Monday 25 May 2020

नक्सलबाड़ी की विरासत और प्रासंगिकता: वर्नन गोंजालविस




वर्नन गोंजालविस राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। भीमा कोरेगांव के फर्जी मुकदमें में वे अगस्त 2018 से जेल में हैं। वे राजनीतिक विषयों पर धारदार तरीके से लिखते रहे हैं। किसी भी विषय को सरल तरीके से समझाने के लिए जेल के अन्दर भी लोकप्रिय हो चुके हैं। उन्होंने यह लेख दस्तक के लिए मई 2017 में लिखा था, जब नक्लबाड़ी आन्दोलन के 50 साल पूरे हुए थे। आज नक्लसबाड़ी के 53 साल पूरे होने पर यह लेख हम यहां फिर से दे रहे हैं-

साठ के तूफानी दशक ने कई देशों में ऐसे विद्रोहों, आंदोलनों और संगठनों को जन्म दिया जिनका असर आज तक है। इनमें से सबसे ज्यादा प्रभावशाली था मई 1967 में पनपा पश्चिम बंगाल का नक्सलबाड़ी विद्रोह। यह सीपीआई और सीपीएम के संशोधन वादी नेतृत्व से निर्णायक वैचारिक अलगाव और भारतीय क्रान्ति को हथियारबंद संघर्ष की राह दिखाने का  प्रतीक था। क्रांतिकारी नक्सलवादी आन्दोलन के प्रभाव से उत्पन्न देशव्यापी उथल-पुथल, तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद यहाँ की प्रगतिशील राजनीति को प्रेरणा और गति दे रहा है। इस दौर में  बने संगठन अब भी भारतीय समाज में क्रांतिकारी बदलाव का सबसे अच्छा विकल्प प्रस्तुत करते हैं।
इस विद्रोह की 50वीं वर्षगांठ अतीत में मुड़ कर झांकने और आगे की ओर देखने का उपयुक्त समय है। पिछले पाँच दशकों के अनुभव को इसलिए देखना चाहिए ताकि आज के आन्दोलनों को एक माकूल सबक मिले। साथ ही आगे की ओर भी देखने की इसलिए जरुरत है ताकि वर्तमान में जो हासिल हुआ है, उसका ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाया जा सके, जिससे क्रांतिकारियों के पहले के अधूरे कामों को पूरा किया जा सके। लेकिन इस कार्य को करने से पहले, साठ के दशक से लेकर 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक तक के उन सभी महत्वपूर्ण बिन्दुओ को देखना जरूरी है, जिनमें परिवर्तन आया है और निरंतरता कायम है।

