कोरोना वायरसजनित वैश्विक महामारी की चपेट में आयी दुनिया
का उपरिकेंद्र बनकर उभरा है अमेरिका. विश्व के सबसे संपन्न, शक्तिशाली और
पूंजीवाद के अगुवा इस देश में स्वास्थ्य रक्षा, नेतृत्व की कमज़ोरियां और
पूंजीवादी मूल्यों की न सिर्फ़ पोल खुली है, बल्कि दुनिया का कथित सबसे
शक्तिशाली मनुष्य मज़ाक बनकर रह गया है. मशहूर और वयोवृद्ध विचारक एवं
लेखक, जिन्हें करीब 15 साल पहले सबसे महान लोक बुद्धिजीवी माना गया था,
नो'म चॉम्स्की ने इस पूरे परिदृश्य पर विस्तार से बातचीत की है. हिन्दी के
पाठकों को इन गंभीर विचारों एवं मुद्दों पर विमर्श से रूबरू होना चाहिए
इसलिए वार्ता के महत्वपूर्ण अंश भवेश दिलशाद के शब्दों में...
एमी गुडमैन : प्रोफेसर चॉम्स्की से बातचीत की शुरूआत, 2020 में होने जा रहे चुनावों के संदर्भ से शुरू करते हुए जानते हैं कि वो कैसे देख रहे हैं कि नवंबर में क्या होने जा रहा है.
नो'म
चॉम्स्की : अगर ट्रंप दोबारा चुने जाते हैं, तो यह एक वर्णनातीत त्रासदी
ही होगी. इसका मतलब यह है कि पिछले चार सालों से अमेरिकी आबादी समेत पूरी
दुनिया जो बेहद विनाशकारी नीतियां झेलने पर मजबूर है, वही ढर्रा जारी
रहेगा. संभवत: और तेज़ हो जाएगा. इसका मतलब, स्वास्थ्य के क्षेत्र में और
ख़राब दौर होगा. इसका मतलब, पर्यावरण के लिए ख़तरा होगा और जिसकी चर्चा कोई
नहीं कर रहा, न्यूक्लियर युद्ध के ख़तरे का वह मुद्दा बेहद गंभीर और
अवर्णनीय है.
अब मान लीजिए
कि बिडेन चुनाव जीतते हैं तो मुझे लगता है कि ओबामा के कार्यकाल जैसा दौर
आएगा, यानी कुछ बहुत कमाल नहीं होगा, लेकिन कम से कम संपूर्ण विनाशकारी भी
नहीं होगा. बदलाव लाने के लिए संगठित लोक के पास व्यवस्था पर दबाव बनाने के
लिए मौके होंगे.
ऐसा कहा
जा रहा है कि सैंडर्स का चुनाव अभियान नाकाम हो गया. मुझे लगता है यह कहना
भूल है. मुझे लगता है कि यह असाधारण रूप से सफल रहा क्योंकि सैंडर्स के
अभियान ने वाद विवाद और परिचर्चा का रुख़ बदल दिया. जो मुद्दे करीब दो साल
पहले तक सोचे भी नहीं जा रहे थे, वो अब विमर्श के बीचों—बीच हैं. जो
स्थापित व्यवस्था है, उसकी नज़रों में सैंडर्स का सबसे बड़ा गुनाह यह नहीं
कि उन्होंने किन नीतियों का प्रस्ताव रखा, बल्कि ये कि उनके विमर्श से नयी
प्रेरणा मिली, और वो आंदोलन, जो भीतर ही कहीं पनप रहे थे, ऊर्जावान आंदोलन
में बदलते गये. अस्ल में, ऐसे आंदोलन सतत दबाव बनाये रखते हैं, इसे आप
आंदोलनात्मक सक्रियतावाद कह सकते हैं.
