Saturday, 18 September 2021

एलआईसी-जीआईसी निजीकरण, वित्तीय क्षेत्र पर सबसे बड़ा सरकारी हमला-अविनाश मिश्र


 वित्तमंत्री ने वर्ष 2021 -22 का बजट पेश करते हुए अब तक का सबसे बड़ा हमला वित्तीय क्षेत्र पर बोला। उन्होंने एल आई सी में आई पी ओ लाने अर्थात एल आई सी के शेयर बेचने, बीमा क्षेत्र मे एफ डी आई की सीमा को 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत करने, पब्लिक सेक्टर की जनरल इंश्योरेंस की चारों कंपनियों मंे से एक का निजीकरण करने तथा पब्लिक सेक्टर के दो बैंको का निजीकरण करने का प्रस्ताव पेश किया। ये चारों प्रस्ताव न केवल देश की आर्थिक संप्रभुता पर कुठाराघात करते हैं बल्कि इससे जनता की बचत पर देशी-विदेशी कारपोरेट के काबिज होने का रास्ता सुगम हो जायेगा। एल आई सी के अतिरिक्त जनरल इंश्योरेंस की कम्पनियाँ न सिर्फ़ पूरे देश के वाहनों और संपत्तियों को बीमा की सुरक्षा देती हैं, बल्कि देश के विकास के लिए बड़ी पूँजी को भी उपलब्ध करा रही हैं। न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस, नेशनल इंश्योरेंस तथा ओरिएण्टल इंश्योरेंस इस समय सार्वजनिक क्षेत्र की चार कम्पनियाँ बड़ी कुशलता और अच्छी सेवा देते हुए पूँजी निर्माण का कार्य कर रही हैं। इन चारों कंपनियों के पास इस समय करीब दो लाख करोड़ की परिसंपत्ति है, जिसमें से एक लाख सत्तर हजार करोड़ रूपये विभिन्न सरकारी योजनाओं में लगे हुए हैं।

वित्तीय क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण किसी भी देश के इतिहास मे एक क्रांतिकारी कदम होता है। राष्ट्रीयकरण से जनता की हिस्सेदारी संसाधनों पर स्थापित होती है। वित्तीय क्षेत्र अनिवार्य रूप से सरकार के नियंत्रण मे होने चाहिए। 1956 मे 245 देशी-विदेशी जीवन बीमा कंपनियों को मिलाकर एल आई सी की स्थापना, 1969 से 1980 तक मे 28 निजी बैंकांे का राष्ट्रीयकरण तथा 1972 मे 106 निजी कंपनियों को मिलाकर सार्वजनिक क्षेत्र की जनरल इंश्योरेंस कंपनियों के स्थापित होने के पश्चात देश के चहंुमुखी विकास ने गति पकड़ना शुरू किया। एल आई सी की ही तरह से जी आई सी ने न केवल राष्ट्र निर्माण में विशाल पूँजी का निर्माण किया, बल्कि सेवा की भी अद्भुत मिसाल पेश की। वर्ष 2000 से निजी कम्पनियाँ पुनः जनरल इंश्योरेंस मे उतरी, तो सार्वजनिक क्षेत्र की चारों कंपनियों ने उन्हें लगातार कड़ी टक्कर दी। वर्ष 2020-21 मे जहाँ लगभग 40 प्रतिशत आम बीमा व्यवसाय पर चार जनरल इंश्योरेंस कम्पनियों की हिस्सेदारी रही वहीं 33 निजी बीमा कम्पनियाँ मिलकर 60 प्रतिशत व्यवसाय ही कर पाईं। इतना ही नहीं, ये चारों राष्ट्रीयकृत आम बीमा कम्पनियाँ महानगरों, शहरों के अतिरिक्त पाँच हज़ार की आबादी तक के कस्बों तक में अपनी शाखाएं खोलकर अपनी सेवाएं दे रही हैं वहीं निजी आम बीमा कम्पनियाँ केवल महानगरों और बड़े क़स्बों तक ही अपने को सीमित रखती हैं। बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण के पास जहाँ निजी कंपनियों की 82 प्रतिशत शिकायतें लंबित हैं, वहीं सरकारी कंपनियों की मात्र 18 प्रतिशत। जन सरोकारों में तो सरकारी जनरल इंश्योरेंस कंपनियों का कोई जवाब नही। प्रति 100 रूपये प्रीमियम पर सार्वजनिक क्षेत्र की आम बीमा कम्पनियाँ 265 रूपये का भुगतान करती हैं। भारत सरकार की दो बहुप्रचारित योजनाएँ प्रधानमंत्री जीवनसुरक्षा योजनाऔर आयुष्मान भारत योजनासार्वजनिक क्षेत्र की चारों आम बीमा कंपनियों के सहारे ही चल रही हैं। प्रधानमंत्री जीवन सुरक्षा योजना मे मात्र 12 रूपये मे दो लाख रूपये की दुर्घटना बीमा की सुरक्षा प्रदान की जाती है तथा आयुष्मान भारत योजनाके अंतर्गत गरीब तबके को पाँच लाख तक की मेडिकल सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।

