अमिता शीरीं राजनीतिक कार्यकर्ता, अनुवादक हैं। इसीलिए सत्ता की कार्यवाही
इन पर भी हो चुकी है। 14 मार्च को 8 महीने बाद वे जेल से रिहा हुई हैं।
हान सुइन की मशहूर किताब "morning deluge" का हिंदी अनुवाद इन्होंने "सुबह का सैलाब" नाम से किया है, जो संवाद प्रकाशन से इसी साल प्रकाशित हुई है। इसके पहले बोलीविया के खदान में काम करने वाली मजदूर डोमितिला का जीवन बयान करने वाली किताब "let me speak" का हिंदी अनुवाद "मेरी कहानी मेरी जुबानी नाम" से प्रकाशित हो चुकी है। चर्चित लेखक युआल नोवा हारारी की पुस्तक "सेपियंस" जो इन दिनों बेस्ट सेलर बताई जा रही है, अमिता यहां इसकी छान बीन कर रही हैं। आज के इंसान को "सुपर मानव" बताने वाली इस बेस्ट सेलर पुस्तक की आज के Corona समय में छान बीन करना ज़रूरी है, जबकि आज का यह "सुपर मानव" न तो बीमारी से बच पा रहा है न ही भूख से। यह किताब 2011 में मूलतः हिब्रू में लिखी गई थी। 2014 में आने के बाद से ही यह किताब एक सनसनी बन गई। युवाल नोआ हरारी इज़रायल के हिब्रू विश्वविद्यलय में विश्व इतिहास के प्रोफेसर हैं। इस किताब में वह इंसान (जिसे वह सेपिएंस कहते हैं- होमोसेपिएंस) की पहली पगडंडी का पीछा करते-करते उसके महामानव बनने की यात्रा का समूचा इतिहास अनूठे अंदाज़ में चित्रित करते हैं। ऐसा करते समय हरारी की क़लम एक साथ अतीत से वर्तमान और भविष्य में तैरती हुई चलती है। भाषा ऐसी मानो उपन्यास का मज़ा ले रहे हों। भाषा और शैली में खिलंदड़पन कहीं-कहीं किताब की कमजोरी ही बन जाता है और विषय को हल्का करने लगता है। मानवता का इतिहास इतना सरल और रैखिक नहीं है कि उसे सुंदर भाषा में गढ़ के खूबसूती से पेश कर दिया जाए। पूरी किताब में कहीं- कहीं अतिसरलीकरण अमान्य सा लगता है। इस किताब में हरारी प्रस्थापित करते हैं कि आज तक मानवता का इतिहास तीन क्रांतियों से होकर गुजरा है- 1- संज्ञानात्मक क्रान्ति (Cognitive Revolution) 2- कृषि क्रांति. (Agricultural Revolution) 3- वैज्ञानिक क्रान्ति (Scientific Revolution) हरारी के अनुसार तकरीबन 13.5 बिलियन वर्ष पूर्व बिगबैंग के साथ ब्रह्माण्ड का उद्भव हुआ। भौतिकी, रसायनशास्त्र से होकर जीवविज्ञान से गुज़र कर तकरीबन 3.8 बिलियन वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जीवन की परिस्थितियां तैयार हुई। लगभग 70,000 साल पहले धरती पर एक ख़ास तरह के प्राणी होमो सेपिएंस ने ख़ास किस्म के पैटर्न में ढल कर 'संस्कृति' का निर्माण किया। इंसानों की इसी संस्कृति के विकास को आगे चल कर इतिहास कहा गया। होमो सेपिएंस के रूप में इंसान का विकास तकरीबन 1,50,000 साल पहले अफ्रीका में हुआ। ये होमो सेपिएंस हमसे बहुत मिलते जुलते थे। हरारी का मानना है कि सेपिएंस के मस्तिष्क का आकार उन्हें अपने पूर्वजों से अलग करता है। हरारी के अनुसार कुछ आकस्मिक जेनेटिक तब्दीली के चलते उनके मस्तिष्क का आकार कुछ बड़ा हो गया जिससे आगे चल कर उन्होंने संज्ञानात्मक क्रान्ति कर डाली। हरारी बार-बार जीन सिद्धान्त को छूते हैं और बहुत सफाई से उस पर कोई विवादास्पद प्रस्थापना करने से बचते हुए आगे निकल जाते हैं। एक शोध के हवाले से वह बताते हैं कि पश्चिमी एशिया और यूरोप में निएंडरथल प्रजाति के जो अवशेष मिले हैं उनके जीन्स चंद यूरोपीय व पश्चिमी एशियाई (जिसमें इज़रायल शामिल है) लोगों से मिलते है। हरारी बताते हैं कि सेपिएंस अपने तमाम जेनेटिक कारणों से नियंडरथल लोगों से घुल मिल नहीं सकते थे, उनके साथ संतानें नहीं पैदा कर सकते थे, इस लिए संभवतः उनके विनाश का कारण बने। बहुत बारीकी से हरारी की यह प्रस्थापना आज