Thursday 21 May 2020

श्रम कानूनों का खात्मा: विकास के पहिये को उल्टा घुमाना - सीमा आज़ाद


अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के ठीक एक दिन बाद 2 मई को सोशल मीडिया में वायरल वह दृश्य सबने देखा होगा, जिसमें 18 मजदूर सीमेण्ट मिक्सर ट्रक में छिपकर महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश आ रहे थे, लेकिन इन्दौर में पकड़ लिए गये। मई की गर्मी में कुएं जैसे सीमेण्ट मिक्सर मशीन के अन्दर बैठकर यात्रा करना कितना यातनादायी रहा होगा, हम इसका अनुमान ही लगा सकते हैं। यह भयावह दृश्य लॉकडाउन के समय में केवल मजदूरों के घर जाने की कहानी ही नहीं बता रहा था, बल्कि यह भी बता रहा था कि सीमेण्ट कंक्रीट मिक्सर मशीन में बैठे ये मजदूर वास्तव में इस समाज का सीमेण्ट और कंक्रीट ही हैं, जिन पर यह दुनिया टिकी है। मजदूरों की कई पीढ़ियां कंक्रीट और सीमेण्ट बनी हैं, जिन पर आज के श्रम कानूनों की इमारत खड़ी हैं। इन्हीं श्रम कानूनों को हमारे देश की सरकार खत्म करने की ओर तेजी से बढ़ चुकी है। इसके विरोध में देश भर के मजदूर संगठनों ने आज यानि 22 मई को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है। आज की बेहद निर्मम परिस्थितियों में घर लौटते मजदूर इस हड़ताल का हिस्सा कैसे बनेंगे, पता नहीं, लेकिन यह प्रतिरोध इस मायने में महत्वपूर्ण है, कि इस बहाने से श्रम कानूनों के खात्मे की बात घरों में सुरक्षित लोगों तक भी पहुंचेगी, जिन्हें शायद यह अपना मुद्दा ही न लगता हो।
कोरोना जब महामारी के रूप में हमारे देश में भी आयी, तो यह खुद डरावनी थी। लेकिन इससे बचाव के लिए सरकार ने जो-जो कदम उठाये, वो कोरोना से भी अधिक डरावने साबित हो रहे है, (वो कोरोना से कितना लड़ रहे हैं ये एक अलग मुद्दा है) जिसमें सबसे बड़ा डर है जीविका खोने, भुखमरी और इस स्थिति में परदेस में फंस जाने का डर। इस डर ने कोरोना के डर को इतना पीछे छोड़ दिया है कि लोग अपने घरों के लिए साइकिल, रिक्शा, ऑटो, ट्रकों, यहां तक कि सीमेण्ट मिक्सर मशीनों में घुसकर और पैदल ही हजारों किमी की यात्रा कर रहे हैं। सामान्य दिनों में ‘‘विकास’’ की चकाचौंध में जो मजदूर लोगों को कभी नजर ही नहीं आते थे, सड़कों पर उनकी यात्रा का रेला खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा। ये लोग कोरोना से नहीं, इस बात से डरे हुए हैं कि उनके भविष्य का क्या होगा। उनके इस डर को और बढ़ाते हुए कई राज्यों की सरकारों ने श्रम कानूनों में सुधार करते हुए उन्हें लगभग खत्म कर दिया है। मजदूरों का बहुत बड़ा हिस्सा देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश इसमें सबसे आगे हैं। गुजरात, हिमाचल प्रदेश राजस्थान और पंजाब इनके पद चिन्हों पर चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश की ‘योगी’ सरकार ने पूंजीपतियों की दुर्दशा पर दुख व्यक्त करते हुए राज्य के सभी श्रम कानूनों को पूरे तीन साल के लिए निलम्बित करने का अध्यादेश जारी कर दिया है, जिस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने बाकी हैं। इन सभी राज्यों ने, जिन्होंने सभी श्रम कानूनों को निलम्बित नहीं भी किया है, उन सबने काम के  दैनिक और साप्ताहिक दोनों की समयावधि बढ़ा दी है। 