादी आने के
बाद जिन किसानों
पर मुकदमें दर्ज
थे, उन्हें जेल
में डाल दिया
गया। यहां तक
कि बांगरमऊ के
जोगीकोट गांव में
पुलिस ने गुण्डों
के साथ हमला
किया और यहां
के तीन प्रमुख
कम्यनिस्ट नेताओं सरजू प्रसाद,
बलदेव प्रसाद और
राजाराम को पकड़
कर घर के
सामने ही बांधकर
पीट-पीटकर अधमरा
कर दिया। सरकारी
अफसरों को हिदायत
दे दी गयी
कि वे कम्युनिस्टों
की कोई बात
न सुनें। किसानों
और पार्टी कार्यकर्ताओं
पर इतने मुकदमे
लाद दिये गये
कि सभी केवल
कचहरी के चक्कर
काटते रहे। ये
मुकदमें 1950-51 तक चलते
ही रहे। बीच-बीच में
सामंतवाद और साम्राज्यवाद
विरोधी संघर्ष की लहरें
उठती रहीं, जिसे
नेतृत्व सही समय
पर सही दिशानिर्देश
देने में हमेशा
ही चूक जाता
रहा। जैसे 1948 में
आजमगढ़ में किसानों
का स्वतः स्फूर्त
ढंग से बड़ा
संघर्ष हुआ, लेकिन
पार्टी का स्थानीय
नेतृत्व सही समय
पर सही दिशा
देने से चूक
गया क्योंकि उसे
ऐसे संघर्षों का
अनुभव ही नहीं
था। शिव कुमार
मिश्र की किताब
में यह जिस
तरीके से लिखा
है, उससे बहुत
कुछ समझ में
आता है। उन्होंने
लिखा है-‘प्रांतीय
कमेटी की बैठक
में कामरेड जयबहादुर
ने पूरा एजेंडा
ही बदल दिया
उसने रिपोर्ट किया-‘‘सूरजपुर को दस
हजार किसान तीन
दिन तक घेरे
पड़े रहे थे,
वे जमींदारों के
घरों को फूंक
देना चाहते थे,
वे सशस्त्र संघर्ष
की मांग कर
रहे थे, हम
हमला करवा सकते
थे, लेकिन बाद
में सोचा यह
पेरिस कम्यून बन
जायेगा, अपनी ही
विनाश लीला होगी,
अस्तु अभी किसानों
को समझा-बुझा
कर वापस कर
दिया है, मैं
पार्टी का आदेश
लेने आया हूं।‘...........‘लेकिन वह बीटी
रणदिवे के जमाने
का प्रारंभ काल
था। प्रांतीय कमेटी
में किसी का
साहस न था
कि वह किसी
संघर्ष के कदम
के प्रस्तावित हो
जाने पर उसका
विरोध करता। ..........केन्द्रीय
कमेटी के कामरेड
सरदेसाई भी आ
गये उन्होंने कहा
यह पेरिस कम्यून
नहीं तेलंगाना बनेगा।’’
इसके बाद यहां
आन्दोलन तेज करने
की योजना बनी,
लेकिन वहां जाते
ही सभी नेता
पकड़ लिये गये।
इसी दौरान बलिया और
बस्ती में भी
छुट-पुट संघर्ष
हुए।
1951 से पार्टी नेतृत्व फिर
से बदलने लगा।
उत्तर प्रदेश में
भी शिवकुमार की
जगह जेड ए
अहमद सचिव हो
गये। ऊपर के
लोगों में संघर्ष
की चेतना कम
हो रही थी,
लेकिन नीचे के
लोगों में बची
रही, 47 के बाद
भी।
1954 में बांगरमऊ के पंसड़ा
गांव में पार्टी
लाइन के खिलाफ
जाकर लोगों ने
एक सूदखोर महाजन
को मारा और
मारने वाले जत्थे
के नेता परमसुख
ने इस कार्यवाही
के बाद यहीं
पर भाषण भी
दिया। उस दिन
पंसड़ा के लोगों
ने तो दीवाली
मनायी, लेकिन पंसड़ा के
लोगों के पक्ष
में पार्टी खुलकर
नहीं आयी। जबकि
जनता ने परमसुख
को उन्नाव का
