22 मार्च के पहले लॉक डाउन में कुछ समय के लिए जब मैं बाहर निकली थी, तो सड़कें एकदम खाली थीं। कुछ सेकेण्ड्स तक आदतन ऐसे माहौल से डरने के बाद खाली सड़कें अच्छी लगने लगीं। अधिक से अधिक 10 मिनट में मैं अपने गंतव्य तक पहुंच गयी, लेकिन घर के अन्दर जाने का मन नहीं कर रहा था। मन हो रहा था कि कुछ और लड़कियों को फोन कर सड़क पर बुला लूं और पितृसत्तात्मक आंखें, कमेण्ट्स, क्रियाओं से मुक्त सड़क को सबके साथ मिलकर एन्जॉय करूं। मन में आया कि कभी-कभी ऐसा भी होना चाहिए कि किसी एक खास दिन लड़कों का घर से बाहर निकलना मना हो, और लड़कियां बेफिक्र होकर सड़कों पर घूम सकें। इसके दो दिन बाद ही कोरोना का लम्बा लॉकडाउन शुरू हो गया। इस लॉकडाउन का सप्ताह भी पूरा नहीं हुआ कि खबरें आने लगीं कि कोरोना लॉकडाउन में भारत सहित पूरी दुनिया में महिलाओं पर होने वाली हिंसा में इजाफा हो रहा है। ये खबरें पढ़कर 22 मार्च का दिन याद आया और समझ में आने लगा, कि ये पितृसत्तात्मक आंखें, कमेण्ट्स, क्रियाऐं तो अब घरों के अन्दर कैद हैं। उन घरों के अन्दर जिनके ये स्वामी और मालिक हैं। पितृसत्तात्मक घर एक जेल है, जिसके ये जेलर हैं। इस नयी स्थिति में अपने कैदियों पर उनका प्रदर्शन घनीभूत हो उठा है। सड़कें इनसे मुक्त हैं और घर आबाद। घर तो छोड़िये, अस्पतालों के क्वारंटाइन सेण्टर तक भी पितृसत्तात्मक यौन हिंसा की पहुंच हो चुकी है।
सिर्फ एक महीना पहले ही देश भर में संशोधित नागरिकता कानून सीएए के खिलाफ आन्दोलन चल रहे थे। और यह इससे जुड़ा महत्वपूर्ण तथ्य है कि आन्दोलन से जुड़े हर स्थल, सभी ‘बाग’ पितृसत्तात्मक अभिव्यक्तियों, नज़रों और हिंसा से मुक्त थे। औरतें इन क्षेत्रों और इनके आस-पास के रास्तों पर रात-बिरात आराम से बिना डरे आना-जाना कर रहीं थीं, अपनी निजी सवारियों से भी और सार्वजनिक साधनों से भी। सभी का यह अनुभव था, कि आन्दोलन के कारण डर का माहौल इन क्षेत्रों में नही है। लेकिन कोरोना लॉकडाउन ने न इन सिर्फ आन्दोलनों का दमन किया, पितृसत्ता के डगमगाते पांवों को फिर से मजबूत करने का काम भी किया है। लॉकडाउन के दौरान घरों में होने वाली हिंसा सिर्फ घर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि घर-घर में पैर जमाती पितृसत्ता पूरे समाज में खुद को मजबूत कर रही है। जिस 22 मार्च को मैं पितृसत्ता से मुक्त सड़कों को एन्जॉय कर रही थी, उसी वक्त से यह घरों के अन्दर अपने पैर पसार रही थी।
शाहीनबाग सहित देश भर में महिलाओं के आन्दोलन और लॉकडाउन का अनुभव दोनों ये बताते हैं, कि घर के अन्दर अकेली महिला पितृसत्तात्मक दमन का अधिक शिकार होती हैं, जबकि घर के बाहर सार्वजनिक जीवन में उनकी एकजुटता इस दमन को पीछे ढकेलने का काम करती हैं। इसलिए लॉकडाउन में घरेलू हिंसा बढ़ने की खबर सुनकर स्वाभाविक ही एक महीना पहले तक चल रहे महिलाओं के इस आन्दोलन की याद आ गयी, जिसने पूरे देश के माहौल को बदल दिया था।
