Friday, 24 July 2020

भंवरी देवी से खुशी तक, आसाम से कर्नाटक तकः न्यायव्यवस्था की पितृसत्तात्मक सोच- आकांक्षा आज़ाद


कोरोना लॉकडाउन में महिलाओं पर होने वाली घरेलू हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई है और के समाचार पत्रों में फिर से यह खबर आयी है कि कोरोना प्रभावित ‘रेड जोन’ क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा में और भी अधिक बढ़ोत्तरी हुई है। ये आंकड़े भारतीय समाज के बारे में बहुत कुछ कहते है। ऐसा नहीं है कि यह भारत के अनपढ़ अशिक्षित घरों की कहानी है। बल्कि इन घरों में ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि हमारे देश में कथित लोकतन्त्र के सभी खम्भे अपनी सोच में सामंती और पितृसत्तात्मक हैं। कारोना के समय में ही कम से कम तीन ऐसे फैसले न्यायालयों से आ चुके हैं, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय समाज मूलतः एक पितृसत्तात्मक समाज है जिसकी नींव में सामंतवाद है। पितृसत्ता अर्थात पिता की सत्ता वाला समाज, जहां पिता ही घर का मुखिया हो। हमारे परिवार से लेकर राज्य भी इसी नींव पर टिका है। कानून बनाने वाली विधायिका (संसद और विधानसभा) और कानून लागू करने वाली कार्यपालिका (सरकार) के पितृसत्तात्मक चरित्र से तो फिर भी लोग रूबरू है लेकिन विशेष बात तब आती है जब न्याय दिलाकर संविधान और नागरिकों (विशेष तौर पर महिलाओं) के अधिकारी की रक्षा की जिम्मेदारी वाली संस्था में भी पितृसत्ता की जड़ें गहरी दिखने लगे। सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों के बारे में सामान्यजन में यही धारणा है कि यह स्वतंत्र, निरपेक्ष, और कभी गलत गलत न होने वाली संस्था है। कुछ ही समय पहले कर्नाटक हाई कोर्ट और गुवाहाटी हाई कोर्ट ने जो फैसले सुनाए है उसने कोर्ट के प्रति इस धारणा एक धक्का जरूर दिया है। ताजा मामला बिहार के अररिया का है। जहाँ एक रेप पीड़िता और उसके साथियों को सरकारी काम में बाधा डालने का आरोप लगाकर जेल भेज दिया गया। रेप सर्वाइवर को आलोक धन्वा के शब्दों में कहे तो ‘भागी हुई लड़की’ होने के कारण 10 दिनों तक जेल में रहना पड़ा वह फिलहाल जमानत पर बाहर है। पूरा मामला सामुहिक बलात्कार का है जिसमें सर्वाइवर के एक दोस्त ने मोटरसाइकिल सिखाने के बहाने अपने जान-पहचान के लोगों से लड़की का बलात्कार करवाया। सर्वाइवर, कल्याणी और तन्मय नाम के लोगों के साथ काम करती थी और उनके कहने पर इस मामले की एफआईआर दर्ज करवाई। कल्याणी और तन्मय अब भी जेल में है। तीनों एक ही संगठन का हिस्सा भी है। सवाल यह है कि आखिर इन तीनों ने ऐसा क्या कर दिया कि गुनहगारों की जगह इन्हें ही जेल भेज दिया गया। हुआ ये था कि जब सर्वाइवर का बयान निचली अदालत के जज साहब के सामने दर्ज हुआ और हस्ताक्षर के लिए पढ़ा जाने लगा तब सर्वाइवर ने जज साहब से यह कहने की हिमाकत कर दी कि ‘सर हमको समझ नहीं आ रहा आप मुँह पर से रुमाल हटा कर बताइये’ और इसे ठीक से सुनने के बाद ही वह इसपर हस्ताक्षर करेगी। क्या सर्वाइवर की इतनी सी मांग गलत थी की उसका बयान साफ शब्दों में उसे पढ़कर सुनाया जाए? या फिर एक गरीब अनपढ़ लड़की का इतने पढ़े लिखे ‘पुरुष’ जज साहब को इस तरह से टोक देना ही काफी था जेल भेज देने को? इस ‘हिमाकत’ के बाद कल्याणी और सर्वाइवर दोनों के माफी मांग लेने के बाद भी जज ने लड़की को ‘बदतमीज’ बताते हुए सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में जेल भेज दिया, सिर्फ उसे ही नहीं इस मामले में पीड़ित लड़की का साथ देने वाले दो लोगों को भी उस जज ने जेल में भेज दिया। बाकि इसकी किसे चिंता थी कि सामूहिक बलात्कार के आरोपी को जेल भेजे जाने की जरूरत थी, जो अब भी खुले बाहर घूम रहे और लड़की पर ही दबाव बना रहे है। सर्वाइवर की इस तरह की मामूली मांग को सामूहिक बलात्कार से ज्यादा गम्भीर मानकर उसे जेल भिजवाकर जज साहब ने खुद के साथ ‘न्याय’ किया। बीबीसी से बातचीत के दौरान सर्वाइवर कहती हैं ‘सब परिवार, सारा समाज क्या कहेगा? क्या हमको ही दोष देगा? क्या मेरा साईकिल चलाना आजादी से घूमना-फिरना, संगठन के लोगों का साथ देना प्रदर्शन में आना जाना, क्या इस सब मेरे रेप की वजह ढूंढी जाएगी?’ पितृसत्ता ठहाका लगाकर कहेगा -‘बिल्कुल, लड़कियों के लिए ये सब वर्जित है कि वह यूं उन्मुक्त घूमे, साइकिल चलाये, मोटरसाइकिल तो मर्दों की ही सवारी है, उस पर भला लड़की सवार होगी, तो उसके साथ यही सब होगा।’