भगतसिंह घोषित कर दिया।
प्रांतीय कमेटी ने उसका
छिपे तौर पर
समर्थन किया, उसकी फासी
की सजा हटवाने
का भी प्रयास
किया, लेकिन सब
गुपचुप तरीके से। यह
वह समय था,
जब सशस्त्र संघर्ष
कानूनी लड़ाईयों में बदलने
लगा। बनारस से
आजमगढ़ के बीच
नदवासराय गांव में
जमीन कब्जाने तक
के लिए भी
सत्याग्रह किया गया
और किसानों को
बहुत मार खानी
पड़ी, जनता पलटवार
करने के लिए
तैयार भी थी,
लेकिन पार्टी का
हुक्म था कि
कोई हिंसक कार्यवाही
नहीं होनी चाहिए,
पिटते हुए भी
यही अपील की
जाती रही।
चीन-भारत के
यु़द्ध के समय
उत्तर प्रदेश की
पार्टी में दो
धारायें फिर से
घनीभूत होने लगी
क्योंकि सीपीआई ने चीन
की निंदा करने
का प्रस्ताव लिया
था, जिससे उत्तर
प्रदेश प्रांतीय कमेटी के
अधिकांश लोग सहमत
नहीं थे। इस
विरोध के कारण
उत्तर प्रदेश से
बड़े पैमाने पर
गिरफ्तारियां शुरू हो
गयी। जब शिवकुमार
मिश्र गिरफ्तार हुए
तो पीकिंग रेडियों
से समाचार आया
कि ‘उन्नाव से
माओत्से-तुंग गिरफ्तार।’
जेल से बाहर
आने के बाद
1964 में सीपीआई के पहले
विभाजन के पहले
ही उत्तरप्रदेश कमेटी
ने संशोधनवाद के
खिलाफ खुला विद्रोह
कर दिया। 150 लोगों
ने मीटिंग में
तय किया कि
वे डांगे नेतृत्व
के साथ नहीं
चलेंगे।
उत्तर प्रदेश के इस
विद्रोह के बाद
सीपीएम का गठन
हो गया, सबने
उत्साह महसूस किया, लेकिन
पूरे देश की
तरह उत्तर प्रदेश
में भी इसके
गठन के कुछ
समय बाद से
दो धारायें साफ-साफ नजर
आने लगीं, क्योंकि
लोग जिस क्रांतिकारी
और मार्क्सवादी लेनिनवादी
पार्टी बनने की
उम्मीद इस पार्टी
से कर रहे
थे, उसका अभी
भी अभाव था।
श्री नारायण तिवारी
जो कि केन्द्रीय
कमेटी की ओर
से प्रांतीय कमेटी
को देख रहे
थे वे खुद
नये केन्द्र से
भी असंतुष्ट थे।
शिवकुमार मिश्र खुद भी
कई अन्य लोगों
के साथ दिन
पर दिन ज्यादा
असंतुष्ट होते जा
रहे थे, लेकिन
केन्द्र से कभी
खुला विरोध भी
नहीं जता सके
ये उनकी किताब
से भी पता
चलता है।
देश भर की
हलचल का असर
भी लगातार हो
रहा था। कोलकाता
की पार्टी कांग्रेस
में जाते हुए
बंगाल के कुछ
लोग गिरफ्तार हो
गये थे। इन
पर आरोप था
कि ये लोग
चीन की तर्ज
पर बंगाल में
सशस्त्र क्रांति की योजना
बना रहे थे।
ये लोग भले
ही गिरफ्तार हो
गये और उनकी
योजना जमीन पर
नहीं उतर सकी
हो, लेकिन उत्तर
प्रदेश के लोगों
के दिमाग में
वे यह बात
छोड़ गये कि
क्रांति का रास्ता
यह भी हो
सकता है।
इस बीच लखनऊ
में भी राजेन्द्र
नाम के एक
प्रोफेसर साहब विदेश
से आये थे,
जिनके बारे में
यह बात फैल
गयी कि वे
क्यूबा में सशस्त्र
संघर्ष करने वाले
छात्रों के सम्पर्क
में हैं। उनसे
लोग मिला करते
थे और वे
गुरिल्ला रणकौशल पर लोगों
की क्लास लिया
करते थे। इनके
