Wednesday, 27 May 2020

संस्कृति की सरजमीं पर नक्सलबाड़ी की ‘दस्तक’: तुषार कांति



नक्सलबाड़ी का अपेक्षाकृत छोटा सा इलाका राजनीति के आकाश मेें एक दिशा-सूची सितारे की तरह 1967 में उदित हुआ। पचास बरस पहले की यह परिघटना अपने से पहले या बाद की अनगिनत राजनीतिक परिघटनाओं से हर मायने में जुदा और रौशन है। कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की पहल और आदिवासी किसानों की स्थितियां पलीते और बारूद की तरह जब स्फुलिंग के संपर्क में आईं तो कुछ ऐसा धमाका हुआ की सारी पिछली मान्यताएं और मापदंड कालबाह्य हो गए। कुछ भी पहले जैसा रहा। चारण-गायन, फूल और तितलियों पर कविताएं बचकानी लगने लगी।
नक्सलबाड़ी ने एक छोटे से इलाके में आकार ले रहे किसान आंदोलन को सत्ता के सवाल से जोड़ दिया और इस तरह इसका चरित्र पहले के तमाम किसान आंदोलनों से अलग और खास बन गया। इसका असर देश ही नहीं, पड़ोसी देशों पर भी पड़ा। राज सत्ता चौकन्नी हो गई और हिंसा पर अपने एकाधिकार को इससे चुनौती मिलते देखा तो नृशंस हत्याकांड पर उतर आई। लेकिन निरीह सात आदिवासी महिलाओं, दो बच्चों और एक पुरुष की हत्या की सत्ता की नृशंस कार्रवाई भी लोगों के मन में अब भय पैदा करने में कामयाब नहीं हुई। उलटे 23 मई 1967 की इस घटना ने सारे देश में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अखिल भारतीय समन्वय समिति (.आई.सी.सी.सी.आर) के गठन का रास्ता खोल दिया। 13 नवंबर 1967 को इस की स्थापना हुई। संशोधनवाद के मुखौटे फट गये, नकाब नुच गये और उत्पीड़ित जनता को मुक्ति की दिशा मिल गई। हर आंदोलन अपने साथ अपना साहित्य और अपनी संस्कृति भी गढ़ता है। नक्सलबाड़ी ने जिस तरह समूचे देश में क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत की उसी तरह अपने कवि और गायक अपने कलाकार, नाटककार भी तैयार किए। साठोत्तरी हिंदी कविता इस बात की गवाह है। अब साहित्य और कविता खाते-पीते मुट्ठी भर पेटिबुर्जुआ बुद्धिजीवियों का शगल रहा। सैकड़ोंनिरक्षरआदिवासी और मजदूर-किसान अपनी बात सशक्त रूप से खुद अपनी रचनाओं में रखने को खड़े हुए।
नक्सलबाड़ी के आंदोलन ने आगे चल कर संगठित रूप लिया। सोवियत क्रांति के पुरोधा कॉमरेड वी.आई. लेनिन की जन्मशताब्दी के दिन यानी 22 अप्रैल, 1969 को .आई.सी.सी.सी.आर ने खुद को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी (सी.पी.आई.-एम.एल.) के रूप में गठित कर लिया। इन घटनाओं ने एक समूची पीढ़ी को तो आकर्षित किया ही, क्रांति को वास्तविक धरातल पर उकेरने की महान आंकाक्षा लेकर चल पड़े हजारों युवकों को शहादत भी डिगा पाई। आंदोलन के इन बेमिसाल कुर्बानियां देने वाले वीरों की वीरगाथाएं कम ही लिखी गईं। समाज में उपस्थित विद्रूप और विसंगतियों को, अंतर्विरोधों और       विरोधाभासों को रेखांकित करने वाली हजारों रचनाएं आने लगीं। सत्ता के चरित्र को उजागर करने वाली और सत्तासीन वर्गों और उनकी राजसत्ता को खुल कर चुनौती देने वाली रचनाएं आम हो गई। आलोक धन्वा कीगोली दागों पोस्टरऔर धूमिल कीश्रीकाकुलमऐसी ही रचनाएं हैं। क्रांति अगर आम जनता के लिए आनंदोत्सव है तो क्रांतिकारी-साहित्य और संस्कृति उस आनंद को शब्द और आकार देते हैं।