वैश्विक परिदृश्य
परिवर्तन और निरंतरता
  सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन रहा है चीन में पूंजीवाद की पुनःस्थापना के साथ दुनिया के समाजवादी खेमे का ढह जाना। इसका मतलब है दुनिया के सबसे बुनियादी अन्तरविरोधों में से एक -समाजवादी खेमे के साथ साम्राज्यवादी खेमे के अन्तरविरोध का खत्म हो जाना। एक ऐसे अन्तरविरोध का खत्म हो जाना जो 1917 के अक्टूबर क्रान्ति के बाद लगभग 6 दशक तक कायम रहा। समाजवादी केंद्र के रूप में चीन की उपस्थिति, खासकर 1966 से चीन के लोगों द्वारा की गयी सांस्कृतिक क्रान्ति, नक्सलबाड़ी विद्रोह और आन्दोलनों के लिए वैचारिक प्रेरणा का स्रोत रहे। आज ऐसे किसी भी खेमे या केंद्र का नहीं होना एक बड़ा कारक है जिसने दुनिया के सभी जन संघर्षों और क्रांतिकारी आंदोलनों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है।
दुनिया की साम्राज्यवादी ताकतों के बीच एक और बुनियादी अन्तर विरोध सोवियत महाशक्ति के ढहने और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद बदल गया। हलांकि संयुक्त राज्य अमेरिका अब एकमात्र महाशक्ति है, लेकिन इसका अन्य शक्तियों के साथ अन्तरविरोध तीखे रूप में बना हुआ है जिसके कारण दुनिया में बड़े पैमाने पर अस्थिरता बनी हुई है। यूरोप और अन्य पूंजीवादी देशों में मजदूर आन्दोनों के लगातार उठते सैलाब के कारण सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच एक और बुनियादी टकराव तीव्रतम रूप में जारी है।
साम्राज्यवादी व्यवस्था के लिए मुख्य चुनौती हांलाकि दुनिया के शोषित राष्ट्र और लोग रहे हैं। एशिया, अफ्रीका, और लैटिन अमेरिका प्रतिरोध और क्रान्ति के मुख्य केंद्र बने हुए हैं। वियतनाम, कम्पूचिया और लाओ के लोगों की क्रांतिकारी जीत ने सत्तर को परिभाषित किया और अस्सी के दशक के अफगान प्रतिरोध ने सोवियत महाशक्ति के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद के दशकों में एक मात्र महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका को सैन्य शक्ति के माध्यम से साम्राज्य स्थापित करने के प्रयास में पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा।
शोषित राष्ट्रों और लोगों ने बार बार यह दिखाया है कि उन्हें पुराने औपनिवेशिक शासन में लौटना नामन्जूर है। पहली बार साठ के दशक में यह सच अभिव्यक्त हुआ किदेश आजादी चाहते हैं, राष्ट्र मुक्ति चाहते हैं और लोग क्रान्ति चाहते हैंयह सच 21वीं सदी की भी सच्चाई है। साम्राज्यवाद और शोषित राष्ट्रों के बीच अन्तरविरोध समकालीन दुनिया का सबसे मुख्य अन्तरविरोध है।
साठ के दशक के उभार की पृष्ठभूमि में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाईना (सीपीसी) की यह गलत अवधारणा थी कि दुनिया साम्राज्यवाद के ध्वंस और समाजवाद की विश्वव्यापी जीत के नये दौर में प्रवेश कर चुकी है। इसने भारत में भी ऐसे ही सनसनीखेज दावों को जन्म दिया किसत्तर का दशक मुक्ति का दशक होगा और 1975 तक देशव्यापी जीत हासिल कर ली जाएगी।हालांकि जीत की ऐसी तात्कालिक उद्घोषणाओं को आज भले ही खारिज किया जा सकता है पर यह भी सच है कि जनसंघर्षों के सैलाब अनवरत रूप से क्रांतिकारी परिवर्तन की दिशा को ही इंगित करते हैं। यह वह संरचना है जिसके अंतर्गत हम उन रास्तों को देख सकते हैं जो नक्सलबाड़ी या नक्सलवादियों ने सालों में तय किया है तथा शोषित राष्ट्रों और भारत की सीमा के अन्दर तथा उससे बाहर के लोगों को भविष्य की उम्मीद दी है।

 तीन जादुई हथियार
 माओवादी सिद्धांत के अनुसार क्रान्ति का सही तरीके से बढ़ना और सफल होना तीन जादुई हथियारों के उचित तरीके से निर्माण होने पर निर्भर करता है- पार्टी, जन सेना और संयुक्त मोर्चा। नक्सलबाड़ी के नेतृत्व और अनुयायियों को इस बुनियादी कार्यभार से शुरू से ही निपटना पड़ा। आइये इन तीनों मोर्चो की स्थिति देखे 

