Saturday 9 May 2020

जेल में एंजेला डेविस के साथ चन्द रोज़ - अमिता शीरीं

एंजेला य्वान डेविस (Angela Yvonne Davis), अमेरिका की एक राजनीतिक ऐक्टिविस्ट हैं. वह कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में हिस्ट्री ऑफ़ कान्शन्सनेस डिपार्टमेंट में प्रोफेसर हैं. पिछले 30 सालों से अधिक समय से वह ‘जेल खत्म करो’ मुहिम के तहत विभिन्न संगठनों से जुड़ी हुई हैं. 1971 में एंजेला 1 साल जेल में रहीं और 1972 में आरोपमुक्त होकर बरी हुईं. हमेशा आन्दोलनरत रहते हुए एंजेला ने कई किताबें लिखी. प्रस्तुत पुस्तक ‘आर प्रिसन ओब्स्लीत?’ (क्या जेल अप्रासंगिक हो गयी  हैं?) में एंजेला डेविस ने अमेरिका में खासतौर पर कैलीफोर्निया में ‘जेल उद्योग की बौद्धिक पड़ताल की है. एंजेला डेविस कहती हैं ‘‘दुनिया के अधिकांश हिस्सों में एक बात आमफ़हम है कि जिसने भी गम्भीर अपराध किया है उसे जेल भेज  दो.’’ भारतीय जेलों में तो चप्पल चोरी, चार्जर-मोबाइल चोरी से लेकर हत्या तक के आरोपी जेल में रहते हैं और धीमी न्यायिक प्रक्रिया के दुश्चक्र में फंस जाते हैं.
पूरी दुनिया में जेल के बिना जीवन की कल्पना ही नही की जा सकती. ज़्यादा से ज़्यादातर लोग बातें करते हैं तो जेल सुधार की बातें करते हैं. अधिकांशतः जेल सुधार का मतलब होता है बन्दियों पर निगरानी और नियन्त्रण बढ़ा देना. कामरेड लेनिन ने क्या खूब कहा था कि सेना-पुलिस-न्यायालय  (और जेल भी) सभी राज्य की सुरक्षा के लिए ही बने होते हैं.
एंजेला डेविस बताती हैं कि अमेरिका में जेल खत्म करो आन्दोलन का इतिहास उतना ही पुराना है जितना सजा़ देने के लिए जेल के उद्भव होने का. भारत में जेल खत्म करने का आन्दोलन चलाने की बात शायद कभी सोची ही नहीं गई, इसे खत्म करने का आन्दोलन खड़ा करना तो दूर की बात है. आज की तारीख में भारत में जनवादी आन्दोलनों की बेहद कमी है. जो हैं, उस पर भी राज्य के क्रूर दमन का शिकंजा रहता है. ऐसे में जेल खत्म करो आन्दोलन खड़ा करना, जेल में कैदियों के और अधिक बढ़ने का सबब ही होगा.
आखिर जेल की संस्था को बनाए रखने का उद्देश्य क्या है? अपराधियों को सुधारना? बिल्कुल नहीं. बल्कि होता इससे बिल्कुल उल्टा ही है. सुधरने की बजाय जेलों में बन्दी तिल-तिल करके मरते हैं. जब भारतीय समाज में ही आधारभूत जनवाद नहीं है, तो जेल में तो इसकी बेइन्तहां कमी होती है. यहां एक आज़ाद व्यक्ति होने का कोई मायने नहीं होता. यहां अधिकारी, सिपाही बहुत आसानी से बन्दियों को कह देते हैं- ‘दूर हट, दूर हट के बात करो.’ जेल के भीतर बन्दियों के अस्तित्व-आत्मसम्मान को इतनी बार कुचला जाता है कि या तो बन्दी अवसाद में चला जाता है या पगला जाता है. अपने परिवार, समुदाय, समाज और दुनिया से काट देने का दंश पहले ही इतना अधिक होता है कि जेल के भीतर इंसान का मानसिक संतुलन बनाए रखना एक कठिन प्रक्रिया होती है. जेल में दिमाग को हर समय साधे रखना पड़ता है. जेल में जो लोग पुराने हो चुके हैं, जिनकी सत्ता पक्ष के साथ सहमति बन चुकी है, जो पैसे वाले हैं, उच्च जाति के हैं, जिनकी समाज में ‘हैसियत’ रह चुकी है, जो पढ़े-लिखे हैं, वो जेल में भी अपनी जड़ें जल्दी जमा लेते हैं. अधिकांश ऐसे लोग आने वाली नई बन्दियों के साथ बेहद बुरा सुलूक करते हैं. वे अधिकारियों के साथ मिल कर उनके आत्मसम्मान को कुचलने का कोई मौका नहीं छोड़ते. कई बार कमज़ोर बन्दियों पर हाथ भी उठा देते हैं. अब ये अलग बात है कि इन तथाकथित हैसियत वाले चन्द लोगों के बीच भी तुच्छ राजनीति की खींचातानी चलती रहती है. सामने आने पर वे एक दूसरे से वर्गीय एकता दिखाते हैं, और पीठ पीछे उसे ‘सत्ताच्युत’ करने की साजिश रचते हैं.