देश के विकास के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने तथा जनता को उच्चस्तरीय सेवा प्रदान करने के बावजूद भी मोदी सरकार जनरल इंश्योरेंस को निजी हाथों मंे सौंपने पर आमादा है। वर्ष 2015 मे सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की चारों जनरल इंश्योरेंस की कंपनियों के 49 प्रतिशत शेयर बेचने के लिए जनरल इंश्योरेंस बिजिनेस (नेशनलाइजेशन) एक्ट (ळप्ठछ।) 1972 मे संशोधन कर दिया। परन्तु जब सरकार के इस कदम का विरोध हुआ तो सरकार द्वारा इस एक्ट मे सेक्शन 10बी को जोड़कर संसद मे यह आश्वासन दिया कि सरकार हर हालत मे सार्वजानिक क्षेत्र की जनरल इंश्योरेंस कंपनियों मे इसकी हिस्सेदारी को 51 प्रतिशत से कम नही रखेगी। परन्तु सरकार ने संसद के पटल पर 2015 पर अपने दिए गये आश्वासन से वर्ष 2021-22 का बजट पेश करते हुए 1 फरवरी को पलट गयी जब उसने पब्लिक सेक्टर की एक बीमा कंपनी के निजीकरण की निर्मम घोषणा की। इस हेतु कोरोना काल में आनन-फानन में ळप्ठछ। -1972 के सेक्षन 10ब को हटा दिया। अर्थात अब सरकार के लिए यह बाध्यता नही है कि वह आम बीमा मे अपनी हिस्सेदारी को 51 प्रतिशत तक रखे। इसके अतिरिक्त ळप्ठछ। -1972 में सेक्शन 24बी जोड़ दिया गया, जिसके अनुसार जनरल इंश्योरेंस की जिन कंपनियों मे सरकारी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम है उसमें राष्ट्रीयकरण के सारे प्रावधान अपने आप निरस्त हो जाते हैं। सरकार पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को बेचने की इतनी जल्दी में है कि उसने एक कंपनी युनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस का नाम भी निजीकरण के लिए घोषित कर दिया था, परन्तु 17 मार्च और 4 अगस्त की जनरल इंश्योरेंस की जबरदस्त हड़ताल तथा सैकड़ांे सांसदों को निजीकरण के खिलाफ ज्ञापन देने के अभियान के चलते अभी सरकार ने युनाइटेड इंडिया का नाम वापस ले लिया है। अब किसी भी कंपनी को सरकार ने बेचने के लिए संसद से रास्ता साफ़ करा लिया है।
जनरल इंश्योरेंस तथा अन्य वित्तीय क़ानूनों मे संशोधन सरकारें समय-समय पर कर सकती हैं, पर उसके लिए संसदीय नियमों को ताक पर नही रखा जा सकता। सरकार जानती है कि राज्य सभा मंे इसके पास बहुमत नही है और कोई भी संशोधन आसानी से पास नही किया जा सकता है इस लिए सभी संसदीय मर्यादाओं का गला घोंटने से भी सरकार गुरेज नही कर रही है। जनरल इंश्योरेंस संसोधन विधेयक पर ए आई ए डी एम के को छोड़कर सभी विपक्षी सांसद एक मत थे कि बिल को स्थाई समिति को भेजा जाय और इसकी खामियों पर चर्चा किया जाये, परन्तु सरकार ने विरोध की आवाज़ को मार्शलों के द्वारा दबाते हुए बीमा बिल को लाठीके बल पर पारित करा लिया। महिला सांसदों का यहाँ तक कहना था कि मार्शलों ने उनके साथ मारपीट की। इसी प्रकार एल आई सी में प्रस्तावित आई पी ओ के रास्ते को साफ़ करने के लिए मोदी सरकार ने बीमा संसोधन अधिनियम को बजट के साथ पारित कराकर मान्य संसदीय परंपरा का गला घोंटा।

