Wednesday 13 May 2020

‘पैरासाइट’ और ‘पैरासाइट’ के बहाने -- मनीष आज़ाद



1917 की सोवियत क्रान्ति के बाद बदली हुई विश्व परिस्थिति में विश्व में अमीर गरीब की खाई थोड़ी कम होनी शुरू हुई थी। लेकिन 1970 के बाद विशेषकर 'साम्राज्यवादी वैश्वीकरण' के बाद दुनिया में फिर से अमीर गरीब के बीच की खाई चौड़ी होने लगी और आज यह पुनः 1913 के स्तर पर पहुंच चुकी है। आक्सफेम की एक रिपोर्ट केे अनुसार दुनिया के सबसे अमीर 2153 लोगों के पास 4 अरब 60 करोड़ लोगों की कुल संपत्ति से ज्यादा दौलत जमा है। कोरोना काल के बाद यह खाई और चौड़ी होने जा रही है। इसी फ्रेम में हम दक्षिण कोरिया को देख सकते हैं, जिसे आज एशिया का 'ब्राजील' या 'दक्षिण अफ्रीका' कहा जा रहा है क्योकि यहां आर्थिक गैर बराबरी बहुत तेजी से बढ़ रही है। इसी फ्रेम में हम दक्षिण कोरिया की बहुचर्चित फिल्म पैरासाइट को भी देख सकते हैं, जिसने इस बार कुल चार आस्कर जीता है।
'बोंग जो हो' (Bong Joon-ho) द्वारा निर्देर्शित यह फिल्म 'पैरासाइट' इस आर्थिक असमानता को बहुत ही तीखे तरीके से स्क्रीन पर दर्ज करती है। फिल्म में इस आर्थिक-सामाजिक असमानता के 'कैमरा दृश्य' कहानी का हिस्सा भी हैं और कहानी से अलग खुद अपनी एक स्वतंत्र कहानी भी कहते हैं। गरीब परिवार 'मिस्टर किम' (किम उनकी पत्नी बेटा और बेटी) की रहने वाली छोटी सी जगह बेसमेन्ट का दृश्य, जहां रोज एक शराबी आकर उनकी किचन वाली जगह के बगल में ही पेशाब करने लगता है और अमीर परिवार 'मिस्टर पार्क' (उनकी पत्नी बेटा और बेटी) का आलीशान महलनुमा पहाड़ी पर स्थित विशाल घर कहानी से अलग भी अपनी एक कहानी कहते हैं और बार बार हमें यह याद दिलाते हैं कि आज अमीर और गरीब दो अलग अलग ग्रहों के वासी हो चुके है।

लेकिन कहानी में जटिलता वहां से आती है जहां दोनो को एक दूसरे की जरूरत पड़ती है। अमीर को अपनी यह भव्यता बरकरार रखने के लिए गरीब के श्रम की जरूरत है तो गरीब को अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए अमीर के यहां काम की जरूरत है। लेकिन कहानी तब और जटिल हो जाती है जब गरीब किम का परिवार ना सिर्फ अपना अस्तित्व बचाने के लिए मिस्टर पार्क के यहां काम तलाश करता है, बल्कि वह यह सपना भी पाल लेता है कि इसके माध्यम से वह गरीबी के नरक से निकल कर अमीरों के स्वर्ग में प्रवेश कर सकता है। जाहिर है इसके लिए वे महज अपने श्रम पर ही निर्भर नहीं रह सकते, उससे तो वह सिर्फ अपना अस्तित्व भर बचा सकते हैं बल्कि इसके लिए उन्हें वह सब तरीके इस्तेमाल करने पड़ेगे जिसे समाज में अनैतिक कहा जाता हैं। और यदि उनके रास्ते में उनकी तरह का कोई दूसरा गरीब (मिस्टर पार्क की पहली नौकरानी) भी आता है, तो वे उसे भी रास्ते से हटाने से नहीं चूकेंगे। 'वर्ग एकता' उनके शब्दकोश में है ही नही। पति पत्नी बेटा बेटी का यह गरीब परिवार उन अनैतिक कदमों के बारे में कोई चर्चा ही नहीं करता बस उन्हें करता चला जाता है। इसको लेकर कोई धर्म संकट उन्हें नहीं है। यही वह बिन्दु है जहां आप को भरसक 'कफन' कहानी के 'घीसू माधो' याद आयेंगे। 'घीसू माधो' का अमानवीकरण यदि सामन्तवाद ने किया था तो मिस्टर कि के परिवार का अमानवीकरण पूंजीवाद विशेषकर 1980 के बाद के 'लेट पूंजीवाद' ने किया है। लेकिन इस नाजुक मसले को फिल्मकार ने इतनी कुशलता के साथ फिल्माया है कि तमाम अनैतिक कामों के बावजूद आप इन पात्रोें से घृणा नहीं कर सकते। बल्कि अंत में आपको इन पात्रों के साथ सहानुभूति ही होती है, जो अमीर बनने के अपने प्रोजेक्ट में बुरी तरह असफल होते हैं और इस प्रक्रिया में अपने परिवार के सदस्यों, बेटी और एक हद तक बाप को भी खो देते हैं। फिल्म में अमीर बनने के प्लान के असफल होने पर मिस्टर किम इसे इन शब्दों में बयां करते हैं- 'गरीबों के लिए सबसे अच्छा प्लान है कोई प्लान न बनाना। जब प्लान होगा ही नही तो प्लान असफल कैसे होगा।'

