पूंजीवादी
विकास का पूरा तंत्र आज तहस-नहस तिनके तिनके बिखर कर लहूलुहान पड़ा है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ कि अमेरिका जैसा घोर पूंजीवादी राष्ट्र अपने तीन सौ साल
के पूंजीवादी विकास के महल को रेत के घरौंदे की तरह बिखरा हुआ महसूस कर
रहा है। यह स्थिति संपूर्ण वैश्विक पूंजीवाद की है। हम पूंजीवादी विकास की
कहानी पर थोड़ा ठहरकर सोचें कि ऐसा क्या हुआ जो दीर्घकाल से बनता आ रहा लौह
पिंजरा एक दो माह के लाकडाऊन को सहन नहीं कर सका? गगनचुंबी उड़ानें
जमींदोज होकर कराह रहीं हैं? इतना आधारहीन खोखला माडल पूरी दुनिया पर राज
कर रहा था जो आंधी के झौंके को भी सहन नहीं कर सका। कोरोनावायरस इसका कारण
नहीं है। इसका कारण इसके अंतर्विरोधों में निहित था। आखिर कोरोनावायरस नामक
महामारी ने इतना विनाशकारी प्रभाव कैसे डाल दिया? यह हमारे पूंजीवादी
तंत्र के इम्यून सिस्टम की कमजोरी की ओर इशारा करती है। एक निहायत ही कमजोर
इम्यून सिस्टम इस तंत्र ने विकसित किया था।
इस बात पर गौर करना ही होगा कि आखिर इस महामारी ने संपूर्ण पूंजीवादी विश्व की आर्थिक व्यवस्था को तहस-नहस कैसे और क्यों कर दिया?
यह
संकट जो पूंजीवादी व्यवस्था पर दिखाई दे रहा है यह कोरोना महामारी का
परिणाम नहीं है, जैसा कि बताया जा रहा है, दर असल यह सिस्टम के अंदर निहित
कंट्राडिक्शन के उभरने का परिणाम है। हमें इस संकट के उभरने के वास्तविक
कारणों यानि कि उन स्थितियों का परीक्षण करना चाहिए जो संकट की पहचान करा
रहीं हैं।
पहली बात जो बहुत स्पष्ट तरीके से उभर कर
सामने आ रही है कि पूंजीवादी तंत्र एक परजीवी पैरासाइट है और यह पैरासाइट
जिस मानव-श्रम के सहारे फलता-फूलता है उसके बिना यह एक माह भी जिंदा नहीं
रह सकता। दूसरा सहारा इसका है राजसत्ता। आज इसे जिंदा रखने के लिए जो भी
वेंटीलेटर ( वेल आउट पैकेज) लगाये जा रहे हैं वे राजसत्ता के द्वारा दी जा
रही आक्सीजन है।
पूंजीवाद जब अपने उभार पर होता है
तो वह कहता है कि सरकारों को बाजार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। बाजार
को बाजार की शक्तियों के सहारे छोड़ देना चाहिए। यही तर्क आज क्यों नहीं
लागू किया जाये। आज तमाम उद्योग सरकारों से लगातार वेल आउट पैकेज की
अपेक्षा क्यों कर रहे हैं? इसका मतलब है कि ये मुनाफे की मलाई चांटने के
समय सरकारों का हस्तक्षेप नहीं चाहते पर संकट आते ही घुटनों के बल सरकारों
के पास खड़े हो जाते हैं।
यह एक ऐसा बिंदू है जिस पर
गहराई से सोचना होगा। कोई भी सरकार इंडस्ट्री को जो भी आर्थिक सहायता
मुहैया कराती है वह पैसा जनता से कर के रूप में उगाहा गया होता है। इसका
मतलब यह है कि सरकारों के पास जो मूल्य रूप में मुद्रा होती है वह मानवीय
श्रम का कर रूप में उगाहा गया श्रम ही होता है। तो सरकारी सहायता का अर्थ
अंततः जनता का श्रम ही वह पूंजी है जिसके बिना यह पूंजीवादी व्यवस्था खड़ी
ही नहीं हो सकती।
अब हम पहले अंतर्विरोध पर विचार
करें जिसे मैंने ऊपर पैरासाइट के फलने-फूलने के आधार के रूप में कहा था।
यानि मानव श्रमशक्ति। यह पूरा संकट कोरोना महामारी का नहीं है यह संकट श्रम
और पूंजी के अंतर्विरोध से उपजा संकट है। इसने पूंजी के पैरासाइट होने को
पूरी तरह उघाड़ दिया है।
पिछले एक डेढ़ माह से यह
तंत्र वेंटीलेटर पर क्यों पड़ा है? इसका अब तक कमाया गया मुनाफा आखिर इतनी
जल्दी कहां चला गया? न तो आसमान ने निगला है और न जमीन इसे लील गयी। कहां
गई विकास की समृद्धि? आखिर बाजार में धन का या पूंजी का संकट कैसे आ गया?