22 मई की हड़ताल की घोषणा के साथ अध्यादेश के खिलाफ हाईकोर्ट में दाखिल एक जनहित याचिका को देखते हुए उत्तरप्रदेश सरकार ने 16 मई को काम के घण्टे बढ़ाकर 12 करने की बात को वापस ले लिया है, लेकिन पूरा अध्यादेश अभी भी जस का तस राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के इन्तजार में है, क्योंकि सरकार का मानना है कि विकास के लिए ये जरूरी है।
श्रम कानून और विकास-
काम के घण्टे 8 किये जाना मजदूर आन्दोलन की कई मांगों का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था, जिसके लिए मजदूरों ने शहादतें दी थीं। इन आन्दोलनों के गर्भ से ही संगठित होने का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, काम के दौरान जीवन की सुरक्षा और स्वास्थ्य का अधिकार, न्यूनतम वेतन का अधिकार, बंधुवा मुक्ति का अधिकार, कार्यक्षेत्र में यौनउत्पीड़न के खिलाफ अधिकार, मातृत्व का अधिकार जैसे कई अधिकार आज कानून का हिस्सा बने हैं। ये सभी अधिकार किसी भी देश के लोकतांत्रिक विकास के इतिहास का हिस्सा है, और उसके लोकतंत्र की पहचान भी। लेकिन यह विरोधाभाषी है कि मानव सभ्यता के विकास के ऐतिहासिक क्रम में जो श्रम कानून बने सरकार उन्हें विकास में बाधक बताकर खारिज कर रही है। फिर तो सवाल उठता है कि वो कौन सा विकास है, जिसमें ये श्रम कानून बाधक है? इन श्रम कानूनों से ही तो अब तक मजदूरों के जीवन और स्वास्थ्य की रक्षा होती आयी है, शत प्रतिशत नहीं भी हुई, तो कम से कम उनकी रक्षा के लिए इन्हीं कानूनों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है, तब जाकर मालिक और मजदूरों के बीच तालमेल का पलड़ा पूरी तरह जबरे मालिकों की तरफ नहीं झुका। वास्तव में सरकार उस विकास की बात कर रही है, जिससे पूंजीपतियों के मुनाफे की रक्षा होती है और उसमें इजाफा होता है। इस सरकारी नजरिये से भी देखें तो इस विकास का खोखलापन उजागर होता है। फर्ज कीजिये कि देश में विदेशी पूंजी निवेश के लिए श्रम कानूनों को खत्म कर दिया गया, तो क्या होगा। कम्पनियां मुनाफे के लिए ज्यादा से ज्यादा माल उत्पादन करेंगी और बाजार में बेंचने के लिए उतारेंगी। लेकिन उनका मुनाफा तब बढ़ेगा, जब उत्पादित मालों की बिक्री होेगी। जबकि बिक्री इसलिए कम से कम होगी क्योंकि श्रम कानून खत्म होने के कारण लोगों को कम से कम भुगतान किया जायेगा, उनके पास भविष्य की कोई सुरक्षा नहीं होगी, इसलिए वे बेहद जरूरी सामानों को खरीदने में ही पैसा खर्चेंगे। यानि श्रम कानूनों का खात्मा लोगों की क्रय शक्ति कम कर देगी और यह इस ‘विकास’ के लिए ही घातक सिद्ध होगी। माल उत्पादन और बिक्री के बीच सही तालमेल ही विकास के इस चक्र को आगे बढ़ा सकती है, जबकि श्रम कानूनों का खात्मा इस चक्र को रोकने वाला सिद्ध होगा। विकास के इस मॉडल में