कुछ छात्र वर्दी
पहनकर शहर में
घूमा भी करते
थे। कम्युनिस्ट पार्टी
के लोग प्रोफेसर
राजेन्द्र को गुप्तचर
विभाग का बताते
थे। लेकिन नौजवान
इनसे प्रभावित थे
और पार्टी नेताओं
से छुप कर
वे इनसे मिला
करते थे। उनसे
प्रभावित हो कर
कैडरों ने शिवकुमार
मिश्रा सहित पार्टी
नेतृत्व पर निस्क्रिय
और कायर होने
के आरोप लगाया,
लेकिन वे कुछ
कर या समझ
सकने की स्थिति
में नहीं थे।
कुछ करने के
लिए प्रांतीय कमेटी
ने केन्द्र को
गुप्त विभाग कायम
करने का प्रस्ताव
भेजा, ताकि सशस्त्र
संघर्ष चलने पर
लोगों को भूमिगत
होने में आसानी
हो, लेकिन केन्द्र
इस प्रस्ताव पर
चुप्पी साध गया।
प्रांतीय कमेटी ने अपनी
पहल पर ढेर
सारे चीनी साहित्य
पढ़ना और पढ़वाना
शुरू करने के
लिए इसका गुपचुप
तन्त्र विकसित कर लिया,
जिसमें कानपुर के करेंट
बुक डिपों का
नाम विशेष रूप
से उल्लेखनीय है,
जो आज तक
वामपंथी साहित्य के लिए
जाना जाता है।
लेकिन केन्द्रीय समिति
ने इस पर
अंसतोष जाहिर किया।
इसी बीच चीन
का समर्थन करने
वालों की बड़े
पैमाने पर गिरफ्तारियां
हुई। इस समय
केन्द्रीय समिति की ओर
से सरकार को
लिखा एक पत्र
सभी गिरफ्तार कामरेडों
के पास पहुंचाया
गया, जिसमें सरकार
से माफी मांगने
का प्रारूप बताया
गया था। जिसमें
यह लिखने को
कहा गया था
कि कहा गया
था कि चीन
के मामले में
हममे और डांगे
में कोई मतभेद
नहीं था। हमने
सशस्त्र क्रांति की कोई
तैयारी नहीं की
है आदि। शिवकुमार
सहित उत्तरप्रदेश के
कई नेताओं ने
यह पत्र लिखने
से इंकार कर
दिया, बल्कि जेल
में ही माओ
की जो भी
रचना उपलब्ध हो
सकी उसे पढ़ने
में लग गये।
पार्टी के कैडरों
में गुरिल्ला युद्ध
की चर्चा तेज
हो गयी थी।
वे जेल में
सन्देश भेज कर
लड़ाई शुरू करने
की इजाजत मांग
रहे थे, लेकिन
इजाजत नहीं मिली।
शिवकुमार मिश्र पर यह
आरोप लगे कि
वे गुरिल्ला युद्ध
की तैयारी कर
रहे हैं, लेकिन
सच्चाई यह थी
कि वे भी
तय नहीं कर
पा रहे थे
कि क्या करना
है, बल्कि वे
इन आरोपों के
लिए सफाई देते
रहे। जेल से
बाहर आने पर
उन्होंने बहराइच के पहले
से चले आ
रहे किसानों के
आन्दोलन को आगे
बढ़ाने के बारे
में सोचना शुरू
किया, जहां किसानों
ने पहले ही
जमीनों पर कब्जा
कर लिया था,
लेकिन जमींदारों के
हमले के आगे
उन्हें पीछे हटना
पड़ा था। शिवकुमार
पार्टी के साथ
इस योजना को
अमल में लाते,
इसके पहले ही
प्रोफेसर राजेन्द्र विश्वविद्यालय के
छात्रों के साथ
‘जनता क्रांतिकारी दल’
का गठन कर
वहां पहुंच गये।
उन्होंने हमले भी
किये, लेकिन जमींदारों
के जवाबी हमले
में वे तितर-बितर हो
गये। इस असफलता
के बाद उन्होंने
कम्युनिस्ट पार्टी की स्थानीय
इकाई से सम्पर्क
किया। अगले दिन
अखबार में छपा