क्या हुआ जो खरबों डालर का मूल्य अचानक गायब हो गया?
मीडिया
के मायाजाल से हटकर थोड़ा गंभीरता से मार्क्स के मूल्य सिद्धांत को समझने
का प्रयास करेंगे तो समझ आ जायेगा कि आज का संकट पूंजीवाद के अंतर्य में
निहित श्रम पूंजी के वास्तविक अंतर्विरोध में निहित था। कोरोना महामारी तो
एक ट्रिगर मात्र है जिसने इस निहित अंतर्विरोध को मुहाने तक ला दिया।
अब
इस संकट का थोड़ा विश्लेषण करना जरूरी है। एक सवाल उठाया जाना चाहिए कि आज
वैश्विक अर्थव्यवस्था के समक्ष जो संकट है वह तरलता न होने का है या मूल्य
पैदा न होने का है। संपूर्ण विश्व इसे मुद्रा की तरलता का संकट मान रहा है
और सरकारें कर्ज लेकर भी मुद्रा की तरलता को बढ़ाने का काम कर रहीं हैं।
पर कई ट्रिलियन डालर की तरलता देने के बाद भी क्या संकट का बाल भी बांका
हुआ? यह तरलता बढ़ाने का काम पूंजीवाद के गुब्बारे में तात्कालिक रूप से
हवा भरने जैसा है। तरलता बढ़ाने के यह प्रयास क्षणिक रूप से इस गुब्बारे को
फुला देते हैं और जैसे ही यह कृत्रिम आक्सीजन कम होती है या व्यवस्था
द्वारा
पचा ली जाती है वैसे ही फिर अंतिम सांसें गिनने लगता है बाजार।
अब
याद कीजिए कि मैंने इसे एक पैरासाइट कहा था और यहभी कि इसका जीवन आधार है
मानव श्रमशक्ति। इसकी प्राणवायु मुद्रा की तरलता नहीं मूल्य का पैदा होना
है, जो पिछले एक से डेढ़ माह में नहीं हो रहा। लाकडाउन से जो श्रमिक अपनी
श्रमशक्ति बेचने से वंचित हो गये, इसके कारण मूल्य पैदा होना बंद हो गया।
याद रखना मार्क्स ने कहा था 'मूल्य का एक मात्र स्रोत है 'सामाजिक रूप से
आवश्यक श्रम समय'। जब कोई वस्तु बाजार में बिकने जाती है तो उस वस्तु में
उपयोगी मूल्य और विनिमय मूल्य उसमें लगे सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम समय से
पैदा होता है। यही श्रमशक्ति पूंजीवाद के लिए अतिरिक्त मूल्य पैदा करती
है, जिस अतिरिक्त मूल्य को हड़पकर पूंजीपति पूंजीपति बनता है। आज क्या नहीं
हो रहा? जिसके कारण यह पूंजीवाद वेंटीलेटर पर आ गया?
इसका
जबाव है कि श्रमशक्ति अपने श्रम बेचने से या अनुपयोगी (कच्चे माल) भौतिक
पदार्थों में श्रम से मूल्य पैदा करने से वंचित कर दिया गया। यह श्रम का न
होना दर असल मूल्य का पैदा नहीं होना है और जब मूल्य पैदा नहीं होगा तो
अतिरिक्त मूल्य पैदा होने का तो सवाल ही नहीं उठता। यही असली संकट है। यह
संकट श्रम और पूंजी के द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध का पूरी तरह उभरकर सामने
आना है।
पूंजीवाद के वेंटीलेटर पर आने का मतलब है कि
यह श्रम के साथ जिस द्वंद्वात्मक अन्विति में पनपता है, वह द्वंद्वात्मक
अन्विति पूरी तरह विच्छिन्न हो चुकी है इसलिए इसकी प्राण वायु विरल होती जा
रही है और इसे सरकारी सहायता के वेंटीलेटर पर आना पड़ा।
इस आलेख का तेवर काफी महत्वूर्ण है. समयानुकूल एवं विषयाश्रित भाषा में यह आलेख एक उम्मीद देता है कि पूंजीवाद के दिन गए. विश्वास करने का मन होता है कि ऐसा ही हो और किसी समाजवादी नज़रिये की व्यवस्था का यहां से सूत्रपात हो. संजीव जी को बधाई.
ReplyDeleteशुक्रिया भवेश जी।
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