वित्तमंत्री ने वर्ष 2021 -22 का बजट पेश करते हुए अब तक का सबसे बड़ा हमला वित्तीय क्षेत्र पर बोला। उन्होंने एल आई सी में आई पी ओ लाने अर्थात एल आई सी के शेयर बेचने, बीमा क्षेत्र मे एफ डी आई की सीमा को 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत करने, पब्लिक सेक्टर की जनरल इंश्योरेंस की चारों कंपनियों मंे से एक का निजीकरण करने तथा पब्लिक सेक्टर के दो बैंको का निजीकरण करने का प्रस्ताव पेश किया। ये चारों प्रस्ताव न केवल देश की आर्थिक संप्रभुता पर कुठाराघात करते हैं बल्कि इससे जनता की बचत पर देशी-विदेशी कारपोरेट के काबिज होने का रास्ता सुगम हो जायेगा। एल आई सी के अतिरिक्त जनरल इंश्योरेंस की कम्पनियाँ न सिर्फ़ पूरे देश के वाहनों और संपत्तियों को बीमा की सुरक्षा देती हैं, बल्कि देश के विकास के लिए बड़ी पूँजी को भी उपलब्ध करा रही हैं। न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस, नेशनल इंश्योरेंस तथा ओरिएण्टल इंश्योरेंस इस समय सार्वजनिक क्षेत्र की चार कम्पनियाँ बड़ी कुशलता और अच्छी सेवा देते हुए पूँजी निर्माण का कार्य कर रही हैं। इन चारों कंपनियों के पास इस समय करीब दो लाख करोड़ की परिसंपत्ति है, जिसमें से एक लाख सत्तर हजार करोड़ रूपये विभिन्न सरकारी योजनाओं में लगे हुए हैं।
वित्तीय क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण किसी भी देश के इतिहास मे एक क्रांतिकारी कदम होता है। राष्ट्रीयकरण से जनता की हिस्सेदारी संसाधनों पर स्थापित होती है। वित्तीय क्षेत्र अनिवार्य रूप से सरकार के नियंत्रण मे होने चाहिए। 1956 मे 245 देशी-विदेशी जीवन बीमा कंपनियों को मिलाकर एल आई सी की स्थापना, 1969 से 1980 तक मे 28 निजी बैंकांे का राष्ट्रीयकरण तथा 1972 मे 106 निजी कंपनियों को मिलाकर सार्वजनिक क्षेत्र की जनरल इंश्योरेंस कंपनियों के स्थापित होने के पश्चात देश के चहंुमुखी विकास ने गति पकड़ना शुरू किया। एल आई सी की ही तरह से जी आई सी ने न केवल राष्ट्र निर्माण में विशाल पूँजी का निर्माण किया, बल्कि सेवा की भी अद्भुत मिसाल पेश की। वर्ष 2000 से निजी कम्पनियाँ पुनः जनरल इंश्योरेंस मे उतरी, तो सार्वजनिक क्षेत्र की चारों कंपनियों ने उन्हें लगातार कड़ी टक्कर दी। वर्ष 2020-21 मे जहाँ लगभग 40 प्रतिशत आम बीमा व्यवसाय पर चार जनरल इंश्योरेंस कम्पनियों की हिस्सेदारी रही वहीं 33 निजी बीमा कम्पनियाँ मिलकर 60 प्रतिशत व्यवसाय ही कर पाईं। इतना ही नहीं, ये चारों राष्ट्रीयकृत आम बीमा कम्पनियाँ महानगरों, शहरों के अतिरिक्त पाँच हज़ार की आबादी तक के कस्बों तक में अपनी शाखाएं खोलकर अपनी सेवाएं दे रही हैं वहीं निजी आम बीमा कम्पनियाँ केवल महानगरों और बड़े क़स्बों तक ही अपने को सीमित रखती हैं। बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण के पास जहाँ निजी कंपनियों की 82 प्रतिशत शिकायतें लंबित हैं, वहीं सरकारी कंपनियों की मात्र 18 प्रतिशत। जन सरोकारों में तो सरकारी जनरल इंश्योरेंस कंपनियों का कोई जवाब नही। प्रति 100 रूपये प्रीमियम पर सार्वजनिक क्षेत्र की आम बीमा कम्पनियाँ 265 