पिछले साल के अन्त में शाहीनबाग में शुरू हुआ आन्दोलन सिर्फ नागरिकता कानून के विरोध के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं था, बल्कि यह आन्दोलन भारत के महिला आन्दोलन के इतिहास की एक बड़ी परिघटना है, जिसे हम सबको देखने-सुनने-समझने का मौका मिला। बेशक यह आन्दोलन बिना किसी नतीजे पर पहुंचे ‘फिलहाल’ स्थगित है, लेकिन इसने वास्तव में समाज को जो दिया, उस लिहाज से ये आन्दोलन बेनतीजा कतई नहीं रहा। आज जबकि महिलाओं पर हिंसा बढने की खबर विश्वव्यापी हो चुकी है, इसके इन नतीजों पर चर्चा करना बेहद जरूरी है।
सबसे पहली बात तो ये कि किसी आन्दोलन में इतने बड़े पैमाने पर महिलाओं का शामिल होना और उसे नेतृत्व देना एक ऐतिहासिक घटना है। जिस पीढ़ी ने 60-70 के दशक से लेकर आज तक का समय देखा है उन सबका कहना है कि उन्होंने ऐसा देशव्यापी आन्दोलन इसके पहले कभी नहीं देखा था। इस आन्दोलन में महिलाओं के इतनी बड़ी संख्या में सड़क पर होने के अलावा इस आन्दोलन ने समाज में उथल-पुथल मचाने का काम भी किया है, और यदि यह लॉक डाउन नहीं आया होता, तो यह उथल-पुथल सतह पर आने में ज्यादा वक्त न लगता।
इस आन्दोलन ने महिलाओं और महिलाओं में भी सबसे दबी-कुचली मानी जाने वाली मुस्लिम महिलाओं के प्रति समाज में बनी धारणा को तोड़ दिया है। यह ऐसा आन्दोलन था, जिसे सबसे ज्यादा पर्दानशीं मानी जाने वाली औरतों ने शुरू किया और जारी रखा। इसने समाज में बोले जाने वाले पितृसत्तात्मक मुहावरों को खण्डित कर दिया, क्योंकि ढेरों ‘चूड़ीवालियां’ ‘पर्दे वालियां’, ‘साड़ी वालियां’ सड़कों पर उतर चुकी थी, और मर्दवादी सत्ता को चुनौती दे रही थी। इसी से बौखलाकर मर्दवादी सत्ता के एक नुमाइंदे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय बिष्ट की पहली प्रतिक्रिया थी कि-‘‘मर्द खुद कम्बल ओढ़कर सो रहे हैं और औरतों को रात में सड़क पर आन्दोलन के लिए छोड़ दिया है।’’ इस आन्दोलन ने इस धारणा को झुठला दिया कि ‘औरत औरत की दुश्मन है। बल्कि इसने इस बात को स्थापित किया कि औरतों का भी आदमियों की तरह वर्गीय, जातीय और धार्मिक चरित्र होता है, इसी आधार पर उनकी भी दोस्ती और दुश्मनी बनती हैं। दुश्मनी की बात को झुठलाते हुए जिस एकजुटता के साथ महिलाओं ने इस आन्दोलन को चलाया है, वह अपने आप में एक मिसाल है।