बंग्ला साहित्य में नक्सलबाड़ी की दस्तक
बंग्ला साहित्य में प्रगतिशील लेखक आंदोलन तो कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ ही उभरा था, पर तेभागा आंदोलन का तड़ित का प्रभाव खत्म होने के बाद, खास कर विष्णु डे, समर सेन, नजरूल और सुकांत के बाद इस धारा में कुछ ठहराव गया। कॉमरेड सरोज दत्त इस के अपवाद हैं। वैसे साठोत्तरी साहित्य मेंहंग्री जेनरेशन’ (1964 में मलय राय चौधरी द्वारा संपादित इस नाम का बुलेटिन, त्रिदीब मित्रा, सुबिमल बसाक, सुबो आचार्य और अन्य लोगों ने इस नाम से कविता संकलन प्रकाशित किया था।) का विद्रोही तेवर नक्सलबाड़ी के बाद एक दावानल में परिवर्तित हो गया। मैदानी स्तर पर सैकड़ों कार्यकर्ता एक हाथ में बम और दूसरे हाथ में कलम थाम कर आमूल परिवर्तन के कविता-कर्म में जुट गये। आराम कुर्सी पर लेटे-लेटे सहानुभूति-परक रचनाएं करना अब प्रगतिशीलता के दायरे के बाहर माना जाने लगा। खेतों-खलिहानों में आदिवासियों के संग जंगलों में लड़ते और पुलिस हाजत और जेलखानांे में कैद एक नई पीढ़ी ने कविता को एक धारदार हथियार में बदल डाला। प्रेम गीत में भी वर्ग-संघर्ष चेतना झांकने लगी। गद्य भी अछूता रहा। महाश्वेता देवी ने जहां कुछ जीवंत चरित्रों के जरिये आंदोलन का कैनवास रंगा, वहीं उत्पल दत्त जैसे प्रख्यात और मनोरंजन विश्वास जैसे अल्पज्ञात नाटककार हुए। द्रोणाचार्य घोष जैसे सशक्त कवि क्रांतिकारी आंदोलन के साथ उभरे। समीर राय, बिपुल चक्रवर्ती, धूर्जटि चट्टोपाध्याय, बीरेन्द्र चट्टोपाध्याय जैसे कितने ही कवियों ने बांग्ला साहित्य में नक्सलबाड़ी के आंदोलन को प्रतिबिम्बित किया। इन में से कई फर्जी एन्काऊंटरों में शहीद हुए। नक्सलबाड़ी ने एक और काम किया सैकड़ोंलिटिल मैगज़िन्सके प्रकाशन का। आज भी शायद बांग्ला में ही ऐसी सौ से ज्यादा पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। नांदिमुख, अनुष्टुप, ईक्खन आदि उनमें प्रमुख है।

 

मराठी साहित्य में नक्सलबाड़ी कीदस्तक
अनिल बर्वे कीउठलेली जनता आणि रोखलेल्या बंदूकातथाथैंक्यू मिस्टर ग्लैडजैसी रचनाओं  ने मराठी साहित्य में नक्सलबाड़ी युग का आगाज़ किया। मराठी मंच के प्रख्यात नाम महेश एलकुंचवार भी नक्सलबाड़ी के आंदोलन को अपनी रचनाओं में प्रतिबिम्बित करते हैं। लेकिनआव्हान नाट्यमंचऔर विद्यार्थी आंदोलन की पत्रिकाकलमने तो क्रांतिकारी साहित्य और संस्कृति को नया मंच ही दे दिया। शहीद कॉमरेड विलास घोघरे ने मराठी संस्कृति की शाहिरी परंपरा को क्रांतिकारी कथ्य देकर समृद्ध किया। साथ ही दलित पैंथर आंदोलन और दलित साहित्य और फिर विद्रोही साहित्य धारा भी किसी किसी स्तर पर नक्सलबाड़ी की सांस्कृतिक धारा की ही अभिव्यक्ति के तौर पर खुद प्रभावित हुईं और मराठी साहित्य और संस्कृति को प्रभावित किया। नामदेव ढसाल नेमुर्ख म्हाताÚया ने डोगर हलविले’ (मुर्ख बूढ़े ने पहाड़ हटाया) जैसी रचना की। दलित पैंथर के घोषणा पत्र और मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नामांतर आंदोलन के अंतर्गत दलितों की लंबी यात्रालौंग मार्चतक में नक्सलबाड़ी के आंदोलन का सांस्कृतिक प्रभाव देख जा सकता है।
 

