Monday 11 May 2020

छात्र आंदोलनों को क्रांतिकारी दिशा देने की जरूरत - रितेश विद्यार्थी


 2010 का दशक भारत में छात्र आंदोलनों के एक नये आगाज़ का दशक है। दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में भी छात्र आंदोलनों का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कदम- कदम पर छात्रों व छात्र आंदोलनों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। आज़ादी के आंदोलन में शहीद हुए क्रांतिकारी अशफ़ाक़ उल्ला खां, भगत सिंह, सुखदेव ये लोग छात्र ही थे। भगत सिंह लाहौर विश्वविद्यालय के छात्र थे। नौजवान भारत सभा छात्रों और युवाओं का ही संगठन था। 1936 में देश के पहले छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन का गठन हो चुका था। भारत छोड़ो आंदोलन में भी छात्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। अंग्रेजों के जाने के बाद के भी लगभग हर दशक ने भारत में छात्र आंदोलनों की गर्मी को महसूस किया है। भाषा आधारित राज्यों के गठन के लिए उड़ीसा व आंध्र प्रदेश (बाद में तेलंगाना) के छात्रों का आंदोलन हो, भाषायी वर्चस्व के खिलाफ 1965 में तमिलनाडु के छात्रों का आंदोलन रहा हो, 1967 के नवम्बर माह में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शुरू हुआ 'अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन' हो, चारु मजूमदार के आह्वान पर शुरू हुए नक्सलवादी क्रांतिकारी आंदोलन के प्रभाव में 60 के दशक के अंत में देशव्यापी छात्र आंदोलनों का उभार रहा हो, जिसने बिहार, बंगाल, आंध्र, उड़ीसा, पंजाब जैसे राज्यों के पूरी की पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया था। सेंट स्टीफेंस और प्रेसीडेंसी जैसे कुलीन कॉलेजों के छात्र भी नक्सलबाड़ी आंदोलन में कूद पड़े थे। केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार और पश्चिम बंगाल में कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार ने नक्सलवादी क्रांतिकारियों पर भयानक जुल्म ढाहे। अकेले कलकत्ता में 10हजार छात्रों की हत्या की गई।  

दरसल यह समय ही विश्वव्यापी क्रांतिकारी आंदोलनों का समय था। यह मात्र 38 वर्ष की उम्र में शहीद होने वाले कम्युनिस्ट क्रांतिकारी चे ग्वेरा का समय था। यह मुक्तिकामी और अमेरिका को शिकस्त देने वाली वियतनामी जनता और उसके नेता हो ची मिन्ह का समय था। फ्रांस के राष्ट्रपति ' द गाल' की सरकार को हिला देने वाले मई 1968 के छात्र आंदोलन का समय था और सबसे बढ़कर सांस्कृतिक क्रांति का अभूतपूर्व व अभिनव प्रयोग करने वाले माओ के नेतृत्व वाले चीनी सांस्कृतिक क्रांति का समय था। ये वो समय था जब पूरी दुनिया हिल उठी थी। भारत में 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले 'सम्पूर्ण क्रांति' आंदोलन में भी छात्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इस आंदोलन ने ढेर सारे अवसरवादी छात्र नेताओं को भी जन्म दिया। 1975 में आपातकाल लागू होने के बाद उसके विरोध में बहुत से छात्र आंदोलनों की शुरुआत हुई थी। जिसने अलग-अलग विचारों के छात्र संगठनों और छात्र नेताओं को जन्म दिया। आपातकाल के दौर में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को निशाना बनाया गया और उनका बर्बरतापूर्वक दमन किया गया। 70- 80 के दशक में ही आंध्रप्रदेश राज्य में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ रेडिकल स्टूडेंडट्स यूनियन का क्रांतिकारी आन्दोलन शुरू हुआ था। इस आंदोलन में सैकड़ों छात्र पुलिस और उसकी गुंडा वाहिनियों के नृशंस दमन का शिकार हुए थे। अपने असमी पहचान को लेकर असम आंदोलन ने 80 के दशक में मिलिटेंट रूप ले लिया था। जिसका नेतृत्व ऑल असम स्टूडेंडट्स यूनियन (आसू) ने किया था। 90 के दशक में आर्थिक सुधारों के नाम पर किये जा रहे निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ छात्रों का आंदोलन हुआ, जो मुखर ढंग से शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ शुरू हुआ था। इस तरह के ढेरों छात्र आंदोलन 1947 के बाद के भारत में हुए। 
 