पूंजीपति मुनाफे के लिए कम से कम लागत में अधिक से अधिक माल पैदा करना चाहते हैं। कम लागत के लिए वे श्रमिकों के अधिकारों पर हमला करते हैं (जैसेे कि श्रम कानूनों का खात्मा) ये हमले उनके उत्पादों की बिक्री को रोक देते हैं। इस कारण पूंजी का यह पहिया जितना चलता दिखता है उससे ज्यादा फंसा रहता है। सरकार इस पहिये को निकालने के उपक्रम को ही ‘विकास’ कहती है। जैसे अभी इस बुरी तरह फंसे हुए पहिये को निकालने के लिए ही श्रम कानूनों मे बदलाव और खात्मा किया जा रहा है और इसे विकास बताया जा रहा है।

अब फर्ज कीजिये कि कोरोना महामारी के दौरान जब कि कल कारखानों में उत्पादन बन्द है, मजदूर बिना काम के हो गये हैं। सरकारें मजदूरों के श्रम का मुनाफा दाबे बैठ पूंजीपतियों के पक्ष में खड़े होने की बजाय मजदूरों के अधिकारों के लिए पुराने कानूनों को लागू कराती और इस समय में उनकी सुरक्षा के लिए नये कानून बनाती, उन्हें इस बीमारी से सुरक्षित करने का उपाय करती, तो क्या मंजर होता। मजदूरों को अपने घर भागने की इतनी हड़बड़ी न होती। वे जहां हैं वहीं उनके भोजन और स्वास्थ्य का प्रबन्ध करने की जिम्मेदारी पूंजीपतियों पर डाल दी जाती और सरकार इसे उनसे लागू कराती, बड़े पूंजीपतियों के मुनाफों को जब्त कर छोटे कारखाना मालिकों और उनसे जुड़े मजदूरों की मदद करती, तो कैसा मंजर नजर आता? वास्तव में इससे मजदूरों की क्रय शक्ति बनी रहती और वास्तव में इससे उनकी ही व्यवस्था मजबूत होती जिसके वे हिमायती हैं। मजदूरों का इतना बड़ा पलायन न होता और उनके काम पर लौटकर आने की परिस्थितियां आगे भी बनी रहती, जिससे कोरोना संकट बीतने के बाद स्थिति आसानी से सामान्य हो सकती थी। लेकिन अभी जो स्थिति बन गयी है उसमें बहुत दिनों तक उनकी अर्थव्यवस्था ही पटरी पर नहीं आने वाले भले ही श्रम कानूनों को खत्म कर वे विदेशी निवेश से देश की धरती और लोन से जनता को पाट दे। यही होने जा रहा है और ये स्थिति देश में कोरोना से भी बड़ी महामारी लेकर आने वाली है।
श्रम कानूनों पर हमले पुराने हैं-
ढाई महीने के कोरोना काल ने यह दिखा दिया है कि बड़ी महामारी क्या है- ‘कोरोना’ या ‘विकास’। कोरोना के इस छोटे से समय ने लोगों के सामने उस सरकारी विकास की झांकी प्रस्तुत कर दी है, जिसका गुणगान गोदी मीडिया चौबीसों घण्टे करता रहता है। असली महामारी यह विकास था, कोरोना को सामने खड़ा कर जिसे ढंकने की कोशिश की जा रही है। साम्राज्यवादी एकाधिकार वाली व्यवस्था ने पहले ही सरकार को तैयार कर लिया था कि श्रम कानूनों का धीरे-धीरे खात्मा किया जाय। उनकी बात मानने के लिए पिछले ही साल सरकार ने देश कुल 44 श्रम कानूनों को 4 कोड में बांट दिया था, ताकि इनका खात्मा आसान हो सके। जैसे किसी कम्पनी को बेचने के पहले सरकारें उसे कई हिस्सों में बांटकर उसका निगमीकरण करती हैं उसी तरह पिछले साल देश के 44 श्रम कानूनों को 4 हिस्सों में ‘निगमित’ किया गया जा चुका है। इसका विरोध मजदूर संगठनों ने किया भी था, लेकिन यह ट्रेड यूनियनों की तरह की