जेल इंसान का इंसान पर भरोसा न करने का प्रशिक्षण देता है. जेल इंसान को विभिन्न खातों में बांट देता है. हर बैरक में एक या दो लोगों की निर्बाध ‘सत्ता’ होती है- उसको कोई चुनौती नहीं दे सकता. इन ‘सत्ताओं’ को जेल में उपलब्ध बेहतरीन चीज़ें मुहैया होती हैं. भण्डारे (किचेन) में अलग से तरह-तरह के पकवान इन लोगों के लिए बनते हैं. जेल में स्वाद के लिए तरसते आम बन्दी इनके पकवानों की खुशबू से ही तिलमिला उठते हैं. अगर कोई नाहैसियत वाला व्यक्ति किचेन में चला जता है तो भण्डारे के मठाधीश हंगामा बरपा देते हैं. ये मठाधीश भण्डारे में आने वाले सामानों की चोरी करते हैं और ‘हैसियत’ वाले इसे आपस में बांट लेते हैं. जेल के कर्मचारी भी इसमें शामिल रहते हैं. इनमें से जिसे कम हिस्सा मिलता है, वह अगले से असन्तुष्ट हो जाता है. जेल से बन्दियों को मिलने वाले अन्य सामानों जैसे तेल साबुन आदि का भी बड़ा हिस्सा भी इनके हिस्से आता है.
इस तरह जेल कतई किसी को सुधारता नहीं है. बन्दी यहां जैसे जैसे पुराने होते जाते हैं, उनकी संवेदनशीलता उतनी ही भोथरी होती जाती है. जिनकी नहीं होती वे अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं. जटिल, धीमी, मंहगी और संवेदनहीन न्याय प्रक्रिया इन सबमें इजाफ़ा ही करती है. अतः जेल कभी भी सुधार की संस्था नहीं हो सकती. एंजेला डेविस सही ही कहती हैं कि ‘यह कैसे सम्भव है कि इतने ढेर सारे लोग बन्दी बनाए जाने के औचित्य और उपयोगिता पर बहस किये बगैर ही कैद कर लिये जाएं.’ (पृ. - 11)
भारतीय जेल हज़ारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं, मुसलमानों, दलितों, आदिवासियों से भरे पड़े हैं. ग़रीब बन्दी सालो साल जेल में पड़े रहते हैं. कोई उनकी पैरवी करने वाला नहीं होता. जिनकी बेल हो जाती है उनकी ज़मानत लेने वाला कोई नहीं होता. इस तरह जेल महज कारागार नहीं मानसिक शारीरिक यन्त्रणागार हो जाते हैं.
एंजेला का मानना है कि अमेरिका में जेल एक नस्लीय संस्था होती है. अमेरिका में अधिकांशतः काले लोगों को अपराध से जोड़कर देखा जाता है. भारत में यह मुख्यतः मुसलमानों, दलितों व ग़रीबों के साथ जोड़ कर देखा जाता है. हालांकि ऊपर से देखने में लगता है कि जेल सर्वाधिक ‘साम्यवादी’ संस्था है. एक ही बैरक में हर तरह के लोग ऊपरी तौर से समान सुविधाएं लिए हुए रहते हैं. परन्तु सतह के नीचे जेल में वे सारे फैक्टर बहुत भोंडे तरीके से काम करते हैं जो भारतीय समाज में मौजूद हैं. जेल में अधिकारी से लेकर सिपाही तक अधिकांशतः सवर्ण हैं. जेल में बहुत बारीक और कहीं कही खुले तौर पर साम्प्रदाियकता मौजूद है. खासतौर से सवर्ण बंदियों  में तो यह साफ़ दिखाई देता है. मुसलमान बन्दी अगर ग़रीब है तो आधिकांश सवर्ण बन्दियां उनक बच्चों को अपने बिस्तर के पास फटकने तक नहीं देतीं. वहीं सवर्ण और अमीर बन्दियों के बच्चों के साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है. इस तरह जेल में इस तरह जेल की बैरकों में जाति व वर्ग और धर्म बेहद भौंडे रूप में व्याप्त होता है.
