Tuesday, 4 August 2020

5 अगस्तः हिन्दुत्व फासीवाद के जश्न का दिन- सीमा आज़ाद

5 अगस्त को प्रधानमंत्री और उनका पूरा कुनबा ‘ऐतिहासिक दिन’ बता रहे हैं। यह सचमुच ‘ऐतिहासिक दिन’ होगा। हम इसे इस दिन के रूप में याद करेंगे कि जब देश को अधिक से अधिक अस्पतालों की जरूरत थी, सरकार मन्दिर का शिलान्यास कर रही थी। जब कोरोना महामारी से मरने वालों की संख्या 40 हजार तक पहुंच रही थी और उत्तर प्रदेश की एकमात्र महिला कैबिनेट मंत्री तक की कोरोना से मौत हो चुकी है, हम मन्दिर के शिलान्यास की खुशी में दीवाली मनाने जा रहे है। जब अस्पतालों में वेंटिलेटर की कमी पड़ी हुई है, कोरोना की दवा की कमी हो रही है, उत्तर प्रदेश भर में ही संक्रमितों की संख्या 1 लाख तक पहुंच चुकी है, उस समय अयोध्या में ड्रोन नहीं, कई ड्रोनों से निगरानी की जा रही है। मानो चीन सीधे अयोध्या पर चढ़ाई करने की तैयारी में है। यह हास्यास्पद है कि चीन भारतीय सीमा के अन्दर आराम से आकर वापस भी हो गया, लेकिन निगरानी ड्रोन अयोध्या में मन्दिर के शिलान्यास की तैयारी के काम आ रहे हैं। जब कोरोना महामारी से करोड़ो लोग रोजगार खो चुके थे, सरकार सपरिवार (महन्त, पूंजीपति, दलाल मंत्रिगण) अयोध्या में जश्न मना रहे थे। आगे की पीढ़ियां यह पढ़ कर आश्चर्य करेंगी, कि जिस समय कोरोना का हवाला देकर मरने में 20 और शादी-व्याह में 50 लोगों से ज्यादा के इकट्ठा होने पर प्रतिबन्ध था, उस समय अयोध्या के हॉटस्पॉट रामजन्मभूमि में 200 लोगों को औपचारिक रूप से और सैकड़ों लोगों को अनौपचारिक रूप में इकट्ठा कर राम को स्थापित किया जा रहा था। इस मंजर पर अंजनी कुमार की गुजरात दंगे के समय लिखी गयी यह कविता दिमाग में गूंज रही है-
 ‘‘यह कौन से राम हैं जो अभी तक विस्थापित हैं,
 मुझे शक है इसकी नागरिकता पर
 तलाशी लो इस राम की’’

 
यह सब आज के समय में जी रहे लोगों को शायद अजीब न लगे, लेकिन आगे की पीढ़ी, जिसके लिए हम कल्पना कर सकते हैं कि वो असली लोकतन्त्र में सांस लेगी, उसे यह अजीब और वाहियात लगेगी। ये कौन लोग हैं जो राम की स्थापना में लगे हुए हैं यह इससे समझा जा सकता है कि हिन्दूमय टीवी पर पत्रकार के एक सवाल का जवाब देते हुए राम जन्म भूमि ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने बेहद खुशी के साथ बताया कि उन्हें उतनी ही खुशी हो रही है जितनी भारत में परमाणु बम बनने पर हुई थी। यह मौजूदा उन्माद की सटीक अभिव्यक्ति है। परमाणु बम ने भारत में जिस ‘राष्ट्रवाद’ का संचार किया था, ठीक उसी ‘राष्ट्रवाद’ के साथ आज राम मन्दिर का शिलान्यास किया जा रहा है। वास्तव में 5 अगस्त को राममन्दिर का ही शिलान्यास नहीं, ‘हिन्दू राष्ट्र’ का शिलान्यास किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के धार्मिक मुख्यमंत्री अजय बिष्ट ने यह कहा भी कि ‘‘भारत में एक नये युग की शुरूआत होने जा रही है।’’ बेशक हमारे संविधान में भारत के लिए ‘धर्मनिरपेक्ष’ पंथ को मानने की बात लिखी हुई है लेकिन अयोध्या में आज भारत के ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ बनने की ही घोषणा की जा रही है। अयोध्या में आज भारत के संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और पूरा देश इसे टीवी पर खुश होकर देख रहा है, रात में इसी खुशी में दीवाली भी मनायी जायेगी, और जैसाकि राजेश जोशी की कविता कहती है-