सबके
लिए स्वास्थ्य सुरक्षा या मुफ़्त उच्च शिक्षा, सैंडर्स के कार्यक्रम के
अन्य बड़े मुद्दे रहे. तथाकथित मुख्यधारा के नज़रिये से इसे वामपंथ कहा जा
रहा है और अमेरिकियों के लिए अतिवाद या उग्र सुधारवाद कहकर इसकी आलोचना की
जा रही है. लेकिन, ज़रा विचार कीजिए. किस बात को अतिवादी कहा जा रहा है? कि
हम उन देशों के बराबर उठ सकें, जिनसे हमारी तुलना होती है. उन तमाम देशों
में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा किसी न किसी रूप में है. उनमें से कई देश
मुफ़्त उच्च शिक्षा देते हैं - फिनलैंड, जर्मनी जैसे देश तो राष्ट्रीय स्तर
पर बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं. यही नहीं, हमारे दक्षिण में तुलनात्मक
ग़रीब देश मेक्सिको तक उच्च गुणवत्ता की उच्च शिक्षा मुफ़्त देता है. तो,
बाक़ी दुनिया के मानकों तक उठने को अमेरिकियों के लिए अतिवाद कहा जा रहा
है. यह हैरतअंगेज़ टिप्पणी है. मैं कहता हूं, कि यह अमेरिका के किसी जानी
दुश्मन द्वारा की जाने वाली आलोचना है.
इस
पूरे परिदृश्य का वामपंथ यह है, जो आपको बताता है कि हमारे पास वास्तव में
गंभीर समस्याएं हैं. सिर्फ़ ट्रंप ही नहीं. बल्कि उन्होंने स्थितियां और
खराब कर दी हैं. मसलन, मैंने वेंटिलेटर संकट के बारे में पहले भी समझाया
है. यह समझना चाहिए कि विषम स्थितियों से निपटना सरकार का काम है लेकिन इन
स्थितियों में सरकार को बेअसर करने वाले पूंजीवादी तर्क पर व्यवस्था आधारित
है, जिसके कारण समस्याएं बेहद गहरा गयी हैं. ट्रंप की अपेक्षा ये समस्याएं
काफी गहरी हैं. हमें, इन तथ्यों का सामना करना पड़ेगा. कुछ करते हैं. मुझे
ठीक याद नहीं, लेकिन शायद आपने जनवरी में इस बारे में 'क़यामत के दिन' थीम
पर रिपोर्टिंग की थी. है ना?
एमी गुडमैन : जी हां.
नो'म
चॉम्स्की : देखिए हुआ क्या. ट्रंप के कार्यकाल के दौरान 'डूम्स डे घड़ी'
में मिनट का कांटा आधी रात के पास तक खिसका. समापन अपने अंतिम चरण की
स्थिति में दिखा. इस जनवरी में इसमें और इज़ाफ़ा हुआ. विश्लेषणों ने मिनट
के बाद सेकंड्स की तरफ रुख किया: आधी रात से सिर्फ़ 100 सेकंड दूर, और यह
सब ट्रंप का कमाल है!
और
तो और, आदमख़ोर साबित हो चुकी रिपब्लिकन पार्टी तो अब एक राजनीतिक पार्टी
के तौर पर काबिलियत तक खो चुकी है. बेहयाई की इन्तहा ये है कि इसमें कोई
ग़ैरत तक नहीं बची है. यह सब देखना वाक़िई ताज्जुब की बात है. ट्रंप ने खुद
के आसपास चाटुकारों का ऐसा घेरा बना लिया है, जो सिर्फ़ उनकी कही बात को
जपते रहते हैं. लोकतंत्र पर इससे बड़ा वास्तविक हमला क्या होगा, बल्कि
मानवता के अस्तित्व पर हमला? यह सब देखना आश्चर्यजनक है...
हालिया
कुछ घटनाक्रमों में आंदोलनकारियों ने सत्ता पर दबाव बनाया और इन लोगों पर
साख बचाने का संकट देखा गया. हमने कुछ विचारणीय उदाहरण देखे. उदाहरण के लिए
ग्रीन न्यू डील. मानवता की उत्तरजीविता (सर्वाइवल) के लिए ग्रीन न्यू डील
के कुछ प्रारूप ज़रूरी हैं. दो साल पहले तक, इसे सिरे से ख़ारिज किया जाता
था और, अब यह सामान्य एजेंडा का हिस्सा है. क्यों? आंदोलन की लगातार
सक्रियता. ख़ास तौर से नौजवानों के समूह सनराइज़ आंदोलन की भूमिका
महत्वपूर्ण रही, जो कांग्रेशनल दफ़्तरों तक पहुंच बना सके. इन्हें
एलेग्ज़ेंड्रिया ओकैज़ियो—कॉरटेज़ जैसी विधायी हस्तियों का सहयोग मिला, जो
सैंडर्स प्रेरित लहर से प्रभावित थे — यह सैंडर्स की एक और बड़ी कामयाबी
रही. मैसैचुसेट्स के सीनेटर एड मर्की ने भी सहयोग किया. अब यह डील विधायी
एजेंडे का हिस्सा है. अब अगला क़दम होना चाहिए कि इसे किसी व्यवहार्य रूप
में बल मिले, और इसके लिए सार्थक विचार हैं भी. बहराहल, इस तरह से बदलाव
मुमकिन है.
