Thursday, 24 September 2020

बेरोजगारी: समाज के खिलाफ़ एक प्रच्छन्न युद्ध - मनीष आज़ाद

 

कई बार आपने बड़े बुजुर्गों को यह कहते सुना होगा की भगवान बड़ा दयालू है. वह एक पेट देता है तो दो हाथ भी देता है. धर्म के आवरण में कही गयी ये बात बहुत महत्वपूर्ण है. यानी दो हाथो के कारण किसी को भी बेरोजगार रहने की जरूरत नहीं है. इसीलिए पुरानी भाषा में आपको 'बेरोजगार' का अर्थ देने वाला शब्द नहीं मिलेगा. वहां निठल्ला जैसा शब्द जरूर मिलेगा. यानी जो काम ना करना चाहता हो.

दरअसल बेरोजगारी पूँजीवाद की ही विशेषता है. इसके पहले के समाजों में शोषण-उत्पीड़न कितना भी हो, लेकिन बेरोजगारी कतई नहीं थी. पूँजीवाद में जब श्रम के अलावा अन्य सभी चीजों [जल, जंगल जमीन, उत्पादन के साधनों आदि] पर पूंजीपति या सरकार का प्रत्यक्ष नियंत्रण हो जाता है, तो आप अपने दोनों हाथो के साथ लाचार हो जाते हैं और काम के लिए सरकार और पूंजीपतियों पर निर्भर हो जाते हैं, जिनकी स्वार्थी व मुनाफाखोर नीतियां आपके भाग्य का फैसला करने लगती हैं.

हमारे देश में इस समय बेरोजगारी पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा है. मजेदार बात यह है की मई 2019 में श्रम मंत्रालय से लीक हुई एक रिपोर्ट से यह बात पता चली.  इसी तरह हमारे देश में भूख से प्रभावित [जिन्हें न्यूनतम कैलोरी नहीं मिलती] लोगो की संख्या 59 करोड़ है, ये बात भी 2018 में मीडिया में लीक हुई एक सरकारी रिपोर्ट से ही पता चला. अमेरिका जैसे देशों में CIA की फाइलें लीक हुआ करती हैं, हमारे यहाँ भूख और बेरोजगारी की खबरें लीक होती है. हद है.


बेरोजगारी महज बेरोजगार नौजवानों के लिए ही यंत्रणा नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज के लिए यातनादायी होता है. बेरोजगार व्यक्ति की भी कुछ न्यूनतम जरूरतें होती हैं. जब उसके पास कोई रोजगार नहीं होता तो वह दूसरे रोजगार पाये लोगों में से यह हिस्सा प्राप्त करता है. चाहे वो उसके पिता हों, भाई हो या कोई दोस्त हो. इसके फलस्वरूप पूरे समाज की औसत आय कम होने लगती है. बढ़ती बेरोजगारी के कारण रोजगार पाए व्यक्ति की मजदूरी भी घटने लगती है, क्योकि पूंजीपति बाहर खड़े बेरोजगारों का डर दिखा कर उनसे मनमाना कॉन्ट्रैक्ट कर लेता है. भावी छटनी के डर से वो किसी भी शर्त पर काम करने को तैयार हो जाता है. याद कीजिये राकफेलर परिवार के किसी सदस्य का वह कुख्यात कथन की 100 कुत्ते जुटाने से ज्यादा आसान है 100 बेरोजगारों को जुटाना. इस तरह से पूरा समाज एक तरह के भय और असुरक्षा में जीने लगता है. जिसका सीधा असर उसके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है. कई मामलों में यह डिप्रेशन और फिर आगे चलकर आत्महत्या में भी बदल जाता है.

