Wednesday 16 September 2020

राजनैतिक बन्दी कौन है? -सीमा आज़ाद

 


मैं तो राजद्रोही ही हूँँ
सदियों सेआजादी के लिए सत्ता को तोड़ता आया हँू
दास व्यवस्था से लेकर आज तक
एक नयी व्यवस्था का सपना लेकर
सिर्फ अपना ही नहीं
सारी सर्वहारा जनता का स्वप्न
जल-जंगल-जमीन और इज्जत के लिए
जनता की सत्ता के लिए
मैं राजद्रोह ही कर रहा हँू
मेरा सवाल तुमसे बस इतना ही है
कि तुम मेरे ऊपर राजद्रोह का आरोप लगाकर
देशद्रोही क्यों कहते हो?
मैं राजद्रोही हँू
क्योंकि तुम राज हो
और मैं तुमसे नाराज हँू।


यह कविता क्रांतिकारी कवि वरवर राव की है, जो राजनैतिक बन्दियों का बयान है। जब से शासक और शोषकों के दो वर्गो वाली सत्ता अस्तित्व में आयी है, तब से सत्ता के खिलाफ यह ‘राजद्रोह’ होता आया है, क्योंकि ‘राज’ करने वालों से जनता हमेशा ‘नाराज’ रही। आज के फासीवादी दौर में इन राजद्रोहियों की संख्या जेलों में बढ़ती जा रही है। इसलिए इन पर हो रहे दमन की मुखालफत के साथ, इन्हें जेल में ‘राजनीतिक बन्दी’ का दर्जा दिये जाने के लिए भी बोलना आज एक जरूरी काम बन गया है। इतिहास गवाह है दमन जब तेज होता है तो जेल यात्रा राजनैतिक कार्यकर्ताओं की कार्यसंस्कृति का हिस्सा बन जाता है, साथ ही जेलों की अव्यवस्था के खिलाफ लड़ना भी एक महत्वपूर्ण काम बन जाता है।
भगत सिंह और उनके साथी जेल में जाने के बाद अन्दर भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे और जेलों को क्रांतिकारियों के लिए बेहतर बनाने का प्रयास करते रहे। जैसा कि वरवर राव की कविता कहती है आज जेलों में बंद वरवर राव, आनन्द तेलतुम्बड़े, सुधीर ढावले, रोना विल्सन, शोमा सेन, सुधा भारद्वाज, सुरेन्द्र गाडलिंग उमर खालिद, नताशा नरवाल, देवांगना कालिथा, शरजील, मसरत सहित सभी राजनीतिक विरोधी भगत सिंह की ‘राजद्रोहियों’ की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। ये सभी इस फासीवादी ‘राज’ से ‘नाराज’ है, सिर्फ इसलिए सरकार ने इन्हें जेल में डाल रखा है।
अभी ही 13 सितम्बर बीता है, भगत सिंह के साथी यतीन्द्र नाथ दास की शहादत का दिन। इस दिन को ‘राजनीतिक बन्दी’ के दिन के रूप में मनाया जाता है। अंग्रेजों के शासन में भगत सिंह और जेल में बंद उनके साथियों ने, जिसमें यतीन्द्र नाथ दास भी शामिल थे, खुद को राजनीतिक बन्दियों का दर्जा देने के लिए और हिन्दुस्तानी कैदियों के साथ भेदभाव बन्द करने की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरू की थी। अंग्रेजी सरकार ने उनकी मांगे मानने की बजाय उन सबको जबरन नली से दूध देना शुरू किया, इस जबर्दस्ती में उनके साथ और अधिक ज्यादती की गयी। दूध आहार नली में जाने की बजाय अक्सर सांस नली से होकर फेफड़े में जाता रहा। 