एक नजर अपने समाज पर डाले तो हम पाते हैं कि महिला और पुरुष दोनों को ही समाज अलग-अलग ढांचे में रखना चाहता है। समाज में ‘आदर्श भारतीय महिला’ के कई ‘गुण’ माने गए हैं जैसे एक ‘आदर्श भारतीय महिला’ को एक अच्छी गृहणी होना चाहिए, पति को स्वामी मानकर दिन रात उसकी सेवा करनी चाहिए, पति अगर मारपीट भी करे तो चुपचाप सहते रहना चाहिए आदि आदि। इन्ही ‘गुणों’ में कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक और ‘गुण’ जोड़ा है। चीफ जस्टिस कृष्णा एस. दीक्षित ने बताया है कि ‘बलात्कार के बाद आदर्श भारतीय महिला को कैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए।’
शादी का झांसा देकर बलात्कार के इस मामले में चीफ जस्टिस ने आरोपी को बेल देते हुए महिला पर टिप्पणी की कि- ‘महिला का कहना है कि वह अपराध के बाद थकी हुई थी और सो गई थी, एक भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है, हमारी महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसे व्यवहार नहीं करती हैं।’ पितृसत्ता यहां भी अट्टहास करती हुई कह रही है- ‘बिल्कुल ठीक।’
वास्तव में चीफ जस्टिस दीक्षित उसी बीमार मानसिकता के शिकार है जहां लड़कियों के देर रात तक बाहर आने-जाने और शराब पीने से ‘स्त्री धर्म’ भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए शिकायतकर्ता महिला को ही उन्होंने भरोसे लायक नहीं माना। उनका कहना है कि ‘शिकायतकर्ता ने यह नहीं बताया कि वो रात 11 बजे उनके (आरोपी) के दफ्तर क्यों गई थीं। उन्होंने आरोपी के साथ अल्कोहल लेने से भी एतराज नहीं जताया और सुबह तक उन्हें अपने साथ रहने दिया। उन्होंने यह भी नहीं बताया की उन्होंने शुरुआत से ही अदालत से सम्पर्क क्यों नहीं किया जब आरोपी ने कथित तौर पर उनपर यौन संबंध के लिए दबाव बनाया था।’ भारत में छेड़खानी से लेकर सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की संख्या लाखों में है। हर घण्टे न जाने कितनी महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे। इनमें से कुछ मामले दर्ज होते हैं और कोर्ट तक पहुँचते है। ज्यादातर दर्ज होकर भी पुलिस स्टेशन के फाइलों में धूल फांकते है। भारत में इन आरोपियों को सजा मिलने की दर सिर्फ 18 प्रतिशत है जिसका मतलब है कि 100 में से 72 आरोपियों को कभी उनके अपराध की सजा नहीं मिलती। जिस तरह के सवाल चीफ जस्टिस दीक्षित ने शिकायतकर्ता से की क्या बिल्कुल उसी तरह के सवाल एक बलात्कार की सर्वाइवर से उसका घर, परिवार, समाज नहीं पूछता?
‘इतनी देर रात अकेली क्यों बाहर गई थी?’, ‘ये कैसे कपड़े पहन रखें है तुमने? ऐसे कपड़ो के कारण ही बलात्कार होते हैं।’, ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती जरूर तुमने ही शह दी होगी।’, ‘तुम्हे देखकर तो नहीं लगता कि तुम्हारे साथ रेप हुआ है। तुम खुश कैसे रह सकती हो?’ और अगर रेप हुआ तो भी तुम पहले क्यों नहीं बताया?...आदि आदि। और इन्ही सब सवालों के माध्यम से जिस तरह से सर्वाइर को ही दोषी ठहराया जाता है उसी का नतीजा है कि लड़कियां और महिलाएं इन सब गम्भीर मामलों पर चुप्पी साध लेती हैं।
तीसरा मामला गुवाहाटी हाई कोर्ट का है। जहाँ 21वीं में भी सदी में चीफ जस्टिस अजय लाम्बा और न्यायाधीश सौमित्रा सैकिया का कहना है कि ‘अगर एक महिला हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार शादी करती है और सिंदूर और शाखा (शंख से बनी चूड़ियां) पहनने से मना करती है तो इसका मतलब है कि वह महिला इस शादी को अस्वीकार कर रही है।‘ इस तरह के महिला विरोधी बयान देकर कोर्ट महिलाओं की स्वतंत्रता खुद ही छीन रही। ऐसी हजारों हिन्दू महिलाएं है जो शादी को मानते हुए भी सिंदूर और शाखा पहनना नहीं पसन्द करती हैं, क्योंकि ये सब महिलाओं पर सामंती पितृसत्ता द्वारा थोपा गया है। क्या कोर्ट के बयान के अनुसार यह सभी महिलाएं अपनी शादियों को अस्वीकार कर रहीं?