2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद भारत में विश्वविद्यालय और प्रदेश स्तर पर ढेर सारे जनवादी छात्र संगठनों और उनकी पहलकदमी से छोटे- छोटे लेकिन महत्वपूर्ण छात्र आंदोलनों की एक नई शुरुआत हुई। 2014 में एक छात्रा के साथ छेड़खानी के खिलाफ पश्चिम बंगाल की पूरी जाधवपुर यूनिवर्सिटी सड़क पर उतर आयी। 2015 में बी ग्रेड फिल्मों के अभिनेता और भाजपा नेता गजेंद्र चौहान को फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII), पुणे का चेयरमैन बनाये जाने के खिलाफ FTII के छात्रों का लम्बा आंदोलन चला। 2016 में हैदराबाद यूनिवर्सिटी के एक अम्बेडकरवादी छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या ने पूरे देश के छात्रों को आंदोलित किया। उच्चतर शिक्षण संस्थानों में जड़ जमाये बैठे मनुवादी सोच और 'सवर्ण' वर्चस्व के खिलाफ पूरे देश के छात्र सड़क पर उतरे। अफज़ल गुरु के अन्यायपूर्ण 'न्यायिक' हत्या के खिलाफ 2015-2016 में जेएनयू के छात्रों ने आवाज उठाया। इस आवाज को राष्ट्रीय स्वयंसेवी संघ के अनुषांगिक छात्र संगठन एबीवीपी व भारतीय जनता पार्टी द्वारा साम्प्रदायिक और देशविरोधी रूप देने की कोशिश हुई। जेएनयू के छात्रों ने डेमोक्रेटिक कैंपस, डेमोक्रेटिक देश और सुरक्षित भविष्य के नारे के साथ आंदोलन किया। 2017 में जनवादी अधिकारों के लिए चल रहे छात्र आंदोलनों के देशव्यापी माहौल में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में एक छात्रा के साथ हुए छेड़खानी ने बड़े पैमाने पर बीएचयू की छात्राओं और न्यायपसन्द छात्रों को आंदोलित किया। सितंबर 2017 में बीएचयू में छात्राओं का ऐतिहासिक आंदोलन हुआ जिसमें सैकड़ों छात्र, छात्राओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए।  2017 में ही एबीवीपी की गुंडागर्दी, विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही और कैंपस में घटते लोकतांत्रिक स्पेस के खिलाफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में वामपंथी छात्र संगठनों के संयुक्त मंच "फोरम फ़ॉर कैंपस डेमोक्रेसी" (एफसीडी) का ऐतिहासिक आंदोलन हुआ। नरेंद्र मोदी की फासीवादी सरकार ने इन छात्र आंदोलनों को 'एन्टी नेशनल' कहकर बदनाम किया और इन आंदोलनों का तानाशाही पूर्ण ढंग से दमन किया।  2016 और 2017 में हजारों की तादाद में देश के तमाम विश्वविद्यालयों के छात्र सड़क पर उतरे।

2010 के दशक से ही कैंपस आधारित और राज्य आधारित ढेर सारे  रेडिकल छात्र संगठनों का निर्माण और आंदोलनों की शुरुआत होना शुरू हुआ। जिसमें चादिगढ़, बनारस, जादवपुर, दिल्ली सहित कई आंदोलनों ने सरकार को हिला कर रख दिया।