इस आन्दोलन ने समाज में व्याप्त इस धारणा को तोड़ा कि औरतें, उसमें भी मुस्लिम औरतें बेहद कम पढ़ी-लिखीं और पिछड़ी होती हैं। पितृसत्तात्मक समाज ने आंखें फाड़कर देखा कि धरनास्थल पर आने वाली हर महिला राजनैतिक चेतना से लैस थी और गोदी मीडिया के किसी भी सवाल का जवाब देने के लिए सक्षम थीं। ‘आज तक’ की रिपोर्टर अंजना ओम कश्यप को महिलाओं के दिये गये बौद्धिक जवाबों से अपने सवालों पर शर्मिंदा होना पड़ा। धरने पर बैठीं मुस्लिम औरतें पढ़ी-लिखी भी हो सकती हैं, यह किसी के जहन में ही नहीं था। लोगों ने देखा कि ये धारणा भी गलत है। और निश्चित ही राजनीतिक सोच से आन्दोलनों की शुरूआत होती है, लेकिन आन्दोलन भी पलटकर लोगों को राजनीतिक चेतना से लैस करते हैं। इसे हम सबने दो महीने तक चले इस आन्दोलन में भलीभांति देखा।
शाहीन बाग की हर महिला राजनीति के साथ कला और संस्कृति की चेतना से भी लैस दिखी, उनके पास हर मौके के लिए शेरो-शायरी और जवाब देने का कलात्मक अंदाज था। इन आन्दोलनों ने समाज को बेहतरीन अभिव्यक्तियां दी-
‘भगत सिंह का जज़्बा, अशफाक का तेवर, बिस्मिल का रंग हूं,
ऐ हुकूमत नज़र मिला मुझसे, मैं शाहीनबाग हूं।
या
तुुम ज़मी पर ज़ुल्म लिखो
आसमां पर इंक़लाब लिखा जायेगा
सब याद रखा जायेगा।
उनका यह रूप देख कर देश का बुद्धिजीवी वर्ग भी आश्चर्यचकित था। और कई बार तो ऐसा भी दिखा कि ये महिलायें उनसे आगे चल रही हैं और वे उनके बहुत पीछे। इन महिलाओं को स्वेटर बुनने का सुझाव देना इसी बात का एक नमूना था। कई आन्दोलन स्थलों पर इन महिलाओं ने बुद्धिजीवियों को सरल-सीधे सटीक और सुन्दर तरीके से बात रखने का तरीका सिखाया, उन्होंने हमेशा याद रखे जाने वाले लैंगिक भेद-भाव से मुक्त नये नारे गढ़े। वास्तव में इस आन्दोलन ने साम्प्रदायिक, जातीय और लैंगिक तीनों तरीके के पूर्वाग्रहों को तोड़ने में मदद की। वास्तव में यह अपने तरह की एक ‘सांस्कृतिक क्रांति’ ही थी।
इस आन्दोलन ने पार्टियों-संगठनों के बंधे-बंधाये ढर्रे पर सोचने चलने वाले ढेरों गढ़ों-मठों को ढहाने का काम किया है। देश के कम्युनिस्ट और जनवादी आन्दोलनों के लोगों-पार्टियों को इसने यह संन्देश दिया है कि ‘महिला नही तो क्रांति नहीं’। वे खुद महिलाओं की इतनी बड़ी तादाद सड़कों पर देखकर हतप्रभ थे। इसके साथ ही महिला आन्दोलन को भी इस आन्दोलन ने यह सन्देश दिया है कि ‘क्रांति नहीं, तो महिला मुक्ति नहीं’। यानि राजनीतिक मुद्दों से अलग-थलग सिर्फ महिलाओं के शोषण का सवाल उठा कर महिलाओं की मुक्ति की बात सोचना अवैज्ञानिक है। स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ चले इस आन्दोलन ने एक बार फिर इस बात को स्थापित कर दिया है, और सभी को आत्मसात करने के लिए मजबूर कर दिया है कि ‘‘महिला नही ंतो, क्रांति नहीं, क्रांति नही ंतो महिला मुक्ति नहीं’।
सिर्फ इतना भर नहीं, इस आन्दोलन ने न सिर्फ महिलाओं का नेतृत्व पैदा किया, बल्कि इस बात को इस पितृसत्तात्मक समाज में अच्छे से स्थापित भी किया है कि नेतृत्व देने का काम महिलायें भी कर सकती हैं। इसने यह भी दिखाया है कि महिलाओं के नेतृत्व में चलने वाला आन्दोलन सृजनात्मकता, नवीनता और ताजगी से भरा हुआ होता है।