दरअसल जिस तरह का सामंती हमारा समाज है कोर्ट की महिला विरोधी अभिव्यक्ति उसी समाज का प्रतिबिंब है। कभी यह खुले रूप में सामने आता है कभी छुपे रूप में। हमारा समाज खासतौर पर महिलाओं को उनके ‘आदर्श भारतीय महिला’ वाले रूप से अलग देखना नहीं चाहता है। यह तमाम कोर्ट- कचहरी, सरकारें, परिवार जैसी संस्थाएं इसी ‘आदर्श रूप’ को बनाये रखने के लिए ही हैं।
यह ऐसा पहली बार नहीं है जब हमारी न्यायव्यवस्था ने महिला विरोधी फैसले दिए हो या महिला द्वेषी टिप्पणी की हो। अगर ठीक से देखे तो इस तरह के फैसलों के अंबार लगा है। अक्टूबर 2016 में भी स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए कि शिकायतकर्ता महिला का व्यवहार इस तरह का नहीं था जैसा बलात्कार के दौरान होना चाहिए, कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था।
यह सोचना अंदर तक हिला कर रख देता है कि किस तरह यह व्यवस्था महिलाओं के प्रति इतना कठोर और असंवेदनशील हो सकता है कि वह इन सब पर भी नियंत्रण रखना चाहता है कि बलात्कार के दौरान या उसके उसके बाद महिलाएं किस तरह से व्यवहार करें। इस तरह के ट्रॉमा के दौरान किस व्यक्ति का शरीर और दिमाग किस तरह से रिएक्ट करेगा इसपर भी समाज ने मानक गढ़ कर रखें है। क्या इस तरह के न्यायालयों से औरतें कभी न्याय की उम्मीद लगा सकती हैं?
इस न्याय व्यवस्था में कभी जाति के कारण, कभी हैसियत के कारण तो कभी सिर्फ महिला होने के कारण हजारो-लाखों महिलाएं न्याय से वंचित रह जाती है। सन 1992 के सितम्बर के भंवरी देवी केस (राजस्थान) को याद करें तो इस केस ने सरकार और कोर्ट के मिलीभगत के साथ-साथ यह भी बताया कि जब भारतीय समाज की दूसरी सबसे मजबूत नींव जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का मेल होता है तो उसका रूप कैसा होता है। भंवरी देवी नाम की एक दलित महिला की महिला ने गांव के गुज्जर परिवार में  हो रहे बाल विवाह होने से रोका तो गुज्जर जाति के पांच लोगों लोगों ने भवंरी देवी को उसकी ‘औकात’ बताने के लिए सामूहिक बलात्कार किया। पुलिस से लेकर तत्कालीन सरकार के बड़े बड़े नेताओं ने मामले को दबाने की भरपूर कोशिश की। मामला जब निचली अदालत में गया तब अदालत ने सभी आरोपियों को बरी करते हुए फैसला दिया कि-
’गांव का प्रधान कभी बलात्कार नहीं कर सकता।
’60 साल का बुजुर्ग व्यक्ति कभी भी किसी का बलात्कार नहीं कर सकता।
’आरोपियों में चाचा भतीजा भी शामिल हैं। कोई भी व्यक्ति अपने रिश्तेदार के सामने किसी महिला का बलात्कार नहीं कर सकता।
’ ऊंची जातियों के लोग अशुद्ध नीची जाति की महिला का बलात्कार नहीं कर सकता क्योंकि इससे सभी अशुद्ध हो जाएंगे।
’ कोई पति अपने पत्नी का बलात्कार होते नहीं देख सकता।
अभी मामला हाईकोर्ट में है जिसमें आजतक मात्र एक सुनवाई हुई है और इसी तरह दो दशक से भंवरी देवी न्याय का इंतजार कर रही है। अदालत के इस फैसले में किस हद का महिला द्वेष भरा पड़ा है ये देख पाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है, विशेषतौर पर नीची जातियों के महिलाओं के प्रति। इसी फैसले के साथ इस अदालत ने इन सभी बलात्कारों को झूठा ठहरा दिया जो ऊंची जाति के लोगों ने नीची जाति के लोगों को उनकी औकात बताने के लिए की थीं।
एक अन्य पहलू पर बात करें तो जिन न्यायाधीशों पर न्याय देने के जिम्मेदारी है उनमें कई न्यायाधीशों पर खुद ही महिलाओं यौन शोषण का आरोप है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर उनकी एक पूर्व महिला कर्मचारी ने उनपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इस मामले को देखने के लिए तीन सदस्यीय कमिटी भी बनी जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश को बेगुनाह पाया और सभी आरोपों को निराधार बता दिया। गौरतलब है इस कमिटी पर सही न्यायिक प्रकिया नहीं अपनाने के आरोप भी लगे थे। जब स्वयं मुख्य न्यायाधीश पर इस तरह के गम्भीर आरोप लग रहे तो इस न्याय व्यवस्था की सच्चाई उघड़ के सामने आ जाती है।