तरह ही कमजोर विरोध था। पिछले साल ही इस पर बात करते हुए श्रममंत्री संतोष गंगवार ने इसकी घोषणा कर दी थी, कि सन 2020 में श्रम कानूनों में बड़े ‘संशोधन’ किये जाने है। अगर कोरोना न आया होता तो बहुत संभव है कि ये ‘संशोधनात्मक हमले’ थोड़ा धीरे-धीेरे और शरम-हया के पर्दे के साथ चुपके-चुपके किये जाते, कोरोना इनके लिए ‘‘बिल्ली के भाग से छींका फूटा जैसा साबित हुआ है। अब वे इसका बहाना लेकर सभी श्रम कानूनों को बिना किसी संकोच के खुल्लमखुल्ला खतम कर रहे हैं, यह कह कर कि उद्योग और ‘विकास’ संकट में है। उन्होंने झूठ भी नहीं बोला है, लेकिन किसका विकास संकट में है सिर्फ ये नहीं बताया है। यह युधिष्ठिर वाला सच है।
श्रम कानूनों पर हमलों का यह सिलसिला सिर्फ इसी सरकार के कार्यकाल की बात नहीं बल्कि यह  पिछली सरकार के समय से ही जारी है। कांग्रेस की  सरकार ने साम्राज्यवादी आर्थिक मंदी को दूर करने में 1991 में अपना महती योगदान दिया था, जब कारपोरेट्स से समझौते के तहत उन्होंने श्रम कानूनों को ऐसा बना दिया, जिन्हें लागू ही न किया जा सके। देश भर में ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ ( सेज )के रूप में ऐसे कारपोरेट हब बना दिये जहां भारतीय श्रम कानून लागू ही नहीं होते थे। इन क्षेत्रों के लिए श्रम विभाग का अस्तित्व ही नहीं है। ऐसे ही एक ‘सेज’ में मानेसर का मारूति उद्योग लगा है, जहां मजदूरों को यूनियन बनाने के लिए भी प्रबन्धन से इजाजत लेनी होती है, जो कभी मिलती नहीं। ‘सेज’ में श्रम कानूनों के खात्मे का असर पूरे देश ने 2011 में देखा, जब मजदूरों के आन्दोलन के दौरान प्रबन्धन के एक व्यक्ति की मौत हो गयी और उसकी हत्या के आरोप में 13 मजदूर अभी भी जेल के अन्दर है। लेकिन इन 13 मजदूरों को आजीवन कारावास सुनाते हुए कोर्ट ने 18 मार्च 2017 को जो बात कही थी, वह मजदूरों के लिए साफ संकेत था। कोर्ट ने कहा कि इन मजदूरों को कड़ी सजा देना बहुत जरूरी है, ताकि देश में विदेशी निवेशकों का विश्वास बनाये रखा जा सके और देश के विकास में कोई बाधा न आ सके। इस तरह कांग्रेस के समय में श्रम कानून भी बने रहे और श्रम कानूनों से मुक्त ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ भी। जहां ये लागू थे वहां भी इसके खात्मे का सिलसिला रूका नहीं था, जो धीरे-धीरे आज खुल्लम-खुल्ला श्रम कानूनों के खात्मे तक आ पहुंचा है। हाल ही में पैदल घर जाने वाले मजदूरों के सन्दर्भ में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला और फैसले के दौरान सरकार के बचाव के लिए की गयी टिप्पणी बताता है कि वह भी मजदूर विरोधी-जनविरोधी व्यवस्था का हिस्सा है।