देश कई हिस्सों में चलने वाले इस आन्दोलन का असर सिर्फ समाज पर नहीं, बल्कि समाज की सबसे छोटी इकाई घरों पर भी बहुत अधिक हुआ है। इसमें शामिल महिलाओं के घरों में बहुत कुछ बदलने की शुरूआत हो गयी थी। महिलायें आन्दोलन में जायें इसके लिए मुस्लिम समाज के पुरूष उन्हें प्रोत्साहित कर रहे थे। थोड़ा शर्माते, झिझकते घर के काम में उनकी मदद भी कर दे रहे थे, जो कुछ नहीं कर रहे थे वे खाने-पीने में नखरे नहीं कर रहे थे। पहले पुरूष बाहर से घर लौटने के बाद बाहर के कुछ किस्से घर की औरतों को सुना दिया करते थे। अब पुरूष धरनास्थल से लौटी महिलाओं से वहां के किस्से सुनने के लिए लालायित रहते थे। पति-पत्नी, मां-बेटे, भाई-बहन, पिता-बेटी से दोस्ती का कारण बन रहा था यह आन्दोलन। धरना स्थल पर सुनाने के लिए लड़कियों की डायरियों के अन्दर फंसे मुक्ति गीत पंख फैलाकर उड़ान भरने लगे थे। बच्चों ने फैज़ की रचना को याद करने के क्रम में उन्हें घरों का हिस्सा बना दिया। अपनी ही जनता की नागरिकता को नकारने और अ-नागरिकों की नागरिकता को स्वीकृति देने वाली साम्प्रदायिक सरकार के खिलाफ राजनीतिक बहसें इसलिए ही तेज हो सकी, क्योंकि महिलायें और बच्चे भी इसके हिस्से बन गये थे। घरों के इस नये स्वरूप ने ही आन्दोलन को इतना व्यापक और जुझारू बनाया। इसलिए किसी भी आन्दोलन का परिणाम ही सब कुछ नहीं होता, आन्दोलन का हिस्सा होने भर से बहुत कुछ बदलने लगता है। इसमें खासतौर से महिलाओं के शामिल होने भर से घर और समाज की सामंती-पितृसत्तात्मक बेड़िया टूटने लगती हैं और जनवादीकरण की शुरूआत हो जाती है। शाहीनबाग से प्रेरित नागरिकता संशोधन कानून के आन्दोलनों ने समाज की इस प्रक्रिया को तेज कर दिया था। इन आन्दोलनों के कारण समाज में न दिखने वाली एक हलचल की शुरूआत हो गयी थी, जिसे अचानक आये इस लॉकडाउन से अचानक एक ब्रेक लग गया है। यह लॉकडाउन महिलाओं के आन्दोलन से हासिल इन उपलब्धियों को स्थापित करने में नकारात्मक साबित हो रहा है। घरों में कैद और सिमटी औरत हर तरीके से अधिक अकेली होती है, इसलिए मौखिक और शारीरिक हिंसा झेलने के लिए अभिशप्त होती है। इससे उलट सार्वजनिक जीवन में आने से, खास तौर आन्दोलन की ज्मीन पर खड़ी होने भर से वह सशक्त हो जाती है, इसे हम सबने इस आन्दोलन के दौरान गहराई से महसूस किया। लॉकडाउन की हिंसा आन्दोलन में शामिल महिलाओं के लिए और भी यातनादायी है, क्योंकि उसकी चेतना का स्तर अब पहले से अधिक है।
लेकिन यह वैज्ञानिक नियम है, कि इतिहास में एक बार जो घटना घटित हो जाती है, उसके परिणाम को किसी भी तरीके से खत्म नहीे किया जा सकता। इसलिए नागरिकता आन्दोलन के परिणाम भी अवश्य होंगे। लॉकडाउन इसके परिणामों पर ढक्कन रखने का काम कर सकता है, लेकिन इसे पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता।