जेल के भीतर मानसिक रोगियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है. चिन्हित मानसिक रोगियों से कहीं ज़्यादा ऐसे रोगियों की संख्या है जिनका मानसिक संतुलन अनेक तरीकों से हिला हुआ है.
एक अध्ययन का हवाला देेते हुए एंजेला डेविस बताती हैं कि अमेरिकी जेलों में मानसिक रोगियों की संख्या मानसिक संस्थाओं में आने रोगियों की संख्या से कई गुना ज़्यादा है. वहां 7 में से 1 बन्दी मानसिक रोग-अवसाद से ग्रसित रहते हैं.
यहां जेल में भी मानसिक रोगियों की संख्या बहुत अधिक दिखाई देती है. अपने घर परिवार समुदाय समाज से कटी हुई हरेक बन्दी यहां की परिस्थिति में कमोबेश अवसाद ग्रस्त रहती हैं. यहां भी लगभग हर दूसरी औरत अवसादग्रस्त नज़र आती है. जेल की परिस्थितियां ज़्यादातर लोगों को शारीरिक मानसिक रूप से बीमार कर देती हैं.
जेल के भीतर सारे क़ैदी इस बात की प्रार्थना करते रहते हैं कि वे कभी भी बीमार न पड़ें. हालांकि यहां जेल (लखनऊ ज़िला कारागार) में एक अस्पताल है. कुछ शुरुआती खून की जांच व एक्सरे वगैरह हो जाता है. महिला बैरक में अलग से एक ओपीडी है, जहां महिला डाॅक्टर समेत अन्य डाॅक्टर समय समय पर आते रहते हैं. कोई माहिला अगर बीमार पड़ती है तो रिपोर्ट लगाने पर डाॅक्टर आ भी जाते हैं. लेकिन डाॅक्टरों और अस्पताल के कर्मचारियों का रवैया बन्दियों के प्रति बेहद रूखा-नकारात्मक व उपेक्षापूर्ण होता है. वे रोगियों से चिल्ला-चिल्ला कर बात करते हैं और ताने देते हैं. दवाएं देते समय यह भाव रहता है मानो वे कोई अहसान कर रहे हैं. दवाएं आती हैं और बन्दियों को दी नहीं जाती. कुछ ऐण्टीबायटिक, पैरासिटामाल, रेनिटिडीन ब्रूफेन आदि कुछ आम फहम दवाएं हैं, जो बहुधा बन्दियों को दी जाती हैं. जेल में औरतों को दाद की तरह त्वचा की बीमारियां बड़े पैमाने पर फैली रहती हैं. पर उन्हें रोकने के लिए कोई खास उपाय नहीं किया जाता. बन्दियां बहुत गिड़गिड़ाती हैं तब एक ट्यूब मिलता है. तब तक रोग बहुत बढ़ चुका होता है. जेल में टीबी के रोगी भी बड़ी संख्या में होते हैं. एक रोज़ जेल का एक पैरामेडिकल स्टाफ एक रोगी का मज़ाक उड़ाते हुए कहता है -‘अरे घर में इन लोगों को खाने को नहीं मिलता. यहां पर अण्डा दूध खा पी कर मोटी हो जाती हैं.’ सामने खड़ी औरत महज हड्डियों का ढांचा भर थी. वह अपमान का घूंट पी कर रह जाती है. जेल में गम्भीर रूप से बीमार रोगियों के लिए दूध, पनीर, अण्डा आदि मिलने का प्रावधान है. जिस पर जेल के अधिकारी से लेकर सिपाहियों और जेल के भीतर उनकी चमचियों की नज़र रहती है. अगर कोई इन सबके खिलाफ आवाज़ उठाती है तो जेल प्रशासन उसके खिलाफ़ तरह तरह की पाबन्दियां लगा देता है. उसे अपने हाते से निकलने पर पाबन्दी लगा दी जाती है, मुलाकात रोक दी जाती है, या उसे मिल रही सुविधाओं को रोक दिया जाता है. इस तरह जेल प्रशासन पहले से सज़ा काट रही बन्दियों को अतिरिक्त सज़ा देने का प्रावधान हर वक्त तैयार रखता है. एंजेला एक अमेरिकी बन्दी मार्सिया बनी को उद्धृत करती हैं-
‘मुझे यह कहा गया कि अगर मैं इस व्यवस्था के खिलाफ लड़ती रहूंगी तो मैं कभी जेल से बाहर नहीं जा सकती. मेरा प्रत्युत्तर है कि हमें जेल से बाहर जाने की उम्मीद में ही ज़िन्दा रहना चाहिए. ... हमें मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाएं हमें मौत की सज़ा देती हैं.’