वर्तमान केन्द्र सरकार पिछले साल जिस समय 44 श्रम कानूनों को 4 कोड में बांट कर उसके खात्मे की ओर बढ़ रही थी, उस समय ही ‘वेज कोड’ लाकर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी दिलवाने का ढोंग कर रही थी, जिसका खुलासा अब पूरी तरह हो चुका है। न्यूनतम वेतन भी न दिला पाना अपने मजदूर नागरिकों के साथ किया जाने वाला आपराधिक कृत्य है, जबकि विश्व फलक पर पूंजीवाद के आने के बाद वेतन को तीन चरणों में बांट कर धीरे-धीरे अगली पायदान पर बढ़ने का वादा किया गया था। जिसमें न्यूनतम वेतन सबसे पहली सीढी है। न्यूनतम वेतन वो वेतन है, जो जीवन जीने के लिए यानि अगले दिन मजदूरी पर फिर आने के लिए जरूरी है। इसके ऊपर ‘लिविंग वेज’ है यानि वह वेज जिससे वो अगले दिन आने के लिए खुद को तैयार करने के साथ परिवार का शैक्षणिक और संास्कृतिक विकास भी कर सके। इसके ऊपर ‘फेयर वेज’ है यानि वह वेज जिससे अच्छे से अपना जीवन जी सके, जिसमें मनोरंजन भी शामिल है। यह पूंजीपति के हिसाब से ‘फेयर’ है, वास्तविक मजदूरी यह भी नहीं है। भारत में न्यूनतम वेतन भी संगठित क्षेत्र में ही लागू है, जबकि यहां असंगठित मजदूरों की एक बहुत बड़ी आबादी है। यह भारत की कुल मजदूर आबादी का 93 प्रतिशत और भारत की कुल आबादी का 37 प्रतिशत है, जिसे जीने लायक न्यूनतम वेतन भी मयस्सर नहीं है। यही आबादी आज सड़कों पर दिख रही है।
संगठित क्षेत्र के निजी और सरकारी उपक्रम के वे सफेद कॉलर मजदूर जिन्हें न्यूनतम मजदूरी से ऊपर मजदूरी मिल रही है, श्रम कानूनों का खात्मा उन्हें भी सड़क पर लाने वाला है। उन्हें मिलने वाली तमाम सुविधायें प्रोविडेण्ट फण्ड, ग्रच्युटी, बोनस आदि इस एक अध्यादेश या ‘संशोधन’ से खत्म किया जा सकता है। जबकि यह सब मजदूरों की निजी सम्पत्ति है, जिस पर उसका पूरा हक है। लेकिन सरकार पूंजीपतियों की निजी सम्पत्ति को बढ़ाये रखने के लिए मजदूरों की निजी सम्पत्ति का खात्मा कर रही है। मजदूरों के श्रम के साथ-साथ अब मजदूरों की यह निजी सम्पत्ति भी पूंजीपतियों का मुनाफा बढाने के काम आयेगा।
इतने सब के बाद अगर मजदूर इन सबके खिलाफ कुछ करता या बोलता है, तो उसका उपाय भी किया जा चुका है। कारखाना मालिकों के ‘हायर एण्ड फायर’ जिसे ‘यूज एण्ड थ्रो पॉलिसी’ कहना अधिक मुनासिब है को मजबूत कर दिया गया है। पहले किसी भी मजदूर या कर्मचारी को कारखाने से निकालने के एक महीना पहले से एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरना होता था। बाद के दिनों में मालिकों को 100 की संख्या तक मजदूरों को कभी भी रखने और निकालने की अनुमति मिल गयी और अब गुजरात में मालिकों के इस अधिकार को और मजबूती देते हुए मजदूरों की संख्या असीमित कर दी गयी यानि कारखाना मालिक कितने भी मजदूरों को कभी भी निकाल सकता है। ये सारे बदलाव समाज को कितना अमानवीय बना देंगे इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्योंकि अधिकारों के हनन का यह सिलसिला केवल यहीं नहीं रूकने वाला।
मीडिया के अधिकांश पत्रकार श्रम कानूनों के खात्मे या इसे कमतर किये जाने के समर्थन में मीडिया में बोल और लिख रहे हैं। शायद उन्हें एहसास भी नहीं है कि पत्रकारों की सुरक्षा के लिए 1955 में बना श्रमजीवी पत्रकार और समाचार पत्र कर्मचारी एक्ट भी श्रम कानूनों के दायरे में आता है, जिसका खात्मा हो जायेगा। पत्रकारों की बेहतरी के  लिए बने मजीठिया आयोग द्वारा सुझाया गया न्यूनतम वेतन ज्यादातर जगह नहीं लागू हैं, जिसे लेकर देश भर की कई श्रम अदालतों में मुकदमें चल रहे हैं। ये सब खत्म कर दिये जायेंगे और और अभी श्रम कानूनों के खात्मे के पक्ष में लिखने-बोलने वालों की बोलती हमेशा के लिए बंद कर दी जायेगी।