बिडेन
राष्ट्रपति बनते हैं तो, भले ही बेहद दयालु प्रशासन न हो, लेकिन कम से कम
दबाव बनाने की गुंजाइश होगी. और यह बहुत महत्वपूर्ण है. समाज में संस्थागत
बदलावों के संदर्भ में कामगार लोगों की कोशिशों को लेकर अध्ययन करने वाले
मार्के के श्रम इतिहासकार एरिक लूमिस ने एक दिलचस्प बिंदु प्रस्तुत किया
था; ये कोशिशें तब कामयाब हुईं, जब प्रशासन दयालु था और तब नहीं, जब नहीं
था. यह बड़ा मुद्दा है — यह बहुत बड़ा अंतर है मनोरोगी (सोसिओपैथ) ट्रंप और
बिडेन के बीच, जिन पर आप येन केन प्रकारेण दबाव बना सकते हैं. वास्तव में,
मानव इतिहास में यह चुनाव सबसे महत्वपूर्ण होने जा रहा है. ट्रंप के और
चार साल, और हम भारी संकट में होंगे.
एमी गुडमैन : संयुक्त राज्य अमेरिका, दुनिया का सबसे अमीर देश, कैसे वैश्विक महामारी का केंद्र बन गया?
नो'म
चॉम्स्की : कई देशों ने कई तरह से क़दम उठाये, किसी ने अधिक सफलतापूर्वक
तो किसी ने कम. इस लिस्ट में जो सबसे नीचे के पायदान पर रहे, उनमें हम हैं.
बड़े देशों में संयुक्त राज्य इकलौता है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन को
आंकड़े तक मुहैया नहीं करवा सका क्योंकि यहां अकर्मण्यता है.
इसका
एक बैकग्राउंड है. यहां का लज्जाजनक और घोटालेबाज़ स्वास्थ्य सुरक्षा
सिस्टम, जो सामान्य से ज़रा भी अलग किसी परिस्थिति के लिए तैयार नहीं है.
यानी यह किसी काम का है ही नहीं. यह वॉशिंग्टन के कुछ अजीब से गुंडों
बदमाशों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया है, जिन्होंने इसे बद से बदतर करने
की हर मुमकिन करतूत की है. ट्रंप ने अपने पिछले चार साल के कार्यकाल में
व्यवस्थित ढंग से, सरकार के स्वास्थ्य संबंधी हर पहलू को कमज़ोर किया है.
पेंटागन (अमेरिकी रक्षा विभाग का मुख्यालय) बढ़ रहा है, दीवारों के निर्माण
बढ़ रहे हैं लेकिन स्वास्थ्य जैसा हर वो पहलू, जो सामान्य आबादी के लाभ से
जुड़ा है, उसका स्तर नीचे गिर रहा है.
उदाहरण
के तौर पर, अक्टूबर में ट्रंप ने एक संयुक्त राज्य प्रोजेक्ट को पूरी तरह
रद्द कर दिया, कहा गया था — यह प्रोजेक्ट चीन समेत तीसरी दुनिया में काम कर
रहा था और जिनमें महामारी की आशंका है, ऐसे वायरसों को चिह्नित करने की
कोशिश कर रहा था. हक़ीक़त तो यह है कि इस तरह के अंदाज़े तबसे लग रहे थे —
जबसे 2003 में सार्स महामारी फैली थी. अब अगर हम चाहते हैं कि नयी
महामारियों से बचें, जो इससे भी ज़्यादा गंभीर हो सकती हैं क्योंकि ग्लोबल
वॉर्मिंग का खतरा तो पंख फैला ही रहा है, हमें जड़ को देखना होगा. और,
लगातार उस पर विचार करना होगा. वैश्विक महामारियों की आशंका वैज्ञानिकों ने
सालों से जता दी थी. सार्स काफी गंभीर था. हालांकि, उस पर किसी तरह काबू
पाया गया था और वैक्सीन के विकास के काम की शुरूआत थी, लेकिन यह काम कभी
जांच के स्तर पर नहीं पहुंचा. उस वक्त भी यह तय था कि कुछ और होने वाला है,
कई महामारियां आने वाली हैं.
