Thursday, 23 July 2020

वरवर राव इस देश की चेतना हैं - मनीष आज़ाद

समुद्र न भी हूं फिर भी
मैं स्वयं समुद्र की गर्जना हूं
समुद्र का मुख हूं।
.....तूफान से प्रेम करने वाला गीत हूं मैं
तूफान का संकेत हूं मैं। 
--वरवर राव

मुक्तिबोध ने 1964 में अपनी महत्वपूर्ण कविता 'अंधेरे में' लिखी। मुक्तिबोध की कविताओं में 'बेचैनी' मूल स्वर है। लेकिन यह बेचैनी यूं ही नही हैं, बल्कि मानव मुक्ति के रास्ते की तलाश की बेचैनी है। इसलिए सृजनात्मक बेचैनी है। 'मुझे पुकारती हुई पुकार कहीं खो गयी'- इस 'पुकार' को दुबारा ढूंढने की बेचैनी है। मुक्तिबोध को यह 'पुकार' नहीं मिली और 1964 में इसी बेचैनी में उनकी मृत्यु हो गयी। ठीक इसी समय तत्कालीन आन्ध्र प्रदेश में मुक्तिबोध जैसा ही एक और बेचैन युवा कवि आकार ले रहा था। उसका नाम था- 'पेन्द्याला वरवर राव'। लेकिन वरवर राव को मुक्तिबोध जितना नहीं भटकना पड़ा और उन्हें जल्द ही 'नक्सलबाड़ी की बसंत गर्जना' में अपनी 'पुकार' मिल गयी। और उनकी 'बेचैनी' 'गर्जना' में तब्दील हो गयी।  मुक्तिबोध का नया 'काव्य जन्म' हो गया।
दाहिनी तरफ़ युवा वरवर राव  
वरवर राव की रचनाओं का सच अपने समय के क्रान्तिकारी आन्दोलन के सच के साथ उसी तरह गुंथा हुआ है जैसे उपरोक्त कविता में समुद्र के साथ समुद्र की गर्जना गुथी हुई है। वरवर राव अपने समय के क्रान्तिकारी आन्दोलन की उसी तरह साहित्यिक अभिव्यक्ति हैं, जिस तरह श्रीकाकुलम क्रान्तिकारी आन्दोलन की साहित्यिक अभिव्यक्ति सुब्बाराव पाणिग्रही, बंगाल के नक्सलवादी आन्दोलन की साहित्यिक अभिव्यक्ति सरोज दत्त या तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष की साहित्यिक अभिव्यक्ति मखदूम मोउनुद्दीन थे।
भारत के बाहर जैसे लोर्का, काडवेल, राल्फ फाक्स आदि स्पेनिश गृह युद्ध में जनवाद के समर्थन में फासीवाद के खिलाफ संघर्षो से जुड़े थे, ठीक वैसे ही वरवर राव भी अपने समय के फासीवाद के खिलाफ चल रहे क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़े हुए है।
फ्रांस में 1968 के अभूतपूर्व छात्र आन्दोलनों और कुछ ही समय पहले फ्रांस के उपनिवेश अल्जीरिया में चल रहे सशस्त्र स्वतंत्रता आन्दोलन को अपना समर्थन देने के कारण 'ज्या पाल सात्र' को गिरफ्तार करने की मांग शासक वर्गो की तरफ से उठने लगी तो फ्रांस के तत्कालिन राष्ट्रपति 'चार्ल्स दि गाल' ने कहा कि सात्र फ्रांस की चेतना हैं और चेतना को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। ठीक इसी तरह वरवर राव भी भारत की चेतना हैं। और हमारी सरकार ने भारत की चेतना को कैद करने की बेवकूफ़ी भरी हरकत की है. वरवर राव की रिहाई की मांग के साथ इस चेतना का भी विस्तार हो गया है।

वरवर राव ने कहीं लिखा है- 'लेखक इस धरती का प्रथम नागरिक है।' हमारे लिए हमारे वरवर राव भारत के प्रथम नागरिक है। तुम्हारा प्रथम नागरिक राष्ट्रपति भवन या एंटीलिया में हजारों सेवकों के बीच ऐशो आराम में रहता है, जहां जनता के खिलाफ योजनाएं बनाई जाती है और उन पर सुनहरे दस्तखत किये जाते है। हमारा प्रथम नागरिक अकेले, अंधेरी कारा में पेशाब से लथपथ है। इसे नहीं सहा जा सकता। आज के आन्दोलन के मुहावरे में कहें तो 'सब याद रखा जायेगा और सबका हिसाब किया जायेगा।' वरवर राव के शब्दों में ही तुम्हें यह चेतावनी हैं-

                                    'मैंने बम नहीं बांटा था

                                    ना ही विचार

                                       तुमने ही रौंदा था

                                       चीटिंयों के बिल को

                                       नाल जड़े जूतों से

                               रौंदी गई धरती से, तब फूटी थी प्रतिहिंसा की धारा।'

