Saturday 30 May 2020

वरवर तुम्हारी क़ैद और हम औरतों की कारा- अमिता शीरीं




80 साल के क्रांतिकारी कवि वरवर राव पिछले 18 महीने से जेल में हैं. उन पर भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने का आरोप है जो कि पूरी तरह फर्जी है, सही बात ये है कि वरवर राव अपनी कविता के माध्यम से, अपने वक्तव्यों के माध्यम से इस शोषणकारी व्यवस्था की पोल खोलने और लोगों को इसके खिलाफ बोलने के लिए प्रेरित करते हैं. सरकार ओजपूर्ण कविता से डरती है, सरकार जनता के प्रति और देश के प्रति प्रतिबद्ध कवि से डरती है, इसलिए ही 80 की उम्र में भी उन्हें जेल में डाल देती है. कल ही यह चिंता जनक खबर आई है कि वे जेल में अचेत हो गए और उन्हें अस्पताल में ले जाया गया है. हम उनके अच्छे इलाज के साथ उन्हें जेल से रिहा किये जाने की मांग करते हैं.
उनकी यह पहली जेल यात्रा नहीं हैं. इसके पहले वे लगभग 5 बार जेल जा चुके हैं, वाणी प्रकाशन से उनकी जेल डायरी प्रकाशित हो चुकी है, यह उनकी जेल डायरी पर एक टिप्पणी है.

वरवर राव, समझ में नहीं आता तुमसे (आपसे तुममें ज्यादा सामीप्य है) किन शब्दों में बात करूं। अभी अभी तुम्हारी जेल डायरी पढ़ कर खत्म की। समूची किताब पढ़ते हुए दिल और दिमाग दोंनों हाहाकार करते हुए समुद्रममें कश्ती से डोलते रहे। एक अनूठी साहित्यिक तृप्ति........... और एक बेचैन करने वाले  राजनीतिक उद्वेलन की लहरों पर डोलती रही दिल और दिमाग की नैइया.........
वरवर, तुम्हे कैसे बताऊं कि काराका अर्थ हम औरतों से ज़्यादा कौन आत्मसात कर सकता है। शायद तुम अपनी बूंद की तरह सघन संवेदनशीलता और अपने प्रतिबद्ध राजनीतिक विचार के कारण हमारी इस कै़दको महसूस कर सकते हो। वरवर, हमारी यह क़ैद इतनी घनीभूत और सार्वजनिन है कि उसे महसूसना और उसे शब्द देना कम प्रतिभा के बूते पर सम्भव नहीं है। पर शायद तुम यह कर सकोगे। हमारी क़ैद का विस्तार और हमारी स्वतन्त्रता की क्षुद्रता को व्याख्यायित करने और इसे पलट देने का उद्वेलन ही वह चीज़ है जिसे कह डालने को जी करता है। पर वह सबके बस की बात नहीं है। पर तुम्हारी जेल डायरी पढ़ते वक्त अहसास हुआ कि वह कूबत तुममे है। जेल (कारा/क़ैद ) को व्याख्यायित करने के लिए सही शब्द हैं तुम्हारे पास। इसीलिए इस उम्मीद में कि शायद तुम जिस तरह पक्षियों की उड़ान को छू सकते हो, तुम हमारी क़ैद को भी महसूस सकते हो, तो तुमसे बतियाने को जी हो आया।
वरवर, तुम्हारी किताब (क्रान्तिकारी कवि वरवर राव की जेल डायरी, वाणी प्रकाशन) के प्रथम अध्याय (अन्तहीन प्रतीक्षा) से शुरू करूं-तो हम औरतें तो एक अनन्त प्रतीक्षा की पर्याय हैं। तुम्हारी जीवन संगिनी हेमा अक्का से बेहतर इसे कौन बता सकता है। तुम्हारे जेल के भीतर और जेल के बाहर रहते हुए, तुम्हारे लिए उनकी प्रतीक्षा- तुम दोनो की जीवनगाथा बन चुकी है। इसी किताब में कामरेड हेमा द्वारा उल्लिखित एक क्रान्तिकारी लेखक के साथ गुजरा समयमे इसका हृदयस्पर्शी चित्रण है। यह वह भाषण है जो उन्होने तुम्हारे काव्यसंग्रह साहसगाथाके विमोचन समारोह में बोलते वक्त दिया था। (तुम उस वक्त भी जेल में थे) हेमा अक्का का सारा जीवन तुम्हारी सांसों के उतार-चढ़ाव के साथ छन्दबद्ध रहा। यह नहीं कहूंगी कि उनका जीवन तुम्हारी जीवनदरिया में डूबती-उतराती कागज की कश्ती सा है। उनका अपना हाहाकार करता विशाल स्वतन्त्र समुद्र है, पर उसमें तुम्हारी जीवन लहरें समाहित हैं जिन्हे अलग करना असम्भव है। हेमा अक्का उसमें पिछले पांच दशकों से डूब उतरा रही हैं। तुम्हारे जीवन की क़ैद में स्वेच्छा से बन्दी, हम औरतों सी एक अन्तहीन प्रतीक्षा- हेमा अक्का को क्रान्तिकारी सलाम! तुम्हे कैसा लगेगा यदि मैं कहूं -
श्रम ही श्रम
प्रेम ही प्रेम
इतिहास के इस छोर से उस छोर तक
एक अन्तहीन प्रतीक्षा......हम औरतें!!