इसके अतिरिक्त बेरोजगारों की बढ़ती संख्यां के कारण सरकार को कई तरह के टैक्स नहीं मिलते, इससे सरकार की आय भी कम होती है. जिसके कारण शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर खर्च करने के लिए सरकार के पास कम पैसे बचते है. चूँकि श्रम के शोषण से ही मुनाफा पैदा होता है, इसलिए जब बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ती है तो सम्पूर्णता [overall] में पूंजीपति का मुनाफा घटता है. बड़े पैमाने पर बेरोजगारी होने से जनता की क्रय शक्ति घटती है. इस कारण बाजार में सामानों और सेवाओं की मांग कम हो जाती है. इस कारण पूँजीपतियों का मुनाफा बाज़ार में फँस जाता है. अपने मुनाफे को बनाये रखने के लिए पूंजीपति छंटनी का सहारा लेता है. और उसका यह कदम समस्या को और विकराल बना देता है. जैसा की आज हो रहा है. सरकार भी पूंजीवादी तर्क से चलने के कारण सार्वजनिक उपक्रमों के मुनाफे की दर बनाये रखने के लिए वहा इसी तरह छटनी का सहारा लेती है. या जब सरकार को अपने खर्चो या अपनी अय्याशियो के लिए पैसे कम पड़ने लगते हैं तो वह उन सरकारी उघमों को बेच देती है. जैसा आज बड़े पैमाने पर हो रहा है.

इस तरह से देखे तो बेरोजगारी किसी के हित में नहीं है. फिर बेरोजगारी इतनी बड़ी समस्या कैसे बन जाती है.

दरअसल बेरोजगारी पूँजीवाद की अराजकता, अतार्किकता, पूंजीपतियों के बीच की गलाकाट प्रतियोगिता और तात्कालिक मुनाफे [इसी कारण वित्तीय पूँजी प्रभावी बन जाती है] की हवस के कारण होता है. इसके कारण कुछ साम्राज्यवादी व बड़े पूंजीपतियों के एक छोटे से गुट और उनसे जुड़े लोगों को तो अकूत फायदा होता है, लेकिन बाकी समाज बुरी तरह प्रभावित होता है.


ऐसी विकट परिस्थितियों में सरकार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. कुछ सरकारें पूंजीपतियों के दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए बेरोजगारी की समस्या को कुछ हद तक नियंत्रण में कर लेती है. ऐसी ही एक सरकार 1929 की मंदी के दौरान अमेरिका में रूजवेल्ट की सरकार थी. मंदी के कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगार हुए लोगो को सरकार ने दुबारा अपने खर्च पर यानी सरकारी प्रोजेक्टो में रोजगार देना शुरू किया. सड़क निर्माण और सरकारी उद्योगों के अलावा सार्वजनिक पार्क जैसी चीजों के निर्माण में भी लोगों को खपाया गया. यहाँ तक की कला जगत से बेरोजगार हुए लोगों को भी सांस्कृतिक टोली बनाकर उन्हें सरकारी खर्च पर काम दिया गया. कुशल मजदूरों को कोआपरेटिव के लिए प्रोत्साहित किया गया, जहां शुरूआती सरकारी सहयोग के अलावा इस बात की गारंटी भी दी गयी की कोआपरेटिव में बने सामान को सरकार उचित दाम पर खरीद लेगी. रूजवेल्ट की इस नीति का दूसरा हिस्सा और भी दिलचस्प है. रूजवेल्ट ने पूंजीपतियों पर कुल 94 प्रतिशत का कर लगाया. यानी 25000 डालर के ऊपर पूंजीपति जो भी कमायेगा [हालाँकि यह राशि भी उस समय के लिहाज से पूंजीपतियों के ऐशो-आराम के लिए काफ़ी था], उसका 94 प्रतिशत सरकार को देना होगा. [कुछ विश्लेषकों का कहना है की रूजवेल्ट 100 प्रतिशत कर लगाना चाहते थे, लेकिन पूंजीपतियों के भारी विरोध के कारण इसे 94 प्रतिशत कर दिया गया] इस पैसे को सरकार ने बेरोजगारों को दुबारा से रोजगार देने में खर्च किया. इस प्रक्रिया में अमेरिका ने मंदी के दौरान कुल 1 करोड़ 50 लाख के आसपास रोजगार का सृजन किया. उस वक़्त की अमेरिका की जनसँख्या [13 से 14 करोड़ ] को देखते हुए यह संख्या बहुत ज्यादा है. इस नीति के कारण जल्दी ही सामाजिक सम्पदा में तो बढ़ोत्तरी हुई ही, लोगो के पास रोजगार होने से उनकी क्रय शक्ति भी बढ़ने लगी, इससे बाजार में सामानों की मांग बढ़ने लगी, जिससे उद्योगों में उत्पादन बढ़ने लगा और लोगों को दुबारा से रोजगार मिलने लगा. इससे पूंजीपतियों का मुनाफा भी बढ़ने लगा. अपनी इस नीति के कारण रूजवेल्ट ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले ही अमेरिका को बेरोजगारी और मंदी से एक हद तक बाहर खीँच लिया.