2014-2015 से भारत लगातार छात्र आंदोलनों की धमक को सुन रहा है। अभी हाल में गरीब विरोधी व मुस्लिम विरोधी, फासीवादी 'नागरिकता संशोधन कानून' (CAA) और 'नेशनल रजिस्टर फ़ॉर सिटीज़नशन्स' (NRC) के खिलाफ देश के तमाम विश्विद्यालयों और कॉलेजों के छात्रों ने बर्बर दमन झेलते हुए भी महीनों तक आंदोलन किया। फासीवादी नरेंद्र मोदी सरकार ने जनता के सारे नागरिक अधिकारों को कुचलकर उस आंदोलन को खत्म करने की कोशिश की। आधी रात को जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों पर निर्दयतापूर्वक हमला किया गया। ढेर सारे छात्र बुरी तरह घायल हुए और कुछ की मौत भी हो गयी। जेएनयू को 'संघी' गुंडों द्वारा बंधक बना लिया गया। छात्रावासों में घुस- घुसकर छात्राओं व छात्रों को पीटा गया। पुलिस न केवल तमाशा देखती रही बल्कि उल्टे पीड़ित छात्रों को ही आरोपी बना दिया।

2016 से ही नरेंद्र मोदी की शिक्षा विरोधी नीतियों के खिलाफ पूरे देश के छात्र आंदोलित हैं। भाजपा सरकार सार्वजनिक शिक्षा को नष्ट कर देने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है। शिक्षा व्यवस्था को विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन जैसे साम्राज्यवादी संगठनों के हवाले किया जा रहा है। भारत सरकार जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति(NEP)-2020 लेकर आयी है, उसे हम मैकाले व मनु का नया संस्करण कह सकते हैं। आप देख सकते हैं कि किस तरह से सार्वजनिक पूंजी से चलने वाले तमाम शिक्षण संस्थाओं को नष्ट किया जा रहा है। जेएनयू को तो पूरी तरह खत्म कर देने पर ही ये फासिस्ट आमादा हैं। जेएनयू में 90% रिसर्च की सीटों की कटौती की गयी और फीस में बेतहाशा वृद्धि की गयी। शिक्षा व्यवस्था की हकीकत यह है कि कुल जीडीपी का केवल 1.8% शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है। जो की विश्व में सबसे कम है और सरकार अपनी नयी शिक्षा नीति 2020 में भारत को 'विश्वगुरु' बनाने की लफ्फाजी कर रही है। हमारी नयी 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति' (NEP) नालंदा व तक्षशिला को याद करने का ढोंग करती है जबकि सच्चाई यह है की देश का कोई भी विश्वविद्यालय आज की तारीख में दुनिया के शीर्ष 300 विश्वविद्यालयों में भी शामिल नहीं है। प्राथमिक शिक्षा की हकीकत यह है कि देश के 90% सरकारी स्कूल  शिक्षा के अधिकार के तहत तय मानकों पर खरे नहीं उतरते। वहाँ पढ़ाई के लिए कम और खिचड़ी खाने के लिए ज्यादा बच्चे जाते हैं। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में प्राइवेट स्कूल प्रतिवर्ष जितना कमाते हैं, उसका 6% भी सरकारी स्कूलों पर खर्च नहीं होता। देश में 10 लाख स्कूलों में शिक्षकों के तमाम पद खाली हैं।

इन्हीं परिस्थितियों में 2014-15 के बाद से भारत में छात्र आंदोलनों के एक नए दौर की शुरुआत हुई है। विपक्ष तो संसद में पहले भी नहीं था। लेकिन नक्सलबाड़ी के बाद इतने बड़े पैमाने पर संसदीय व्यवस्था से जनता व छात्रों का मोहभंग पहली बार हुआ है। छत्तीसगढ़, झारखंड और महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल इलाके देश में वैकल्पिक व्यवस्था और राजनीति के लिए चल रहे संघर्ष का केंद्र बने हुए हैं। इसके अलावा शहरों- कस्बों आदि में छात्र- युवा आबादी विपक्ष की भूमिका अदा कर रही है। सत्ता का असली विपक्ष  संसद में नहीं बल्कि सड़क पर मौजूद है।

