Tuesday 28 April 2020

21 वीं सदी का एक दृश्य-- हरिश्चंद्र पांडेय


 कोरोना लॉक डाउन में जब मध्य और उच्च वर्ग एक दूसरे को "स्टे होम" और "सोशल डिस्टेंसिंग" का संदेश दे रहे थे, पूरी दुनिया ने भारत के मजदूरों का घरों की ओर पैदल लौटने का दृश्य भी देखा। ये घरों की लौटना सामान्य घर लौटना नहीं था, यह उनकी मजबूरी में की गई हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा थी। मजदूरों की इस महायात्रा में वयस्क मजदूर और उनकी भावी पीढ़ी के कई बच्चे मर गए, कुछ  रास्ते में तो कुछ घर पहुंचने के चंद घंटों पहले ही भूख और प्यास से मरे। इन दृश्यों ने लोगों को हिलाकर रख दिया।

कुछ ही साल पहले ओडिसा के दाना मांझी नाम के आदिवासी शख्स का एक चित्र बहुत चर्चित हुआ था, जिसमें वह अपनी बीवी की लाश कंधे पर उठाए बेटी के साथ कई किलोमीटर चला था। इस दृश्य पर
प्रख्यात कवि हरिश्चंद्र पांडेय की एक बेहद मार्मिक कविता है। लीजिए पढ़िए यह कविता और इससे आज दिखने वाले दृश्य का मिलान कीजिए। दोनों आपको एक से ही लगेंगे।
सीमा आज़ाद

मैं बहुत देर तक अपने कंधे के विकल्प ढूंढ़ता रहा
पर सारे विकल्पों के मुहाने पैसे पर ही जाकर गिरते थे
मेरे पास पैसों की जमीन थी न रसूख की कोई डाल
हाथ पांव थे मगर उनमें गुंडई नहीं बहती थी
हां अनुभव था लट्ठों को काट -  काट कर ले जाने का पुराना
मेरी बेटी के पास यह सब देखने का अनुभव था
मुझे जल्दी घर पहुंचना था
अपने घर से बाहर छूट गए एक बीवी के प्राण
घर के जालों-कोने में अटके मिल सकते थे
मेरा रोम-रोम कह रहा था यहां से चलो
मैं जैसे मणिकर्णिका पर खड़ा था किंकर्तव्यविमूढ़
और कोई मुझसे कह रहा था तुम्हारे पास देने के लिए अभी देह के कपड़े बचे हुए हैं
मेरी आंखो ने कहा तुमने मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही को
अपने हत साथी को शिविर की ओर लेे जाते देखा है न
मेरे हाथ- पैर -कंधे समवेत स्वर में बोल उठे थे
यह हमारा साख्य भार है, बोझ नहीं 
मैंने पल भर के लिए अपनी बेटी की आंखो में शरण ली
उपग्रह सी नाचती वह लड़की अभी भी अपनी पृथ्वी की निहार रही थी
मैं बादलों सा फट सकता था
पर बिजली बेटी के ऊपर ही गिरनी थी
उसने भी अपने भीतर एक बांध को टूटने से रोक रखा
उसके टूटने ने मुझे जाने कहां बहा लेे जाना था
हम दोनों एक निशब्द यात्रा पर निकल पड़े....
यात्रा लंबी थी मेरी बच्ची के पांव छोटे
तितलियों के पांव चलने के लिए होते भी कहां हैं
वे तो फूलों पर बैठते वक्त निकलते हैं बाहर
मेरी तितली मेरे कंधों के छालों की ओर देख रही थी बार-बार
ये सब तो वे घाव थे जिन्हें उजाले में देखा जा सकता है और अंधेरे में टटोला
हम दोनों चुप थे मौन बोल रहा था
मौन का कोई किनारा तो होता नहीं
सो कंधे पर सवार मौन भी बोलने लगा था
महाराज आज इतनी ऊंचाई पर क्यों सजाई गई है मेरी सेज?
शबरी के लाडले क्या इसी तरह जताते हैं अपना प्यार?
आज ये कहां से अा गई इन बाजुओं में इतनी ताकत?
तुम्हारा गया हुआ अंगूठा वापस आ गया क्या?
सभी काल अभी मौन की जेब में थे
रास्ता बहुत लंबा था
मेरे हाथ पैर कंधे सब थक रहे थे
याद अा गए वे सारे हाथ
जो दान पात्रों के चढ़ावों को गिनते समेटते थक जाते
मेरे जंगल के साथी पेड़ पौधों ने
मेरी थकान को समझ लिया था
उन सबने मेरे आगे अपनी छायाएं बिछा दीं
मैं ग़मज़दा था मगर आदमी था अस्पताल से चलते समय
पर रस्ते में ये कौन कैसे आ गया
कि मैं दुनिया भर में एक दृश्य में बदल दिया गया
.....हां मैं अब एक दृश्य था
मैं सभ्यता के मध्यान्ह में सूर्यग्रहण का एक दृश्य था
इस दृश्य की देखते ही आंखों की ज्योति चली जानी थी
अनगिनत आंखों का पानी मर जाने पर एक ऐसा दृश्य उपजता है
यह आंखों के लिए एक अपच्य दृश्य था
पर इसे अपच भोजन की तरह उलटा भी नहीं जा सकता था बाहर
यह हमारी 21 वीं सदी का दृश्य था
स्वजन- विसर्जन का आदिम कर पेस्ट नहीं
जब धरती पर न कोई डॉक्टर था न अस्पताल न कोई सरकार
यह मंगल पर जीवन खोजने के समय में
पृथ्वी पर जीवन नकारने का दृश्य था
ग्रहों के लिए छूटते हुए रॉकेटों को देख हमने तो यही समझा था
कि अपने दिन बहुरने की उल्टी गिनतियां शुरू हो गई हैं
पर किसी भी दिन ने यह नहीं कहा कि मैं तुम्हारा कंधा हूं
पता नहीं मैं पत्नी का शव लेकर घर की ओर जा रहा था
या इंसानियत का शव लेकर गुफ़ा की ओर
मैंने सुना है नदियों को बचाने के लिए 
उन्हें जीवित आदमियों का दर्जा दे दिया गया है
जिन्होंने ये काम किया है उन्हें बता दिया जाय
कि दाना मांझी भी एक जीवित आदमी का नाम है।

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