 ‘‘जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे मारे जायेंगे।’’
लेकिन यह तो 5 अगस्त के ‘ऐतिहासिक दिन’ की अधूरी कहानी है। 5 अगस्त, 2020 से नहीं, 2019 से ही भारतीय फासीवाद के इतिहास में ‘ऐतिहासिक’ बना दिया गया है। पिछले साल इसी दिन जम्मू-कश्मीर को भारत से जोड़ने वाले धागे धारा 370 और 35ए को तोड़कर पूरे राज्य को तीन हिस्सों में बांटकर उसे जेल में तब्दील कर दिया गया था। कोरोना लॉकडाउन के समय कई जनपक्षधर लोगों का यह कहना था कि ‘कश्मीर में लोगों पर क्या बीत रही है, भारत के लोगों को इसका एहसास हुआ होगा।’ लेकिन हमारे यहां आया यह लॉकडाउन भी कश्मीर की अदृश्य जेल से बेहतर था, बल्कि उसके आगे यह लॉकडाउन कुछ भी नहीं था। कश्मीर में 5 अगस्त 2019 से कर्फ्यू लगाकर एक दूसरे को संदेश देने का जरिया फोन भी पूरी तरह बंद कर दिया गया, लैण्डलाइन, मोबाइल सभी। कोई अखबार नहीं, कोई फेसबुक ह्वाट्सएप, फेसबुक लाइव, जूम मीटिंग कुछ भी नहीं, इण्टरनेट पूरी तरह बंद। घर के अन्दर बंद पूरी दुनिया से कटे हर तरफ सिर्फ वर्दी बन्दूकें और बूटों की आवाजें-‘जबरा मारे रोवहू न दे’। पहले वहां की जनता से बिना उनकी परामर्श उनका बनाया कानूनी हक छीना गया, फिर वे इसके खिलाफ अपनी राय न व्यक्त कर सकें, प्रदर्शन न कर सकें, कहीं लिख न सकें, यहां तक कि एक दूसरे से यह भी न कह सकें कि ‘यह बुरा हुआ, यह नहीं होना चाहिए था।’ पूरे कश्मीर को जेल में तब्दील कर दिया गया। लोगों की धर-पकड़ कर जेलें भर दी गयीं, रातों-रात लोग उठा लिये गये। वास्तविक जेलें कम पड़ी, तो भारत के संवैधानिक कानूनों की भी धज्जियां उड़ाते हुए कश्मीरियों को कश्मीर से बाहर देश भर की विभिन्न जेलों में बिना किसी सूचना या लिखा-पढ़ी के डाल दिया गया।
 

कौन कहां है किसी को कुछ पता नहीं। पता भी चल जाय तो, कागजी कार्यवाहियों के दांव-पेंच में मुलाकात संभव नहीं, जमानत संभव नहीं। किसी तरह इन सब का जुगाड़ लग भी जाये, तो इसमें लगने वाले 20-25 हजार रूपये का जुगाड़ सबके लिए संभव नहीं। इसी तरह की परिस्थितियों में पिछले एक साल से कश्मीर की जनता रह रही है। 5 अगस्त को कश्मीर को जेल में तब्दील हुए एक साल पूरा होने जा रहा है। यह इस सरकार के लिए खुशी का विषय है, और वे इसकी तैयारी भी कर रहे हैं। वस्तुतः 5 अगस्त फासीवाद के जश्न का दिन है। इस दिन उन्होंने अपने देश की जनता को ‘वो’ दिया, जो किसी को नहीं मिला, फिर भी वो खुश और अच्छा महसूस कर रहे हैं, क्योंकि इस दिन ‘दूसरे का’ कुछ छिना। यह फासीवादी राजनीति की खास पहचान है। वह जनता को कुछ देती नहीं, लेकिन जनता के अल्पसंख्यक हिस्से को ‘बाहरी’ ‘दूसरे’ ‘गैर’ बताकर