बैंको के राष्ट्रीयकरण से देश की विकास की गति में आमूल चूल परिवर्तन आया। जनता के बचत की विशाल राशि जनता के ऊपर खर्च होने लगी। सस्ते कृषि ऋण, उद्योग ऋण, गृहनिर्माण ऋण आदि के चलते देश के कृषि और उद्योग दोनों ने तेज रफ़्तार पकड़ी और भारत एक अल्पविकसित देश से विकासशील देश की श्रेणी में आ गया। परन्तु 1991 मंे जब से देश में नई आर्थिक औद्योगिक नीतियाँ घोषित की गयीं, कारपोरेट हर हालत में प्रत्येक सरकारी क्षेत्र को अपने कब्जे मंे लेना चाहते हैं। वित्तीय क्षेत्र पर नव उदारवादी नीतियों की सबसे ज़्यादा मार पड़ रही है। सरकारी क्षेत्र के बीमा और बैंक दोनों पर सरकार एक साथ प्रहार कर रही है। अपनी बजट घोषणा का अक्षरशः पालन करते हुए मोदी सरकार ने दो सरकारी बैंकों- इंडियन ओवरसीज बैंक और सेन्ट्रल बैंक का निजीकरण करने की घोषणा करके अटकलों पर विराम लगा दिया कि किन दो बैंको को बेंचा जायेगा। देश की चल-अचल संपत्तियों पर सीधा प्रहार अब हो रहा है तथा इन्हें औने- पौने दाम पर बेचने के लिए सरकार बेचैन है। देश की चल संपत्ति मुख्यतः बैंकांे में जमा है। अचल संपत्तियाँ  किसानों की ज़मीने हैं। एक अनुमान के अनुसार देश के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको में करीब 400 लाख करोड़ रूपये जमा हैं। इसी बैंक जमा पर देशी विदेशी कारपोरेट गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं। कॉरपोरेट के दबाव मे ही 1995 में बैंकांे मे नरसिम्हान कमेटी और बीमा मंे मल्होत्रा कमेटी का गठन किया गया। नरसिम्हन कमेटी की सिफारिशों के अनुसार बैकों का शेयर बेचना, कर्मचारियों की भर्ती का न होना, बैकों का आपस मे विलय होना आदि शामिल है. वर्तमान समय मे अब 27 बैकों के स्थान पर सार्वजनिक क्षेत्र के 13 बैंक रह गये हैं। भविष्य में केवल पाँच बैंक ही रखने की मंशा सरकार की है। ऐसा  बेसिल अंतर्राष्ट्रीय मानक (ठ।ैप्स् छवतउ)के आधार पर सरकार कर रही है, जिससे बैंको की आधार पूँजी बढ़ सके और बैंक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बैंकों के साथ प्रतियोगिता कर सकें। सरकार का यह तर्क पूरी तरह से बेबुनियाद है क्योंकि यदि स्टेट बैंक के सातों सहायक बैंको को स्टेट बैंक में मिलाने के बाद भी स्टेट बैंक पूँजी के आधार पर दुनिया मे 57वें नंबर पर ही पहुँच रहा है। इसी प्रकार यदि भारत के सभी पब्लिक सेक्टर के बैंको को आपस में मिला दिया जाय, तब भी वह दुनिया के बीस सबसे बड़े बैंको मे शुमार नही हो पायेगा। इसीलिये बैंको के आपस में मिलने से एक विशाल पूँजी खड़ी हो जायेगी जिस पर शेयर बाजार के माध्यम से देशी-विदेशी कारपोरेट अपना कब्ज़ा जमाएंगे। बैकों के निजीकरण के पक्ष में सरकार का तर्क उनको घाटे में जाने को लेकर है। कोई सरकारी बैंक घाटे मे नही है और न ही दीवालियेपन की स्थिति में ही है। 2008 के वित्तीय संकट के समय दुनिया के सारे बड़े बैंक धराशायी हो गये, वहीं भारत का कोई भी पब्लिक सेक्टर का बैंक न तो घाटे मे गया और न ही दिवालिया ही हुआ। सरकार ने फ़िर भी सबक नही लिया और बड़े बैंक बनाने के लिए अभियान छेड़ रखा है। इसी क्रम मे इलाहाबाद बैंक का इंडियन बैंक में, ओरिएण्टल कामर्स बैंक तथा युनाइटेड कामर्शियल का पंजाब नेशनल बैंक में, सिण्डिकेट बैंक का केनारा बैंक में, देना बैंक और विजया बैंक का बैंक ऑफ बदौड़ा में विलय किया जा चुका है। स्टेट बैंक ऑफ़ बीकानेर एन्ड जयपुर, स्टेट बैंक ऑफ़ हैदराबाद, स्टेट बैंक ऑफ़ मैसूर, स्टेट बैंक ऑफ़ पटियाला, स्टेट बैंक ऑफ़ त्रावनकोर तथा भारतीय महिला बैंक का स्टेट बैंक में विलय हो चुका है। बैंकांे के निजीकरण के पक्ष में सरकार का दूसरा तर्क यह है कि ऋणों की वसूली नही होने के कारण  बैंकों में गैर निष्पादित परिसंपत्तियाँ (एन पी ए) लगातार बढ़ रही हैं और बैंक घाटे मंे जा रहे हैं। इसका कारण भी बैंक और इसके कर्मचारी नही हैं बल्कि सरकारी नीतियाँ हैं। जिसके अंतर्गत पूँजीपतियों के दबाव मे अंधाधुंध लोन बाँटे गये और पूँजीपति लोन को वापस करने के बजाय डकार गये। विजय माल्या, नीरव मोदी समेत हज़ारों की संख्या मे बड़े पूँजीपति हैं जिन्होंने पूरे बैंक को बर्बाद कर दिया है और जिनके चलते आज बैंको का एन पी ए बढ़कर 10 लाख करोड़ रूपये से अधिक हो गया है।