फिल्म में रूपकों प्रतीकों का बहुत बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है। मसलन बारिश का दृश्य। बारिश के समय जहां मिस्टर किम के बेसमेन्ट में पानी भर जाता है और पूरा परिवार अपनी महत्वपूर्ण चीजों को बारिश के पानी से बचाने की जद्दोजहद में लगा है, वही मिस्टर पार्क अपनी खुली बालकनी में बारिश का आनन्द लेते हुए पत्नी के साथ सेक्स का आनन्द उठा रहे होते है और उनका छोटा बेटा लाॅन में टेन्ट लगाकर बारिश का मजा ले रहा होता है। यही पर जब मिस्टर पार्क अपनी पत्नी से पूछते हैं कि टेन्ट लीक तो नहीं करेगा तो पत्नी गर्व से जवाब देती है कि नही इसे हमने अमरीका से सीधे 'इंपोर्ट' किया है। इस एक लाइन के डायलाग से फिल्मकार दक्षिण कोरिया के अमीर तबके का अमरीका से रिश्ता साफ कर देता है। इस तरह के कई उप विषय फिल्म में हैं जिसके माध्यम से फिल्म कई महत्वपूर्ण सच को आहिस्ते से छूते हुए निकल जाती है। यदि हम लापरवाही से फिल्म को देखें तो इस तरह की कई चीजें पकड़ में नहीं आयेगी। मिस्टर किम के बेटे को उसके दोस्त द्वारा दिया 'भाग्यशाली पत्थर' अलग अलग समयों पर कहानी के अर्थ को और गहरा बनाता है।
मिस्टर पार्क की अनुपस्थिति में उसके आलीशान घर पर कब्जा जमाकर उसकी भव्यता का आनन्द लेते हुए मिस्टर किम की पत्नी पूछती है- 'अमीर लोग अमीर होने के बावजूद इतने अच्छे क्यो होते है।' मिस्टर किम शराब के नशे में ही जवाब देते है- 'इतने अच्छे इसलिए होते हैं क्योकि वह अमीर होते हैं। पैसे की इस्त्री उनके सभी दुःखों के क्रीज को खत्म कर देती है।' यह इसी सड़ते पूंजीवाद का ही तो नारा है- 'सब पूंछेगे आप कैसे हैं अगर आप की जेब में पैसे हैं।' 
फिल्म की शुरूआत में जब मिस्टर पार्क पहली बार स्क्रीन पर आते है तो उन्हें एक मीडिल शाट में तीन छोटे कुत्तों के साथ सीढ़ी पर चढ़ते दिखाया गया है। ये दृश्य पावरफुल स्टेटमेन्ट हैं, दो दुनिया के जीवन पर। लेकिन जिस रूपक का इसमें जबर्दस्त इस्तेमाल किया गया है वह है 'शरीर की गंध'। मिस्टर किम की उपस्थिति में मिस्टर पार्क अक्सर मुंह सिकोड़ कर शिकायत करता है कि ये कैसी बदबू आ रही है। इसे वह स्पष्ट करते हुए कहता है कि वैसी ही गंध जो उसे कभी कभी 'सबवे' से गुजरते हुए आती है। मिस्टर किम तुरन्त सचेत हो जाता है और चुपके से अपना कालर सूंघने लगता है। यह रूपक अलग अलग समयों पर इतनी बार दोहराया जाता है कि यह महज रूपक ना रहकर एक स्वतंत्र कहानी बन जाता है। गरीब कितना भी प्रयास कर ले लेकिन अपनी गरीबी की दुर्गन्ध से उसे ईजाद नहीं मिल सकती। यही रूपक फिल्म के अन्त में विस्फोटक रूप ग्रहण कर लेता है और मिस्टर पार्क के इसी दुर्गन्ध के कारण नाक सिकोड़ते ही मिस्टर किम की 'वर्ग घृणा' इतनी मुखर हो जाती है कि वह मिस्टर पार्क को छुरा मारकर उनकी हत्या कर देता है। इस दृश्य में यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि उसकी यह 'वर्ग घृणा' तब जागती है जब मिस्टर पार्क मिस्टर किम के शरीर से आ रही दुर्गन्ध के कारण