बहुत कुछ खुलेआम छीन लेती है। बाकी बहुसंख्यक जनता में इससे ही ‘गर्व की भावना’ का संचार हो जाता है। भले ही उनके हिस्से का इतना कुछ छीना जा रहा है कि रोजगार, बिजली, पानी, जंगल, खेत ख्लिहान कुछ भी हमारा नहीं बचा, सब कुछ सामंती-साम्राज्यवादी आकाओं के हाथ में पहुंचता जा रहा है। कोरोना की आपदा को अवसर में बदलते हुए प्रधानमंत्री जी ने हमसे छीनने की इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है। सिर्फ इस दौरान ही जनता का कितना कुछ छीन कर अम्बानियों अडानियों गूगल और जुकरबर्गों को दे दिया गया कि इस पर अलग से लिखा जा सकता है। जनता से सबकुछ छिन जाने का असर है कि कश्मीर के अधिग्रहण और मन्दिर के गर्व के साथ ही हर घर में डिप्रेशन के मरीज बढ़ते जा रहे हैं, हर दिन हर शहर में कम से कम एक या दो आत्महत्या की खबर आ रही है। इन आत्महत्याओं का भी इस 5 अगस्त के ‘ऐतिहासिक दिन’ से गहरा सम्बन्ध है। इस दिन का ‘गर्व’ उनकी वंचना को देश की स्थिति से जोड़ने की बजाय व्यक्तिगत बना दे रहा है। उंगली जहां उठनी चाहिए उधर से उठने वाली ‘गर्व’ की लपटे इतनी तेज हैं कि आंखें चौंधिया जा रही हैं। उसमें फासीवाद अपने को छिपा ले रहा है।
 5 अगस्त 2019 से जो हमारे देश में ‘दूसरों’ से छीन कर खुशी मनाने का सिलसिला जो तेज हुआ वो इस 5 अगस्त तक जारी है, आगे भी जारी रह सकता है। इस सिलसिले को बीच में एक आन्दोलन ने बड़ी चुनौती दी थी थी और ‘धार्मिक गर्व’ की राजनीति को बड़ी टक्कर दी थी, वो था नागरिकता आन्दोलन। धारा 370 हटाने के असंवैधानिक काम को अंजाम देने के बाद सरकार ने जनता के एक बड़े हिस्से को नागरिक ही न मानने वाला असंवैधानिक कानून बनाया-‘नागरिकता कानून’। क्रोनोलॉजी के हिसाब के इसके दो हिस्से हैं ‘एनआरसी’ और ‘सीएए’। इसका क्या अंजाम होगा इसे लोगों ने आसाम के उदाहरण से देख लिया। महिलाओं के नेतृत्व में चला यह आन्दोलन भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में बेमिसाल बन गया। इसने फासीवादी सत्ता की नींव हिला ही दी थी, कि सरकार को कोरोना का बहाना मिल गया। इस आन्दोलन के नाम पर लोकतन्त्र समर्थक लोगों की धर-पकड़- प्रताड़ना का सिलसिला मन्दिर के शिलान्यास की तैयारियों के बीच तक जारी था। गांधीवादी विचारक प्रोफेसर अपूर्वानन्द इसके ताजे शिकार बने हैं।
इसके पहले इस फासीवादी निजाम को कड़ी टक्कर देने का काम भीमा कोरेगांव के इतिहास ने किया था। इस शानदार इतिहास के 200 साल बाद नवी पेशवाई यानि नये ब्राहमणवादी मनुवाद के खिलाफ होने वाले जमावड़े से सरकार इतना डर गयी कि उसके बाद से देश में सबसे प्रतिष्ठित बुद्विजीवियों, कवियों मानवाधिकार कर्मियों, को सरकार ने जेल में डालना शुरू कर दिया। यूं तो यह पूरा मुकदमा ही फर्जी है, लेकिन इस आयोजन के नाम पर गिरफ्तारियां करने का अर्थ है कि यह सरकार लोकतन्त्र में नहीं, ब्राह्मणवादी मनुवाद में यकीन करती है, जो बराबरी पर नहीं, बल्कि जातिगत और पितसत्तात्मक शोषण पर आधारित है। आज अयोध्या में एक ऐतिहासिक इमारत