वरवर राव हमारे लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योकि वे उस धारा के कवि हैं जो बुत में जान फूंकता है ना कि जीवन को बुत बनाता है- 'जीवन को बुत बनाना शिल्पकार का काम नहीं, पत्थर को जीवन देना उसका काम है।' वरवर राव का महत्व आज के इस फासीवादी दौर में और भी बढ़ जाता है जहां कवि पर अपनी ही कविता की हत्या करने का दबाव बढ़ता जा रहा है। याद कीजिए 'सुरजीत पातर' की वह कविता- 'तुम कवि हो या कविता के हत्यारे।' ऐसे ही कवियों को संबोधित करते हुए वरवर राव कहते हैं- 'मत हिचको ओ शब्दों के जादूगर, जो जैसा है वैसा कह दो, ताकि वह दिल को छू ले।'
वरवर राव की एक अन्य महत्वपूर्ण और बेहद प्रतीकात्मक कविता है- 'तिथियों को शहद के छत्ते की तरह हिलाइये, तो वे सच्चाई के डंक मारेंगी।' वरवर राव ने अपनी कविताओं, आलोचनाओं और जन वक्तव्यों में ना जाने कितनी ही महत्वपूर्ण तिथियों को शहद के छत्ते की तरह हिलाया और उन तिथियों के मिथिकीय आवरण को छीलकर लहूलुहान सच को सामने लाये। सच को जानना कोई निष्क्रिय क्रिया नहीं है। सच्चाई का डंक सहे बिना सच्चाई से साक्षात्कार संभव नही। ऐसी ही एक मिथकीय तिथि है- 15 अगस्त 1947 यानी 'आजादी' का दिन। भारत पाकिस्तान विभाजन के फलस्वरूप बही खून की नदियों, तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष को फौजी बूटों तले दबाने, एकीकरण के दौरान हैदराबाद व जम्मू में सुनियोजित मुस्लिम जनसंहार के बीच से ही यह तथाकथित आजादी का बोनसाई पौधा पनपा था और तब से लेकर आज तक यह अपना पोषण इस देश की मिट्टी से नहीं बल्कि क्रान्तिकारियों के खून और जनता के दमन से पा रहा है। वरवर राव अपनी कविता में शासक वर्ग को डांटते हुए कहते है- 'जनदमन को जनतंत्र कहते हो।' यदि सचमुच में जनतंत्र होता तो भारत की 'चेतना' को गिरफ्तार ही क्यों किया जाता।

वरवर राव सहित 11 लोगों को जिस तरह भीमाकोरेगांव के फर्जी केस में फंसाया गया है, उसके बारे में वरवर राव ने बहुत पहले ही एक अलग अंदाज में अपनी कविता में इस तरह बयां किया है- 'अगर मैं लिखूं तुम्हारी अनुपस्थिति में मेरा दिल फटता है, तो शायद वे कहें कि संसद को उड़ा देने का षडयत्र है यह, और मुझे आतंक वाले कानून में गिरफ्तार कर ले।' इसी से मिलती जुलती मुनव्वर राना की कविता याद आती है- 'उसने मुझे बलवाई समझा है, क्योकि मेरे घर के बर्तन पे आईएसआई लिखा है।'
मुक्तिबोध की एक कविता है- 'कविता में कहने की आदत नहीं, फिर भी कह दूं, यह समाज चल नहीं सकता, पूंजी से जुड़ा हदय बदल नहीं सकता।' वरवर राव ने भी अपनी कविताओं में उन कड़वी बातों को कहा हैं जिसे कहने की आम तौर पर कवियों की आदत नहीं रही। मुठभेड़ प्रेमी पुलिस के लिए यह लाइन वरवर राव ही लिख सकते हैं- 'इनकाउन्टर के खून से रोज नहाकर भी प्यासी रह जाने वाली पुलिस।' उनकी कविता 'सीधी बात' की यह पंक्ति देखिये- 'नक्सलबाड़ी का तीर खींचकर जब खड़े हो, मर्यादा में रहकर बोलना सम्भव नहीं।' इसी मर्यादा में रहने के कारण ही बहुत से कवियों की कविताएं नख दन्त विहीन हो जाती है। इस सन्दर्भ में धूमिल की 'पटकथा' में वह प्रसिद्ध पंक्ति याद कीजिए- 'हवा में मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढकी रहे।'
'लू शुन' जब फ्रांस में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, तभी उन्हें यह अहसास हुआ कि डाक्टर बनकर मैं ज्यादा से ज्यादा यही कर सकता हूं कि एक गुलाम को स्वस्थ गुलाम बना दूं। लेकिन सवाल तो गुलामी खत्म करने का है। इसके बाद वे मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर वापस चीन आ गये और चीन के तत्कालीन जनयुद्ध के साथ जुड़कर लेखन का कार्य करने लगे। माओ ने उन्हें सांस्कृतिक सेना के सेनापति की संज्ञा दी। वरवर राव भी लू शुन के उसी ऐतिहासिक काम को भारत में अंजाम दे रहे है। वे भारत की सांस्कृतिक सेना के सेनापति है। इस सेनापति की रिहाई हमारे लिए जीवन मरण का प्रश्न है।

'ख्वाजा अहमद अब्बास' ने 'मखदूम मोउनुद्दीन' के लिए कहा था- 'उनकी कविताओं में बारूद की गंध, और चमेली की सुगंध दोनो है।' यह बात वरवर राव की कविताओं के लिए कही अधिक सच है। आज जिस तानाशाह की कैद में वरवर राव हैं उसी तानाशाह की कैद में कविता के अन्य विषय पहाड़, नदी, फूल पत्तियां और खुशबू भी हैं। वरवर राव ने खुद लिखा है कि जब फूल, पत्तियों, नदियों, पहाड़ों पर तानाशाह का कब्जा हो जाता है तो क्या फूल, नदी, पहाड़ पर लिखना बिना तानाशाह पर लिखे सम्भव है? इसलिए आज वरवर राव को आजाद कराना फूल, पत्तियों नदी, पहाड़ों को आजाद कराना है।
आइये वरवर राव की रिहाई की आवाज को और तेज करे। उनकी कविताओं में मौजूद सपनों को जमीन पर उतारने का प्रयास और तेज करें।

1 comment:

  1. VV sir is the voice os suppressed class. Release the poet. Release all political prisoners.

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