नागरिकता आन्दोलन ने समाज को बेहद सकारात्मक चीजें दी हैं, इसे पहचानने और जिन्दा रखने का काम सभी जनवादी शक्तियों को करना हैं, वरना सामंती शक्तियों का तो काम ही है आगे बढ़े हुए पहिये की पीछे ढकेलना। शाहीनबाग और इससे प्रेरित महिलाओं के सभी आन्दोलनों ने जो कुछ भी समाज को दिया है उसका असर खत्म नहीे हो सकता।
सिर्फ एक महीना पहले ही देश भर में संशोधित नागरिकता कानून सीएए के खिलाफ आन्दोलन चल रहे थे। और यह इससे जुड़ा महत्वपूर्ण तथ्य है कि आन्दोलन से जुड़े हर स्थल, सभी ‘बाग’ पितृसत्तात्मक अभिव्यक्तियों, नज़रों और हिंसा से मुक्त थे। औरतें इन क्षेत्रों और इनके आस-पास के रास्तों पर रात-बिरात आराम से बिना डरे आना-जाना कर रहीं थीं, अपनी निजी सवारियों से भी और सार्वजनिक साधनों से भी। सभी का यह अनुभव था, कि आन्दोलन के कारण डर का माहौल इन क्षेत्रों में नही है। लेकिन कोरोना लॉकडाउन ने न इन सिर्फ आन्दोलनों का दमन किया, पितृसत्ता के डगमगाते पांवों को फिर से मजबूत करने का काम भी किया है। लॉकडाउन के दौरान घरों में होने वाली हिंसा सिर्फ घर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि घर-घर में पैर जमाती पितृसत्ता पूरे समाज में खुद को मजबूत कर रही है। जिस 22 मार्च को मैं पितृसत्ता से मुक्त सड़कों को एन्जॉय कर रही थी, उसी वक्त से यह घरों के अन्दर अपने पैर पसार रही थी।
शाहीनबाग सहित देश भर में महिलाओं के आन्दोलन और लॉकडाउन का अनुभव दोनों ये बताते हैं, कि घर के अन्दर अकेली महिला पितृसत्तात्मक दमन का अधिक शिकार होती हैं, जबकि घर के बाहर सार्वजनिक जीवन में उनकी एकजुटता इस दमन को पीछे ढकेलने का काम करती हैं। इसलिए लॉकडाउन में घरेलू हिंसा बढ़ने की खबर सुनकर स्वाभाविक ही एक महीना पहले तक चल रहे महिलाओं के इस आन्दोलन की याद आ गयी, जिसने पूरे देश के माहौल को बदल दिया था।
पिछले साल के अन्त में शाहीनबाग में शुरू हुआ आन्दोलन सिर्फ नागरिकता कानून के विरोध के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं था, बल्कि यह आन्दोलन भारत के महिला आन्दोलन के इतिहास की एक बड़ी परिघटना है, जिसे हम सबको देखने-सुनने-समझने का मौका मिला। बेशक यह आन्दोलन बिना किसी नतीजे पर पहुंचे ‘फिलहाल’ स्थगित है, लेकिन इसने वास्तव में समाज को जो दिया, उस लिहाज से ये आन्दोलन बेनतीजा कतई नहीं रहा। आज जबकि महिलाओं पर हिंसा बढने की खबर विश्वव्यापी हो चुकी है, इसके इन नतीजों पर चर्चा करना बेहद जरूरी है।
सबसे पहली बात तो ये कि किसी आन्दोलन में इतने बड़े पैमाने पर महिलाओं का शामिल होना और उसे नेतृत्व देना एक ऐतिहासिक घटना है। जिस पीढ़ी ने 60-70 के दशक से लेकर आज तक का समय देखा है उन सबका कहना है कि उन्होंने ऐसा देशव्यापी आन्दोलन इसके पहले कभी नहीं देखा था। इस आन्दोलन में महिलाओं के इतनी बड़ी संख्या में सड़क पर होने के अलावा इस आन्दोलन ने समाज में उथल-पुथल मचाने का काम भी किया है, और यदि यह लॉक डाउन नहीं आया होता, तो यह उथल-पुथल सतह पर आने में ज्यादा वक्त न लगता।