कुल मिलाकर यह कहना कि इस तंत्र के बाकी संस्थाओं की तरह ही यह न्याय व्यवस्था खुद ही पितृसत्ता से लिपटी हुई है, यह जरा भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। कभी ‘आदर्श भारतीय महिला’ की विशेषता बताते हुए तो कभी औरतों की सिंदूर लगाना या न लगाने की छोटी सी चॉइस को ही शादी की प्रमाण घोषित करते हुए, कभी दर्ज बयान को ठीक से पढ़े जाने की मांग करने पर सर्वाइवर  और उसका साथ देने वालों को ही जेल भेज देने तक कोर्ट की असलियत को ढकने वाला मुखौटा नीचे सरक ही जाता है और उनका भद्दा महिला विरोधी चरित्र दिखने ही लगता है। जब बुद्धिजीवी और ‘न्याय’ करने वाले खुद ही इस तरह की मानसिकता में जकड़े होंगे तो इस समाज में किस तरह की सोच महिलाओं के प्रति होगी ये समझना मुश्किल बिल्कुल नहीं है।
अररिया रेप सर्वाइवर खुद को जेल भेजे जाने पर कहती हैं ‘हम अगर गरीब नहीं होते तो मेरी बात सुनी जाती ना ? हमारी आवाज तेज है शायद हम ऊंचा बोलते हैं। क्या मेरा ऊंचा बोलना गलत था?’ एक महिला का यह कहना निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट से बनी न्याय व्यवस्था को गरीब विरोधी, महिला विरोधी प्रमाणित कर देता है। कोरोना लॉकडाउन के दौरान महिलाओं पर बढ़ती हिंसा का राज भी इससे ही उजागर हो जाता है।
 
सभी चित्र -अनुप्रिया

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