लेकिन
इतना जान लेना ही काफी नहीं है. किसी को इस दिशा में कारगर क़दम भी उठाने
चाहिए. किसे? बेशक़, दवा कंपनियों को स्वाभाविक तौर पर इस दिशा में काम
करना चाहिए था लेकिन उन्होंने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली. इन कंपनियों के
पास एक पूंजीवादी तर्क है : बाज़ार को समझो और एक आशंकित या मनगढ़ंत
त्रासदी के लिए तैयारी में कोई लाभ नहीं है. इसलिए इन कंपनियों का रुझान
ऐसे टीकों या दवाओं की तरफ रहा ही नहीं.
यहां
से, सरकार की एक और ज़िम्मेदारी बनती है, लेकिन सरकार दख़ल नहीं दे सकती.
उम्र का तकाज़ा है कि मुझे याद है कि कैसे सरकार की एक पहल और फंडेड
प्रोजेक्ट की मदद से पोलियो के आतंक के ख़िलाफ लड़ाई में आख़िरकार सल्क
वैक्सीन तक बात पहुंची, जिसे मुफ़्त रखा गया, कोई इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी
अधिकार नहीं. डॉ. जॉनस सल्क ने कहा था कि इसे धूप की तरह मुफ़्त होना
चाहिए. तो ऐसे पोलिया का आतंक ख़त्म हुआ, चेचक और दूसरे कहर भी ख़त्म हुए.
लेकिन आधुनिक समय में सरकारें नवउदारवाद के रोग से ग्रस्त हैं. क्या आपको
रॉनाल्ड रीगन की वह हंसी और वह छोटा सा सूत्र याद है कि कैसे सरकार समस्या
है, हल नहीं.
इस समय
न्यूयॉर्क और दूसरी जगहों पर डॉक्टर और नर्स यह दुखद फ़ैसला लेने पर मजबूर
हैं कि किसे मरने दिया जाये — यह कोई अच्छा फ़ैसला नहीं है — ऐसा इसलिए है
क्योंकि उनके पास ज़रूरी उपकरण नहीं हैं. ख़ास तौर से, वेंटिलेटरों की तो
भारी कमी है. ओबामा प्रशासन ने हालांकि, इस स्थिति की तैयारी के लिए
कोशिशें की थीं. कैसे कोशिश नाकाम हुई और त्रासदी की भूमिका रची गयी.
उन्होंने एक छोटी कंपनी से संपर्क किया था, जो अच्छी क्वालिटी के कम कीमत
के वेंटिलेटर बना रही थी. फिर यह हुआ कि फैंसी, महंगे वेंटिलेटर बनाने वाली
एक बड़ी कंपनी कोविडियन ने उसे ख़रीद लिया. माना जा सकता है कि बड़ी कंपनी
किसी तरह की प्रतिस्पर्धा नहीं चाहती थी. कुछ ही समय में, यह कंपनी सरकार
के पास गयी और कहा कि कम दाम के वेंटिलेेटरों के प्रोजेक्ट का समझौता ख़त्म
किया जाये. कारण था कि इसमें ख़ास मुनाफ़ा नहीं है इसलिए ऐसे वेंटिलेटर
नहीं बनेंगे.
यही हाल
अस्पतालों का है. नवउदारवादी कार्यक्रमों के तहत इन अस्पतालों को होना तो
सक्षम चाहिए लेकिन वास्तव में, मुझ सहित कई लोग गवाही दे सकती हैं कि सबसे
अच्छे अस्पताल भी मरीज़ को दुख ही देते हैं. इसकी वजह निजी क्षेत्र के
हाथों में स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली का लाभ आधारित होना है.