वैसे तो पूरा सार्वजानिक क्षेत्र और निजी जीवन नव उदारवादी नीतियों के चलते आक्रांत है, परन्तु वित्तीय क्षेत्र पर हो रहे हमले सबसे भयावह हैं। निजीकरण की इस मुहिम के विरुद्ध बैंक-बीमा कंपनियों तथा ट्रेड यूनियनों ने जबर्दस्त अभियान छेड़ रखा है। 15 से 18 मार्च 2021 तक बैंकांे तथा बीमा क्षेत्र में ज़ोरदार हड़ताल रही। 15,16 मार्च को बैंकांे मे 17 मार्च को जी आई सी में तथा 18 मार्च को एल आई सी में ऐतिहासिक हड़ताल हुई। अभी 4 अगस्त को जी आई सी में पुनः हड़ताल हुई है। निजीकरण के विरुद्ध बैंक कर्मियों ने देशव्यापी हस्ताक्षर अभियान चलाया है तथा बीमा कर्मियों ने पाँच सौ से अधिक सांसदों को ज्ञापन दिया है। लाखों की तादात में पर्चे जनता के बीच बाँटे जा रहे हैं। लेकिन इतने से ही बात बनने वाली नही है। नवउदारवाद और फासीवाद का मज़बूत गठजोड़ इस समय पूरी दुनिया पर काबिज है जिसके विरुद्ध मजबूत राजनैतिक संघर्ष छेड़ना होगा। किसानों, मज़दूरों, कर्मचारियों और समाज के प्रत्येक तबके को कंधे से कन्धा मिलाकर संघर्ष करना होगा, तभी इन्हें शिकस्त दी जा सकती है।

लेख लिखे जाने के बाद भाजपा सरकार ने रेलवे, हवाई अड्डों समेत कई क्षेत्रों को निजी हाथों में देने की घोषणा कर दी है। लोगों के गुस्से को देखते हुए, उसने इसे किराये पर देने की बात कही है जिसका नाम दिया है- राष्ट्रीय मुद्रीकरण योजना। यह इन सभी क्षेत्रों के निजीकरण की ओर तेजी से बढ़ते कदम हैं।

लेखक एलआईसी के कर्मचारी हैं तथा मजदूर यूनियन से जुड़े हैं।

दस्तक नए समय की, अंक सितम्बर अक्टूबर २०२१ में प्रकाशित लेख

आगामी उ.प्र. जनसंख्या कानून तानाशाही की अभिव्यक्ति है-इप्शिता

 


जुलाई के माह में उत्तर प्रदेश की  सरकार एक नए कानून के लिए बिल लाई है, जो तमाम मीडिया चैनलों में, अखबारों में, आम पढ़ी लिखी जनता व बड़े लीडरों के बीच बहस का विषय बना हुआ है। यह है- जनसंख्या नियंत्रण कानून। हालांकि भारत के कुछ प्रदेशों में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कुछ नियम पहले से मौजूद हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में लाया जा रहा ये कानून उनसे अलग है।