तेलुगु साहित्य में नक्सलबाड़ी कीदस्तक
प्रगतिशील साहित्य-संस्कृति आंदोलन में पिछली सदी का चालीस का दशक तेलुगु साहित्य में मील का पत्थर सा रहा। महाकवि श्री श्री की कालजयी रचनामहाप्रस्थानमऔरगर्जिन्चु रशियाने राजनीतिक साहित्य और साहित्य में राजनीति की बहस को हमेशा के लिए दफना दिया। लेकिन सी.पी.आई. और बाद में सी.पी.आई.(एम.) की संशोधनवादी राजनीति के चलते अभ्युदय रचयितल संघम और प्रजा नाट्य मंडली के ऊपरी स्तर के कुछ लोग फिल्मों में चले गये पर अधिकतर लोग बेमानी हो गये। नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम के आंदोलन ने ही साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र को एक बार फिर झकझोर कर मानो नींद से जगा दिया। श्री श्री की षष्ठिपूर्ति कार्यक्रम में विशाखापट्टनम के विद्यार्थियों ने जबकवियो, कलाकारो- आप किस ओर हो?’ शीर्षक से पर्चा निकाल कर सवाल किया तो प्रगतिशील साहित्य आंदोनल उसी अनुष्ठान में दो-फाड़ हो गया और इस तरह मई 1970 में विप्लव रचयित संघम की स्थापना हुई। दो वर्ष बाद हैदराबाद मेंजन नाट्य मंडलीभी अस्तित्व में आई। पिछली सदी के साठ के दशक में विद्रोही साहित्य आंदोलनतिरुगुबडू कवुलुतथादिगंबर कवुलुइसके पूर्ववर्ती थे जो विप्लव रचयित संघम (विरसम) के महा-प्रवाह में समा गये। चेरबण्ड राजू और वरवर राव जैसे प्रखर कवि और चलसानी प्रसाद, के.वी. रमणा रेड्डी जैसे प्रकांड आलोचक नक्सलबाड़ी-श्रीकाकुलम आंदोलन की ही देन हैं।विरसमने पिछले पचास वर्षों में क्रांतिकारी साहित्यकारों- रचनाकारोें की कई पीढ़ियां खड़ी की है। अखिल भारतीय स्तर पर जब अखिल भारतीय क्रांतिकारी सांस्कृतिक लीग (एआईएलआरसी ) की 1983 में स्थापना हुई थी तब हिंदी के क्रांतिकारी राजनीतिक रचनाकारहंसराज रहबरके साथ तेलुगु के महाकवि श्री श्री ही इसके प्रथम संयोजक थे। क्रांतिकारी साहित्य के बिना तेलुगु साहित्य का उल्लेख करना आज असंभव है। दर्जनों क्रांतिकारी कवि और रचनाकार भिन्न-भिन्न समय पर लाये गये दमनकारी जन विरोधी कानूनों के तहत लंबी अवधियों तक बंदी बनाकर रखे गये और कइयों की राज्य की वैधानिक और राज्यपोषित असंवैधानिक सशस्त्र बलों द्वारा हत्या कर दी गई और वे अनगिनत शहीदों की कतार में लाल तारा बन कर चमक रहे हैं।
 