ये सारे छात्र आंदोलन शिक्षा के अधिकार, विभिन्नता में एकता, असहमति दर्ज कराने और प्रोटेस्ट करने के नागरिक अधिकारों, डॉ. आंबेडकर के जातिविहीन समाज के सपनों, लैंगिक भेदभाव विरोधी और जल- जंगल- जमीन के साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ हो रहे हैं। देश में रोजगार की स्थिति बहुत भयानक है। चीन के बाद भारत में विश्व की सबसे ज्यादा युवा आबादी रहती है, जो इस समय करीब 60 करोड़ से भी ज्यादा है। जिसके सामने अब पकौड़ा छानने का विकल्प भी खत्म होता जा रहा है। क्योंकि लोगों की क्रय शक्ति खत्म होती जा रही है। इलाहाबाद, पटना, बनारस और दिल्ली जैसे शहर में लाखों की संख्या में छात्र शिक्षा प्राप्त करने व नौकरियों की तैयारी के लिए आते हैं। अभी हाल ही की बात है। रेलवे के 90 हजार नौकरियों के लिए 2.5 करोड़ फॉर्म पड़े थे। एनटीपीसी में  35 हजार पद निकाला और एक करोड़ उम्मीदवारों ने फॉर्म डाला। एक फॉर्म की कीमत 500 रुपये था। एक साल तक परीक्षा ही नहीं आयोजित हुई। यूपी में तमाम वैकेंसियां रुकी हुई हैं या कोर्ट में लंबित हैं। 2019- 2020 में बेरोजगारी दर बढ़कर 25% से ज्यादा हो गयी है और सकल घरेलू उत्पाद घटते- घटते 4% हो गया है। देश भयानक आर्थिक संकट से गुजर रहा है। ऐसे खतरनाक दौर में कोरोना वायरस ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया है।

कोरोना ने दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था की हकीकत को बेनकाब कर के रख दिया है। कोरोना के बाद सच में ये दुनिया बहुत बदल जाएगी। कोरोना महामारी ने इस विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के सभी अंतर्विरोधों को स्पष्ट कर दिया है। भारत सहित तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाएं जो पहले से डांवाडोल थीं, कोरोना के समय में और भी गहरे संकट में फंसती हुई दिखाई दे रही हैं। भारत के करीब 2 करोड़ लोग विदेशों में काम करते हैं। जो कि कोरोना के बाद निश्चित तौर पर बड़े पैमाने पर नौकरी से हटाए जाएंगे और मजबूरन लौटकर भारत आएंगे। क्योंकि भारतीयों को सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले देश अमेरिका और अरब देशों की हालत खुद ही बहुत खराब है। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हवाई चप्पल वालों को हवाई जहाज में बैठाने की बात करते थे। इस देश की मेहनतकश जनता की स्थिति को नजरअंदाज करके नरेंद्र मोदी ने अचानक से लॉक डाउन की घोषणा करके आम लोगों खासतौर पर मेहनतकशों की ज़िंदगी को नर्क बना दिया है।  कोई सूरत से, कोई मुम्बई से, कोई बेंगलुरु से, कोई लुधियाना से तो कोई दिल्ली से पैदल ही हजारों किलोमीटर की यात्रा तय कर अपने घर यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, आदि राज्यों में पहुंचने के लिए निकल गया है। हजारों मजदूर भूखे पेट, खाली जेब कोई अपने रिक्शे से, कोई सायकिल से तो कोई गोद में बच्चा लेकर, तो कोई अपने बूढ़े माँ-बाप को कंधे पर बैठाकर अपने- अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ा है। आये दिन मजदूरों के मरने की खबरें आ रही हैं। कहीं भूख से, कहीं पैदल चलने के थकान से, कहीं पैदल चलते हुए ट्रक से कुचल जाने से तो कहीं दर्जन भर से ज्यादे मजदूर रेल की पटरी पकड़ कर घर जाने के क्रम ट्रेन से कटकर। कटने के बाद घटनास्थल पर उनके मांस व खून के अलावा सूखी रोटियां बिखरी पड़ी थीं, जो उनकी बेबसी को बयां कर रही थीं। मजदूर ट्रेन की पटरी पकड़ कर इसलिये जा रहे हैं क्योंकि सड़क के रास्ते पुलिस उन्हें जाने नहीं दे रही है, उल्टे पीट रही है।