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद 13 सितम्बर 1929 को उनकी मौत हो गयी। उसके बाद जेल प्रशासन ने उनकी अधिकांश मांगे मान ली, लेकिन इस सफलता को देखने के लिए यतीन्द्र नाथ दास नहीं रहे। इसीलिए उनकी शहादत के दिन को ‘राजनैतिक बन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाना शुरू हुआ। दुखद है कि आजाद भारत में भी इसका महत्व जस का तस ही नहीं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा बढ़ गया है। भगत सिंह और उनके साथियों को तो अंग्रेजों ने हवालाती रहने तक, यानि मुकदमें की सुनवाई तक, राजनीतिक बन्दी ही माना, और 1929 में उन्हें सजा सुनाये जाने के बाद उनका यह दर्जा छीना, लेकिन आज हमारी सरकार हवालाती रहते हुए ही सभी राजनीतिक बन्दियों के साथ अपराधियों जैसा बर्ताव कर रही है। टेबल-कुर्सी, बिस्तर, मच्छरदानी, तो दूर, उन्हें किताबें और इलाज के लिए भी अदालतों से गुहार लगानी पड़ रही है। आज भी राजनीतिक बन्दियों को यह दर्जा न देकर उनके साथ जेलों में अंग्रेजी राज से भी अधिक बुरा सुलूक किया जा रहा। सरकार इन्हें ‘राजनैतिक बन्दी’ नहीं, शातिर अपराधी ही मानती है।
आखिर ये राजनैतिक बन्दी हैं कौन?
जेल जाने वालों का अनुभव यही बताता है कि जेलों में सत्ता के करीब रहने वाले अमीर घराने के लोगों को बिना राजनैतिक दर्जा मिले ही सभी कानूनी और गैर कानूनी सुविधायें आसानी से मिल जाती हैं, जबकि इसके हकदार राजनैतिक बन्दियों से साथ सामान्य बन्दियों से भी ज्यादा बुरा सुलूक किया जाता है। लेकिन यह तो अलिखित नियम के तहत होता है। असलियत में ‘राजनैतिक बन्दी’ किसे माना जाना चाहिए।
अंग्रेजों के समय से ही भारत में राजनैतिक बन्दियों की दो तरह की धारा रही है। एक भगत सिंह की धारा, जिन पर आईपीसी की धारा 121, यानि ‘सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना’ लगाई जाती रही है। यह उन लोगों पर लगाई जाती रही है, जो कि सिर्फ सरकार नहीं बदलना चाहते, बल्कि बहुसंख्यकों के शोषण पर खड़ी व्यवस्था को ही बदलना चाहते थे। दूसरी धारा गांधी की धारा थी, जिन पर हमेशा 124ए यानि देशद्रोह की धारा लगाई जाती रही। यानि सरकार विरोधी काम, जिसमें लिखना भी आता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करना या किसी भी कार्य द्वारा सरकार को चिढ़ाना। गांधी की धारा, जिन पर धारा 124 लगाई गई, उन्हें अंग्रेजों ने ‘राजनीतिक बन्दी’ माना। जबकि भगत सिंह की धारा जिन पर 121 लगाया गया, अंग्रेजों ने उन्हें राजनीतिक बन्दी न मानकर ‘आतंकवादी’ माना। यही परम्परा आज भी चली आ रही है।

व्यवस्था में बदलाव चाहने वालों को आतंकवादी बताना व्यवस्था परिवर्तन के सामाजिक विज्ञान के विचार के फैलाव को रोकने की मंशा से किया जाता है। इस मंशा के कारण ही मौजूदा सत्ता आतंकवादी और क्रांतिकारी को एक ही केटेगरी में रख देती है। इसके लिए हिंसा-अहिंसा के भोथरे तर्क का इस्तेमाल किया जाता है। और यह सिर्फ अपने देश में नहीं, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है।