रूपये का भुगतान करती हैं। भारत सरकार की दो बहुप्रचारित योजनाएँ ‘प्रधानमंत्री जीवनसुरक्षा योजना’ और ‘आयुष्मान भारत योजना’ सार्वजनिक क्षेत्र की चारों आम बीमा कंपनियों के सहारे ही चल रही हैं। प्रधानमंत्री जीवन सुरक्षा योजना मे मात्र 12 रूपये मे दो लाख रूपये की दुर्घटना बीमा की सुरक्षा प्रदान की जाती है तथा ‘आयुष्मान भारत योजना’ के अंतर्गत गरीब तबके को पाँच लाख तक की मेडिकल सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।
देश के विकास के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने तथा जनता को उच्चस्तरीय सेवा प्रदान करने के बावजूद भी मोदी सरकार जनरल इंश्योरेंस को निजी हाथों मंे सौंपने पर आमादा है। वर्ष 2015 मे सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की चारों जनरल इंश्योरेंस की कंपनियों के 49 प्रतिशत शेयर बेचने के लिए जनरल इंश्योरेंस बिजिनेस (नेशनलाइजेशन) एक्ट (ळप्ठछ।) 1972 मे संशोधन कर दिया। परन्तु जब सरकार के इस कदम का विरोध हुआ तो सरकार द्वारा इस एक्ट मे सेक्शन 10बी को जोड़कर संसद मे यह आश्वासन दिया कि सरकार हर हालत मे सार्वजानिक क्षेत्र की जनरल इंश्योरेंस कंपनियों मे इसकी हिस्सेदारी को 51 प्रतिशत से कम नही रखेगी। परन्तु सरकार ने संसद के पटल पर 2015 पर अपने दिए गये आश्वासन से वर्ष 2021-22 का बजट पेश करते हुए 1 फरवरी को पलट गयी जब उसने पब्लिक सेक्टर की एक बीमा कंपनी के निजीकरण की निर्मम घोषणा की। इस हेतु कोरोना काल में आनन-फानन में ळप्ठछ। -1972 के सेक्षन 10ब को हटा दिया। अर्थात अब सरकार के लिए यह बाध्यता नही है कि वह आम बीमा मे अपनी हिस्सेदारी को 51 प्रतिशत तक रखे। इसके अतिरिक्त ळप्ठछ। -1972 में सेक्शन 24बी जोड़ दिया गया, जिसके अनुसार जनरल इंश्योरेंस की जिन कंपनियों मे सरकारी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम है उसमें राष्ट्रीयकरण के सारे प्रावधान अपने आप निरस्त हो जाते हैं। सरकार पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को बेचने की इतनी जल्दी में है कि उसने एक कंपनी युनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस का नाम भी निजीकरण के लिए घोषित कर दिया था, परन्तु 17 मार्च और 4 अगस्त की जनरल इंश्योरेंस की जबरदस्त हड़ताल तथा सैकड़ांे सांसदों को निजीकरण के खिलाफ ज्ञापन देने के अभियान के चलते अभी सरकार ने युनाइटेड इंडिया का नाम वापस ले लिया है। अब किसी भी कंपनी को सरकार ने बेचने के लिए संसद से रास्ता साफ़ करा लिया है।जनरल इंश्योरेंस तथा अन्य वित्तीय क़ानूनों मे संशोधन सरकारें समय-समय पर कर सकती हैं, पर उसके लिए संसदीय नियमों को ताक पर नही रखा जा सकता। सरकार जानती है कि राज्य सभा मंे इसके पास बहुमत नही है और कोई भी संशोधन आसानी से पास नही किया जा सकता है इस लिए सभी संसदीय मर्यादाओं का गला घोंटने से भी सरकार गुरेज नही कर रही है। जनरल इंश्योरेंस संसोधन विधेयक पर ए आई ए डी एम के को छोड़कर सभी विपक्षी सांसद एक मत थे कि बिल को स्थाई समिति को भेजा जाय और इसकी खामियों पर चर्चा किया जाये, परन्तु सरकार ने विरोध की आवाज़ को मार्शलों के द्वारा दबाते हुए बीमा बिल को ‘लाठी’ के बल पर पारित करा लिया। महिला सांसदों का यहाँ तक कहना था कि मार्शलों ने उनके साथ मारपीट की। इसी प्रकार एल आई सी में प्रस्तावित आई पी ओ के रास्ते को साफ़ करने के लिए मोदी सरकार ने बीमा संसोधन अधिनियम को बजट के साथ पारित कराकर मान्य संसदीय परंपरा का गला घोंटा।