पार्टी
 सीपीआई और सीपीएम के    संशोधनवाद से वैचारिक अलगाव तथा महान बहस में नक्सलबाड़ी का कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाईना की ओर स्पष्ट झुकाव का मतलब था मार्क्सवाद -लेनिनवाद-माओवाद ख्तब माओ विचारधारा, के आधार पर एक नयी पार्टी की स्थापना। चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद खासतौर ऐसी पार्टियां दुनिया के कई देशों में बनी। भारत में हांलाकि ऐसे नयी पार्टी बनने के आधार और प्रक्रिया में फर्क था।
नक्सलबाड़ी विद्रोह के अगुवा कॉमरेड चारु मजुमदार ने अप्रैल 1969 में सीपीआई(एमएल) की स्थापना की जबकि चिंता दक्षिण देश के अगुवा कन्हाई चटर्जी ने उसी साल अक्तूबर में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर(एमसीसी) की स्थापना की। इसके अलावा कुछ अन्य समूह भी थे, जिन्होंने नक्सलबाड़ी आन्दोलन को समर्थन देने के बावजूद नक्सलबाड़ी का वैचारिक महत्व-यानि संशोधनवाद से निर्णायक विच्छेद तथा सशत्र क्रान्ति के महत्व की स्थापना को स्वीकार नहीं किया। इसमें इसे कुछ समूहों ने एक होकरयूनिटी सेंटर ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्युश्नरीज ऑफ इंडिया ( मार्क्ससवादी-लेनिनवादी)’ की स्थापना की। गठन के तुरन्त बाद ही सीपीआई (एमएल) को जुलाई 1972 में कॉमरेड चारु मजुमदार की मृत्यु सहित कई आघात लगे। खासकर केन्द्रीय समीति भंग हो गयी। नेतृत्व की निरंतरता में बाधा के साथ ही वाम संकीर्णता और दक्षिणपंथी अवसरवादिता के कारण पार्टी के पुनर्गठन सुदृढ़ीकरण में बाधा आयी। 1970 के अंत में और 1980 की  शुरुआत में जाकर सी पी आई (एमएल) (पीपुल्स वार), सीपीआई (एमएल) (पार्टी यूनिटी), एमसीसी और कम्युनिस्ट खेमों के अन्य समूहों ने अतीत की आत्मालोचना कर एक पार्टी बनाने का प्रयास किया। इस प्रक्रिया में हांलाकि 25 साल लगे जब सितम्बर 2004 में सीपीआई (माओवादी) का गठन हुआ। आगे इसे और मजबूती मिली जब मई 2014 में इसका सीपीआई (एमएल) (नक्सलबाड़ी) के साथ विलय हुआ। आज यही वह पार्टी है जो नक्सलबाड़ी के रास्ते नए जनतांत्रिक क्रान्ति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारतीय राज्य का सामना कर रही है।
कई अन्य पार्टिया और ताकते हैं जिन्होंने नक्सलबाड़ी का सारतत्व बनाये रखा है, पर कई ऐसे संगठन भी हैं, जो हालांकि नक्सलबाड़ी और नक्सलवादी का तमगा लगाये हुए हैं पर नक्सलबाड़ी के रास्ते से बहुत ज्यादा भटक गए हैं। ऐसे संगठनों के लिए नक्सलबाड़ी का 50वां वर्ष इस रास्ते को छोड़ देने की घोषणा का साल भी है। सीपीआई (एमएल) (लिबरेशन) हलांकि यह दावा करती है कि वह नक्सलबाड़ी की आग से पैदा हुई पार्टी है, लेकिन वह नक्सलबाड़ी के सैन्य रास्ते का अनुसरण करने का सभी प्रयास छोड़ चुकी है। सीपीआई (एमएल) (रेड स्टार) हालांकि नक्सलबाड़ी के आदर्श पर कायम रहने का दावा करता है पर वह इसके भारतीय समाज और क्रान्ति के रास्ते की व्याख्या को अस्वीकार करता है। कुछ अन्य समूह भी हैं जैसेकम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया’ (सीएलआई) जिनका मानना है कि संगठन के वैचारिक आधार और इस घटना के नेतृत्व को स्वीकार किये बिना ही नक्सलबाड़ी को संस्मरण के तौर पर ऐतिहासिक घटना के रूप में मनाया जाना चाहिए।
अतः सीपीआई (माओवादी) एक मुख्य संगठन है जो नक्सलबाड़ी के वैचारिक, राजनैतिक और रणनैतिक रास्ते पर आगे की ओर बढ़ना चाहता है। इसकी स्थापना का आधार आन्दोलन में पहले की वाम गलतियों की कड़ी आत्मालोचना है, साथ ही दक्षिणपंथी विचलन को पूर्णतः अस्वीकार किया जाना है, जिसका पिछले 50 साल में बार-बार उभार हुआ है। अपने गठन के तुरंत बाद ही इस संगठन को तत्कालीन प्रधानमंत्री  ने निशाना बनाया, जब नवम्बर 2004 में उन्होंने कहा किमाओवादी कश्मीरी और उत्तरपूर्व के आतंकवादियों से भी बड़ा खतरा हैं। सितम्बर 2005 में मुख्यमंत्रियों की स्थायी समिति की एक बैठक में उन्होंने कहा कि यह भारतीय राज्य के आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
हालांकि सीपीआई (माओवादी) क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना में पिछले 35 सालों के प्रयासों की तुलना में काफी आगे है, परन्तु भारत में जनवादी क्रान्ति का नेतृत्व करने के लिए सांगठनिक स्तर पर जिस तरह अगुवाई करनी चाहिए, उस से अभी थोड़ा पीछे है। वे क्षेत्र जहाँ राज्य अभी मजबूत है, वहां घेराव और दमन के अभियान में मिलीजुली सफलता मिली है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में झटका लगा है। साथ ही देश के नए हिस्सों में नए मोर्चे भी खुले हैं। 
एक बड़ी कमी यह है कि देश के शहरी और मैदानी क्षेत्रों में प्रभावशाली ढंग से कार्य नहीं हो पा रहा है। जिसके कारण देश के सबसे विकसित भागों के औद्योगिक सर्वहारा और अन्य शोषित और दबे हुए लोगों के साथ नजदीकी सम्बन्ध नहीं बन पा रहा है। जो एक गंभीर असफलता रही है वह है पार्टी बनने के बाद नेतृत्व के खत्म होने से रोकने में इसका असफल होना। नेतृत्व का बना रहना किसी भी संगठन के लिए आवश्यक है खासकर क्रांतिकारी संगठन के लिए यह और भी जरुरी हो जाता है। भारत में 70 के दशक और पेरू में 1992 में नेतृत्व के खत्म हो जाने के कारण पिछड़ने के ऐतिहासिक उदाहरण हमारे सामने हैं। सीपीआई (माओवादी) को अपना नेतृत्व तो बनाए  रखना ही है और साथ में नए नेतृत्व की श्रृंखला भी तैयार करनी है जो बागडोर सम्हाल सके और आन्दोलन को आगे ले जा सके।