इस आन्दोलन ने महिलाओं और महिलाओं में भी सबसे दबी-कुचली मानी जाने वाली मुस्लिम महिलाओं के प्रति समाज में बनी धारणा को तोड़ दिया है। यह ऐसा आन्दोलन था, जिसे सबसे ज्यादा पर्दानशीं मानी जाने वाली औरतों ने शुरू किया और जारी रखा। इसने समाज में बोले जाने वाले पितृसत्तात्मक मुहावरों को खण्डित कर दिया, क्योंकि ढेरों ‘चूड़ीवालियां’ ‘पर्दे वालियां’, ‘साड़ी वालियां’ सड़कों पर उतर चुकी थी, और मर्दवादी सत्ता को चुनौती दे रही थी। इसी से बौखलाकर मर्दवादी सत्ता के एक नुमाइंदे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय बिष्ट की पहली प्रतिक्रिया थी कि-‘‘मर्द खुद कम्बल ओढ़कर सो रहे हैं और औरतों को रात में सड़क पर आन्दोलन के लिए छोड़ दिया है।’’ इस आन्दोलन ने इस धारणा को झुठला दिया कि ‘औरत औरत की दुश्मन है। बल्कि इसने इस बात को स्थापित किया कि औरतों का भी आदमियों की तरह वर्गीय, जातीय और धार्मिक चरित्र होता है, इसी आधार पर उनकी भी दोस्ती और दुश्मनी बनती हैं। दुश्मनी की बात को झुठलाते हुए जिस एकजुटता के साथ महिलाओं ने इस आन्दोलन को चलाया है, वह अपने आप में एक मिसाल है।
इस आन्दोलन ने समाज में व्याप्त इस धारणा को तोड़ा कि औरतें, उसमें भी मुस्लिम औरतें बेहद कम पढ़ी-लिखीं और पिछड़ी होती हैं। पितृसत्तात्मक समाज ने आंखें फाड़कर देखा कि धरनास्थल पर आने वाली हर महिला राजनैतिक चेतना से लैस थी और गोदी मीडिया के किसी भी सवाल का जवाब देने के लिए सक्षम थीं। ‘आज तक’ की रिपोर्टर अंजना ओम कश्यप को महिलाओं के दिये गये बौद्धिक जवाबों से अपने सवालों पर शर्मिंदा होना पड़ा। धरने पर बैठीं मुस्लिम औरतें पढ़ी-लिखी भी हो सकती हैं, यह किसी के जहन में ही नहीं था। लोगों ने देखा कि ये धारणा भी गलत है। और निश्चित ही राजनीतिक सोच से आन्दोलनों की शुरूआत होती है, लेकिन आन्दोलन भी पलटकर लोगों को राजनीतिक चेतना से लैस करते हैं। इसे हम सबने दो महीने तक चले इस आन्दोलन में भलीभांति देखा।
शाहीन बाग की हर महिला राजनीति के साथ कला और संस्कृति की चेतना से भी लैस दिखी, उनके पास हर मौके के लिए शेरो-शायरी और जवाब देने का कलात्मक अंदाज था। इन आन्दोलनों ने समाज को बेहतरीन अभिव्यक्तियां दी-
‘भगत सिंह का जज़्बा, अशफाक का तेवर, बिस्मिल का रंग हूं,
ऐ हुकूमत नज़र मिला मुझसे, मैं शाहीनबाग हूं।
या
तुुम ज़मी पर ज़ुल्म लिखो
आसमां पर इंक़लाब लिखा जायेगा
सब याद रखा जायेगा।