बैंको के राष्ट्रीयकरण से देश की विकास की गति में आमूल चूल परिवर्तन आया। जनता के बचत की विशाल राशि जनता के ऊपर खर्च होने लगी। सस्ते कृषि ऋण, उद्योग ऋण, गृहनिर्माण ऋण आदि के चलते देश के कृषि और उद्योग दोनों ने तेज रफ़्तार पकड़ी और भारत एक अल्पविकसित देश से विकासशील देश की श्रेणी में आ गया। परन्तु 1991 मंे जब से देश में नई आर्थिक औद्योगिक नीतियाँ घोषित की गयीं, कारपोरेट हर हालत में प्रत्येक सरकारी क्षेत्र को अपने कब्जे मंे लेना चाहते हैं। वित्तीय क्षेत्र पर नव उदारवादी नीतियों की सबसे ज़्यादा मार पड़ रही है। सरकारी क्षेत्र के बीमा और बैंक दोनों पर सरकार एक साथ प्रहार कर रही है। अपनी बजट घोषणा का अक्षरशः पालन करते हुए मोदी सरकार ने दो सरकारी बैंकों- इंडियन ओवरसीज बैंक और सेन्ट्रल बैंक का निजीकरण करने की घोषणा करके अटकलों पर विराम लगा दिया कि किन दो बैंको को बेंचा जायेगा। देश की चल-अचल संपत्तियों पर सीधा प्रहार अब हो रहा है तथा इन्हें औने- पौने दाम पर बेचने के लिए सरकार बेचैन है। देश की चल संपत्ति मुख्यतः बैंकांे में जमा है। अचल संपत्तियाँ किसानों की ज़मीने हैं। एक अनुमान के अनुसार देश के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको में करीब 400 लाख करोड़ रूपये जमा हैं। इसी बैंक जमा पर देशी विदेशी कारपोरेट गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं। कॉरपोरेट के दबाव मे ही 1995 में बैंकांे मे नरसिम्हान कमेटी और बीमा मंे मल्होत्रा कमेटी का गठन किया गया। नरसिम्हन कमेटी की सिफारिशों के अनुसार बैकों का शेयर बेचना, कर्मचारियों की भर्ती का न होना, बैकों का आपस मे विलय होना आदि शामिल है. वर्तमान समय मे अब 27 बैकों के स्थान पर सार्वजनिक क्षेत्र के 13 बैंक रह गये हैं। भविष्य में केवल पाँच बैंक ही रखने की मंशा सरकार की है। ऐसा बेसिल अंतर्राष्ट्रीय मानक (ठ।ैप्स् छवतउ)के आधार पर सरकार कर रही है, जिससे बैंको की आधार पूँजी बढ़ सके और बैंक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बैंकों के साथ प्रतियोगिता कर सकें। सरकार का यह तर्क पूरी तरह से बेबुनियाद है क्योंकि यदि स्टेट बैंक के सातों सहायक बैंको को स्टेट बैंक में मिलाने के बाद भी स्टेट बैंक पूँजी के आधार पर दुनिया मे 57वें नंबर पर ही पहुँच रहा है। इसी प्रकार यदि भारत के सभी पब्लिक सेक्टर के बैंको को आपस में मिला दिया जाय, तब भी वह दुनिया के बीस सबसे बड़े बैंको मे शुमार नही हो पायेगा। इसीलिये बैंको के आपस में मिलने से एक विशाल पूँजी खड़ी हो जायेगी जिस पर शेयर बाजार के माध्यम से देशी-विदेशी कारपोरेट अपना कब्ज़ा जमाएंगे। बैकों के निजीकरण के पक्ष में सरकार का तर्क उनको घाटे में जाने को लेकर है। कोई सरकारी बैंक घाटे मे नही है और न ही दीवालियेपन की स्थिति में ही है। 