जनसेना
 भारत में जनसेना गठन की शुरुआत पीछे हटने से हुई। 1946 से 51 के बीच हुए तेलंगाना आन्दोलन के शुरुआती सशत्र संघर्ष को सीपीआई के संशोधनवादी नेतृत्व द्वारा वापस ले लिया गया और नक्सलबाड़ी विद्रोह तक ऐसा कोई विद्रोह नहीं हुआ। यह अन्य देशों की परिस्थितियों से भिन्न था, जैसे कि फिलीपीन्स-जहां नई जनसेना का गठन मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के आधार पर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ फिलीपीन्स के पुनर्गठन के तुरन्त बाद हुआ।
नक्सलबाड़ी विद्रोह के परिणाम स्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में कई जगह गुरिल्ला लड़ाकुओं के दस्ते बनाने के प्रयास हुए। खासकर पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश और सबसे सफलतापूर्वक आन्ध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में। शुरूआती प्रयासों को हालांकि राज्य ने अपनी ताकत से कुचल दिया, बाद की कार्य योजनाओं में, खासकर बिहार और तेलंगाना में अपनी पुरानी गलतियों से सबक लिया गया और गुरिल्ला संघर्ष के और भी मजबूत रूपों को स्थापित करने में सफल हुए, जो आगे चलकरगुरिल्ला जोनके रूप में विकसित हुआ।
हालांकि सन 2000 में सीपीआई (एमएल) (पीडब्लू) के नेतृत्व मेंपीपुल्स गुरिल्ला आर्मीका गठन तथा 2003 में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया (एमसीसीआई) के नेतृत्व में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी का गठन हुआ। 2004 में सीपीआई (माओवादी) के नेतृत्व में दोनों का विलय पीएलजीए में हुआ। यही एक मात्र जन सेना अभी अस्तित्व में है जो नक्सलबाड़ी से प्रेरणा लेने वाली किसी भी पार्टी द्वारा स्थापित की गयी है। किसी अन्य पार्टी के पास इस  जादुई हथियार को बनाने का एजेंडा भी नहीं है।
पीएलजीए के गठन के बाद ऐसे सैन्य और सांगठनिक कदम उठाये हैं जिसने इनकी लड़ने की क्षमता को काफी बेहतर किया है। कई स्तरों पर आदेश और नियंत्रण, सैनिक शिक्षा और प्रशिक्षण तथा रणनीति में सुधार ने इनके आगे बढ़ने और गुरिल्ला जोन और बेस में इनकी स्थिति में स्थायित्व प्रदान करने में मदद की है। इसमें किसानों को भी बड़ी मात्रा में सेना में शामिल किया है जो इसकी मूल ताकत हैं।
राज्य ने पीएलजीए के खिलाफ लड़ने वाले अपने सुरक्षाबलों में हलांकि बहुत सारे सुधार किये हैं, यह मात्र संख्या के रूप में नहीं हुआ है जैसे कि सुरक्षा बल की संख्या बढ़ाना और  आधुनिक सैन्य उपकरणों के लिए बजट में बढ़ोत्तरी बल्कि राज्यों के बीच आपसी सामंजस्य भी बढ़ा है, खुफिया तंत्र मजबूत हुआ है और रणनीति में भी बदलाव आया है। इसके अलावा राज्य द्वारा हवाई हमला करने की लगातार  धमकी दी जा रही है। लेकिन माओवादी पार्टी के नेतृत्व में बने पीएलजीए भी अपनी रणनीति विकसित कर रहा है। सबसे महत्वपूर्ण है कि पीएलजीए  मास वर्कको फैला रहा है और इसमें और गम्भीर प्रयास कर रहा है। पीएलजीए मुख्य रूप से अपनी ताकत लोगों से हासिल करता है और इसके कार्यों में ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी ही इसका अस्तित्व और विकास सुनिश्चित करेगा। पीएलजीए भविष्य में किस हद तक नए क्षेत्रों में फैलता है और उनमें अपनी गहरी पैठ बनाता है यह क्रांतिकारी आन्दोलन की भविष्य की दिशा तय करने में निर्णायक होगा।