लॉक डाउन के बहाने सरकार देश को पुलिस और मिलिट्री स्टेट बनाने की प्रैक्टिस कर रही है। कई राज्य सरकारों ने तो अपने घर लौट रहे मजदूरों को गाड़ी में बैठाकर वापस वहीं पहुंचा दिया जहां से वो लौट रहे थे। भारत में रोजगार की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य गए प्रवासी मजदूरों की संख्या करोड़ो में है। क्योंकि तमाम राज्यों में रोजगार का कोई साधन नहीं है। लेकिन केन्द्र सहित तमाम राज्यों की सरकारों को उनकी कोई चिंता नहीं है। जनता की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा बेहद गरीब लोगों के खाते में 500 रुपया डालने की घोषणा हुई। इस 500 जैसे मामूली रकम के लिए लोग बैंकों के सामने घंटों लाइन लगाकर खड़े रहे। इतनी महंगाई में 500 रुपये की क्या औकात है आप समझ सकते हैं। लेकिन तानाशाह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ताली-थाली बजवाकर व मोमबत्ती जलवाकर अपनी आवाज का जनता पर असर चेक कर रहा है। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश सहित देश की तमाम राज्य सरकारें अगले 3 सालों तक के लिए सभी श्रम कानूनों को स्थगित करने का फासीवादी फैसले सुना रही हैं। ताकि उद्दोगपति मनमाने ढंग से मजदूरों का शोषण करके अपना उत्पादन बढ़ा सकें। आज गरीब आदमी कोरोना से कम भुखमरी और अन्य वजहों से ज्यादा मर रहा है। जहाँ सारी दुनिया में कोरोना का इलाज डॉक्टर कर रहे हैं, वहीं भारत मे पुलिस कर रही है। 

कोरोना में सरकार की नीतियों ने मेहनतकशों की स्थिति को भयावह बना दिया है। भूख से मरने वालों के जो आंकड़े लॉक डाउन के बाद आने वाले हैं वो पूरे देश को हिलाकर रख देंगे। सीएमआई कि एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 45 करोड़ लोग रोज ब रोज काम करते हैं। देश के 90 फीसदी मजदूर असंगठित क्षेत्र में हैं और ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर की तरह काम करते हैं। इनमें से अधिकांश वो मजदूर हैं जो हमारे गांवों में व्याप्त अर्धसामंती और मनुवादी व्यवस्था की वजह से और अपना पेट न भर पाने की वजह से मजबूरन शहर आये थे।

'सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी' के अनुसार मई तक भारत में बेरोजगारी दर अब तक का सर्वाधिक 27% को पार कर जाएगा। लॉक डाउन के पिछले 2 महीने में 12 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। कर्नाटक सहित कई राज्यों में उद्योगपतियों के दबाव में मजदूरों को पैदल भी अपने घर आने से रोका जा रहा है और उन्हें वापस फैक्ट्रियों में काम करने लौटाया जा रहा है। सूरत सहित तमाम शहरों से अपने गाँव वापस लौटने की व्यवस्था करने या भोजन व अन्य सुविधाएं मांगने पर मजदूरों पर लाठीचार्ज किया जा रहा है। ये सब इसलिए हो रहा है कि उद्योगपतियों के कारखानों को चलाने के लिए सस्ते मजदूरों की संख्या में कोई कमी नहीं होने पाए। अभी कल-परसों में ही आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम शहर में साउथ कोरिया की केमिक फैक्ट्री एल जी पॉलिमर्स में गैस रिसाव होने से हजारों लोगों का जीवन खतरे में पड़ गया और दर्जनों लोग मारे गए। अभी 2-4 दिन पहले ही लॉक डाउन में ढील दिए जाने के बाद इस फैक्ट्री को खोला गया था। इन मजदूरों के मौत की जिम्मेदारी कौन लेगा?