इस पर तर्क वितर्क करके सही ढंग से समझदारी बनाने के लिए हमने अपने संगठन भगत सिंह छात्र मोर्चा में बहस रखी, जिसमें सभी सदस्य पक्षऔर विपक्षदो गुटों में बंट गए। उस बहस में एक दूसरे के तर्कों को तीखे काटने से यह फ़ायदा हुआ कि सबकी एक बेहतर समझदारी बन पाई। तो आइए, हम भी इस तरीके से इस विषय को समझने की कोशिश करते हैं। यहां मैं संगठन की बहस में आए बिंदुओं को सूत्रबद्ध कर कुछ और बिंदुओ को जोड़ कर पेश कर रही हूं।

पक्ष-विश्व की आबादी साल दर साल तेज़ी से बढ़ती जा रही है, तभी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जनसंख्या को विश्व की बड़ी समस्याओं में से एक घोषित किया गया है। इस जनसंख्या विस्फोट की रोकथाम करना बेहद ज़रूरी हो गया है। यदि अभी से हम ऐसा नहीं करते हैं, तो जनसंख्या वृद्धि सबसे बड़ी समस्या बन सकती है। भारत अपनी 139.5 करोड़ की आबादी के साथ जनसंख्या में चीन के बाद विश्व में दूसरे स्थान पर है। और यह अनुमानित है कि भारत 2050 तक चीन से भी आगे बढ़ सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा। चूंकि उत्तर प्रदेश भारत का सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाला प्रदेश है, इसलिए यह कानून यूपी में लाना बिल्कुल लाज़मी है।

विपक्ष- यदि हम ज़मीनी आंकड़ों को देखें तो पाएंगे कि जनसंख्या विस्फोट जैसा कुछ नहीं है, बल्कि विश्व की जनसंख्या वृद्धि दर 1971 में 2.133 के बाद से हर साल लगातार गिर रही है और 2020 में 1.036 तक पहुंच चुकी है। विश्व की बदलती आर्थिक सामाजिक परिस्थिति देख कर साफ़ कहा जा सकता है कि आगे भी यह दर गिरती रहेगी। कुल प्रजनन दर भी 2019 में 2.4 तक पहुंच गया है (वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार)। यूनाइटेड नेशन्स की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक रूस, जापान, फ्रांस जैसे विकसित देशों की सरकारें तो जनसंख्या वृद्धि की दर को बढ़ाने के लिए नीतियां बना रही है, और इन नीतियों का दर भी बढ़ रहा है।

भारत की बात करें, तो यहां की जनसंख्या वृद्धि दर भी लगातार घट रही है। 1982 में 2.329 से लगातार घट कर यह दर 2020 में 0.989 तक आ गई है, यानि विश्व वृद्धि दर से भी नीचे। हाल ही के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 17 राज्यों में किए सर्वे में से 14 राज्यों का कुल प्रजनन दर 2.1 से भी कम है। यह दर यदि 2.1 से नीचे चला जाता है इसका मतलब कि इसके बाद जनसंख्या घटेगी, इसलिए 2.1 को प्रतिस्थापन दर कहा जाता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत का TFR 2018 में 2.22 था।

अब बात करे उत्तर प्रदेश की तो 2016 में इसका TFR 2.7 था जबकि 1996 में यह 4.06 था। सरकारी आंकड़ों के अनुमानानुसार 2025 तक बिना किसी जनसंख्या नियंत्रण नीतियों के उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर अपने आप प्रतिस्थापन दर तक आ जाएगा।

इन आंकड़ों से यह साफ़ हो जाता है कि जनसंख्या विस्फोट का सिद्धांत एक मिथक है और विश्व एवं भारत के लिए जनसंख्या वृद्धि कोई बड़ी समस्या नहीं है।


पक्ष- जो जनसंख्या कानून उत्तर प्रदेश सरकार ला रही है, उसमें लोगों को अनेकों फायदें मिलेंगे। जो दंपत्ति दो बच्चों के बाद नसबंदी कराते हैं, उनको पानी, बिजली आदि पर सब्सिडी मिलेगी, और घर खरीदने के लिए सस्ता लोन मिलेगा आदि। जो दंपत्ति एक संतान होने के बाद नसबंदी कराते हैं, उनके बच्चे को 20 साल की उम्र तक मुफ़्त इलाज, स्नातक तक मुफ़्त पढ़ाई, शैक्षणिक संस्थान जैसे प्प्डए ।प्प्डै में दाखिले और सरकारी नौकरी में तरजीह, आदि मिलेगी। जो सरकारी नौकरी कर रहे हैं उनको इनके अलावा और भी लाभ मिलेंगे जैसे ज्यादा प्रोमोशन। और तो और जो लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, उनके एक बच्चे के बाद नसबंदी कराने पर सरकार दंपत्ति को एक बार नकद 80 हज़ार रुपए देंगे अगर लड़का है। और 1 लाख रुपए अगर लड़की है। इतनी सारी सुविधाएं से देश की जनता के हालात में बहुत बेहतरी आएगी, इसलिए इस बिल का हमें स्वागत करना चाहिए।