समाज की ही तरह जेल में भी औरतों को एक अच्छी ‘औरत’ बने रहने का प्रशिक्षण देता है. जेल से बाहर जाकर भी वे अच्छी पत्नियां, मांएं बनी रहें, जेल इसका पूरा प्रयास करता है. भारतीय समाज आज भी तरह तरह के अन्धविश्वास, भूत-प्रेत, जादू-टोने से घिरा हुआ है. जेल के भीतर इन सबका भौंडा प्रदर्शन होता है. जेल के भीतर पढ़ी लिखी औरतें भी इससे ग्रस्त दिखाई देती हैं. ऐतिहासिक रूप से पिछड़े होने के कारण जेल के भीतर औरतों के मानसिक व बौद्धिक पिछड़ेपन का सबसे विकृत प्रदर्शन होता है. बिना किसी तर्क व बौद्धिक सवाल किये ‘पढ़ी लिखी’ औरतें तुलसीदास कृत सुन्दरकाण्ड में लिखी गई पंक्ति ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ का पाठ हर रोज़ पूरे भक्ति भाव के साथ करती हैं. कुल मिलाकर जेल भारतीय समाज के पिछड़ेपन को ही प्रश्रय देता है. जेल सुधारता कतई नहीं.
भारत में जेल अभी राज्य का मसला है. लेकिन अमेरिका में जेल कारपोरेट मुनाफे का माध्यम बन चुका है. अमेरिका में जेल का रख रखाव प्रतिबन्दी के हिसाब से कारपोरेट को सौंपा जाता है. एंजेला कहती हैं कि ‘‘हरेक जेल वहां नए जेल की नींव रखता है. अमरीकी जेल व्यवस्था के विस्तार के साथ ही इसके निर्माण, खाद्य सामग्री के वितरण, आर जेल श्रम का प्रयोग करने में कारपोरेशन की भागीदारी  बढ़ती गई.’’ 1980 और 90 के दशक में अमेरिका खास तौर से कैलिफोर्निया में जेलों की बाढ़ आ गई.
अमेरिका के निजी जेलों में मौजूद सस्ते श्रम पर वहां के कारपोरेट घरानों की गिद्ध नज़र रहती है. बन्दियों को सुधारने के नाम पर जेल उन्हें सस्ता श्रम उपलब्ध कराते हैं. उनकी कोशिश बन्दियों को लम्बे समय तक रोके रखने की होती है. एंजेला कहती हैं, कि अमेरिका में ‘‘जेल ब्लैक होल बन गए हैं, जहां समकालीन पूंजीवाद का कचरा जमा होता रहता है. बड़ी संख्या में कै़द मुनाफ़ा पैदा करती है. चूंकि यह (पूंजीवाद) सामाजिक सम्पदा को नष्ट कर देता है, अतः यह ऐसी परिस्थितियां पैदा करता है जिसमें बड़ी संख्या में लोग जेल पहुंचें.’’ डेविस लिण्डा इवान्स व ईव गोल्डबर्ग को उद्धृत करती हैं-
‘‘निजी उद्योग के लिए जेल श्रम सोने के बर्तन की तरह है. जहां किसी हड़ताल का ख़तरा नहीं होता, सेवाओं पर खर्च करने की ज़रूरत नहीं, बेरोजगारी भत्ते का सवाल नहीं, न ही किसी तरह का श्रमिक मुआवजा देना पड़ता है..... एक तरह से जेल उन्हें ‘मुफ्त श्रम’ प्रदान करता है.’’
भारत में जेल पूरी तरह से सरकारी नियन्त्रण में होते हैं. भारतीय जेलों में ऊपर से नीचे तक भयंकर हाईरार्की और नौकरशाही व्याप्त है. छोटे से बड़े स्तर तक भयंकर भ्रष्टाचार व्याप्त है. पैसे वाले लोग पैसे फेंक कर जेल प्रशासन से अनाप-शनाप सुविधाएं हासिल कर लेते हैं. वहीं आम कैदी छोटी-छोटी चीज़ के लिए तरसते रहते हैं. सिपाही गरीब बन्दियों से मुलाक़ात के वक्त बन्दियों और उनके रिश्तेदारों से पैसे जबरन वसूलते हैं. जेल के भीतर प्रतिबन्धित चीज़ें लाने ले जाने के लिए जेल के कर्मचारी-अधिकारी रिश्वत लेते हैं. यह आदत इतनी आम है कि जेल के भीतर डिप्टी जेलर से लेकर नम्बरदार, राइटर (जो आमतौर पर बन्दी ही होते हैं) बन्दियों से कदम-कदम पर रुपए मांगते रहते हैं. एक कदम पर आप उनसे बच गए तो अगले कदम पर कोई हाथ फैलाए आपके सामने खड़ा रहता है. रिश्वत की यह व्यवस्था इतनी ढांचागत है, कि जी भन्ना जाता है. हालांकि भारतीय जेलों के अभी निजी हाथों में जाने का कोई स्पष्ट दृश्य नहीं है पर सुनते हैं कि तिहाड़ जैसे जेलों में अलग-अलग तरीके से कारपोरेट की घुसपैठ होने लगी है. शायद उनकी नज़र भी जेल में मौजूद सस्ते श्रम पर हो.