श्रम कानून और संविधान-
श्रम कानून में यह बदलाव सिर्फ श्रम कानूनों में ही बदलाव नहीं है, बल्कि यह संविधान से मिले नागरिक अधिकारों पर भी हमला है, और इसलिए यह संविधान और देश के सभी नागरिकों पर हमला है, क्योंकि एक बार जब मानवाधिकार हनन की शुरूआत हो जाय तो वह आगे ही बढ़ता है, जब तक कि उसे आगे बढ़कर जबरन रोक न दिया जाय।

संविधान का अनुच्छेद 14 और 15 कहते हैं कि ‘कानून के समक्ष सभी नागरिक बराबर है कोई छोटा या बड़ा नहीं है’ और ‘सभी को उन्नति का समान अवसर है।’ श्रम कानूनों में ये जो बदलाव किये गये हैं या जिस तरीके से श्रम कानूनों को निरस्त किये गये हैं वह मालिक मजदूर को गैरबराबर बनाकर मालिकों के पक्ष में जाकर खड़ा हो गया है। कोरोना के कारण मजदूरों के ही अधिकार क्यों काटे गये, मालिकों के क्यों नहीं? जबकि लॉकडाउन ने सिर्फ मालिकों का ही नहीं मजदूरों की उन्नति में भी बाधा पहुंचाई है। सरकार कोरोना के कारण मजदूरों से त्याग की मांग कर रही है, मालिकों से क्यों नहीं। जाहिर है यह संविधान की बराबरी की भावना के खिलाफ है।
संविधान का अनुच्छेद 19 कहता है कि किसी को भी, जिसमें मजदूर भी आते हैं, संगठित होने यानि यूनियन बनाने का अधिकार है। भारत में 1926 में मजदूरों को यूनियन बना कर पूंजीपतियों से सामूहिक रूप से मोल-तोल करने का अधिकार मिल गया था। लेकिन श्रम कानूनों पर हमले के क्रम में इस संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है।
‘कारखाना कानून’ निरस्त होते ही मजदूरों के जीवन का अधिकार निरस्त हो जाता है। संविधान का अनुच्छेद 21 नागरिकों को गरिमापूर्ण स्वस्थ जीवन का अधिकार देता है, श्रम कानून भी इसे यह कह कर संरक्षित करता है कि मजदूर जहां काम कर रहे हैं, वहां की परिस्थितियां ऐसी हो, जहां उसे जीवन का खतरा न हो। कारखाना निर्माण के समय इसी कानून के तहत इसका ध्यान रखा जाता है कि कार्यस्थल पर पर्याप्त वेन्टिलेशन हो, आग, गर्मी, ठण्ड से बचाव का उपाय, पानी की व्यवस्था, वॉशरूम की व्यवस्था हो। लेकिन इसके खात्मे के बाद मजदूर के रूप में नागरिक कार्यस्थलों पर अपने जीवन के अधिकार की गारण्टी खो देंगे। कानूनों के रहते हुए भी सरकारों से इनकी मिली-भगत के कारण इसकी अवहेलना से होने वाली दुर्घटनाओं को हम देखते रहते हैं, इन कानूनों के खात्में के बाद तो ऐसी दुर्घटनाओं की बाढ़ आ जायेगी। हाल ही में विजाग गैस लीक घटना और इसके पहले भोपाल गैस काण्ड इसके उदाहरण है। ऐसे कानून को एक दिन के लिए भी स्थगित करना नागरिकों के अधिकारों पर बड़ा हमला है और यहां उप्र सरकार तीन साल तक कारखाना कानून निरस्त कर लोगों को मौत के मुंह में झोंक रही है।