2022 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना दिखाने वाली मोदी सरकार अब जनता के सामने ही कटोरा लेकर खड़ी है। मेहनतकशों पर इतना जुल्म व मेहनतकशों का इतना अपमान और महा पलायन पहले शायद ही कभी हुआ हो। मजदूर अपने घर लौटने के लिए क्या-क्या नहीं कर रहे हैं। 18 मजदूर कंक्रीट मिलाने वाले मिक्सर ट्रक में छिपकर अपने घर के लिए निकल पड़े थे। जिन्हें बाद में पुलिस वालों ने पकड़ लिया था। एक जगह रात में पैदल अपने घर जा रहे 8 मजदूरों को हाइवे पर ट्रक ने कुचल दिया। भूख- गरीबी, अपमान और मौत झेलते ये मजदूर लाखों की संख्या में आपको सड़कों पर पैदल चलकर अपने घर लौटते दिख जाएंगे। ये रेलें, ये बसें, ये जहाज सब कुछ इन मजदूरों ने बनाया है। लेकिन आज इस कठिन समय में कुछ भी इनका और इनके लिए नहीं है। भारत में हर साल 2.5 करोड़ मजदूर तैयार होते हैं। इनमें से अधिकांश ऐसे मजदूर हैं जो रोज कमाते और खाते हैं। एक दिन काम न मिले तो उनके सामने भोजन का संकट खड़ा हो जाता है। अफ्रीका के सर्वाधिक गरीब 26 देशों से भी ज्यादे गरीब लोग भारत के सिर्फ 8 राज्यों में रहते हैं। भारत आज उसी मोड़ पर पहुंच गया है जिस स्थिति में 1917 का रूस पहुंच गया था। हमारे देश में 6 करोड़ लोग भीख मांगते हैं, 6 करोड़ बच्चे बाल मजदूर हैं। इन्हीं बुरी परिस्थितियों में एक खबर ये भी है कि मुकेश अम्बानी एशिया के सबसे धनी व्यक्ति बन चुके हैं। आज की भयानक और क्रूर परिस्थिति जनता और छात्रों- युवाओं को गहराई से यह एहसास करा रही है कि 1947 की आज़ादी एक नकली आज़ादी थी और देश में लोकतंत्र व संविधान का शासन एक ढकोसला मात्र है।