के नस्लीय सिद्धान्त की ओर ले जाती है। इस तरह सेपिएंस के मस्तिष्क के आकार में आती आकस्मिक जेनेटिक तब्दीली के कारण सेपिएंस के इंसान बनने का इतिहास शुरू होता है। इसके साथ ही शुरू होती है संज्ञानात्मक क्रान्ति । यह क्रान्ति पत्थर के औजार बनाने से शुरू होती है और भाषा के आविष्कार से होते हुए आगे बढ़ती है। हरारी कहते हैं कि भाषा के आविष्कार के लिए एक कारण है इंसान का एक दूसरे कि चुगली करने और सूचनाओं के आदान प्रदान की आवश्यकता। इसे वह ' गॉसिप थ्योरी ' का नाम देते हैं। उनका यह सिद्धान्त कनविसिंग नहीं लगता। सच तो ये है कि भाषा के विकास में श्रम व समुदाय की सामूहिकता मुख्य रूप से निर्णायक रही है। इस संज्ञानात्मक क्रान्ति के बाद मानवता कृषि क्रांति में प्रविष्ट होती है जिसे हरारी अब तक का सबसे बड़ा धोखा बताते हैं। उनका मानना है कि कृषि क्रांति के चलते इंसान हर तरह से सीमित हो गया। पशुपालन के साथ शुरू होती है इंसान की नृशंसता को पशुओं को अपना भोजन बनाने से शुरू होती है। (हरारी स्वयं वीगन हैं) यहां वह पशु प्रेमी एक्टिविस्ट कि तरह बात करते हैं ना कि इतिहासकार की तरह। हरारी अपनी बात कहने के लिए तथ्यों का प्रयोग तो खूबसूरती से करते हैं, लेकिन वे अपनी किसी बात को कार्य कारण परिप्रेक्ष्य में नहीं करते। हरारी कृषि क्रांति घटित होने का कोई भौतिक कारण नहीं बताते हैं। जबकि हम जानते हैं कि कृषि क्रान्ति कोई अचानक घटित होने वाली परिघटना तो नहीं है। हरारी का मानना है कि ईश्वर समेत परिवार, राज्य व अन्य संस्थाएं इंसान की कल्पना कि उपज हैं। वह इसे काल्पनिक व्यवस्था (imagined order)की संज्ञा देते हैं। ईश्वर से लेकर समाज व पूंजीवाद तक सभी इंसान की खयाली व्यवस्थाएं कैसे हो सकती हैं, इसका जवाब वह नहीं देते। कृषि क्रान्ति के बाद घटित होती है वैज्ञानिक क्रान्ति। इस दौरान इंसान बहुत से आविष्कार करता है जो इंसानियत को आगे बढ़ाने में योगदान देते हैं। लेखन, मुद्रा, संपत्ति, धर्म, बाज़ार, मशीन, औद्योगिकरण, युद्ध व साम्राज्य आदि। कृषि क्रान्ति से वैज्ञानिक क्रान्ति के बीच में हरारी मध्य काल को बिल्कुल छूते ही नहीं। इसी तरह दुनिया भर की बातें करते हुए हरारी इज़रायल फिलिस्तीन संबंध पर एक पंक्ति भी नहीं लिखते, मानो वह विश्व इतिहास का हिस्सा ही ना हो। कृषि क्रान्ति से वैज्ञानिक क्रान्ति तक आते-आते हरारी के मानसिक, बौद्घिक व दार्शनिक झुकाव को समझा जा सकता है। ख़ास तौर पर वैज्ञानिक क्रान्ति वाले हिस्से में उनका नजरिया बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। अंत तक आते आते वह साफ तौर पर प्रतिक्रियावादी दर्शन के नुमाइंदे नज़र आने लगते हैं। किताब के अंत में हरारी वैज्ञानिक प्रगति को ज़रूरत से ज़्यादा मग्निफाई करते हैं। हरारी दावा करते हैं कि इंसान तकनीकी के दम पर जिस तरह विकसित हो रहा है, आर्टिफिशियल इंटेलजेंस का जिस तरह उपयोग कर रहा है, उससे भविष्य में वह सेपिएंस से कहीं आगे निकल जाएगा। प्राकृतिक चयन की जगह इंसान डिजाइनर मनुष्य रचने लगेगा। इसके साथ ही सेपिएंस दौर खत्म होगा और इंसान महामानव बन जाएगा। उनके अनुसार पूंजीवाद के सहयोग से ही यह वैज्ञानिक प्रगति संभव हो सकी है। इसी कारण से हरारी को आज दुनिया के किसी भी कोने में एक भी आदमी भूखा नज़र नहीं आता। इसे वह पूंजीवाद की सफलता मानते हैं। "70000 साल पहले के एक अदने से जानवर ने खुद को समूचे ग्रह के स्वामी के रूप में रूपांतरित कर लिया है। आज वह स्वयं ईश्वर बन जाने कगार पे खड़ा है।" इसके बावजूद हरारी मानते हैं कि आज इंसान नहीं जानता कि वह चाहता क्या है। आज वह