संयुक्त मोर्चा
 नक्सलबाड़ी विद्रोह के बाद क्रांति के तीसरे जादुई हथियार, संयुक्त मोर्चा का निर्माण ऐसा कार्य है जिस पर सबसे कम सफलता मिली है। इसका मुख्य कारण है क्रांतिकारियों द्वारा इसे नजरअंदाज करना। यहां तक कि सीपीआई (एमएल) ने इसे क्रान्ति के बाद की अवस्था में देखा। मई 1970 की कांग्रेस में स्वीकृत कार्यक्रम में कहा  गया कियह मोर्चा तभी बन सकता है जब सशत्र संघर्ष के दौरान ही मजदूरों और किसानों की एकता स्थापित हो और कम से कम देश के कुछ हिस्सों में लाल राजनैतिक सत्ता स्थापित हो”. इस कार्य को भविष्य के लिए टाल दिया गया और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए शुरुआत में क्या कदम उठाए जाए यह निर्धारित नहीं किया गया। बाद में भूल सुधार पर समझ बनी लेकिन सी पी आई (एम एल)( लिबरेशन) जैसे समूहों ने दक्षिणपंथ की ओर तेजी से रूख किया। माओवाद की संयुक्त मोर्चा की संकल्पना जिसका मतलब था सशत्र संघर्ष के लिए संयुक्त मोर्चा, का माखौल उड़ाते हुए इसने संसदीय रास्ते के लिए 80 के दशक में इंडियन पीपुल्स फ्रंट की स्थापना की।