संविधान का अनुच्छेद 23 शोषण के विरूद्ध हर नागरिक को अधिकार देता है। लेकिन श्रम कानूनों का निरस्तीकरण या उन्हें कमजोर करना मजदूर नागरिकों के शोषण को बढावा देने वाली असंवैधानिक कार्यवाही है।
इसके अलावा संविधान में कई राज्य के नीति निदेशक तत्व के रूप में अनुच्छेद 41, 42, 43, 44 भी हैं, जो मजदूर नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हैं। लेकिन हम इनकी तो अब बात ही नहीं कर सकते क्योंकि संविधान ने पहले ही कह रखा है कि इन्हें मानने के लिए राज्यों को बाध्य नहीं किया जा सकता हलांकि राज्य जितना ज्यादा इसे लागू करेंगे हमारा लोकतन्त्र उतना मजबूत होगा। लेकिन आज जबकि मूलभूत अधिकार ही खतरे में हों, तो राज्य के नीति निदेशक तत्वों का हवाला देना भी हास्यास्पद है। मूलभूत अधिकारों के लिए संविधान के अनुच्छेद 13 में यह कहा गया है कि राज्य किसी कानून द्वारा इसका खात्मा नहीं कर सकते, लेकिन यह तानाशाही की इन्तेहां है कि सरकार यह भी आराम से कर रही है और सुप्रीम कोर्ट सहित सभी संस्थायें मौन होकर उसे होता हुआ देख रही हैं। यही फासीवाद है, जो हमारे देश में आ चुका है। जब ये सारी गैरकानूनी असंवैधानिक बातें हमारे देश के अन्दर कानून बनकर आ जायेंगी तो सरकार को तानाशाही के लिए इमरजेन्सी जैसे कदम की जरूरत ही नहीं होगी, सारा काम ये कानून ही करेंगे, कर भी रहे हैं। विश्व परिदृश्य पर सभी देशों के शासक वर्ग इस पर एकमत हैं कि ऐसा होना चाहिए। वरना यह भारत जैसे देश के किसी राज्य के लिए आसान नहीं था कि वह अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन में किये गये वादे को एक अध्यादेश से नकार दे।
श्रम कानून और महिला-
मजदूर समाज का सबसे कमजोर तबका है, जिस पर हमला बढ़ा है, मजदूर महिलायें उससे भी कमजोर हैं। पूंजीवादी शोषण के साथ वे सामंती शोषण की शिकार है, इस कारण श्रम कानूनों का खात्मा उन्हें और पीछे की ओर ढकेलने वाला सबित हो रहा है। महिला मजदूरों के लिए गांव लौटना ठीक वैसा ही नहीं है, जैसा पुरूष मजदूरों के लिए। शहरों में अपने कार्यक्षेत्रों में वे सामंती और पितृसत्तात्मक उत्पीड़न से अपेक्षाकृत मुक्त हैं, जबकि गांव घरों की चारदीवारी उन्हें कैद करने के लिए अपनी जीभ लपलपा रही हैं। सार्वजनिक जीवन आजादी देता है, जबकि व्यक्तिगत ‘घर’ औरत को गुलाम बनाते हैं। इस पूरे लॉकडाउन के दौरान ये बात बेहद स्पष्टता के साथ निकल कर सामने आयी हैं। सार्वजनिक जीवन में परदा छोड़ चुकी औरतें फिर से पर्दे में घुटने के लिए मजबूर हो रही हैं। इनमें से अधिकांश को तो गांवों के सामंती मजदूरी के शोषण में फिर से बंधने के आसार बनने लगे हैं। पहले ही कारखानों और कार्यक्षेत्रों में महिलायें मालिकों के लिए सस्ते श्रम का जरिया है। श्रम कानूनों में खात्मे के बाद ये मालिकों और ठेकेदारों के शोषण का एक बड़ा जरिया बन जायेंगी, जिससे उनकी सम्पत्ति में इजाफा होगा। कपड़ा उद्योग में काम करने वाली महिलाओं की कर्नाटक, तमिलनाडु से आती रिपोर्ट्स पहले ही महिलाओं के पूंजीवादी शोषण की भयावह तस्वीर सामने रख रही थी। अब इनका क्या