विपक्ष- अपनी जनता की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करना किसी भी लोकतांत्रिक देश में राज्य का कर्तव्य होना चाहिए। सरकार की यह ज़िम्मेदारी है कि वो सुनिश्चित करें कि सबको गुणवत्तापरक व निःशुल्क शिक्षा व स्वास्थ्य और एक सम्मानजनक रोज़गार मिल सके । इसके लिए सरकार को जनता की तरफ़ से टैक्स मिलता है। इसलिए इस बिल में दिए सभी प्रोत्साहन योजनाएं वे सब है जो सरकार का अपनी जनता के प्रति एक आवश्यक कर्तव्य बनता है। सरकार इस बिल के बहाने कोई ख़ास फ़ायदे नहीं दे रही है, बल्कि ये वही जिम्मेदारियां हैं जिनसे सरकार हमेशा भागती रही है।

पक्ष- लेकिन सरकार का ये नियम मानना अनिवार्य नहीं है, स्वैच्छिक है।

विपक्ष- यदि किसी दंपत्ति के दो से अधिक बच्चे होते हैं तब इस कानून के अनुसार वे किसी तरह की सरकारी जनकल्याणकारी योजनाओं से वंचित रहेंगे, राशन कार्ड में केवल 4 ही सदस्यों के नाम, सरकारी नौकरी करने में रोक, लोकल चुनावी इकाइयों में भाग लेने की मनाही, आदि होंगे। ये सब चीजें इसलिए रखी गई ताकि लोग सरकार की बात मानने को मजबूर हो जाएं। तो जाहिर है, ये इच्छा नहीं, बल्कि जबरदस्ती लोगों पर दबाव डालना है।

पक्ष- गरीब लोग जनसंख्या समस्या की जड़ हैं । पहले तो वे 5-10 बच्चे पैदा करते हैं। ऐसे में ज़ाहिर सी बात है कि गरीबों के लिए इतने सारे बच्चों का पेट पालना ही एक बोझ बन जाता है। ज्यादा बच्चों पर खर्च भी ज़्यादा होता है जिसके कारण इनकी आर्थिक स्थिति और कमज़ोर हो जाती है। फिर वे अपने बच्चों से काम करवा कर बाल मज़दूरी जैसे खराब व गैरकानूनी चीज को बढ़ावा देते हैं। खासकर मुस्लिमों का जनसंख्या वृद्धि में बड़ा योगदान है। मुस्लिम अपनी तादाद बढ़ाकर भारत के संसाधनों पर अपना कब्जा करना चाहते हैं।


विपक्ष- गरीब इतने बच्चे पैदा क्यों करते हैं, इस बात को समझना ज़रूरी है। भारत की अधिकतर जनता के हालात इतने बदतर है कि उनको इस बात का पता नहीं होता कि उनके जन्मे बच्चे जीवित रह भी पाएंगे या नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके बच्चे पोषणयुक्त खाना, स्वास्थ्य सुविधाओं व स्वच्छ वातावरण ना मिलने के कारण जीवन और मृत्यु के बीच घूमते रहते हैं। वे 6 बच्चे पैदा करते हैं, तो उनको लगता है कि इनमें से 2-3 बच्चें तो बच पाएं। ज़्यादा बच्चे पैदा करने का दूसरा कारण यह भी है कि कुछ सालों में जब वे बच्चे काम करने योग्य हो जायेंगे, तब घर में कमाई का साधन बन उनको परिवार चलाने में मदद करेंगे और अपने मां बाप के बुढ़ापे का सहारा बनेंगे। तीसरा कारण है, गरीब लोगों में गर्भनिरोधक उपायों के बारे में बहुत कम जागरूकता होती है। साथ ही, हर जगह इनकी उपलब्धता भी नहीं होती और इन पर पैसे लगा कर खरीदना उनके लिए मुश्किल हो जाता है।