हिंदी साहित्य में नक्सलबाड़ी कीदस्तक
हिंदी में प्रगतिशील लेखन और साहित्य-संस्कृति की परंपरा 1936 में प्रेमचंद की अध्यक्षता में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन से शुरू हो जाती है. लेकिन कृशनचंदर कीजब खेत जागेके बाद या यंू कहें कि तेलंगाना के सशस्त्र किसान विद्रोह के साथ भाकपा नेतृत्व द्वारा की गई गद्दारी के बाद यह धारा सूखने लगी। इधर -उधर स्वतः स्फूर्त लेखन जरूर जारी रहा और मुक्तिबोध और नागार्जुन जैसे हस्ताक्षर हिंदी के क्षितिज पर उभरे। इप्टा के तमाम सितारे व्यावसायिक हिन्दी फिल्मांे की दुनिया में वर्ग समन्वयवाद परोसते रहे।
तड़ित कुमार, उग्रसेन सिंह, डॉक्टर महेश्वर, हरिहर द्विवेदी। कलकत्ते (अब कोलकाता) से इन चार हिंदी कवियों की कविताओं का संकलनशुरुआतका प्रकाशन हुआ।शुरुआतकी भूमिका 1913 में स्थापितगदरपार्टी के उस समय जीवित रहे एक मात्र नेता और हिंदी के लेखक हंसराज रहबर ने लिखी। हरिहर द्विवेदी ने आजन्म क्रांतिकारी साहित्य की मशाल जलाए रखी। कुमार विकल भी एक सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभरे। इसी के साथ हिंदी रचनाकारों के सामने भी यह सवाल खड़ा हुआ -रचनाकारो,  तुम किस तरफ? उधर बनारस में कंचन कुमार के संपादन में पहले मैगज़ीन और फिर पुस्तकाकार मेंआमुखका प्रकाशन शुरू हुआ। चित्रकार अनिल करंजई इस साहित्यिक प्रयास में प्रारंभ से जुटे रहे। शुरुआती तीन-चार अंकों के बाद हीआमुखने अपना रूख बेलाग हो कर स्पष्ट कर दिया कि वह शोषित और उत्पीड़ित जनता के इस महान विद्रोह के साथ है। दक्षिण में हैदराबाद के वामपंथी वेणूगोपाल और तेजरजिं़दर सिंह जैसों ने पोस्टर कविता के रूप में नक्सलबाड़ी का पक्षधर होने का ऐलान किया। पोस्टर कविता एक आंदोलन के रूप में उभरा। नये कथ्य और नये रूपों मेें सैकड़ों हस्ताक्षरों ने हिंदी साहित्याकाश को आलोकित किया। बनारस सेधूमिलने और हैदराबाद से वेणूगोपाल ने कविता को एक नई भाषा ही दे दी:   
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो रोटी बेलता है, रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं -
यह तीसरा आदमी कौन है?’
मेरे देश की संसद मौन है...- धूमिल।
इनकी रचनाओं ने हिंदी साहित्य के सौंदर्यशास्त्र के सारे मानको को ही नाकारा साबित कर दिया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, लीलाधर जगूड़ी, श्रवण कुमार, कंचन कुमार और गोरख पाण्डेय अथवा आलोक धन्वा जैसे कितने ही सशक्त रचनाकार नक्सलबाड़ी के पक्ष में कलम को हथियार बनाकर खड़े हुए। साहित्य की हर विधा में अनगिनत रचनाएं हुईं। आंदोलन को समर्पित दर्जनों पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं। लेखक संघों के बने बनाये दायरे भी इन्हें समेटने में अक्षम साबित हुए। जनवादी सांस्कृतिक मंच और अखिल भारतीय क्रांतिकारी सांस्कृतिक लीग जैसे नये संगठनों को इस दौर का       प्रतिनिधित्व करने को आगे आना पड़ा। बिहार झारखंड में जन गायक रामबली यादव के गीत गांव-जवार में बच्चे-बच्चे की जुबान पर चस्पां हो गये:
जालिम दुश्मनों ना रहेगी तमन्ना
अभी तुमने जनता को देखा नहीं है...!’
वर्ग संघर्ष की तीव्रतम अवस्था में कवि क्या कह सकता है, कहां खड़ा होता है, इसका माप दंड ही मानो तय करते हुए धूमिल नेश्रीकाकुलमशीर्षक कविता में लिखा:
( गन इज नाट इन हैंड्स आफ पीपुल-जे.पी.)
एक आदमी- 
दूसरे आदमी की गरदन
धड़ से
अलग कर देता है
जैसे एक मिस्त्री बल्टू से