तो
हमारे पास पूंजीवादी तर्कों का एक पूरा गुच्छा है, जो जानलेवा है लेकिन इस
पर नियंत्रण हो सकता था, लेकिन, यह अनियंत्रित भी है, सिर्फ़ नवउदारवादी
कार्यक्रमों के तहत. जिसका कहना यह है कि निजी क्षेत्र अगर नाकाम भी साबित
हो तो भी सरकार दख़ल नहीं दे सकती. तुर्रा यह है कि संयुक्त राज्य में यह
सब जैसे आम हो गया है — वॉशिंग्टन में दीर्घाकार समस्याओं को उपजा रही एक
दुष्क्रियाशील सरकार का सनक भरा शो हमें देखना पड़ रहा है. ट्रंप के पूर
कार्यकाल के दौरान, बल्कि उसके पहले से भी वैश्विक महामारी को लेकर आशंकाएं
थीं, लेकिन ट्रंप का जवाब तैयारी की कोई ज़रूरत न होना था. आश्चर्य तो यह
है कि वैश्विक महामारी के सच में आ जाने के बाद भी यही जवाब रहा.
जब
स्थिति गंभीर हो चुकी थी, तब 10 फरवरी को ट्रंप ने आने वाले साल का बजट
जारी किया. एक नज़र इस पर डालें. रोग निवारण केंद्र यानी सीडीसी सहित
स्वास्थ्य संबंधी अन्य सरकारी संस्थानों के बजट में कटौती का सिलसिला जारी
रखा गया. और किसकी फंडिंग बढ़ाई गई? जीवाश्म ईंधन निर्माता कंपनियों की
सब्सिडी लगातार बढ़ायी गयी. मेरा मतलब है कि यह देश, शायद नहीं बल्कि सच
में, सोसिओपैथ चला रहे हैं.
नतीजतन,
हमने बढ़ती जा रही वैश्विक महामारी से लड़ने की तैयारी तो की नहीं, बल्कि
पर्यावरण के लिए और ख़तरे बढ़ाने के क़दम उठाये. संयुक्त राज्य, ट्रंप के
प्रशासन में रसातल की दौड़ में आगे निकलने की कोशिशें कर रहा है. मुझे
बताने की ज़रूरत नहीं कि कोरोना वायरस से ज़्यादा बड़ा ख़तरा यह है.
संयुक्त राज्य में हम किसी तरह यानी भारी कीमत चुकाकर इससे उबरेंगे. लेकिन,
ध्रुवीय बर्फ की चादर जो पिघल रही है, उसके अंजाम हम समझ सकते हैं कि कैसे
काले समुद्रों का स्तर बढ़ेगा. वॉर्मिंग भी बर्फ़ पिघलाने में मददगार है.
विनाश के कारणों में यह एक होगा, अगर हमने कुछ ठोस नहीं किया तो.
यह
कोई गुप्त बात नहीं रही. एकदम ताज़ा उदाहरण के तौर पर अमेरिका के सबसे
बड़े बैंक जेपी मॉर्गन चेज़ की उस चेतावनी का दो हफ़्ते पहले ही लीक होना
है जिसमें कहा गया, 'मानवता के ज़िंदा बने रहने' पर संकट है अगर हमने
मौजूदा चाल चलन जारी रखा. ख़ुद जीवाश्म ईंधन उद्योगों के लिए फंडिंग कर रहे
बैंक का कहना था कि हम मानवता के अस्तित्व को ख़तरे में डाल रहे हैं.
ट्रंप प्रशासन में जिसने भी अपनी आंखें खुली रखी हैं, वो इन बातों को लेकर
भली भांति जागरूक है. इस स्थिति के लिए शब्द खोज पाना वाक़िई मुश्किल है.
मेरा
मतलब है कि यह सब सुविधाजनक हो गया है. ट्रंप अपनी अयोग्यता और नाकामी का
दोष मढ़ने के लिए कोई बलि का बकरा ढूंढ़ने के लिए बेक़रार रहते हैं. ताज़ा
उदाहरण है विश्व स्वास्थ्य संगठन और चीन पर दोषारोपण. यानी ज़िम्मेदार कोई
और ही है. लेकिन तथ्य साफ़ हैं. चीन ने पिछले साल दिसंबर में फ़ौरी तौर पर
विश्व स्वास्थ्य संगठन को सूचना दी थी कि निमोनिया जैसी किसी अज्ञात बीमारी
के मरीज़ मिले. 7 जनवरी को चीन ने डब्ल्यूएचओ व दुनिया के वैज्ञानिक
समुदाय के सामने ख़ुलासा किया कि चीनी वैज्ञानिकों ने पाया है कि इस बीमारी
का स्रोत सार्स वायरस से मिलता जुलता कोरोना वायरस जैसा था. वो दुनिया को
सूचना दे रहे थे.