1961 में एमनेस्टी इण्टरनेशनल द्वारा दी गयी परिभाषा अनुसार वे लोग ‘जिन्हें उनके राजनैतिक, धार्मिक, एथेनिक, लैंगिक, भाषायी, मूल स्थान, रंग या अन्य विश्वास के कारण जेल में डाला गया है, और जिन्होंने हिंसा का इस्तेमाल या समर्थन नहीं किया है, वे सभी राजनैतिक कैदी हैं।’ वास्तव में इस परिभाषा में हिंसा का इस्तेमाल या समर्थन की बात जोड़कर किसी को भी राजनैतिक बन्दी मानने की संभावना को खत्म कर दिया गया है। क्योंकि जो भी इस व्यवस्था से वैचारिक रूप से अलग मानता है, वह हरसंभव तरीके से इसे बदलना चाहता है। इतिहास में सभी बदलाव ऐसे ही हुए हैं। ये एक राजनीतिक व्यवस्था के बरख्श दूसरी राजनीतिक व्यवस्था को स्थापित करने का ऐतिहासिक काम है, जिसे हिंसक या आतंकवादी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यदि मौजूदा सत्ता इतनी लोकतान्त्रिक हो जाय, कि दूसरी राजनीतिक व्यवस्था लाने वाले लोगों को यह मौका दे कि वे अपना राजनीतिक मॉडल प्रस्तुत करें, बनायें और उसे बहस का विषय बनायें, तो हिंसा की संभावना ही खत्म हो जाय। लेकिन ऐसा नहीं होता। वास्तव में तो यह माजूदा राजनैतिक व्यवस्था ही है, जो हिंसा द्वारा ऐसे किसी मॉडल को पनपने से पहले ही खत्म कर देना चाहती है। यहां तक कि किसी दूसरे मॉडल पर बात करना और उससे सम्बन्धित साहित्य पढ़ने के नाम पर भी वह लोगों को जेल भेज रही है। क्या यह हिंसा नहीं है?
विरोधी राजनीतिक विचारधारा मानने वालों को हिंसक मानकर उन्हें राजनैतिक बन्दी न मानना भारत के मौजूदा कानून के अनुसार भी सही नहीं है।कानून का मूलभूत सिद्धांत है कि किसी भी घटना में ‘इरादा’ बेहद महत्वपूर्ण होता है, इसके आधार पर किसी पर कानून की धाराये और आरोप तय होता है। हत्या में इसी कारण सिर्फ 302 नहीं बल्कि 307, 301 304, सहित कई धाराये हैं। कानून के इस मूलभूत सिद्धांत के अनुसार क्रांतिकारी/आन्दोलनात्मक हिंसा और आतंकवादी हिंसा या हत्या को एक तराजू से कैसे तौला जा सकता है। यदि किसी हिंसा का इरादा किसी व्यक्ति या समूह को नुकसान पहुंचाना या उसकी हत्या करना नहीं, बल्कि किसी सरकार या सत्ता की हिंसा का जवाब देना या विरोध करना है, तो वह कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने वाली साधारण हिंसा नहीं, बल्कि ‘राजनैतिक हिंसा’ है और उसे कारित करने वाला व्यक्ति ‘राजबंदी’। लेकिन राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर राजनैतिक बन्दी की परिभाषा में हिंसा को शामिल करके व्यवस्था के बदलाव की सोच को कुचलने की ही कोशिश की गयी है। इस लिहाज से कभी भी कोई भी राजनैतिक बन्दी नहीं माना जायेगा, क्योंकि सरकारें हिंसा से कोसों दूर रहने वालों पर भी हिंसा को उकसाने का आरोप लगाकर उससे यह दर्जा आसानी से छीन लेती है। यहां तक कि अंहिसा में यकीन करने वाले गांधीवादियों तक पर सरकार हिंसा या दंगा भड़काने का आरोप लगाकर उन्हें साम्प्रदायिक आतंकवादी के तौर पर जेलों में डाल रही है और खुल्लमखुल्ला साम्प्रायिक हिंसा करने और उकसाने वाले लोगों का मान सम्मान कर रही है। जाहिर है हिंसा-अहिंसा के विचार का इस्तेमाल भी वह लोगों के अधिकार छीनने के लिए कर रही है।