नट अलग करता है
तुम कहते हो-यह हत्या हो रही है
मैं कहता हूं-मेकेनिजम टूट रहा है...     
(‘कल सुनना मुझेसे)
या गोरख पांडे ने बदल रही स्त्री को देख लिखा:
.....इसी बीच एक दिन 
नक्सलियों की धर-पकड़ करने आई
पुलिस से भिड़ गईं
कैथरकला की औरतें
अरे, यह क्या हुआ? क्या हुआ?
इतनी सीधी थीं गऊ जैसी
इस कदर अबला थीं
कैसे बंदूक छीन लीं
पुलिस को भगा दिया कैसे?
क्या से क्या हो गईं
कैथरकला की औरतें?..
नक्सलबाड़ी का असर किसी एक भाषा या एक प्रान्त पर नहीं पड़ा। संस्कृति की किसी एक विधा पर नहीं पड़ा। चाहे कविता हो या गीत, कहानी हो या उपन्यास, नाटक हो या गायन, चित्रकला हो या मूर्ति कला, हर विधा में नक्सलबाड़ी ने अपनी उपस्थिति दर्ज ही नहीं की बल्कि नये प्रयोगों के साथ उनका विकास कर उन्हें जनोन्मुख किया और उनका जनवादीकरण किया। लोक गीतों और कथा-कथन के पारंपरिक रूपों को जन-संघर्षों की सान पर कस कर धारदार बनाया। नुक्कड़ नाटक जैसी विधा को तो नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ ही जोड़ कर देखा जाता है। समाज के आमूल परिवर्तन का जो मानचित्र नक्सलबाड़ी ने हमारे सामने खोल दिया था, उससे प्रभावित हुए बिना कोई भी संजीदा और संवेदनशील रचनाकार नहीं रह सका। चाहे वह पंजाब में जयमल सिंह पड्ढा, अवतार सिंहपाश’(‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना’), अमरजीत चंदन, बलबीर परवाना या लालसिंह दिल हों, मराठी में विलास घोघरे हो, नामदेव ढसाल हो, वाहरू सोनवणे हो या नृप शिंदे और प्रकाश जाधव या भगवान निले हों, मलयालम में सिविक चंद्रन या के. सच्चितानंदन, उर्दू में याकूब राही, बाकर मेहंदी हो, तमिल में अग्निपुथ्रन हो, कन्नड में सिद्ध लिंगय्या हो, राजस्थानी में तेज सिंह जोधा हो, गुजराती में चंद्र सेन मोमाया हो, असमी में चंद्र काटकी हो, कोंकणी में मनोहर राय देसाई हो, ओड़िया में रविद्रनाथ सिंह हो या निरंजन चौधरी हो, अंग्रेजी भाषा में कविता लिखकर कविता के कारण जेल जाने वाले कॉमरेड एम.टी. खान हो (जिन्होंने जंगल संथाललिख कर नक्सलबाड़ी के उस आदिवासी शहीद को जन नायक के तौर पर हमारे सामने पेश किया) साहित्य और संस्कृति अब स्पष्ट रूप से दो हिस्सों में बंट गई। शोषक-शासक वर्गाें की और शोषित-उत्पीड़ितोें  की संस्कृतियों और साहित्य के बीच नक्सलबाड़ी ने ही वह स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी, जिससे संघर्षशील जनता की अपनी संस्कृति की पहचान और उसके उत्थान का रास्ता खुल गया।


गोंडी, नागपुरिया, संथाली मुंडारी अदि आदिवासी भाषाओं में भी सैकड़ों रचनाकारों का उभरना और इन भाषाओं में साहित्य का विकास भी एक अर्थ में नक्सलबाड़ी आंदोलन की ही देन है।
कुल मिलाकर नक्सलबाड़ी के आंदोलन ने जहां एक तरफ संघर्षशील जनता को संगठित हो कर लड़ने का अवसर प्रदान किया, उन्हें हथियारों से लैस, लामबंद होकर लड़ना सिखाया। 
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 उसी तरह इस आंदोलन ने दूसरी तरफ जन संघर्षोें को एक जनवादी भाषा, जनवादी अभिव्यक्ति-चेतना और क्रांतिकारी मुहावरा भी उपलब्ध कराया। अपना सौंदर्यबोध दिया। नक्सलबाड़ी के पचास वर्ष बाद जिस तरह आज भी सत्ता का सवाल अनिर्णित ही रहा है, उसी तरह संस्कृति में लोक वर्चस्व का सवाल भी अनिर्णित ही है। जरूरत इन्हें अंजाम तक ले जाने की है।

दस्तक मई-जून 2017’ में प्रकाशित लेख

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