तुम्हारी जेल डायरी का अगला अध्याय है- वृक्ष

अपनी ही धरती में
वृक्ष की क़ैद
हमारी ज़िन्दगी
शाखाएं मुक्ति के लिए
आग्रहरत/लहराती/छटपटाती
बेचैन हमारी बाजुएं हैं
पत्तियां हमारा सुख-चैन/धैर्य
विकल हो
झड़ जाती हैं अक्सर.
पर हमारा अस्तित्व
हमारी जड़ों में है
जितने हम ऊपर
उतनी ही भीतर हमारी क़ैद
हमें अपनी जड़ों में ही सुराख़ करना होगा.........

वरवर, तुम्हारी यह बात बिल्कुल सही है कि जेल में भी पेड़-पौधे-फूल-फल होते हैं। हमने भी अपने हरेपन को कम नहीं होने दिया कभी। फल-फूल बन कर खिलते रहे हैं सदा। धूप-बारिश और प्रतिकूल मौसमों को झेलते। वसन्त ऋतु में श्रृंगार में तब्दील हो जाते हैं हम। हमारे जीवन का हरापन औरों को जीने की छाया देता है। पर हम अपनी इस जड़ (क़ैद) का क्या करे, यही बात सालती है सदा। इसलिए तुम्हारी जेलडायरी (कै़दडायरी) बहुत उद्वेलित कर गयी है मुझे।
तुम्हारे बहाने बहुत सी बातें कहने का मन हो रहा है। पन्ने दर पन्ने......... अध्याय दर अध्याय.......। अध्याय दर अध्याय बात कहूं तो बात मुख़्तसर होगी वरना एक नयी किताब ही लिखनी होगी। चलो तुम्हारी किताब के एक अध्याय की बात करें-पत्रिकाएं और पुस्तकें। पल/पल, सचेत/अचेत रूप से इतिहास का निर्माण करती औरतों की दुनिया में हल्दी-मिर्च-मसालों सी कहां समा पाती हैं पत्रिकाएं-पुस्तकें और अखबार? पचास करोड़ में कितनों के हिस्से आता है सुबह सुबह अखबार पढ़ने का अपना वक्त। कितनी महाश्वेताएं, अनामिकाएं और मैत्रेयी पुष्पाएं हैं? (तेलगू की लेखिकाओं की जानकारी मुझे नहीं है) सुकुरात से लेकर आज तक दर्शन में एक भी महिला का नाम न होना अनायास नहीं है। अतीत के नाम पर लोपामुद्रा, अपाला, गार्गी के नाम की माला जपते हैं हम। पश्चिम में सीमोन द बोउआर बस्स। और भी होंगी कुछ। मतलब यह कि मानवीयता के इतिहास में महिला दार्शनिकों के नामों की लड़ियां अगर पिरोई जाए तो एक छोटी सी माला बनेगी बस। साजिशन औरतों को अज्ञान ही आनन्द है’ (अरस्तू) की क़ैद में रखा गया है।
उत्तर भारत में तो औरतों की यह कारा और अंधेरी और गहन है। एक तरफ धान-पिसान, व्रत-त्योहार करती दिनरात हाड़तोड़ मेहनत करती मजदूर-किसान औरतें हैं जिनके पास अपना एक पल भी नहीं। दूसरी तरफ घर-गृहस्थी की चक्की में पिसती, ऊब की हद तक फूहड़ मेकअप में, बड़ी संख्या में मध्यवर्गीय औरतें हैं। कब मुक्त होंगी यह ? कब और कैसे टूटेगी इनकी कारा। इनकी कै़द में कहीं कोई एकान्त नहीं जहां वह इन सबके अलावा कुछ सोच सकें। अपनी जेल में वह ज्ञान की पत्रिकाएं और पुस्तकों की बात सोच भी नहीं पातीं। पुस्तक पर तुम्हारी खूबसूरत कविता-
पुस्तकों में भी
मनुष्य जमीन की परतें उखाड़ते हुए
अक्षरों के बीज बोता हुए
आगे बढ़ने का दृश्य ही दिखाता है मुझे.........