कि प्रोफेसर राजेन्द्र
को कम्युनिस्ट पार्टी
के शिवकुमार मिश्र
ने गुरिल्ला क्षेत्र
बनाने के लिए
भेजा है। पार्टी
इस बात से
बहुत नाराज हुई
और प्रोफेसर राजेन्द्र
का सहयोग करने
से इन्कार कर
दिया।
यह वह समय
था, जब उत्तर
प्रदेश में लोगों
का सत्ता से
मोहभंग हो गया
था और वे
फिर से संघर्ष
में जाना चाहते
थे, वे नयी
बनी कम्युनिस्ट पार्टी
की ओर देख
रहे थे, लेकिन
पार्टी क्योंकि अभी भी
संशोधनवाद के दलदल
से निकली नहीं
थी, और सशस्त्र
संघर्ष के बारे
में उसकी कोई
ठोस राय नहीं
बनी थी, बेशक
उसकी चिन्तन दिशा
उस ओर बार-बार जा
रही थी। जनता
के बीच आसानी
से कमेटियां बन
जाती थीं, लेकिन
उन्हें किस काम
में लगाया जाय
यह नेतृत्व को
समझ में नहीं
आता था। जैसे
इसी दौरान कानपुर
और कुछ अन्य
विश्वविद्यालयों में छात्रों
का मजबूत संगठन
बना, लेकिन इनके
लिए क्रांति से
जुड़ाव रखने वाला
कोई काम नहीं
था, इस कारण
इनके लिए पुलिस
को ‘मारो और
भागो’ कार्यक्रम दिया
गया, जो कि
बाद में अनियंंित्रत
हो गया, इनका
क्रांति के काम
में कोई इस्तेमाल
नहीं हो सका।
इसी बीच नक्सलबाड़ी
का आन्दोलन ‘वसंत
का वज्रनाद’ शुरू
हो गया। शिवकुमार
मिश्र श्रीनारायण तिवारी
और कई प्रांतीय
सदस्यों ने नक्सलबाड़ी
के आन्दोलन का
पक्ष लिया, लेकिन
बहुत खुल कर
नहीं। वे माकपा
से उम्मीद करते
रहे, कि वे
उनके लिखे दस्तावेजों
को पढ़ेगी और
समझेगी, लेकिन उल्टे पार्टी
ने इन दोनों
को पार्टी से
निकाल दिया। कई
जिला कमेटियां और
प्रांत के लोग
नक्सलबाड़ी के पक्ष
में थे। वसंत
के इस वज्रनाद
ने उत्तर प्रदेश
में वर्षों से
चले आ रहे
इस द्वंद को
हल कर दिया
कि क्रांति का
रास्ता क्या होगा।
खुद शिव कुमार
मिश्र ने लिखा
कि ‘‘....इसने देश
भर की क्रांतिकारी
शक्तियों को शस्त्र
बल द्वारा किसान मजदूरों को
सत्ता को संभव
बनाने के लक्ष्य
के साथ जोड़
दिया। ......नक्सलबाड़ी ने सशस्त्र
संघर्ष के सवाल
को जितनी स्पष्टता
और प्रखरता के
साथ हमारे समक्ष
प्रस्तावित कर दिया
है, आंतरिक सैद्धांतिक
संघर्ष के जरिये
सालों साल की
जद्दोजहद के बाद
भी शायद संभव
न हो पाता।’’
का.
चारू मजूमदार
इस आन्दोलन के शुरू
होने के बाद
उत्तर प्रदेश में
पहला आन्दोलन शाहजहांपुर
में हुआ, जो
कि आधी-अधूरी
तैयारी के साथ
हुआ। यहां के
पुवायां क्षेत्र में लगभग
250 किसानों ने जंगल
की खाली पड़ी
जमीन पर कब्जा
कर लिया। सरकार
ने इस आन्दोलन
की अगुवाई करने
वालों मायाप्रकाश और
ओमप्रकाश के खिलाफ
वारंट जारी किया
साथ ही किसानों
के साथ वार्ता
में लोगों को
और जमीन देने
की बात कह
कर अपनी ओर
भी कर लिया।
ये दोनों नेता
भी सरकारी हो
गये। इस आन्दोलन
के बाद प्रान्तीय
कमेटी से का.