रणनैतिक संयुक्त मोर्चा
 दूसरी ओर सीपीआई (माओवादी) की संयुक्त मोर्चा की नीति के अनुसार हथियारबंद संघर्ष के लिए रणनैतिक संयुक्त मोर्चे के साथ-साथ विभिन्न मुद्दों और विभिन्न स्तरों पर व्यावहारिक गठबंधन भी बनाया जाना चाहिए। यह सीपीआई (एमएल) के 70 के दशक के कार्यक्रम को दोहराते हुए महसूस करता है कि रणनैतिक तौर पर अखिल भारतीय स्तर पर नया जनवादी  मोर्चा बनाने के लिए आवश्यक है एक ताकतवर जनसेना, एक ताकतवर पार्टी जिसका देशव्यापी राजनैतिक प्रभाव हो और सशत्र संघर्ष का एक पर्याप्त बड़ा क्षेत्र हो। विभिन्न स्तरों पर जन राजनैतिक शक्ति के अंग हों, हालांकि यह इस बात को भी स्वीकार करता है कि चूँकि इसमें वक्त लगेगा फिलहाल निचले स्तरों पर विभिन्न संयुक्त मोर्चाें-जैसे साम्राज्यवाद विरोधी और सामंतवाद  विरोधी मोर्चाे के भ्रूण का निर्माण क्रांतिकारी संघर्षों के समर्थन के लिए होना चाहिए। क्रांतिकारी जन समिति जिसमें विभिन्न वर्गों के लोग शामिल हैं, गुरिल्ला जोनों में बन रहे हैं उन्हें आज ऐसे ही संयुक्त मोर्चों के रूप में मान्यता प्राप्त है, जो निचले स्तर पर सक्रिय हैं। लालगढ़ संघर्ष के दौरान संयुक्त मोर्चा ने नया स्वरुप और स्तर ग्रहण किया, लेकिन इसे कुचल दिया गया। इसी तरह राष्ट्रीयताओं के आन्दोलन के साथ भी संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रयास किया गया है जो जनवादी कार्यक्रमों के आधार पर बने हैं लेकिन राज्य द्वारा ऐसे गठबन्धनांे पर निगरानी रखने और दमनकारी कारवाई के कारण ये मोर्चा परिपक्व नहीं हो पाया।

कार्यनीतिक संयुक्त मोर्चा
 इस दौरान कार्यनीतिक संयुक्त मोर्चे का भी गठन किया जा रहा है जो  लेनिन के सिद्धांत पर आधारित हैं  सबका फायदा-चाहे कितना भी कम हो, जन सहयोग को हासिल करने का अवसर-चाहे वह सहयोगी कितना भी तात्कालिक, अस्थिर, अविश्वसनीय और सशर्त हो।यह तरीका अधिकांश नक्सलवादी संगठनो द्वारा अपनाया गया। हालांकि सीपीआई ( माओवादी) इस बात पर जोर देता है कि सारे कार्यनीतिक संयुक्त मोर्चा बनाने का उदेश्य एक रणनैतिक राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा बनाना होना चाहिए।
इनमे से ज्यादातर कार्यनीतिक मोर्चे और संयुक्त गतिविधियाँ स्थानीय स्तर पर स्थानीय जन संगठनो के साथ होती हैं। हालांकि अलग तेलंगाना राज्य, राजकीय दमन का विरोध, राजनैतिक कैदियों की रिहाई के लिए संघर्ष और विस्थापन के खिलाफ वृहद गठबंधन बने हैं। आरएसएस के प्रभुत्व वाली एनडीए सरकार बनने के तुरन्त बाद ही ब्राह्मणवादी हिन्दू फासीवाद ताकतों के खिलाफ क्रांतिकारी और जनवादी ताकतों के बीच एक वृहद एकता बनाने का आह्वान किया गया था। हालांकि अभी तक यह कोई आकार नहीं ले सका है।