जितना गैरजिम्मेदार है उतना पहले कभी नहीं था। पुस्तक का समापन हरारी इं पंक्तियों से करते हैं जिसमें उनके समूचे दर्शन का सार है - "क्या एक गैरजिम्मेदार और असंतुष्ट ईश्वर से ख़तरनाक कोई चीज़ हो सकती है, जिसे यह पता ही नहीं कि आख़िर वह चाहता क्या है।" कुल मिलाकर युवाल नोवा हरारी उत्तर उदारिकृत, वैश्वीकृत, साम्राज्यवादी विश्व की उत्तर आधुनिक संतान हैं, जो किसी विचारधारा में यक़ीन नहीं रखते। जो साम्यवाद से नफ़रत करते हैं और उसे हिन्दू बौद्घ व इस्लाम की तरह ही एक धर्म की संज्ञा देते हैं। दरअसल साम्यवाद के उनके इतने तीखे विरोध के पीछे उनका भय है, क्योंकि साम्यवाद का भूत हर युग में व्यवस्था के भोंपू बुद्धिजीवियों को सताता रहता है। हरारी के लिए पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं। इतिहास गवाह है कि हरेक व्यवस्था अपने पक्ष में बुद्धिजीवी - दार्शनिक पैदा करती है और उसकी ऐसी लार्जर दैन लाइफ तस्वीर पेश करती है कि अच्छे खासे लोग उससे ना सिर्फ़ प्रभावित होते हैं बल्कि उसके शिकार हो जाते हैं। हरारी ऐसे ही बुद्धिजीवी हैं जो इसी व्यवस्था के पोषक हैं। वह कहते हैं कि अमीर अमीर इसलिए है क्योंकि वह अमीर घर में पैदा हुआ और गरीब गरीब घर में। वह अमीर अमीर क्यों है और गरीब गरीब क्यों, इसका कोई कारण नहीं बताते। वह भूले से भी वर्ग की बात नहीं करते। महज तथ्यों को सुंदरता से सजा देने से इतिहास नहीं बन जाता। अगर हम वैज्ञानिकता में विश्वास रखते हैं तो हमें उस कार्य कारण व वर्गीय परिप्रेक्ष्य में देखना ही होगा। हमें ऐतिहासिक भौतिकवाद की बात करनी ही होगी। हम सभी जानते हैं कि संज्ञानात्मक क्रान्ति से कृषि क्रान्ति तक पहुंचने में मानवता ने अनथक श्रम किया है, असंख्य कुर्बानियां दी हैं। जिस संज्ञानात्मक क्रान्ति की बात हरारी कर रह रहे हैं उसके लिए हज़ारों लाखों साल का संचित प्रयास लगा है । हरारी इंसानी श्रम की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित नहीं करते। इसके बजाय वह हवा हवाई बातें करते हैं। हरारी तकनीक के दम पर इंसान के भगवान होने का दावा करते हैं। यही सही है कि विज्ञान ने काफी प्रगति की है। पर सवाल ये है कि इस तकनीक पर किसका कब्जा है और वह अंततः किसके हित में काम करता है। सवाल यह भी है कि इस तकनीक के दम पर मानवता के कितने प्रतिशत लोग 'भगवान' हो सके हैं। अपनी इसी प्रस्थपना से संचालित होकर आज हरारी उत्तर कोरोना युग में तकनीक का भय दिखाते हुए समूची मानवता के वर्तमान भविष्य को राज्य के हाथों में सौंप देने के सचेत पोषक बन जाते हैं। हरारी का वही महामानव आज अज्ञात से एक वायरस के सामने कितना विवश नजर आ रहा है। भारत में कॉरोना संकट के बाद हुए लॉकडॉउन के बाद सड़कों पर अपने-अपने घरों की ओर बदहवास भागते बेहाल गरीब मजदूरों की दुर्दशा जगजाहिर है। भोजन की खोज में भटकता वह पहला आदिम श्रमिक आज भी सड़कों पर भूखा प्यासा भटक रहा है। |
Monday, 13 April 2020
सेपिएंस : ए ब्रीफ हिस्टरी ऑफ ह्यूमन काइंड : एक समीक्षा - अमिता शीरीं
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बहुत अच्छी समीक्षा। मानव के महा मानव बनने में उसके सामूहिक श्रम की भूमिका कितनी रही है। इसे फ्रेडरिक एंगेल्स ने "प्रकृति की द्वंद्वात्मक गति की भूमिका" और "बानर से नर बनने में श्रम की भूमिका" में बखूबी बताया है। एक पूंजीवादी बुद्धिजीवी मानव के सामूहिक श्रम को मानव सभ्यता के विकास की कुंजी मानकर निजी मालिकाने की इस व्यवस्था की सेवा कैसे कर पाएगा?
ReplyDeleteसहि विश्लेषण
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