इसलिए सरकार यदि सभी के जीने खाने, स्वास्थ्य और शिक्षा की व्यवस्था सुनिश्चित करें, सबको काम या बेरोज़गारी भत्ता दे, गर्भनिरोधक तब खुद ब खुद ये तीनों कारण खतम हो जायेंगे और तब वे बच्चें भी कम पैदा करेंगे। लेकिन किसी सरकार की यह मंशा रही ही नहीं कि वे जनता की मूलभूत आवयकताएं पूरी करे।

चूंकि ज्यादातर मुस्लिम, दलित, आदिवासी व अन्य अल्पसंख्यक ही गरीब होते हैं, तो उनका प्रजनन दर बाकियों की अपेक्षा ज्यादा होता है। रही बात मुसलमानों की, तो समाज में नफरत फ़ैलाने वाले हिंदुत्व तत्व ऐसी झूठी प्रचार जनता के बीच फैलाते है कि मुस्लिम तेज़ी से अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं और ऐसे ही धीरे-धीरे वे भारत पर राज करने लगेंगे। ये सरासर बेबुनियाद बात है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य निरीक्षण के आंकड़े बताते हैं कि जिन औरतों के दो से ज़्यादा बच्चें हैं, उनमें से 83 प्रतिशत औरतें हिंदू हैं। इससे साबित होता है कि जनसंख्या वृृद्धि का मुस्लिम धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन जनसंख्या नियंत्रण बिल मुस्लिम विरोधी है क्योंकि चुनाव से पहले सरकार की इसको लाने की मंशा ही थी कि वह हिंदुओं का मुस्लिमों के प्रति नफरत बढ़ा सके। वरना जिस भाजपा-आरएसएस के ही नेता हिंदुओं को 10 बच्चें पैदा करने का आह्वान करते थे, वहीं पार्टी अब ये बिल क्यों लाएगी । चाहे ये पारित हो या ना हो, इस बिल के ज़रिए हिंदुओं के बीच मुस्लिमों द्वारा ज़्यादा बच्चे पैदा करने का मिथक सरकार और तेज़ी से फैला पाई है।

इस सवाल में दूसरा मिथक कि आप गरीब लोगों को सब समस्याओं के लिए गाली देते हैं। मशहूर विचारक थॉमस माल्थस के हिसाब से गरीब लोग को धरती पर बोझ है। लेकिन मूल बात समझने की यह है कि गरीब लोग आखिर गरीब इसलिए है क्योंकि पूंजीवाद के विकास के लिए एक बड़ी जनता को गरीबी में धकेला जाता है। यदि गरीबों की कुछ संख्या कम कर दी जाय, तब भी यह व्यवस्था और गरीब पैदा करती रहेगी। इसलिए यह जनसंख्या की लड़ाई नहीं बल्कि पूंजी के खिलाफ़ लोगों की लड़ाई है।

पक्ष- विश्व के शक्तिशाली देश जनसंख्या नियंत्रण के हथकंडे अपना कर ही आगे बढ़ पाए हैं। यदि हम चीन को देखें, तो 40 वर्षों से वहां एक बच्चे और 2015 से दो बच्चे ही पैदा करने का कानून है। अमेरिका में भी एक समय में लाखों लोगों की नसबंदी कराई गई। तीसरी दुनिया के देषों की अर्थव्यवस्था सुधारने के उद्देश्य से अमेरिका, इंग्लैंड जैसे देश भी गरीब देशों में जनसंख्या नियंत्रण नीतियों के लिए पूंजी लगाते आए हैं। इसलिए यदि भारत को सही मायने में अपने देश की अर्थव्यवस्था सुधारने है तो इन नीतियों को अपनाना होगा।

विपक्ष- ये तथ्य सही है कि 1960 के दशक से ही विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र संघ व अमेरिकी परोपकारी संगठनजैसे फोर्ड, रॉकफेलर यह बताते हैं कि तीसरी दुनिया की जनसंख्या एक बड़ी समस्या है और यदि इसे नहीं रोका गया तो पर्यावरण को नुकसान होगा और आर्थिक व राजनैतिक अस्थिरता आएगी। अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी परिवार योजना प्रोग्रामों के लिए सहायतादेना शुरू किया था और बाकी अमीर देश जैसे जापान, स्वीडन, इंग्लैंड ने भी अरबों रुपए तीसरी दुनिया के देशों की जनसंख्या घटाने के उद्देश्य से लगाएं।