वर्तमान परिस्थितिः सत्ता के रूबरू
 नक्सलबाड़ी के जितने भी आकलन और मूल्यांकन किये गए हैं उनमेंकाउन्टर इंसरजेंसी एजेंसीऔर उनके समर्थकों की भी समीक्षा है। वे सामान्यतः वर्तमान समय पर केन्द्रित करते हैं और निकट भविष्य की बात करे हैं, जिसे वे समय सीमा की तरह देखते हैं जिसके भीतर राज्यसबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा के खतरेको खत्म कर देगा। नक्सलवादी आन्दोलनों को दो सालों के भीतर खत्म कर देने की ऐसी भविष्यवाणियाँ पिछले दशक में बार-बार दोहराई गयी हैं खासकर पिछले दस साल के गृहमंत्रियों के द्वारा। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के एक वक्तव्य के अनुसार तो सेना छत्तीसगढ़ से आन्दोलन को चार घंटे में खत्म कर सकती है।
ऐसा भी नहीं है कि अब तक की सरकारों को इन दावों के खोखलेपन की जानकारी नहीं है लेकिन जल्द जीत की कहानी गढ़ना शाशक वर्ग की आर्थिक और राजनैतिक मजबूरी है। ऐसे सभी आकलन सिर्फ बड़े कार्पोरेट बड़े पूंजीपतियों को खुश करने के लिए किये जाते हैं, जो हमेशा मुनाफे की जल्दी में रहते हैं और ऐसा होने पर सरकारों की आलोचना करते हैं।
एक अन्य एजेंसी रिपोर्ट जिसकी कड़ी आलोचना होती है वह है-किसी को भी माओवादी या नक्सलवादी बता देना। खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां ऐसे व्यक्तियों और संगठनो की लम्बी निगरानी सूची बनाती हैं जिन्हें वे सीपीआइ (माओवादी) या कुछ ऐसे ही नक्सलवादी संगठनो का चेहरा मानती हैं। 2013 में महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधी दस्ते और नक्सल विरोधी कार्यों से जुड़े संगठनों की सूची में ऐसे 48 लोगों का नाम था जिसमें मेधा पाटकर, बाबा आढव, नरेन्द्र दाभोलकर और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता प्रकाश आमटे भी शामिल हैं। ऐसी ही सूची की खबर केरल और अन्य राज्यों से भी मिली है। इसका सार्वजनिक रूप से मजाक उड़ाया गया और मीडिया के लोगों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा सवालिया निशान भी लगाया गया, क्योंकि इसमें ऐसे लोगों का नाम घसीटा गया है जो वैचारिक रूप से मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद     विचारधारा के विरोधी माने जाते हैं।

जनवादी मुद्दों पर बिना किसी समझौते के काम कर रहे किसी भी कार्यकर्ता को नक्सल बताना- राज्य की इस प्रवृति का एक कारण है। सामान्यतः ये नागरिक संगठनों या गैर सरकारी संगठनों के सबसे ईमानदार तत्व होते हैं जो सच्चे लोकतंत्र के लिए बहुत मजबूती के साथ खड़े होते हैं। इनकी जो भी विचारधारा हो-   गांधीवादी, लोहियावादी, अम्बेडकरवादी, या अन्य-ये वे ताकते हैं जो इस देश में जनवादी क्रान्ति के लिए बने राजनैतिक गठजोड़ का हिस्सा हैं। चूँकि पिछले 50 सालों से यह नक्सलवादी आन्दोलन ही है और आज का माओवादी आन्दोलन ही है जो लगातार जनवादी क्रान्ति के उद्देश्यों और आकांच्छाओं का निरतंर  प्रतिनिधित्व करता रहा है। राज्य की नजरों में ऐसे लोगों का नक्सलवादी होना स्वाभाविक है। क्योंकि राज्य को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि इस क्रान्ति को खत्म करे। ऐसी ताकतें देश में हर जगह हैं। निगरानी सूची और लम्बी हो सकती है।
आन्दोलन के शुरुआती दौर में, सबसे क्रूर दमन के बीच एक कवि ने नक्सलबाड़ी के बारे में कहा था
हमारे शब्दकोश का
यह सामान्य शब्द
केवल गाँव का नाम नहीं है
बल्कि पूरे देश का नाम है
पचास साल बाद निगरानी एजेंसियों द्वारा बनी नक्सलवादियों की सूची चारों ओर से लम्बी होती जा रही है, वे पूरे देश का नाम मालूम होते हैं.
जैसा कि कॉमरेड चारु मजुमदार ने कहा थानक्सलबारी कभी नहीं मर सकता।

अंग्रेजी से अनुवादः धीरज कुमार

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