Friday, 1 May 2020

मजदूर दिवस: दुश्वारियों में फंसा मजदूर - सीमा आज़ाद



1 मई, यानि मजदूर दिवस। इस बार का मजदूर दिवस पिछले सभी मजदूर दिवस से अलग होगा। वह दिन, जब मजदूर अपनी ताकत का एहसास खुद करते हैं और अपना इतिहास उन्हें भूल गये लोगों के सामने रखते हैं। लोग एक बार फिर याद करते हैं कि दुनिया उनके ही श्रम से चल रही है। इस साल 1 मई को भारत सहित लगभग पूरी दुनिया के मजदूर कोरोना और अर्थव्यवस्था के लॉकडाउन की मुसीबतें झेल रहे हैं। सामूहिक अनुशासन में काम करने वाला मजदूर इस बार बिखरा हुआ है। वह तो अपने कार्यस्थल पर है, ही अपने घर पर। पूरी दुनिया के लिए माल उत्पादन करने वाला मजदूर आज लाचार और मजबूर कर दिया गया है। भारत में इस लॉकडाउन को जिस तरह से लागू किया, उसने उनकी स्थिति को और भी दयनीय बना दिया है। जहां वे काम करते थे, वहां उनके पास वह काम नहीं है, जो उनके श्रम को मूल्य में बदलता है। उनके पास लौटने के लिए गांव है एक घर है और कछ के पास थोड़ी-मोड़ी जमीन। लेकिन वहां वे लौट नहीं सकते, क्योंकि यातायात के साधन लॉक है। मजबूरी में वे हजारों किमी की या़त्रा पैदल या साइकिल से कर रहे हैं। उनकी इस अनन्त यात्रा का दृश्यस्टे एट होमवाले लोग टीवी पर देख रहे हैं। मजदूर दम्पतियों के छोटे-छोटे बच्चे भी बड़ी-बड़ी गठरियों के साथ पैदल चलने के लिए सड़कों पर छोड़ दिये गये हैं। कई महिला मजदूर भविष्य का मजदूर पेट में लिए सड़कों पर सैकड़ों और हजारों किमी पैदल चलने के लिए मजबूर हैं। ऐसा लॉकडाउन भला किसे अच्छा लगेगा। क्या ये सरकार उनकी नहीं है या ये इस सरकार के नागरिक नहीं है। मजदूरों के लिए श्रम कानूनों में वर्णित जीवन सुरक्षा उपायों की धज्जियां उड़ते पूरा देश देख रहा है। छत्तीसगढ़ के एक परिवार की बच्ची का, हजार किमी की पैदल यात्रा के बाद घर पहुंचने के 11 किमी पहले ही दम निकल गया। एक मजदूर का अपनी टूटे पैर वाली पत्नी को कंधे पर लादकर यात्रा करने का दृश्य सामने आया।
जो मजदूर इस यात्रा पर नहीं निकल सके, उनकी स्थिति भी बुरी है। कथित रूप से लॉकडाउन के असर से साफ होती यमुना के किनारे लॉकडाउन का दुष्परिणाम झेलते हज़ारों मजदूर खुले में डेरा डाले हुए हैं। यमुना की तस्वीर इन्हें काट कर ली जायं तो बेशक सुन्दर होेगी, लेकिन इनके साथ ली जाय तो इस खूबसूरती का कहर झेलते लोग इसकी सच्चाई बयान करेंगे। कहने के लिए सरकारों ने इनके लिए शरणस्थल बनाये हुए हैं, लेकिन असलियत लॉकडाउन के कुछ दिन बाद ही सामने आने लगी। इनमें रहने वाले वाले लोेग हर दिन पुलिस द्वारा पीटे जा रहे हैं। 10 अप्रैल को एक युवक की इस पिटाई के बाद यमुना में कूदकर आत्महत्या कर लेने की बात भी सामने आयी है। बच्चों तक को खाने के लिए भरी दुपहरी में चार-चार घण्टे लाइन में लगना पड़ रहा है। सबको सरकारी खाना उपलब्ध नहीं हो रहा। दिल्ली के गुरूद्वारे सैकड़ों बचे हुए लोगों को हर रोज भोजन करा रहे हैं।
 इसी पृष्ठभूमि में आया है इस बार का मजदूर दिवस। लेकिन कठिन समय में ही ऐसे इतिहास को याद करने की जरूरत अधिक होती है। 1886 में शिकागो के मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए लड़ने और मर मिटने का जो इतिहास रचा, उसे दोहराये जाने के लिए मजदूर बाध्य किया जा रहा है। यह इतिहास कब मौजूदा समय की घटना बन जाय, कोई कह नहीं सकता।