होगा, कल्पना की जा सकती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु में ज्यादातर लड़कियां इन कम्पनियों में अमानवीय परिस्थितियों में इसलिए काम करती हैं, ताकि वे अपने दहेज का सामान जुटा सकें। सामंती और पूूंजीवादी शोषण मिलकर आने वाले दिनों में उनका क्या हश्र करने वाली हैं सोचा जा सकता है। कारपोरेट घरानों में काम करने वाली महिलायें जो कि ‘वर्क फ्रॉम होम’ की नई व्यवस्था के तहत काम कर रही हैं उनकी रिपोर्ट अभी ही आने लगी हैं कि कैसे घर का पितृसत्तात्मक सामंती माहौल उनके काम की गुणवत्ता गिरा रही है, उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार बना रही है और नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य कर रही है। यह महिलाओ का सार्वजनिक जीवन से घरों की जेल की ओर लौटने का भी अदृश्य दृश्य है, जिसे हम इस लॉकडाउन में देख रहे हैं।

वास्तव में श्रम कानूनों का खात्मा या उसे कम किया जाना सरकार द्वारा इतिहास के पहिये को उल्टा घुमाने की कवायद है। सामंती सम्बन्धों को छोड़ जब समाज पूंजी और श्रम के बीच अपने सम्बन्ध की ओर बढ़ रहा था, तो सामंती शोषण को नकार कर पूंजी ने श्रम के साथ कई करार किये, ताकि उसकी व्यवस्था आगे बढ़ सके। लेकिन मुनाफे के चक्र के अपने ही अर्न्तविरोधों के चलते आज वह भयंकर मंदी में फंस चुका है, और अब सारे वादों को छोड़ सामंती व्यवस्था को अपना रहा है। भारत में तो यह करना काफी आसान भी है क्योंकि यहां यह व्यवस्था साम्राज्यवादी पूंजी से साथ हमेशा मौजूद ही रही है। ऐसा करके यह मजदूर विरोधी जनविरोधी व्यवस्था कुछ दिन और जिंदा रह सकती है, लेकिन इससे उबर नहीं सकती। वास्तव में यह तारे के मरने के पहले की स्थिति है, जिसमें तारे अपने ही गैस को अपने में भरकर फूल कर कुप्पा हो जाते हैं। लेकिन इसके बाद इनका खात्मा तय है। भारत की अर्थव्यवस्था जिस तरह नयी साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ चलने के लिए पुरानी सामंती व्यवस्था की ओर तेजी से लौट रही है उससे यह लगने लगा है कि यह खात्मे की ओर बढ़ गयी है। लेकिन इसका खात्मा अपने आप कभी नहीं होगा। ये जो मजदूर शहरों से गांवों की ओर लौट रहे हैं, वह गांव के भूमिहीन किसान के साथ मिलकर इस काम को अंजाम देंगे। बेशक आज की हड़ताल से सरकार के सामने एक सांकेतिक विरोध दर्ज हो जाये, (होना भी चाहिए) लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा। गांव लौटते मजदूर को व्यवस्था के बदलाव की यात्रा पर चलना ही होगा, इसके बगैर कुछ नहीं होना है। वे केवल पूंजीपतियों का मुनाफा पैदा करने वाले सीमंेट और कंक्रीट नहीं है, बल्कि एक सुन्दर समाज बनाने के लिए भी हमेशा सीमेंट बने हैं। इतिहास इसका गवाह है और भविष्य इसकी बाट जोह रहा है। हम शहरी मध्यवर्ग, छात्र, नौजवान, बुद्धिजीवी किधर हैं यह हमें आज ही तय करना है।

first paintintig- ANUPRIYA
second painting- ASHOK BHAUMIK
3rd &4th is unknown

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