यहां जेल के भीतर कारपोरेट तो नहीं पर कई एनजीओ ‘परमार्थ’ के लिए सिलाई या अगरबत्ती आदि बनवाने का काम करते हैं. लखनऊ जिला कारागार में महिलाओं के लिए जूट का बैग सिलने की एक कार्यशाला चलती है. बाज़ार में 200-300 तक बिकने वाले प्रति बैग पर यहां सिलाई करने वालों को मिलते हैं मात्र 10 रुपए. इसके अलावा जेल के भीतर खाना बनाना, साफ-सफाई, बिजली-पानी के काम, ऑफिस के काम, गेट पर मुलाकातियों के झोलों की जांच, बन्दियों की गिनती, कम्प्यूटर ओपरेशन आदि अनेक छोटे-बड़े काम बन्दी लोग करते हैं. जिसके लिए उन्हें मिलते हैं प्रतिदिन 20 रुपए यानी 600/ प्रतिमाह. यानी इतनी बड़ी मात्रा में श्रम का दोहन लगभग मुफ्त ही हासिल है. इतनी बड़ी संख्या में नियुक्ति के लिए सरकार को करोड़ों रुपए अतिरिक्त खर्च करने पड़ते. इस तरह भारतीय जेल भी प्रकारान्तर से बड़ी मात्रा में सस्ते श्रम का दोहन करते हैं.
जेल नहीं तो क्या?
जेल नहीं होंगे तो उसका विकल्प क्या है. तब बन्दियों को कहां रखा जाएगा? एंजेला कहती हैं कि अमरीका में जेल समाज की आर्थिक-सामाजिक-सैद्धान्तिक सोच का प्रतिफल है. हम एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना करें जहां जेल कारपोरेट के मुनाफ़े का साधन नहीं बने रहेंगे. एक ऐसा समाज जहां समाज में सज़ा देने के लिए नस्ल व वर्ग प्रमुख आधार नहीं होंगे. एंजेला का मानना है कि ऐसी व्यवस्था हो जहां तरह-तरह के स्कूल जेल का सशक्त विकल्प हो सकते हैं. जहां लोगों को रूपान्तरित किया जा सके.स्वास्थ्य सेवाएं और मानसिक चिकित्सालय आम लोगों को आसानी से उपलब्ध हों. नशामुक्ति के उपचार कार्यक्रम गरीब लोगों तक पहुंचे.
एंजेला कहती हैं कि अमरीकी समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक व्यापक व जटिल समस्या है. इस प्रताड़ना के खिलाफ़ अगर कोई महिला लड़ती है तो उसे जेल में कैद करके नहीं ठीक किया जा सकता. इसलिए ऐसे उपाय किये जाने चाहिए जिससे महिलाओं के खिलाफ हर तरह की हिंसा का खात्मा हो. एंजेला डेविस का कहना है-
‘‘ऐसे विकल्प जो नस्लवाद, पुरुष प्रभुत्व, होमोफोबिया, वर्गीय पूर्वाग्रह और अन्य ढांचागत प्रभुत्व को सम्बोधित नहीं करते, वे अन्ततः लोगों को कैद ही करेंगे. और इससे जेल को खत्म करने का लक्ष्य आगे नहीं बढ़ सकता.’’
भारत के मौजूदा आर्थिक-राजनैतिक-सामाजिक हालात में जेल खत्म करो आन्दोलन छेड़े जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. लोगों के असंतोष का दमन करने के लिए जब सरकार ने एक समूचे राज्य को ही कैदखाने में तब्दील कर दिया. ऐसे में जनमानस में विभिन्न कारणों से खौलते असंतोष को दबाने के लिए, आने वाले समय में असंख्य जेलों की जरूरत पडने वाली है.









No comments:

Post a Comment