नही बल्कि मिस्टर पार्क की गैर जानकारी में सूदखोरों से बचने के लिए मिस्टर पार्क के घर के बेसमेन्ट में रहने वाले पुरानी नौकरानी के पति (जिससे कुछ देर पहले ही मिस्टर किम के परिवार का जबर्दस्त झगड़ा हुआ है क्योकि उसके कारण अमीर बनने का मिस्टर किम का प्लान असफल हो रहा था) के शरीर से आ रही दुर्गन्ध के कारण अपनी नाक सिकोड़ता है। मजेदार बात यह है कि इस वक्त मिस्टर किम मिस्टर पार्क के परिवार को इसी व्यक्ति से बचाने के लिए लड़ रहा है। लेकिन जैसे ही मिस्टर पार्क शरीर से आ रही बदबू के कारण अपनी नाक सिकोड़ते है मिस्टर किम अपना आपा खो देता है और मिस्टर पार्क को ही मार डालता है। और यहीं पर क्षण भर के लिए ही सही उस दुर्लभ 'वर्ग एकता' के दर्शन होते है जो वैसे पूरी फिल्म में अनुपस्थित है। यहां एक भारतीय फिल्म 'बारह आना' का वह दृश्य याद आ जाता है जहां 'नसीरूद्दीन शाह' अपनी अमीर मालकिन का अपहरण करने के बाद अपना हाथ उस मालकिन के नाक से सटाकर गुस्से से चिल्ला कर कहता है- 'ले सूंघ। इसी से इतनी नफरत थी ना तुझे।' बारह आना का यह दृश्य बहुत ही जबर्दस्त है और 'पैरासाइट' में  इसको बार बार रिपीट करके कहानी को एक दूसरे धरातल पर ले जाया गया है। फिल्म का अन्त बहुत ही अनोखा है। अमीर और गरीब दोनो अलग अलग दुनिया के प्राणी हैं दोनो का सब कुछ अलग है। यहां तक कि उनकी गन्ध भी अलग है। अमीर आदमी गरीब आदमी की गन्ध बर्दाश्त नहीं कर पाता और गरीब आदमी अपनी गन्ध छुपाते छुपाते अपमानित होता रहता है। लेकिन एक दिन वह विस्फोटक रूप धारण कर लेता है। जिसका अन्त दोनो के ही विध्वंस में होता है। मिस्टर पार्क के बेसमेन्ट में मिस्टर पार्क से छुपकर रह रहे गरीब मिस्टर किम की बेटी मिस्टर पार्क और उनकी पत्नी सब मारे जाते है। यदि रूपक में कहें तो दो वर्गो की टकराहट में दोनो वर्ग बर्बाद हो जाते हैं। 
यहीं पर फिल्म एक अंधी सुरंग में प्रवेश कर जाती है जिसके दूसरे छोर पर कोई रोशनी नहीं दिखाई देती। लेकिन इस सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी है। समस्या यह है कि फिल्मकार खुद इसका रास्ता रोके खड़ा है। और यह काम वह जानबूझ कर नहीं कर रहा है। यह उसकी वैचारिक सीमा है। फिल्मकार ने खुद अपने एक साक्षात्कार में कहा कि मेरी फिल्म 'ग्रे जोन' की फिल्म है। जहां ना तो कोई हीरो है और ना ही कोई विलेन है। जैसा हम समाज में देखते हैं मैंने उसे वैसा ही उतारने की कोशिश की है। और निःसन्देह यह बहुत 'ईमानदार' कोशिश है। लेकिन जो हम देखते हैं क्या वही यथार्थ है। यथार्थ को देखने के लिए दो नंगी आंखों के साथ साथ 'दृष्टि' की भी जरूरत होती है। सूरज का पूरब में निकलना और पश्चिम में डूबना नंगी आंखों का यथार्थ हो सकता है लेकिन असल यथार्थ नही है। यह दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारे दौर के अधिकांश प्रतिभाशाली फिल्मकारों के पास इसी दृष्टि का कमोवेश अभाव है जिससे उनकी फिल्में तथाकथित यथार्थ के उस लौह दायरे को लांघ नहीं पाती, जिसके लांघने की पूरी गुंजाइश उनकी फिल्मों में होती है।  