चारू मजूमदार के
साथ सम्पर्क हो
गया। प्रदेश में
भी कोआर्डिनेशन कमेटी
बन गयी। जिसकी
अगुवाई में प्रदेश
में फिर से
सशस्त्र संघर्ष शुरू हो
गये। इस बार
पूर्वी इलाके को केन्द्रित
किया गया। लेकिन
इसका कोई अनुभव
न होने के
कारण योजना बनाने
में और उसे
लागू करने में
झोल रहा। गोरखपुर
में सशस्त्र संघर्ष
का आह्वान करते
हुए किसानों ने
सशस्त्र प्रदर्शन किया। इस
प्रदर्शन से ही
जमींदार इतना घबरा
गये कि उन्होंने
किसानों पर हमले
शुरू कर दिये।
किसानों की ओर
से अगुवाई नहीं
की गयी बल्कि
जवाबी कार्यवाही हुई,
जिसमें दो जमींदार
मारे गये। लेकिन
यह आन्दोलन भी
आगे नहीं बढ़
सका। 100 लोगों के खिलाफ
वारंट जारी कर
दिया गया, लेकिन
भूमिगत रहने की
लोगों की न
तो तैयारी थी,
न ही अनुभव,
सभी गिरफ्तार हो
गये। इस आन्दोलन
को नेतृत्व देने
वाले खुद सामंती
परिवार से थे,
उन्हें आजीवन मृत्युदण्ड की
सजा सुनाई गयी,
लेकिन वे अपने
पारिवारिक प्रभाव के चलते
छूट गये, बाकियों
को तेरह-चौदह
साल जेल में
रहना पड़ा।
बहरहाल यहां से
असफलता मिलने के बाद
लखीमपुर खीरी की
ओर रूख किया
गया। यहां पर
किसानों का सशस्त्र
विद्रोह पूरे देश
में जाना गया।
यहां पर पार्टी
ने पहले से
ही गुरिल्ला दस्तों
का गठन शुरू
किया, यानि हर
बार की घटना
से सबक लेते
हुए यहां की
तैयारी थोड़ी उच्च
कोटि की थी।
गुरिल्ला दस्तों ने यहां
के बड़े-बड़े
फार्मरों से बन्दूकें
छीनने का कार्यक्रम
लिया। नौजवानों की
टोली अलग से
बनी, जो किसानों
के बीच राजनीतिक
प्रचार करते थे,
इससे चिढ़कर एक
दिन जब फार्मर
जमींदार किसानों की झोपड़ियों
को जलाकर वापस
लौट रहे थे,
तो गुरिल्ला सेना
उन पर टूट
पड़ी, भागने वाले
जमींदारों को गांव
के लोगों ने
पारम्परिक हथियारों से मारा।
इस घटना के
बाद यहां पीएसी
के 1500 जवान लगा
दिये गये। जिससे
गुरिल्ला लड़ाकों को घर
छोड़कर जंगलों में
या वे जहां
से यहां मजदूरी
करने आये थे
वहां भागना पड़ा।
लेकिन यह संघर्ष
उत्तर प्रदेश का
नक्सलबाड़ी बन गया।
लेकिन गुरिल्ले बने
किसान इस घटना
के बाद और
एकजुट होने की
बजाय बिखर गये।
जो वहां जंगल
में या आस-आस छिपे
थे, उनका बन्दूक
छीनों अभियान भी
चलता रहा। टिकरिया
गांव में तो
बाकायदा गांव पर
हमलाकर जमींदारों की बन्दूकें
उनके घरों से
छीनी गयीं। वहां
भी इस घटना
के बाद पीएसी
तैनात कर दी
गयी, लेकिन वहां
जनता से वे
ऐसे घुलेमिले थे
कि एक भी
गिरफ्तारी नहीं हुई
जबकि इन कार्यवाहियों
के बीच ही
टिकरिया गांव में
छापामार कार्यवाही में शामिल
किसानों ने होली
का त्योहार खुलेआम
मनाया और जमकर
क्रांतिकारी गीत गाया।
जबकि भारत के
साथ नेपाल की
खुफिया एजेन्सी भी इन
लोगों पर नजर
रखे हुई थी।
लेकिन खुद शिवकुमार
मिश्र के शब्दों
में ‘लखीमपुर का
क्षेत्र शस्त्र संग्रह कार्यवाहियों
से आगे नहीं
बढ़ सका।’ उल्टे
पार्टी में फिर
से मतभेद उठने
शुरू हो गये।
इसलिए लखीमपुर खीरी
का यह क्षेत्र
आधार क्षेत्र बनने
के दिवा सपने
की तरह खतम
हो गया। लेकिन
लखीमपुर खीरी के
असर से नैनीताल
के तराई क्षेत्र
में भी किसानों
के संघर्ष शुरू
हो गये। यह
आन्दोलन केवल पूरब
और तराई क्षेत्र
में ही नहीं