क्रांतिकारी पार्टियों से जुड़े लोगों को राजनैतिक बन्दियों का दर्जा दिये जाने की बात सन 2012 में एक बार तब जोर-शोर से उठी थी, जब कोलकाता हाईकोर्ट ने माओवदियों से सम्बन्ध रखने के आरोप में जेल में बन्द छः लोगों को ( जिसमें लालगढ़ आन्दोलन के नेता छत्रधर महतो भी थे) राजनैतिक बन्दी मानने का फैसला सुनाया। यह फैसला कोर्ट ने राज्य में 1992 के वामपंथी बंगाल में पास किये गये ‘पश्चिम बंगाल करेक्शनल सर्विस एक्ट 1992’ के तहत दिया, जो वहां सन 2000 से लागू हुआ। लेकिन इस फैसले के आते ही देश भर के मानवाधिकार संगठनों के बीच खुशी की लहर और सत्ता के गलियारे में खलबली मच गयी। एक-दूसरे की कट्टर विरोधी रहीं ममता बनर्जी की राज्य सरकार और यूपीए की केन्द्र सरकार इस मुद्दे पर दोनों तत्काल एक हो गयीं। केन्द्र के गृह मंत्रालय ने तुरन्त पश्चिम बंगाल सरकार को आदेश दिया कि इस फैसले को तुरंत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए इस इस कार्यवाही को तत्काल रोका जाना चाहिए। ममता बनर्जी ने भी पूरी विनम्रता के साथ केन्द्र के आदेशों का पालन किया, और हाईकोर्ट का यह आदेश नजीर बनने के बाद भी लागू नहीं हो सका।
तब से अब तक स्थितियां और बदल गयी हैं, दमन और तेज और तीखा दोनों हो गया है। हिन्दू फासीवाद खुलकर हमारे सामने खड़ा है। सत्ता के विरोधियों के श्रेणी काफी बढ़ चुकी है। वरवर राव की कविता के हवाले से बात करें तो अब ऐसा ‘राज’ है, जिससे ‘नाराज’ होने वालों की तादात बढ़ गयी है। यह ‘राज’ जिन लोगों के खिलाफ है उन समुदायों में इजाफा हुआ है।
किसके खिलाफ है यह राज-
1- इसकी आर्थिक नीतियों का विरोध करने वाले
2-धार्मिक अल्पसंख्यक
3-वर्णव्यवस्था का विरोध करने वाले लोग, दलित
4-मनुवादी रीतिरिवाजों को नकारने वाली औरतें
5- आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए लड़ने वाले राज्य
जहिर है सरकार क्योंकि बेहद मुखर तौर पर इन सबके खिलाफ है, इसलिए ये सभी लोग इनसे नाराज हैं। ये इस सरकार के राजनैतिक विरोधी हैं। नतीजा सामने है-
1-सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध करने वाले लोग, देश का जल जंगल जमीन सभी प्राकृतिक संसाधनों को बेचने का विरोध करने वाले आदिवासी, बुद्धिजीवी आज जेलों के अन्दर डाले जा रहे हैं। दिल्ली विवि के प्रोफेसर जीएन साईबाबा के सजा के फैसले में तो यह खुल कर लिखा है कि इन माओवादियों के कारण गढचिरौली में विदेशी निवेश नहीं हो पा रहा है, इसलिए इन्हें जेल में डालना जरूरी है।
2-सीएए एनआरसी जैसे फासीवादी फरमान के खिलाफ आन्दोलन करने वाले मुसलमान और उनके साथ खड़े लोग एक-एक करके जेल के अन्दर भेजे जा रहे हैं। संविधान की अवहेलना कर हिन्दुत्व को थोपते हुए अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की लिंचिंग की जा रही है।
3-भीमाकोरेगांव के इतिहास को दलितों के स्वाभिमान का प्रतीक मानने वाले लोग, वर्णव्यवस्था को नकारने वाले और उसे चुनौती देने वाले वाले लोग आज जेल में भेजे जा रहे हैं। हिन्दुत्व के फरमान को नकारने वाले दलित समुदाय के लोगों को पीटा जा रहा है, उनका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाला जा रहा है।