अपनी तमाम उपलब्धियों और सकरात्मक्ताओं के बावजूद देश भर में चल रहे छात्र आंदोलनों की एक बड़ी कमी है, इन आंदोलनों में व्यवस्था विरोधी क्रांतिकारी दिशा का अभाव और देश की मेहनतकश जनता से एकता व उससे संवेदनात्मक-भावनात्मक जुड़ाव का अभाव। आज हमारी छात्र राजनीति की सबसे बड़ी समस्या है व्यक्तिवाद, अवसरवाद, करियरवाद और भयानक जातिवाद। विश्वविद्यालय में जातिवादी, साम्प्रदायिक व महिला विरोधी लम्पटों का गिरोह छात्र राजनीति पर कब्जा जमाए बैठा है। इन लम्पटों का इस्तेमाल दक्षिणपंथी ताकतें प्रगतिशील छात्रसंगठनों और छात्र नेताओं की आवाज को दबाने के लिए करते हैं। विश्वविद्यालय और छात्र राजनीति से छात्रों के व देश- दुनिया के सारे बुनियादी सवाल गायब हैं। छात्र संघ और छात्र राजनीति मेहनतकश किसानों और मजदूरों की आवाज़ बनने की जगह सत्ता की कठपुतली बनी बैठी है। विश्वविद्यालय और तमाम प्रचार माध्यम क्रांतिकारी विचारों को बदनाम करने के माध्यम बने हुए हैं। आज मुख्य धारा की छात्र राजनीति ज्यादा से ज्यादा सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी मात्र है। व्यक्तिवाद और आत्मकेंद्रित सोच इस तरह हावी है कि बेरोजगारी के तमाम आंकड़ों को नजरअंदाज कर छात्र कहता है कि जब तक एक भी सीट खाली है हम समझेंगे की ये हमारी कमी है कि हमारे पास नौकरी नहीं है क्योंकि एक सीट तो थी न। इस भयानक व्यक्तिवाद से उबरे बगैर छात्र आंदोलन कभी भी सच्चाई की व मेहनतकशों की आवाज़ नहीं बन सकते। तमाम वास्तविक और बुनियादी सवालों को दरकिनार करने के लिए मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है, उन्हें बाकी जनता के दुश्मन की तरह पेश किया जा रहा है। मुस्लिमों, दलितों व आदिवासियों के साथ हो रही ज्यादतियों ने भारतीय संविधान में निहित 'सेकुलरिज्म' और 'सामाजिक न्याय' की पोल खोलकर रख दी है।

आज जरूरत है हमें छात्रों के बीच एक नयी बहस ले जाने की। विश्वविद्यालयों व कॉलेजों की राजनीतिक संस्कृति को बदलने की। क्रांतिकारी बदलाव के लिए क्रांतिकारी राजनीति को छात्रों के बीच लोकप्रिय ढंग से रखने की। मेहनतकश जनता और क्रांतिकारी ताकतों के साथ छात्रों के एकताबद्ध होने की। देश में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन को मदद करने व मजबूत करने की। देश में चल रहे वर्ग संघर्ष को तेज करने और उसमें शोषित- उत्पीड़ित वर्गों का पक्ष चुनने की। इसके लिए हमें मेहनतकश व उत्पीड़ित जनता और छात्रों की व्यापक आकांक्षाओं को संबोधित करना पड़ेगा। छात्रों- युवाओं के दिल-दिमाग से मर रहे क्रांतिकारी आदर्शों, उसूलों और इमानदारी को फिर से पैदा करना होगा। इसके लिए व्यापक प्रचार अभियान और आंदोलन चलाने होंगे। प्रचार, शिक्षण- प्रशिक्षण और वैज्ञानिक व क्रांतिकारी सोच पर जोर देकर, उन्हें संघर्ष में उतारकर छात्र- छात्राओं की चेतना का क्रांतिकारी रूपांतरण करना होगा। युवाओं में अशफाक, बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह के विचारों और क्रांति के प्रति जुनून को फिर से पैदा करना होगा। छात्रों के अंदर सच्चे लोकतंत्र, क्रांतिकारी राष्ट्रवाद व सच्ची देशभक्ति की सही समझ विकसित करनी होगी। बदलाव की लड़ाई अकेले न लड़ी जा सकती है और न ही जीती जा सकती है। इसलिए अपने सांगठनिक ढांचे को मजबूत करते हुए व उसका विस्तार करते हुए समान विचारों पर आधारित सभी प्रगतिशील व क्रांतिकारी सांगठनों को एकताबद्ध करना होगा।  नागरिक अधिकारों और सामाजिक- राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर बढ़ते हमलों व उनकी गिरफ्तारी का मुखर व सक्रिय ढंग से प्रतिरोध करना होगा। राजनीतिक बंदियों की रिहाई के मुद्दे को जन आंदोलन का रूप देना होगा।