फैलता जा रहा
था, बल्कि क्रांतिकारी
आन्दोलन के पुराने
केन्द्रांे उन्नाव, हरदोई में
भी तेज हो
गया था। नक्सलबाड़ी
के संघर्ष ने
इन शक्तियों को
भी मुक्त कर
दिया था। हरदोई
के मल्लावां और
माधोगंज में गुरिल्ला
दस्तों का निर्माण
तेज हो गया।
उन्नाव का अतहा
गांव किसान संघर्षों
का नया केन्द्र
बनने लगा। यहां
इसी बीच जमींदारों
ने पुलिस के
साथ मिलकर किसानों
की खड़ी फसल
को काटने के
लिए हमला किया,
लोगों की उम्मीद
के विपरीत दोनों
ओर से गोलियां
चलीं, पुलिस और
जमींदारो को खाली
हाथ लौटना पड़ा।
बाद में अतहां
गांव में कुख्यात
जमींदार शिवशंकर को मारा
गया। सरकार ने
यहां भी पीएसी
लगा दी। बांगरमऊ
में मनिकापुर के
कुख्यात सामंत रूपसिंह को
मारा गया, जिसके
घर दलित घर
की हर बहू
को पहली रात
गुजारनी पड़ती थी।
पूरब में भी
आन्दोलन की लपट
बस्ती वाराणसी जौनपुर
तक फैल गयी।
लेकिन नेतृत्व में पहले
मतभेद और फिर
आन्दोलन का रास्ता
ही बदल लेने
के कारण आगे
बढ़ता संघर्ष ठहर
गया। दरअसल 1967 में
जब कोऑडिनेशन कमेटी
बनी तो उत्तर
प्रदेश की इस
कमेटी ने उसी
समय केन्द्र से
अलग सोच प्रदर्शित
कर दी थी।
यानि जब आन्दोलन
संशोधनवाद के दलदल
से निकल रहा
था, तो उत्तर
प्रदेश कमेटी उस ओर
बढ़ने लगी। इस
बदलाव में मुख्य
बातें थीं कि
उसने गुरिल्ला युद्ध
को एकमात्र नहीं,
बल्कि मुख्य रास्ता
माना। यह सही
लग सकता है,
लेकिन अन्य रास्तों
में चुनावों को
भी शामिल कर
लिया गया। दरअसल
उत्तर प्रदेश कमेटी नक्सलबाड़ी
आन्दोलन के प्रभाव
से सशस्त्र गुरिल्ला
कार्यवाहियों में लगी
थी, लेकिन उससे
पूरी तरह सहमत
नहीं थी। उनका
मानना था कि
सशस्त्र कार्यवाहियां जनता की
ओर से होनी
चाहिए, न कि
पार्टी के प्रशिक्षित
दस्तों के माध्यम
से। इसके बाद
माले के गठन
के बाद जब
सत्यनारायण सिंह की
गुरिल्ला युद्ध को खारिज
करने की लाइन
आयी तो उत्तर
प्रदेश प्रांतीय इकाई ने
चारू मजूमदार की
बजाय सत्यनारायण सिंह
की लाइन का
पक्ष लिया। इससे
प्रदेश में आगे
बढ़ रही कार्यवाहियों
पर रोक लग
गयी। बल्कि शिवकुमार
मिश्र ने अपनी
कमेटी में बिना
बात किये ही
सत्यनारायण सिंह को
अपना समर्थन दे
दिया, जबकि यहां
चारू के समर्थक
लोग भी थे।
बाद में चारू
मजूमदार ने बिहार
और उत्तर प्रदेश
कमेटी को ही
पार्टी से निकाल
दिया। सत्यनारायण सिंह
के साथ उत्तर
प्रदेश की पूरी
कमेटी ही फिर
से संशोधनवाद के
दलदल में चली
गयी। उनके विरोधियों
ने विनोद मिश्र
के साथ एक
अलग पार्टी बनायी,
लेकिन दोनों ने
ही सशस्त्र संघर्ष
के रास्ते को
छोड़ दिया और
संसदीय रास्ते पर आगे
बढ़ गये। उत्तर
प्रदेश में इसके
बाद सालों तक
ऐसे आन्दोलन नहीं
हुऐ।
इन आन्दोलनों के सन्दर्भ
में एक बात
और जिसका जिक्र
अपनी पुस्तक में
शिवकुमार मिश्र ने हल्का
सा किया है
और जिसे आज
हम ज्यादा अच्छी
तरीके से समझने
की स्थिति में
भी हैं। वो
ये कि माओ
ने क्रांति के
लिए तीन जादुई
हथियारों के बारे
में बताया था।
पार्टी, जनसेना और संयुक्त
मोर्चा। इसमें पहले दो
के बारे में
तो नक्सलबाड़ी आन्दोलन
के कम्युनिस्ट अच्छे
से समझ चुके
थे और उसे
जमीन पर उतार
भी रहे थे।
लेकिन संयुक्त मोर्चा