2008 के वित्तीय संकट के समय दुनिया के सारे बड़े बैंक धराशायी हो गये, वहीं भारत का कोई भी पब्लिक सेक्टर का बैंक न तो घाटे मे गया और न ही दिवालिया ही हुआ। सरकार ने फ़िर भी सबक नही लिया और बड़े बैंक बनाने के लिए अभियान छेड़ रखा है। इसी क्रम मे इलाहाबाद बैंक का इंडियन बैंक में, ओरिएण्टल कामर्स बैंक तथा युनाइटेड कामर्शियल का पंजाब नेशनल बैंक में, सिण्डिकेट बैंक का केनारा बैंक में, देना बैंक और विजया बैंक का बैंक ऑफ बदौड़ा में विलय किया जा चुका है। स्टेट बैंक ऑफ़ बीकानेर एन्ड जयपुर, स्टेट बैंक ऑफ़ हैदराबाद, स्टेट बैंक ऑफ़ मैसूर, स्टेट बैंक ऑफ़ पटियाला, स्टेट बैंक ऑफ़ त्रावनकोर तथा भारतीय महिला बैंक का स्टेट बैंक में विलय हो चुका है। बैंकांे के निजीकरण के पक्ष में सरकार का दूसरा तर्क यह है कि ऋणों की वसूली नही होने के कारण बैंकों में गैर निष्पादित परिसंपत्तियाँ (एन पी ए) लगातार बढ़ रही हैं और बैंक घाटे मंे जा रहे हैं। इसका कारण भी बैंक और इसके कर्मचारी नही हैं बल्कि सरकारी नीतियाँ हैं। जिसके अंतर्गत पूँजीपतियों के दबाव मे अंधाधुंध लोन बाँटे गये और पूँजीपति लोन को वापस करने के बजाय डकार गये। विजय माल्या, नीरव मोदी समेत हज़ारों की संख्या मे बड़े पूँजीपति हैं जिन्होंने पूरे बैंक को बर्बाद कर दिया है और जिनके चलते आज बैंको का एन पी ए बढ़कर 10 लाख करोड़ रूपये से अधिक हो गया है।
वैसे तो पूरा सार्वजानिक क्षेत्र और निजी जीवन नव उदारवादी नीतियों के चलते आक्रांत है, परन्तु वित्तीय क्षेत्र पर हो रहे हमले सबसे भयावह हैं। निजीकरण की इस मुहिम के विरुद्ध बैंक-बीमा कंपनियों तथा ट्रेड यूनियनों ने जबर्दस्त अभियान छेड़ रखा है। 15 से 18 मार्च 2021 तक बैंकांे तथा बीमा क्षेत्र में ज़ोरदार हड़ताल रही। 15,16 मार्च को बैंकांे मे 17 मार्च को जी आई सी में तथा 18 मार्च को एल आई सी में ऐतिहासिक हड़ताल हुई। अभी 4 अगस्त को जी आई सी में पुनः हड़ताल हुई है। निजीकरण के विरुद्ध बैंक कर्मियों ने देशव्यापी हस्ताक्षर अभियान चलाया है तथा बीमा कर्मियों ने पाँच सौ से अधिक सांसदों को ज्ञापन दिया है। लाखों की तादात में पर्चे जनता के बीच बाँटे जा रहे हैं। लेकिन इतने से ही बात बनने वाली नही है। नवउदारवाद और फासीवाद का मज़बूत गठजोड़ इस समय पूरी दुनिया पर काबिज है जिसके विरुद्ध मजबूत राजनैतिक संघर्ष छेड़ना होगा। किसानों, मज़दूरों, कर्मचारियों और समाज के प्रत्येक तबके को कंधे से कन्धा मिलाकर संघर्ष करना होगा, तभी इन्हें शिकस्त दी जा सकती है।लेख लिखे जाने के बाद भाजपा सरकार ने रेलवे, हवाई अड्डों समेत कई क्षेत्रों को निजी हाथों में देने की घोषणा कर दी है। लोगों के गुस्से को देखते हुए, उसने इसे किराये पर देने की बात कही है जिसका नाम दिया है- ‘राष्ट्रीय मुद्रीकरण योजना’। यह इन सभी क्षेत्रों के निजीकरण की ओर तेजी से बढ़ते कदम हैं।
लेखक एलआईसी के कर्मचारी हैं तथा मजदूर यूनियन से जुड़े हैं।
दस्तक नए समय की, अंक सितम्बर अक्टूबर २०२१ में प्रकाशित लेख