ऐसे कठिन समय में जब मजदूर बेहाल होकर सड़कों पर हैं सरकार ने देश में 50 पूंजीपतियों का 68 हजार करोड़ रूपये का कर्ज माफ कर दिया है, जिसकी मार इन मजदूरों समेत पूरी जनता पर ही पड़ेगी। लॉकडाउन के दौरान ही सरकार श्रम कानूनों में बदलाव कर उसे अधिक से अधिक पूंजीपति समर्थक बना रही है। इसी दौरान सरकार की संसदीय समिति ने सरकार को सुझाव दिया है कि लॉकडाउन के चलते पूंजीपतियों को होने वाले नुकसान के मद्देनजर उन्हें कुछ छूट दी जानी चाहिए। जैसे सरकार से बगैर आधिकारिक अनुमति लिए मजदूरों की छंटनी किया जाना, हड़ताल पर जाने का मजदूर यूनियन के अधिकार पर रोक लगाना। प्राकृतिक आपदा, (जिसमें कोरोना भी शामिल है,) के समय मजदूरों को सुविधायें दिये जाने वाले कानूनों में फेरबदल करना। इसी दौरान काम के घण्टे भी बढाकर 12 किये जाने की खबरें गयी हैं।
कोरोना के लॉकडाउन को सरकार ने मजदूरों के अधिकारों में कटौती के बहाने के रूप में इस्तेमाल कर लिया है। वास्तविकता तो ये है कि पूरी मुनाफाखोर अर्थव्यवस्था पहले ही मंदी का शिकार हो चुकी थी, जिसे देखते हुए सरकार पहले से ही मजदूरों के अधिकारों में कटौती का मन बना चुकी थी, जिसे धीरे-धीरे लागू भी कर रही थी। अब कोरोना के बहाने उसे यह मौका मिल गया है, कि वह इस धीरे-धीरे किये जाने वाले हमले को तेज कर सके। लॉकडाउन के दौरान ही भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ही सरकार को यह सुझाव दिया है किसरकार को विनिर्माण नीति में बड़े और दीर्घकालिक बदलाव करने चाहिए।उसने सुझाव दिया है कि पूंजीपतियों की मदद के लिए उत्पादन लागत को कम किया जाय, और पूंजीपतियों को श्रम कानूनों में ढील दी जाय, ताकि आर्थिक मंदी दूर हो सके। इन दोनों का ही मतलब है मजदूर के अधिकारों पर हमला। एकाधिकारी हो चुके पूंजीवाद के इतिहास को देख लिया जाय, तो साफ दिखता है कि जब भी उसका मुनाफा कम होने लगता है, तब वे उत्पादन लागत कम करने की ओर ही बढ़ते हैं, जिसका मतलब ही होता है- श्रमिकों पर होने वाले खर्चों में कटौती। उनकी तनख्वाह में कटौती, काम के घण्टों में बढ़ोत्तरी, कार्यस्थल पर किया जाने वाला खर्चा कम करना, इत्यादि। कार्यस्थल पर होने वाले खर्चों में कमी करने का एक बड़ा हिस्सा इन दिनोंवर्क फ्रॉम होमने पूरा कर दिया।टेक मजदूर’ (जो अपने आप को मजदूर नहीं मानते हैं) इस दौरान घरों से काम कर रहे हैं। ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि आने वाले समय में भी काम के इस तरीके को ऐसे ही चलाया जायेगा। इस तरीके से कम्पनियों के कार्यस्थल पर होने वाली लागत जैसे बिजली-पानी मशीन मरम्मत-रखरखाव, इमारत का रख-रखाव, सुरक्षा उपायों के रख-रखाव आदि में कमी आयेगी। कार्यस्थल पर मालिक की मजदूरों के प्रति जो ढेरों कानूनी जिम्मेदारियां होती हैं उससे छूट रहेगी। इस रूप में काम का यह तरीका उत्पादन लागत में कमी ही है। लेकिन उन कारखानों में जहांवर्क फ्रॉम होमनहीं हो सकता, जब उत्पादन लागत में कमी की जायेगी, तो उसके परिणाम भयानक होंगे। इसके कैसे परिणाम होते हैं, इसे बांग्लादेश में निर्यातित कपड़ा उद्योेग में कुछ साल पहले इमारत गिरने की घटना और कुछ महीने पहले दिल्ली की गलियों में स्थापित कारखानों में लगी आग से समझा जा सकता है। अगर इस तरह से उत्पादन लागत कम करने की छूट सरकार की ओर से दी गयी, तो पूंजीपतियों के मुनाफे की गति भले ही पटरी पर जाये, लेकिन मजदूरों के लिए इसके परिणाम भयानक होंगे। गौरतलब है कि यह सब कोरोना का नाम लेकर किया जायेगा, जबकि