के बारे में
उनकी समझ अभी
संकीर्ण ही थी।
जैसे उत्तर प्रदेश
के इन आन्दोलनों
में दलितों की
बहुत मजबूत भागीदारी
रही, लेकिन दलित
होने के नाते
उनके दमन के
बारे में पार्टी
की कोई योजना
नहीं थी, जबकि
दलित अलग से
जातीय संगठन बना
कर लड़ भी
रहे थे, लेकिन
पार्टी उन्हें सुधारवादी और
क्रांतिविरोधी कहती थी।
शिवकुमार मिश्र ने लिखा
है कि 1948 के
आसपास जब वे
सुल्तानपुर में भूमिगत
थे, तो उन्होंने
देखा कि उस
क्षेत्र के जमींदारांे
को सवर्णों का
सहयोग है और
इस रूप में
भी वे एकजुट
हैं, उनसे लड़ने
के लिए वहां
पर उस समय
‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ और
‘पिछड़ा वर्ग संघ’
बन गया था,
जो शिवकुमार मिश्र
से मिला और
साथ लड़ने का
मन भी बनाया।
शिवकुमार मिश्र ने पार्टी
को लिखकर कहा
कि ऐसे संगठनों
के बारे में
यह धारणा रखना
कि ये क्रांतिविरोधी
हैं, ठीक नहीं
है। पार्टी ने
उनके इस पत्र
को मुखपत्र ‘विप्लव’
में छाप दिया,
लेकिन इस पर
न बहस की,
न ही अपना
मत व्यक्त किया,
न ही उन्हें
नजदीक लाने का
कोई कार्यक्रम ही
लिया। यह स्थिति
वामपंथी पार्टियों में आज
तक बनी रही,
जिसके कारण उत्तर
प्रदेश दलित उत्पीड़न
से ज्यादा ‘पहचान’
की राजनीति मजबूत
हुई। दलित ‘संगठन’
के रूप में
वामपंथी पार्टियों के करीब
आने में आज
तक हिचकिचा रहे
हैं। आज भी
इस जड़ता को
तोड़ने के प्रयास
छुटपुट ही दिखाई
देते हैं, जबकि
दलित आन्दोलन स्वतःस्फूर्त
ढंग से तेज
हो रहे हैं,
लेकिन उनका आन्दोलन
व्यवस्था परिवर्तन से नहीं
जुड़ने के कारण
बार-बार खड़ा
होकर धराशायी हो
जा रहा है।
आज उत्तर प्रदेश
की वामपंथी आंदोलनों
के लिए यह
एक चुनौती है।
सालों बाद उत्तर
प्रदेश में क्रांतिकारी
आन्दोलन खड़ा होने
की तैयारी में
एक बार फिर
है, जो इन
आन्दोलनों से प्रेरणा
और सबक दोनों
ले रहा है।
दो तीन बातें
और- जो कि
विरसम के मंच
पर होना बेहद
जरूरी है-
हर आंदोलन प्रगतिशील और
क्रांतिकारी साहित्य को जन्म
देता है। नक्सलबाड़ी
ने भी दिया।
उत्तर प्रदेश के
नहीं बल्कि हिन्दी
साहित्य की बात
करें, तो नक्सलबाड़ी
आन्दोलन के पहले
साहित्यकारों में जो
व्यवस्था से मोहभंग,
निराशा और बेचैनी
की स्थिति बनी
थी, उसकी सबसे
मुखर अभिव्यक्ति मुक्तिबोध
की कविता में
मिलती है। उनकी
कविता और लेखन
में उस निराशा
के दौर में
मध्यवर्गीय बौद्धिक लेखन, चिन्तन
और इस बेचैनी
से निकलने की
बेचैनी बहुत साफ-साफ महसूस
की जा सकती
है। सिर्फ बेचैनी
ही नहीं बल्कि
विकल्प के तौर
पर बने-बनाये
ढर्रे को तोड़ने
की अपील और
साहस भी उनके
लेखन में साफ
दिखाई देता है।
यदि प्रेमचंद के
प्रसिद्ध वाक्य ‘साहित्य राजनीति
के आगे चलने
वाली मशाल है’
को याद करें,
तो मुक्तिबोध की
कविता की ये
लाइनें-
‘‘अब अभिव्यक्ति के
सारे खतरे उठाने
ही होंगे,
तोड़ने ही होंगे
गढ़ और मठ
सारे’’ उस समय
संशोधनवाद के मठ
को तोड़ने की
अपील करते हुए
ही सुनाई देती
है। राजनीति में
भी साहित्य में
भी। मुक्तिबोध कविता
की इस मशाल
के जलने के
बाद नक्सलबाड़ी का
आन्दोलन हुआ और
उसने सारे गढ़
और मठों को
तोड़ कर रचनात्मकता
को भी मुक्त
कर दिया। आजादी
के आन्दोलन के