उनका यह रूप देख कर देश का बुद्धिजीवी वर्ग भी आश्चर्यचकित था। और कई बार तो ऐसा भी दिखा कि ये महिलायें उनसे आगे चल रही हैं और वे उनके बहुत पीछे। इन महिलाओं को स्वेटर बुनने का सुझाव देना इसी बात का एक नमूना था। कई आन्दोलन स्थलों पर इन महिलाओं ने बुद्धिजीवियों को सरल-सीधे सटीक और सुन्दर तरीके से बात रखने का तरीका सिखाया, उन्होंने हमेशा याद रखे जाने वाले लैंगिक भेद-भाव से मुक्त नये नारे गढ़े। वास्तव में इस आन्दोलन ने साम्प्रदायिक, जातीय और लैंगिक तीनों तरीके के पूर्वाग्रहों को तोड़ने में मदद की। वास्तव में यह अपने तरह की एक ‘सांस्कृतिक क्रांति’ ही थी।
इस आन्दोलन ने पार्टियों-संगठनों के बंधे-बंधाये ढर्रे पर सोचने चलने वाले ढेरों गढ़ों-मठों को ढहाने का काम किया है। देश के कम्युनिस्ट और जनवादी आन्दोलनों के लोगों-पार्टियों को इसने यह संन्देश दिया है कि ‘महिला नही तो क्रांति नहीं’। वे खुद महिलाओं की इतनी बड़ी तादाद सड़कों पर देखकर हतप्रभ थे। इसके साथ ही महिला आन्दोलन को भी इस आन्दोलन ने यह सन्देश दिया है कि ‘क्रांति नहीं, तो महिला मुक्ति नहीं’। यानि राजनीतिक मुद्दों से अलग-थलग सिर्फ महिलाओं के शोषण का सवाल उठा कर महिलाओं की मुक्ति की बात सोचना अवैज्ञानिक है। स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ चले इस आन्दोलन ने एक बार फिर इस बात को स्थापित कर दिया है, और सभी को आत्मसात करने के लिए मजबूर कर दिया है कि ‘‘महिला नही ंतो, क्रांति नहीं, क्रांति नही ंतो महिला मुक्ति नहीं’।
सिर्फ इतना भर नहीं, इस आन्दोलन ने न सिर्फ महिलाओं का नेतृत्व पैदा किया, बल्कि इस बात को इस पितृसत्तात्मक समाज में अच्छे से स्थापित भी किया है कि नेतृत्व देने का काम महिलायें भी कर सकती हैं। इसने यह भी दिखाया है कि महिलाओं के नेतृत्व में चलने वाला आन्दोलन सृजनात्मकता, नवीनता और ताजगी से भरा हुआ होता है।
देश कई हिस्सों में चलने वाले इस आन्दोलन का असर सिर्फ समाज पर नहीं, बल्कि समाज की सबसे छोटी इकाई घरों पर भी बहुत अधिक हुआ है। इसमें शामिल महिलाओं के घरों में बहुत कुछ बदलने की शुरूआत हो गयी थी। महिलायें आन्दोलन में जायें इसके लिए मुस्लिम समाज के पुरूष उन्हें प्रोत्साहित कर रहे थे। थोड़ा शर्माते, झिझकते घर के काम में उनकी मदद भी कर दे रहे थे, जो कुछ नहीं कर रहे थे वे खाने-पीने में नखरे नहीं कर रहे थे। पहले पुरूष बाहर से घर लौटने के बाद बाहर के कुछ किस्से घर की औरतों को सुना दिया करते थे। अब पुरूष धरनास्थल से लौटी महिलाओं से वहां के किस्से सुनने के लिए लालायित रहते थे। पति-पत्नी, मां-बेटे, भाई-बहन, पिता-बेटी से दोस्ती का कारण बन रहा था यह आन्दोलन। धरना स्थल पर सुनाने के लिए लड़कियों की डायरियों के अन्दर फंसे मुक्ति गीत पंख फैलाकर उड़ान भरने लगे थे। बच्चों ने फैज़ की रचना को याद करने के क्रम में उन्हें घरों का हिस्सा बना दिया। अपनी ही जनता की नागरिकता को नकारने और अ-नागरिकों की नागरिकता को स्वीकृति देने वाली साम्प्रदायिक सरकार के खिलाफ राजनीतिक बहसें इसलिए ही तेज हो सकी, क्योंकि महिलायें