की लाश पर इसी ‘हिन्दू राष्ट्र’ का खुला शिलान्यास किया जा रहा है। गौरतलब है कि अगर बाबरी मस्जिद किसी पुराने ढांचे पर खड़ी भी थी, तो अभी भी यह विवादित ही है कि वह पुराना ढांचा क्या था? बौद्धों का मानना है कि वह ढांचा राम मन्दिर का नहीं बल्कि बौद्ध मन्दिर का था। इलाहाबाद में 4 अगस्त को बौद्ध संगठनों इस मांग के साथ कचहरी में प्रदर्शन भी किया कि वहां राम मन्दिर नहीं, बौद्ध मन्दिर बनना चाहिए।
हममें से बहुतों को यह दृश्य भारत के संविधान की हत्या लग रही है। 5 अगस्त के बेचारे दिन को बार-बार सरकार संविधान की हत्या के लिए ही इस्तेमाल कर रही है। बहुतों ने इसकी हत्या का पहले से अनुमान लगा लिया था और ‘संविधान बचाने’ की मुहिम भी शुरू कर दी थी। लेकिन अब संविधान बचाने की मुहिम चलाने वालों को यह भी सोचना ही होगा, कि हमारे संविधान में आखिर क्या कमी है कि खुद सरकारें ही इसे जब चाहें तब आसानी से खारिज कर देती हैं। आखिर क्यों इसके होते हुए भी सरकारें बार-बार लोकतऩ्त्र की धज्जियां उड़ाने में सफल हो जाती हैं। इसी संविधान के तहत देश में इमरजेंसी लगाकर जनता का हक समाप्त किया जा चुके हैं। इस संविधान के रहते देश में यूएपीए और मकोका जैसे ढेरों जनविरोधी कानून न सिर्फ लागू हैं, बल्कि उन्हें हर साल अधिक लोकतन्त्र विरोधी बनाया जा रहा है। संविधान के रहते कश्मीर में जनमत संग्रह के पुराने वादे को पूरा करने की बजाय जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे धारा 370 और 35ए को आराम से हटा दिया गया। संविधान की धर्मनिरपेक्ष होने की घोषणा के बावजूद देश में एक ऐतिहासिक मस्जिद गिरा दी जा जाती है, और इसे अपराध करार दिये जाने की बजाय उस पर मंदिर बनाने का फैसला सर्वोच्च न्यायालय से आ जाता है। आज के अखबारों में मस्जिद के गिराये जाने को कल्याण सिंह जैसे लोग जो खुद उस वक्त संवैधानिक पद पर विराजमान थे- सही बता रहे हैं, जबकि यह मुकदमा अभी भी न्यायालय में लम्बित है और उसमें मस्जिद गिराये जाने को अपराध माना गया है। धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ खाकर प्रधानमंत्री और मंत्री बनने के बावजूद ये सभी एक धार्मिक आयोजन में ऐलानिया न सिर्फ जाते हैं, बल्कि खुद इस विवादित आयोजन के आयोजक बन जाते हैं, पूरा देश इसका मूक दर्शक है। विपक्ष की भूमिका निभा रही कांग्रेस इसका विरोध करने की बजाय खुद ’हिन्दू राष्ट्रवाद’ की माला जप रही है। क्या ये सब संवैधानिक है? नहीं है तो संविधान कहां है? संविधान को लागू कराने वाले कहां हैं? लागू कराने वाले खुद संविधान की खुल्लमखुल्ला धज्जियां उड़ायें, तो संविधान में इसका क्या प्रावधान है? नहीं है तो संविधान क्या है और क्यों है ? जब टीवी पर मंदिर बनने का दृश्य देखें तो इन सवालों पर एक बार जरूर सोचें। समझ में आयेगा कि 5 अगस्त ‘ऐतिहासिक दिन’ नहीं, लोकतान्त्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाने वाला फासीवादी दिन है।

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