अमेरिकी
इंटेलिजेंस इस बारे में जागरूक था. जनवरी और फरवरी में इंटेलिजेंस ने कोशिश
की कि व्हाइट हाउस में कोई ध्यान दे कि एक महामारी दस्तक दे रही है लेकिन
सुनने वाला कोई नहीं था. ट्रंप गोल्फ खेलने या शायद अपनी टीवी रेटिंग चेक
करने में मसरूफ़ थे. हमें यह भी पता चला कि प्रशासन के नज़दीकी और उच्च
पदस्थ अधिकारी पीटर नैवारो ने जनवरी के आख़िरी दिनों में व्हाइट हाउस को
सख़्ती से आगाह करते हुए लिखा था कि यह वाक़िई बड़ा ख़तरा है. लेकिन, तब भी
कान पर जूं नहीं रेंगी.
एमी
गुडमैन : ...क्या आप इन शुरूआती चेतावनियों के बारे में बात करेंगे और
कैसे पीपीई यानी सुरक्षात्मक निजी उपकरण और टेस्टिंग महत्वपूर्ण है?
नो'म
चॉम्स्की : बजट प्रस्ताव बहुत चौंकाने वाले हैं. 10 फरवरी को जब महामारी
फैल चुकी थी, ट्रंप ने सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य संबंधी घटकों के बजट में
कटौती जारी रखी. अस्ल में, एक चालाकी भरी नीति है, मुझे नहीं पता सुनियोजित
है या पूर्वाभास आधारित, लेकिन एक पैटर्न है. एक बयान दिया जाता है, अगले
दिन उसका उलट बयान आता है और फिर कुछ और ही बयान, यह सच में चालाकी है. यह
ट्रंप की निर्दोष बने रहने की चाल है. जो भी होगा, वह कहेंगे कि हमने कह
दिया था. आप बेतरतीब तीर चलाये जा रहे हैं, जिनमें से कुछ निशाने पर अपने
आप लग भी सकते हैं. और तकनीक यह है कि ट्रंप जो कहते हैं उसकी प्रतिध्वनि
जाप के तौर पर फॉक्स और अन्य कुछ चैनल सुनाते रहते हैं. उनका कहना यही होता
है कि जो हुआ, सही हुआ, 'देखिए, हमारे राष्ट्रपति कितने ग़ज़ब के हैं, अब
तक के सबसे महान राष्ट्रपति, जिन्होंने पहले ही ऐसा होना भांप लिया था,
सबूत के तौर पर यह बयान देखिए'.
यह
लगातार झूठ बोलने की भी एक तकनीक है. लेकिन, मेहनती फैक्ट चेकरों की टीम
सब कुछ जोड़—घटाने में बराबर मुब्तिला है. मुझे लगता है कि डेटा निकाला गया
है कि ट्रंप अब तक 20 हज़ार के आसपास झूठ बोल चुके हैं. और वह सिर्फ़ अपनी
हंसी हंस रहे हैं. यह कमाल है. आप लगातार झूठ बोलते जाइए, क्या होगा? सच
बोलने का कॉंसेप्ट ही लुप्त हो जाएगा.
एमी
गुडमैन : ...आप फॉक्स न्यूज़ सुनते हैं — यह सिर्फ़ एक चैनल नहीं बल्कि
ट्रंप के कुछ ख़ास लोगों का समूह है. शायद ये उनके वरिष्ठ सलाहकार रहे हैं.
क्या आप ट्रंप को ज़िम्मेदार मानते हैं? क्या आप कहेंगे कि उनके हाथ ख़ून
से रंगे हैं?