और बच्चे भी इसके हिस्से बन गये थे। घरों के इस नये स्वरूप ने ही आन्दोलन को इतना व्यापक और जुझारू बनाया। इसलिए किसी भी आन्दोलन का परिणाम ही सब कुछ नहीं होता, आन्दोलन का हिस्सा होने भर से बहुत कुछ बदलने लगता है। इसमें खासतौर से महिलाओं के शामिल होने भर से घर और समाज की सामंती-पितृसत्तात्मक बेड़िया टूटने लगती हैं और जनवादीकरण की शुरूआत हो जाती है। शाहीनबाग से प्रेरित नागरिकता संशोधन कानून के आन्दोलनों ने समाज की इस प्रक्रिया को तेज कर दिया था। इन आन्दोलनों के कारण समाज में न दिखने वाली एक हलचल की शुरूआत हो गयी थी, जिसे अचानक आये इस लॉकडाउन से अचानक एक ब्रेक लग गया है। यह लॉकडाउन महिलाओं के आन्दोलन से हासिल इन उपलब्धियों को स्थापित करने में नकारात्मक साबित हो रहा है। घरों में कैद और सिमटी औरत हर तरीके से अधिक अकेली होती है, इसलिए मौखिक और शारीरिक हिंसा झेलने के लिए अभिशप्त होती है। इससे उलट सार्वजनिक जीवन में आने से, खास तौर आन्दोलन की ज्मीन पर खड़ी होने भर से वह सशक्त हो जाती है, इसे हम सबने इस आन्दोलन के दौरान गहराई से महसूस किया। लॉकडाउन की हिंसा आन्दोलन में शामिल महिलाओं के लिए और भी यातनादायी है, क्योंकि उसकी चेतना का स्तर अब पहले से अधिक है।
लेकिन यह वैज्ञानिक नियम है, कि इतिहास में एक बार जो घटना घटित हो जाती है, उसके परिणाम को किसी भी तरीके से खत्म नहीे किया जा सकता। इसलिए नागरिकता आन्दोलन के परिणाम भी अवश्य होंगे। लॉकडाउन इसके परिणामों पर ढक्कन रखने का काम कर सकता है, लेकिन इसे पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता।
नागरिकता आन्दोलन ने समाज को बेहद सकारात्मक चीजें दी हैं, इसे पहचानने और जिन्दा रखने का काम सभी जनवादी शक्तियों को करना हैं, वरना सामंती शक्तियों का तो काम ही है आगे बढ़े हुए पहिये की पीछे ढकेलना। शाहीनबाग और इससे प्रेरित महिलाओं के सभी आन्दोलनों ने जो कुछ भी समाज को दिया है उसका असर खत्म नहीे हो सकता।
Really nice comrade.. निश्चित ही राजनीतिक सोच से आन्दोलनों की शुरूआत होती है, लेकिन आन्दोलन भी पलटकर लोगों को राजनीतिक चेतना से लैस करते हैं।. Ye wala khas kar.
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteI am very much impressrf ny thr aricle No doubt this an eye 0pener article
ReplyDeleteNelieve me Im alreafy concernrd with it.
I am very much impressrf ny thr aricle No doubt this an eye 0pener article
ReplyDeleteNelieve me Im alreafy concernrd with it.
बहुत सार्थक विश्लेषण है। सच है कोई भी जन आंदोलन अपने आप में बिना किसी नये को जन्मे खत्म नहीं हो सकता। यह आंदोलन भी बहुत कुछ नये को जन्म दे चुका है। इस नयेपन की खुशबू इस लेख में सीमा जी ने एक बानगी के तौर पर प्रस्तुत की है।
ReplyDeleteबधाई।