बाद से ठहरे
हुए साहित्य में
प्रवाह आ गया
और इसने नागार्जुन,
धूमिल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,
आलोक धन्वा, हरिहर
ओझा, गोरख पाण्डेय
जैसे कवियों और
संजीव, सृंजय, जैसे कहानीकारों
की फौज ही
खड़ी कर दी,
जिन्होंने नक्सलबाड़ी की उपलब्धियों
को जनता के
बीच छींट दिया।
इनके अलावा बहुत
से अज्ञात जन
गीतकारों की फौज
भी तैयार हो
गयी, जिनके नाम
का पता नहीं,
लेकिन उनकी रचना
अमर हो गयी।
यह किसी रचनाकार
की एक बड़ी
उपलब्धि है। हिन्दी
साहित्य ही नहीं
नक्सलबाड़ी ने हिन्दी
से जुड़ी हर
बोली के साहित्य
को क्रांतिकारी चेतना
और फलतः रचना
से समृद्ध कर
दिया, हर गांव
में ऐसी रचनायें
भरी पड़ी हैं,
जहां ये आन्दोलन
नहीं भी पहंुच
सका, वहां इन
आन्दोलनो से उपजा
साहित्य पहुंचा। नक्सलबाड़ी के
दौर में रची
गयी रचनायें आज
भी लोगों को
उद्वेलित कर रही
हैं, लेकिन आज
जिस फांसीवादी दौर
में हम पहंुच
गये हैं, उसमें
एक बार फिर
वैसी ही स्थिति
बनती नजर आ
रही है जैसी
कि नक्सलबाड़ी के
पहले वाले समय
में थी। बेशक
आज उस दिशाभ्रम
की स्थिति नहीं
है, जो उस
वक्त थी क्योंकि
नक्सलबाड़ी के रास्ते
पर चल रहे
आंदोलन मजबूत हो रहे
हैं, लेकिन साहित्यकारों,
बुद्धिजीवियों का उनसे
जुड़ाव नहीं हो
पा रहा हैं,
हिन्दी पट्टी के साहित्यकारों
का तो नहीं
ही। क्यों इसे
मैं ठीक-ठीक
चिन्हित नहीं कर
पा रही हूं,
शायद इन्हें जोड़ने
वाली कड़ी गायब
है, शायद यह
मौजूदा आन्दोलन की सीमा
है। दूसरी ओर
फांसीवाद का शिकार
कभी भी हो
जाने के डर
का शिकंजा लोगों
पर कसता जा
रहा है। लेकिन
इस डर से
बेचैनी बढ़ रही
है, साहित्य और
संस्कृति फिर से
एक देशव्यापी आंदोलन
का इंतजार कर
रही है, ताकि
उनकी भी ऊर्जा
मुक्त हो सके।
एक बात और-
नक्सलबाड़ी के आन्दोलन
के दौर में
बहुत ही क्रांतिकारी
रचनायें की गयीं,
लेकिन चूंकि उस
आन्दोलन में भारतीय
समाज की बहुत
सी बुराइयों पर
प्रहार नही किया
गया, इस कारण
इनमें से बहुत
सी रचनायें भी
इन बुराइयों से
लैस थीं। जैसे
नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बहुत
ही क्रांतिकारी और
चहेते कवि धूमिल
की रचना में
बहुत सारे स्त्री
विरोधी बिम्ब है, साथ
ही वे पितृसत्तायुक्त
पिछड़ेपन से भरी
हुई हैं। कवितायें
ही नहीं, कई
कहानियां भी आन्दोलनों
में महिलाओं की
सीमित भूमिका का
ही बखान करती
हैं। हलांकि बहुत
सी कहानियां और
कविता इस व्यवस्था
की इस सामंती
जकड़न को तोड़न
वाली भी हैं।
इसे लेखक की
अपनी जनवादी चेतना
की सीमा मान
सकते हैं, लेकिन
किसी भी जनवादी
आन्दोलन का काम
इस बौद्धिक सीमा
को तोड़ना भी
है। इसलिए इस
रास्ते पर चलते
हुए आगे आने
वाले आन्दोलनों से
हम उम्मीद करते
हैं कि वह
भारत में जनवाद
लाने वाले ऐसे
हर सवाल से
टकरायेगा और इस
बौद्धिक सीमा को
तोड़कर नये जनवादी
साहित्य के सृजन
की ऊर्जा को
भी मुक्त करेगा।
यह लेख 2017 में नक्सलबाड़ी
आन्दोलन के 50 साल पूरे
होने के अवसर
पर क्रांतिकारी लेखक
संगठन ‘विरसम’ द्वारा हैदराबाद
में आयोजित दो
दिवसीय सेमिनार में पढ़ने
के लिए लिखा
गया था।
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