आज भारत की जेलें क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं से भरी हुई हैं। इन्हें शासक वर्ग द्वारा 'अर्बन नक्सल' का नाम दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट एक तरफ कोरोना महामारी में लोगों को जेलों से छोड़ने की बात कर रही है तो दूसरी तरफ आनंद तेलतुंबड़े जैसे प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी व प्रोफेसर और गौतम नवलखा जैसे मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता को जेलों में ठूंसा जा रहा है। छात्र आंदोलनों को इन सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए भी आवाज उठाना होगा। लेकिन आज के समय की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि छात्र आंदोलनों को मुद्दा आधारित आंदोलनों की जगह व्यवस्था विरोधी- क्रांतिकारी छात्र आंदोलनों का रूप लेना होगा। आज छात्र आंदोलन और जनता के आंदोलन बिखराव के शिकार हैं। सबका जोर अलग-अलग सवालों पे है। जबकि समस्या को अलग- अलग देखने और अलग- अलग लड़ने के उत्तर आधुनिक और अस्मितावादी सोच के खिलाफ समस्या को संपूर्णता में देखना होगा व सामूहिक तौर पर एक जुट होकर तीखा संघर्ष चलाना होगा। जब सबका दुश्मन एक है तो संघर्ष अलग- अलग क्यों?
 
छात्र आंदोलनों को जातिवाद- अवसरवाद व छद्म राष्ट्रवाद के दलदल से बाहर निकलना होगा। सच्चे लोकतंत्र, समाजवाद और सच्ची देशभक्ति छात्रों व युवाओं के बीच पैदा करनी होगी। आज कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, सपा, बसपा जैसी दलाल पार्टियां, सीपीआई-सीपीएम जैसी अवसरवादी पार्टियां और छात्र आंदोलनों में जड़ जमाकर बैठे अवसरवादी व जातिवादी तत्व छात्र आंदोलनों को क्रांतिकारी दिशा देने में सबसे बड़े बाधक हैं। आरएसएस- बीजेपी के अलावा इनके खिलाफ भी तीखा वैचारिक संघर्ष छेड़ना होगा। कुल मिलाकर कहें तो नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय जिस तरह छात्रों ने अपनी सुविधासंपन्न जीवन की लालसा और करियरवादी सोच को लात मारकर मजदूरों, किसानों, आदिवासियों और दलितों के संघर्ष से अपने आप को एकरूप कर लिया था, वैसे ही फिर से करने की जरूरत है। छात्र आंदोलन जब तक गाँव चलो, बस्ती चलो का आह्वान नहीं करेंगे तब तक इस व्यवस्था का बदलना मुश्किल है। जरूरत है देश की मेहनतकश जनता के संघर्षों से कंधा मिलाने की, छात्र आंदोलनों को क्रांतिकारी दिशा देने की, अपने अवसरवादी- व्यक्तिवादी सोच को लेकर आत्म आलोचना करने की और मेहनतकश जनता से खुद को एकरूप करने की।

नौजवानों को यह एहसास करने की जरूरत है कि जाति, धर्म और लैंगिक भेदभाव पर आधारित सोच हमारे आंदोलनों को जोड़ने का नहीं बल्कि तोड़ने का काम करते हैं। सिर्फ और सिर्फ वैज्ञानिक सोच और समान विचारधारा पर आधारित क्रांतिकारी छात्र आंदोलन ही आज़ादी व बराबरी पर आधारित समाज का निर्माण कर सकते हैं। इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है। भगत सिंह ने कहा था कि, "नौजवानों को चाहिए कि वो फैक्ट्रियों, कारखानों, मलीन बस्तियों, झुग्गी-झोपड़ियों और खेतों- खलिहानों में जायें। यानी वहाँ जाएं जहाँ मेहनतकश जनता रहती है और जनता को क्रांतिकारी विचारों से लैश करें।"

                    - लेखक इलाहाबाद वि वि में सक्रिय   इंक़लाबी छात्र मोर्चा (ICM) से जुड़े हैं।

3 comments:

  1. इस दौर के नौजवानों(जो राजनीति से दूर रहना चाहते हैं)के लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण और प्रेरणादायक लेख है।

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  2. प्रेरणादायक लेख है.. इंक़लाब ज़िंदाबाद ✊🏻

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