4- मनुवादी कानून को नकारकर औरतों के लिए बनाये गये हर पिंजड़े को तोड़ने वाली औरतें आज जेल के अन्दर भेजी जा रहीं है, इसके साथ ही सामंती पितृसत्तात्मक मूल्यों के तहत उनका चरित्र हनन भी किया जा रहा है।
5- कश्मीर, नागालैण्ड, मणिपुर जहां आत्मनिर्णय और राष्ट्रीयता का आन्दोलन जारी है, उनकी बात सुनने की बजाय उन सब को जेलों में डाला जा रहा है। इन राज्यों में कई तरह के खतरनाक कानून बना कर लोगों की हत्या तक को कानूनी बना दिया गया है।


उपरोक्त में से किसी को भी जेल में डालने के बाद सरकार इन्हें राजनैतिक बन्दी नहीं नहीं मानती, बल्कि उन्हें देशद्रोही-आतंकवादी मानती है। जो हथियारबंद आन्दोलन से जुड़े हैं उन्हें तो राजनीतिक बन्दी नहीं ही मानती है, जो इससे कोसो दूर हैं उनके खिलाफ भी हिंसा में लिप्त होने की, उसे उकसाने की कहानी गढ़ती है। यूएपीए जैसा जनदोही कानून इसमें उनकी मदद करता है। इसके तहत तमाम संगठनों और पार्टियों को घोषित और अघोषित तौर पर प्रतिबन्धित कर दिया गया, फिर अपने राजनीतिक विरोधियों को पकडकऱ उसका इनमें से किसी भी संगठन से संबन्ध बता कर उसे आतंकवादी घोषित कर देते है। वैसे तो यह सरकारी कार्यवाही आज की भाजपा सरकार से पहले से ही चली आ रही है, लेकिन आज के फासीवादी समय में यह तानाशाही अत्यधिक बढ़ गयी है। हर विरोधी आवाज का दमन कर या तो उसकी हत्या कर दी जा रही है, या उसे जेल में डाल दिया जा रहा है। जेलों में राजनैतिक बन्दियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। बल्कि यूं कहिये कि जेलों का अदृश्य विस्तार होता जा रहा है। बाहर रह कर भी हर कोई जेल जैसी निगरानी में है। पूरा जम्मू-कश्मीर पिछले एक साल से जेल ही बन गया है।
किसी भी देश के लोकतन्त्र की जांच वहां की जेलें हैं। जेल में यदि हवालातियों या अण्डर ट्रायल की संख्या ज्यादा है, तो उस देश के लोकतान्त्रिक होने पर शक होना चाहिए। इससे भी बडी पहचान इससे होती है कि उस देश की जेलों में राजनैतिक बन्दियों की संख्या कितनी है। इस परीक्षा में भारत का लोकतन्त्र फेल होता जा रहा है। इस तथ्य को अन्तरर्राष्ट्रीय नजर से छिपाये रखने के लिए भी सरकारें राजनैतिक बन्दी का दर्जा देती हीं नहीं है। इस परीक्षा में भारत का लोकतन्त्र फेल हो गया है। इसी लिए राजनैतिक बन्दियों का मुद्दा सिर्फ जेल जाने वाले आन्दोलनकारियों के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह देश को लोकतान्त्रिक बनाये रखने के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह हर देश के लोकतन्त्र की लड़ाई की का एक प्रमुख मुद्दा और मांग होनी चाहिए। इस मांग को अपने देश में भी उठाने की जरूरत है, साथ ही इस फासीवादी ‘राज’ से अधिक से अधिक लोगों का ‘नाराज’ होना भी जरूरी है।




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