नो'म
चॉम्स्की : इसमें सवाल कैसा! ट्रंप के बेतुके बयानों के गूंजने के चेम्बर
के तौर पर फॉक्स न्यूज़ काम कर रहा है. रिपोर्टिंग की टोन देखिए. कोई भी
होशमंद और तार्किक व्यक्ति कह सकता है कि 'यह बहुत उलझा हुआ और अनिश्चित
दिख रहा है', लेकिन ये लोग पूरे विश्वास से कहते हैं कि सब सही है. इन्हें
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि 'प्रिय नेताजी' ने कहा क्या, बस इन्हें उसे बढ़ा
चढ़ाकर प्रस्तुत करना है. शॉन हैनिटी जैसे पत्रकार कह सकते हैं 'दुनिया के
इतिहास में यही सबसे बड़ा क़दम है'. लेकिन, अगले दिन ट्रंप का फोन फॉक्स के
दफ़्तर में पहुंचेगा और फिर वो जो कहेंगे, वही इन सबके लिए 'आज का
सुविचार' हो जाएगा. मर्डोक (मीडिया मुगल कहे जाने वाले रुपर्ट मर्डोक) और
ट्रंप मिलकर देश और दुनिया के विनाश की कोशिशों की तरफ़ बढ़ रहे हैं, हमें
भूलना नहीं चाहिए कि यह लगातार और पास आता जा रहा वृहत्तर ख़तरा है कि
ट्रंप विनाश के रास्ते पर तेज़ रफ़्तार हैं.
ट्रंप
को साथ भी हासिल है. दक्षिण की तरफ़, एक और सनकी हस्ती है यानी जेयर
बोलसोनारो, जिसने ट्रंप के साथ इस मुक़ाबले में हिस्सा ले रखा है कि इस
ग्रह पर सबसे बड़ा अपराधी कौन है. बोलसोनारो ब्राज़ीलियों से कह रहा है कि
'यह कुछ नहीं है. सिर्फ सर्दी है. ब्राज़ीलियों को वायरस का ख़तरा नहीं है,
हम उनके लिए इम्यून हैं'. जबकि स्वास्थ्य मंत्री, गर्वनर और दूसरे अधिकारी
इसे तरजीह न देकर बता रहे हैं कि 'यह वास्तव में गंभीर है'. ब्राज़ील में
हालात डरावने हो रहे हैं. रियो स्थित दयनीय झुग्गी बस्ती में सरकार लोगों
के लिए कुछ नहीं करती इसलिए दूसरे लोगों ने समझदारी वाले कुछ प्रतिबंधों की
दिशा में कोशिशें शुरू की हैं. किसने? अपराधियों के गैंगों ने! जी हां, जो
जनता पर अत्याचार करते रहे हैं, वही स्वास्थ्य के मालनक समझा रहे हैं.
देसी आबादी एक तरह से जातिसंहार की कगार पर है, लेकिन बोलसोनारो के माथे पर
शिक़न तक नहीं है. दूसरी तरफ, इस पूरे त्रासद घटनाक्रम के बीच वैज्ञानिक
शोध चेतावनी दे रहे हैं कि 15 सालों में एमेज़ॉन कार्बन अवशोषक से कार्बन
उत्सर्जक बनने जा रहा है. यह ब्राज़ील ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए
प्रलयंकर है.
तो उत्तर में
एक प्रकांड साम्राज्य है, जो सोसिओपैथ के हाथों में रहकर देश और दुनिया का
हर संभव नुक़सान करने पर तुला है और दूसरी तरफ़, दक्षिण का एक प्रकांड
साम्राज्य है जो अपने ढंग से यही काम कर रहा है. मैं यह सब नज़दीक से समझ
पा रहा हूं क्योंकि मेरी पत्नी वैलेरिया ब्राज़ीली हैं और ब्राज़ील के बारे
में मुझे अपडेट रखती हैं. और यह सब देखना एक सदमे जैसा है.
लेकिन,
उधर दूसरे कुछ देशों ने समझदारी से क़दम उठाये. चीन से ख़बरों के आते ही
चीन के नज़दीकी देशों ताईवान, दक्षिण कोरिया ओर सिंगापुर आदि ने प्रभावी
ढंग से बर्ताव किया. कुछ ने तो इस संकट पर पूरा नियंत्रण दिखाया. समय पर और
व्यापक लॉकडाउन जैसे क़दमों से न्यूज़ीलैंड ने तो कोरोना वायरस को तक़रीबन
पूरी तरह कुचल दिया. इधर, पूरा यूरोप इस आपदा से थर्रा गया लेकिन बेहतर
ढंग से संगठित कुछ देशों ने ठीक तरह से काम किया. अमेरिकियों के लिए ट्रंप
के उन्मत्त प्रलाप के साथ जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल के शालीन, तथ्यात्मक
और नागरिकों को जागरूक करने वाले बयानों की तुलना करना उपयोगी हो सकता है.