रूजवेल्ट यह काम कर पाए, इसके तीन कारण थे. पहला, अमेरिका में मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट पार्टी मजबूत अवस्था में थी. रूजवेल्ट ने पूंजीपतियों से अपनी गुप्त मीटिंगों में यही कहा होगा की या तो 100 प्रतिशत टैक्स दो या फिर समाजवाद के लिए तैयार हो जाओं. दरवाजे पर कम्युनिस्ट बैठे हुए है. याद कीजिये भारत के भूदान आन्दोलन को. विनोबा भावे भी जमींदारों को यही संकेत देते थे की कुछ उसर जमीने दान कर दो नहीं तो पीछे से नक्सली आ रहे है. वे जमीन भी ले जायेंगे और जान भी. दूसरा कारण समाजवादी रूस की आर्थिक सफलता थी. पूरी पृथ्वी पर यही एकमात्र ऐसा देश था, जहा मंदी की बात तो जाने दीजिये, यहाँ GDP 10 प्रतिशत के आसपास चल रही थी और बेरोजगारी शब्द शब्दकोश से गायब हो चुका था. 100 प्रतिशत रोजगार था. पूरी दुनिया आश्चर्यचकित थी इस चमत्कार पर. इसका भी दुनिया की पूंजीवादी सरकारों पर दबाव था. इसलिए वे कुछ 'लोक कल्याणकारी' कदम उठाने को बाध्य थी. तीसरा कारण यह था कि पूंजीपतियों की जेब आज की तरह अभी इतनी गहरी नहीं हुई थी की वे गोर्की की कहानी 'करोड़पति कैसे होते है' के करोड़पति की तरह संसद व सरकार को पूरी तरह अपनी जेब में रख ले. याद कीजिये राडिया टेप जिसमे मुकेश अंबानी तत्कालीन कांग्रेस सरकार को अपनी दुकान बता रहे थे. और भाजपा तो अब मुकेश अंबानी की दुकान भी नहीं रही, बल्कि मुकेश अंबानी के शेयरों का मैनेजमेंट करने वाली एक दलाल फर्म बन कर रह गयी है. भाजपा का 'सेल्फ रिलायंस' का नारा वास्तव में 'सिर्फ रिलायंस' का नारा है.


 इसके अतिरिक्त रूजवेल्ट सिर्फ एक या 2 पूंजीपतियों के प्रति समर्पित नहीं था [जैसा की अपने देश में मोदी सरकार सिर्फ चंद साम्राज्यवादी आकाओं के साथ साथ अंबानी-अदानी के प्रति समर्पित है]. बल्कि वह अमेरिका के समूचे पूंजीपति वर्ग के प्रति वफादार था.

इसके बरक्स यदि आज के भारत या आज की दुनिया पर हम नज़र डाले तो सोवियत रूस की तरह ना तो कोई समाजवादी राज्य है, ना ही अपने देश में वाम मजबूत स्थिति में है. दूसरी ओर सरकार और चंद साम्राज्यवादी-पूंजीवादी समूहों, बड़े बैंकरो के बीच की विभाजन रेखा लगभग ख़त्म हो चुकी है. आज जेफ़ बेजोस और मुकेश अंबानी की जेब गोर्की की कहानी के पूंजीपति की जेब से भी ज्यादा गहरी हो चुकी है और वे एक नही कई सरकारों को अपनी जेब में रखने की क्षमता रखते है. ऐसे में सरकारे अपने चुनाव और अपने चहेते चंद पूंजीपतियों के हितों से ज्यादा कुछ नहीं देखती. यानी रूजवेल्ट की संभावना अब असंभव है. यानी इसी व्यवस्था में बेरोजगारी की समस्या का तात्कालिक निराकरण भी अब असंभव है.

इसके बाद अब क्या करना है, ये हमको आपको तय करना है. 1932 में बर्लिन में उस वक़्त की मंदी पर बनी फिल्म 'यह दुनिया किसकी है' का अंतिम डायलाग याद आ रहा है- 'इस दुनिया को वही लोग बदलेंगे जो इस दुनिया से असंतुष्ट हैं।'

क्या आप असंतुष्ट हैं?

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