इसका कारण पहले से चली रही पूंजीवाद की मुनाफाखोर महामारी है। कोरोना की महामारी ने भले ही आर्थिक मंदी को और गहरा कर दिया है, लेकिन इस वक्त साम्राज्यवादी पूंजीवाद हमारे देश के की सरकार के साथ मिल कर कोरोना को मंदी से उबरने के अवसर के रूप में भी देख रही है। इसी बहाने वे देश की बची-खुची जगहों में घुसकर, वहां से भी मुनाफा निचोड़ने के प्रयास में लग चुके हैं। राष्ट्रवादी मुखौटाधारी दलाल मुकेश अम्बानी ने साम्राज्यवादी कारपोरेटव्हाट्सएपके मालिक जुकरबर्ग को इसी बीच ऑनलाइन राशन-पानी बेचने के लिए बुला लिया है। भाजपा ने अपनी सरकार को जो सुझाव दिये हैं, उसमें ये भी है कि सरकार जमीन की कीमतें कम करे, ताकि विनिर्माण के क्षेत्र में विदेशी पूंजीपति प्रवेश कर सकें। वे आंसू बहा रहे हैं कि कोरोना के कारण पूंजीपतियों को बहुत नुकसान हुआ है, इसलिए यह सब किया जाना जरूरी है। सरकार भलाअपने लोगोंकी बात मानने से कैसे इंकार कर सकती है। यानि लॉकडाउन के बाद भारत में ज़मीन की डकैती और तेज होने वाली है। कश्मीर को पहले ही भारत मेंपूरी तरहमिलाने के लिए खोला जा चुका है। इस लॉकडाउन में हम देख रहे हैं कि भारत के मजदूर चूंकि किसान भी हैं, इसलिए उनके पास खोने के लिए अभी भी गांव में कुछ के पास नाम मात्र की जमीन और अधिकतर के पास दूसरों की जमीन पर बने घर है, जहां वे चार-छः महीने की मजदूरी के बाद लौटते हैं। शहरों में काम छूटने की स्थिति में उनके पास सिर छुपाने के लिए गांव में एक घर होता है, और सामंतों के खेतों में काम मिलने की संभावना भी। इस कारण उनके पुराने आर्थिक सम्बन्ध टूटे नहीं है, जबकि शहरों के उद्योगों में उनके नये सम्बन्ध भी बन गये हैं। जब उन पर गांव की सामंती अर्थव्यवस्था की मार पड़ती है, तो वे शहर की ओर भागते हैं और जब शहर की अर्थव्यवस्था से उजाड़े जाते हैं, तो गांव में शरण लेते हैं। हलांकि गांव की अर्थव्यवस्था उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसकी ओर वे साल में एक बार स्वैच्छिक रूप से भी लौटते ही है। भारत में मजदूरों की यह दोहरी भूमिका उन्हें पूरी तरह मजदूर नहीं बनने देती। लेकिन वे ऐसे किसान हैं, जो खेती पर पूरी तरह निर्भर नहीं रह सकते, क्योंकि वे या तो बेहद छोटी जोत के मालिक हैं या भूमिहीन किसान हैं। मजदूरों की इस स्थिति से सरकार को फायदा ही है, मौजूदा समय इसका उदाहरण हैं। कल्पना करें कि इस समय मजदूरों के पास वापस लौटने के लिए उनकी गांव की गृहस्थी होती, तो क्या होता? इसकी एक झलक लॉकडाउन के कुछ ही दिनों बाद गुजरात में और दुनिया के कुछ अन्य देशों में देखने को मिल रही है, जब गुस्साये मजदूर सड़कों पर उतर पड़े, जब फ्रांस के मजदूरों नेमैकडोनाल्डके रेस्टोरेंट से खाने-पीने के सामान पर कब्जा कर उन्हें जरूरतमंदों के बीच बांट दिया। भारत में सरकार के लिए यह बड़ी मुसीबत का सबब हो सकता था। लेकिन मजदूरों केगांव में घर होनेके ख्याल ने उन्हें ये सब करने की बजाय घर की ओर ढकेल दिया, कुछ उस घर जाने की बाट जोहते हुए अपने दिन काट रहे हैं। जब पूंजीपतियों को इनकी जरूरत होेगी, ये फिर नयी और कड़ी शर्तों के साथ बुलाये जायेंगे। और इस बार ये अकेले नहीं होंगे, इनके साथ सरकार का खुफिया ऐप भी होगा। 