एमी
गुडमैन : नो'म आप एरिज़ॉना के टक्सन स्थित अपने घर में ही सोशल
डिस्टेंसिंग के साथ रह रहे हैं क्योंकि हम सब इस वैश्विक महामारी के दौर
में सचेत हैं कि यह सामुदायिक रूप से न फैले, ऐसे में आपको उम्मीद कैसे
मिलती है?
नो'म चॉम्स्की :
ऐसा है कि मैं एक सख़्त परहेज़ वाला नियम अपनाता हूं क्योंकि मेरी पत्नी
वैलेरिया पूरा ख़याल रखती हैं और मैं उनके आदेश का पालन करता हूं. तो हम
दोनों आइसोलेशन में हैं. अब मुझे उम्मीद कहां से मिलती है, तो दुनिया में
कुछ समूहों के काम और ऊर्जा से. कुछ ऐसे घटनाक्रम हैं, जो वास्तव में,
प्रेरणादायी हैं. मिसाल के तौर पर ख़तरनाक हालात में लगातार दिन रात जूझ
रहे डॉक्टरों और नर्सों की बात कीजिए, जो ख़ासकर अमेरिका में, बुनियादी
ज़रूरतों के अभाव में इस तरह के दर्दनाक फ़ैसले लेने पर मजबूर हैं कि कल
किसे मारा जाएगा. फिर भी, वो अपना काम कर रहे हैं. ऐसे लोकप्रिय कामों के
अलावा प्रगतिशील अंतर्राष्ट्र बनाने वाले क़दम भी सकारात्मक संकेत हैं.
लेकिन,
जब आप ताज़ा इतिहास के पन्ने पलटते हैं, तो ऐसे वक़्त दिखते हैं जब निराशा
और हताशा ही थी. 30 के दशक के अंत और 40 के दशक की शुरूआत के समय, यानी
मेरे बचपन क समय ऐसा लगता था कि नाज़ीवाद की महामारी निष्ठुर है, एक के बाद
एक जीत उसके ही खाते में है. ऐसा लगता था कि इसे रोका नहीं जा सकता. मानव
इतिहास में यह सबसे डरावना अध्याय था. ख़ैर, उस वक्त मुझे नहीं पता था कि
अमेरिकी रणनीतिकार यह सोच रहे थे कि विश्वयुद्ध के बाद दुनिया अमेरिका
नियंत्रित और जर्मन नियंत्रित दो हिस्सों में बंट जाएगी, जिसमें यूरेशिया
शामिल होगा. यह भयानक आइडिया था.
बहरहाल,
तब भी नागरिक अधिकार आंदोलन, युवा स्वतंत्रता सेनानी जैसे कुछ गंभीर लोग
अलाबामा जाकर अश्वेत किसानों को जागरूक कर रहे थे कि भले ही कितना ख़तरा
हो, उनकी जान ही क्यों न चली जाये, लेकिन वो अपना वोट ज़रूर दें. यह मिसाल
थी कि मनुष्य क्या कर सकते हैं और क्या कर चुके हैं. और आज भी हमें ऐसे कई
संकेत मिलते हैं और यही उम्मीद के आधार हैं.
(डेमोक्रेसी
नाउ चैनल ने चॉम्स्की के साथ यह लंबी वार्ता की, जो सोशल मीडिया पर काफ़ी
वायरल हो रही है. चॉम्स्की के इस विमर्श और चिंतन को केवल ट्रंप या अमेरिका
के संबंध में नहीं, बल्कि पूंजीवादी सोच वाले तमाम देशों और नेताओं के
प्रतीक के तौर पर समझना चाहिए, जो आपको दुनिया के कई हिस्सों में दिखायी दे
सकते हैं, यदि आप अपनी आंखें खुली रखें.)
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