उनकी यह वैचारिक संकीर्णता फिल्म के आगे विकसित होने की संभावना का अनजाने ही गला घोंट देती हैं। इस वैचारिक संकीर्णता की मुखर अभिव्यक्ति 'जावेद अख्तर' इन शब्दों में करते हैं- 'जैसा समाज होगा वैसी ही फिल्में होगी।' पिछले साल की आस्कर विजेता फिल्म 'रोमा'    (Alfonso Cuarón) में भी आप इसे महसूस करेंगे और चीन के महत्वपूर्ण फिल्मकार  'जिया जांगके' (Jia Zhangke) की फिल्मों में भी इसे बखूबी देखा जा सकता है।
एक बार फिर 'पैरासाइट' पर लौटते हैं। क्या किम परिवार दक्षिण कोरिया के मेहनतकश वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। यह सही है कि किम परिवार जिस विचारधारा का वाहक हैं वह 'लेट कैपिटलिज्म' की भौंडी विचारधारा है जिसे बहुत प्रभावी तरीके से फिल्मकार ने यहां पेश किया है। जिसमें गरीब आदमी अपनी गरीबी का खुद जिम्मेदार है और इससे उबरने के लिए उसे जो सही लगे करना चाहिए। उसके लिए समाज का कोई मतलब नहीं है। 'मार्गरेट थैचर' का मशहूर वाक्य याद कीजिए- 'समाज जैसी कोई चीज नहीं होती सिर्फ व्यक्ति और परिवार होता है।'
इस फिल्म की तारीफ में यह बात बार बार कही जा रही है कि यह नवउदारवादी कोरियायी समाज के सच को बहुत प्रभावी तरीके से बयां करती है। यह बात एक हद तक सही भी है। लेकिन यह अर्धसत्य है। 1997 का ऐतिहासिक मजदूर हड़ताल भी इसी नवउदारवादी कोरिया का सच है, जिसमें 10 लाख मजदूरों ने हिस्सेदारी की थी और सरकार को मजदूर विरोधी बिल वापस लेना पड़ा था। इससे पहले 1987 में भी जबर्दस्त मजदूर आन्दोलन हुआ था जिसमें करीब 30 लाख मजदूरों ने हिस्सा लिया था। इसी नवउदारवादी नीतियों की शुरूआत के समय ही मई 1980 में वहां की सैन्य सरकार के खिलाफ मशहूर 'ग्वाग्जू' (Gwangju) विद्रोह हुआ था जिसका दमन करते हुए वहां की सैन्य सरकार ने करीब 1000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। इन आन्दोलनों के उत्तराधिकारी आज भी मौजूद हैं दक्षिण कोरिया में। खुद मिस्टर किम के परिवार में ही इसके उत्तराधिकारी मौजूद होंगे। 'बोंग जो हो' की इस फिल्म 'पैरासाइट' को अंधेरी सुरंग से उपरोक्त आंदोलनों के भावी उत्तराधिकारी ही निकाल सकते हैं। लेकिन उन्हें देखने और खोजने के लिए महज नंगी आंखे नहीं बल्कि दृष्टि भी चाहिए।
यहां 'ब्रेख्त' का मशहूर कथन याद आ रहा है- कला आइने में कैद तस्वीर नहीं है बल्कि वह हथौड़ा है जिससे हम यथार्थ का रूप बदलते हैं।




3 comments:

  1. साथी फ़िल्म का लिंक ओर डाल देते और अच्छा होता

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  2. फ़िल्म का विश्लेषण अच्छा है ।

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  3. Wonderful. This review, apart from the film, brings a lot of insight from the world too, which is kind of a same as this magnum opus' ending : a dark tunnel with no hope of a bright end.

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