 औरतें मनुष्य कहां हो पायीं हैं अब तक? यही वेदना मथती रहती है वरवर। शायद तुम भी व्यथित होगे।
वरवर, तुम्हारे होने के प्रत्येक पहलू में मां की प्रतिच्छाया है। वरवर, यही सच है कि हमारी ग़ुलाम मां- हमें अपनी देह से मुक्त करके एक शाश्वत मुक्तिदेती है और हम इस दुनिया में आने के बाद धीरे धीरे अपनी मां की तरह ही ग़ुलाम हो जाते हैं। वरवर, हमें अपनी मां को मुक्त कराना है-उसकी क़ैद में सुराख करना है। यह तो तुम समझते ही हो। यही तुम्हारी/हमारी बेचैनी है। जेल की कै़द में तुमने मां को और भी करीब से महसूसा है। इसीलिए तुमने मां का धरती और फिर ब्रह्माण्ड तक विस्तार किया है। वरवर, यह सही है कि दुःख में मां हमारी आंखों से आंसू बनकर बरसती है। सुख में वसन्त बनकर छा जाती है हमपर पर उसके अपने पत्ते झरते ही रहते हैं हरदम। यही मां (जीवन) का द्वन्द है। वरवर, हमें/तुम्हें अपनी मां को आज़ाद कराना है।
मां मुझे जन्म देने के लिए
क्रान्तिकारी सलाम!!!
और कितना लिखूं ? वरवर, तुम्हारी पुस्तक के शेष अध्याय-आशा, निराशा, पराधीनता, स्वाधीनता सब हमारे ही तो पर्याय हैं-हमारा ही संश्लेषण है-हमारी ही व्याख्या है-विस्तार है। तुमने बिल्कुल सही लिखा है-पराधीन संसार का छोटा पिंड ही यह जेल है’’। एक जेल से छूटो तो शत्रु दूसरी कै़द की हथकड़ियां लिए सामने खड़ा रहता है।

तीन सिर वाले शेर के मांसल पैरों के नीचे
तेज़ नाखूनों के बीच
न हिलडुल पाने वाले धर्मचक्र के स्वभाव को
परिभाषित करने में ही
आधा जीवन बीत गया ।
इन क्षीण जीवनों और
गत प्राणों के लिए
कौन उत्तरदायी है? (इसी पुस्तक में उद्धृत कन्नाभीरम की कविता  )

वरवर, हमारा कफ़स तो बहुत तंग है- आज़ाद होने के लिए हम लगातार अपनी चोंच, अपने डैनों से तीलियों पर वार करते ही रहते हैं- हमारे पर लहूलुहान हैं। किन्तु हम अन्त तक टकराते हैं क्योंकि
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ हवा कुछ हसरते परवाज़ की बातें करें
वरवर, जैसे जेल तुमको कै़द नही कर सकती - वैसे ही हमारी परवाज़ की हसरत कभी नहीं मरती। वरवर, हम जानते हैं कि मुक्ति निरपेक्ष नहीं होती। आपके शब्दों में क़ैद, शिविर, ज़ंजीरें सभी शत्रु की है। उस शत्रु को कै़द किये बगैर मुक्ति सम्भव नहीं। अधिकांश को मुक्त किये बगैर मुक्ति संभव नहीं। ब्रह्माण्ड को मुक्त किये बगैर मुक्ति सम्भव नहीं। उस ब्रह्माण्ड को हम अपने गर्भ में धारण करते हैं। हम ब्रह्माण्ड को गर्भ से मुक्त करते हैं। हमारी मुक्ति के बगैर ब्रह्माण्ड की मुक्ति सम्भव नहीं। हमारी क़ैद ब्रह्माण्ड की कै़द है।

अन्ततः चिरमुक्ति की आकांक्षिणी
तुम्हारी एक पाठिका
अमिता शीरीं

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