28 अप्रैल को सरकार ने मजदूरों को उनके घर जाने की मंजूरी इस शर्त के साथ दी है कि वे अपने फोन मेंआरोग्य सेतुऐप डाउनलाड करेंगे। ये ऐप उनकी निगरानी रखेगा कि वे कब कहां गये, और किससे मिले। यह सब भी किया तो कोरोना के फैलाव को रोकने के नाम पर जा रहा है, लेकिन वास्तव में यह मजदूरों पर नज़र रखने का फासीवादी तरीका है, जिससे आगे मदद पूंजीपतियों को ही होगी। अब जबकि लगभग डेढ़ महीने बाद सरकार ने इन मजदूरों को उनके घरों की ओर भेजने की घोषणा की है, तो बहुत सारे लोग सरकार के इस कदम की सराहना कर रहे हैं, लेकिन यह मजदूरों को कुछ देने के नाम पर बहुत कुछ छीनने जैसा है। यह इस बात की घोषणा है कि फिलहाल मजदूरों के लिए शहरों में कोई काम नहीं है। यह इस बात की घोषणा है कि कार्यक्षेत्र मेंसोशल डिस्टेंसिंगके नाम पर पूंजीपति मजदूरों की बड़े पैमाने पर छंटनी करने वाले है, ताकि उत्पादन लागत को कम किया जा सके। छंटनी का मतलब होगा, कम मजदूरों से अधिक काम लेना। इसी को ध्यान में रखकर काम के घण्टे बढ़ाकर 12 (ओवर टाइम के साथ ) कर दिये गये हैं। धीरे-धीरे यह उसी तरहन्यू नॉर्मलहो जायेेगा, जैसे काम के घण्टे 8 से 9 होना आजन्यू नार्मलहो चुका है। मजदूर खूफियाआरोग्य सेतुके साथ जा रहे हैं, जब जितने की जरूरत होगी, उन्हें बुला लिया जायेगा, और जो इस ऐप के साथ काम पर वापस आयेंगे, मालिक उनकी निगरानी रख सकेंगे, कि कहीं वे यूनियन तो नहीं बना रहे, कहीं वे हड़ताल पर तो नहीं जाने वाले हैं।
  यह इस बात की घोषणा है कि साम्राज्यवादी पूंजी के संकट को अब सामंती अर्थव्यवस्था के भरोसे छोड़ा जा रहा है। हमारे देश में इस मायने में साम्राज्यवादी पूंजी, दलाल पूंजीपति और सामंती अर्थव्यवस्था के बीच बढ़िया तालमेल है। जब साम्राज्यवादी पूंजी संकट में होती है तो भारत का दलाल पूंजीपति उसे संभाल लेता है, जब ये दोनों संकट में होते हैं तो सामंती अर्थव्यवस्था उसे संभालने के लिए आगे जाती है और जब सामंती अर्थव्यवस्था खतरे में आती है तो इसका पूरा ध्यान उपरोक्त दोनों रखते हैं। वे भूमिहीन किसानों के श्रम को निचोड़कर मजदूर बनाये रखते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में मजदूर इसी तरह फंसा हुआ है, यह समय इस सच को साफ-साफ दिखा रहा है। शहर से गांव की ओर लौटता मजदूर वास्तव में यही कहानी कह रहा है।
इन दुश्वारियों के बीच फंसे मजदूरों के लिए इस बार का मजदूर दिवस अधिक महत्वपूर्ण और अधिक ऊर्जा ग्रहण करने वाला होगा। यह रोचक तथ्य है कि समाजवादी सोवियत संघ की मौजूदगी के समय अमेरिका की पूंजीवादी सरकार मजदूरों की ताकत से इतना खौफ खाती थी कि मजदूर दिवस पर मजदूरों द्वारा ली जाने वाली छुट्टी सरकार की अवहेलना मानी जाती थी। भारत की सरकार भी मजदूरों की इस ताकत से डरती है। वरना क्या यह स्वाभाविक है कि प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की अवधि 1 मई को पार करके 3 मई रखा। क्या यह स्वाभाविक है कि मजदूर दिवस के आगमन के दो दिन पहले ही उन्होंने मजदूरों को घर भेजने का ऑर्डर जारी किया। यह मजदूरों की ताकत का डर है जिससे दुनिया भर की सरकारें डरती हैं। मजदूर दिवस पर दुनिया को बनाने वाले मजदूरों को मुबारकबाद।

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया विश्लेषण। आज के समय की परिस्थितियों का शानदार विश्लेषण है। बधाई।

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  2. आज वर्तमान समय मे मजदूर ,मेहनतकश वर्गों को आँखें खोलने के लिये ज्ञानवर्धक लेख है ।वर्तमान व्यवस्था किसकी हिफाजत कर रही है

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