आइए थोड़ा इसके इतिहास पर बात करें। अत्यधिक जनसंख्या के विचारकों में एक नाम थॉमस माल्थस का आता है को एक अमेरिकी अर्थशास्त्री थे। थॉमस के अनुसार जनसंख्या वृद्धि हमेशा दुनिया के संसाधनों पर भरी पड़ेगी। ये एक बड़ी विपत्ति को जन्म देगी और फिर जनसंख्या में गिरावट  आएगी। उन्होंने गरीबी को इस जनसंख्या समस्या का बड़ा कारक बताया। यह विचारकी माल्थुसियनवाद के नाम से जानी जाती है। एक पश्चिमी बुिद्धजीवी मैथ्यू कनेली ने तो यहा तक कहा कि हम जनसंख्या वृद्धि के खिलाफ़ एक युद्ध लड़ रहे है और युद्ध में कुछ बलिदान और नुकसान तो होता ही है। इंसानी ज़िंदगी के प्रति ये बेहद असंवेदनशीलता को दर्शाता है। इन विचारकों ने जनसंख्या निरोधक कानूनों को लागू करने का बढ़ावा दिया। इसको ज़मीन पर सबसे पहले अमेरिकी सरकार ने उतारा अमेरिकी मूलनिवासियों का जबरन नसबंदी करके। 1977 तक एक चौथाई मूलनिवासी महिलाओं पर नसबंदी की जा चुकी थी और यह नसबंदी ज्यादातर उनकी रजामंदी लिए बिना हुई। जबरन लंबे समय वाले गर्भनिरोधक उपकरणों का इस्तेमाल कराया गया जो उनके स्वास्थ्य के लिए घातक था। ओकलाहमा के एक हॉस्पिटल में किसी भी कारण से एडमिट महिलाओं में से एक चौथाई महिलाओं की नसबंदी कर दी गई थी। जिस तरह अमेरिका ने अपने मूल निवासी और काले लोगों की जनसंख्या पर जबरन नसबंदी और जनसंख्या निरोधक नीतियों का इस्तेमाल किया उसी तरह श्रीलंका ने श्री लंकन तमिल, चीन ने उइगर मुस्लिम, भारत ने अपने देश के दलितों और मुस्लिमों पर यह इस्तेमाल किया। जनसंख्या नियंत्रण कानूनों की नींव शुरू से ही दूसरे समुदायों के प्रति नफ़रत रही है।

एक समय में चीन व अन्य देशों में फैले समाजवाद के खिलाफ मुहिम चलाने की प्रक्रिया में भी जनसंख्या नियंत्रण योजनाओं को इस तर्ज पर पेश किया गया कि यदि गरीब लोगों की संख्या बढ़ेगी तो साम्राज्यवादी अमेरिका के खिलाफ सर्वहारा वर्ग तैयार होगा।

अब भारत पर आएं तो 1960 के दशक से ही सहायता  के नाम पर अमेरिकी राष्ट्रपति ने इंदिरा गांधी से भारत में जनसंख्या नियंत्रण करने पर समझौता किया था। इसके बाद से सभी हस्पतालों में नसबंदी संबंधी उपकरण लाए गए, गांव में कैंप लगवाए जाते थे। लोगों को नसबंदी कराने पर पैसे दिए जाते। यदि इससे भी लोग नहीं आते तो उनको मजबूर किया जाने लगा जैसे मध्य प्रदेश के जिन गांवों में नसबंदी का कोटा पूरा नहीं हुआ, उनको खेती के लिए पानी रोक दिया गया । इन सब के चलते 1967-68 में 18 लाख भारतीय लोगों की नसबंदी कराई गई। फिर 1974 में संयुक्त राष्ट्र का पहला जनसंख्या सम्मेलन रखा गया। 1975 में जब भारत में कांग्रेस ने इमरजेंसी लगाई तब एक साल के अंदर 80 लाख लोगों की नसबंदी की गई जिनमें से ज्यादातर गरीब दलित, मुस्लिम थे। यह जबरन किया गया और ज़मीन, पानी, बिजली, राशन कार्ड, स्वास्थ्य सुविधा, आदि सभी चीजों के लिए नसबंदी अनिवार्य कर दी गई। जिन बस्तियों के लोग स्वेच्छा से आने को तैयार नहीं होते तो उनकी बस्तियां तबाह कर दी गई, मुस्लिम बस्तियों और गांवों को जानबूझ कर निशाना बनाया गया, हजारों विरोधियों को मार दिया गया।

इससे हम देख सकते है कि जनसंख्या नियंत्रण कितना अमानवीय रहा है और कैसे ये साम्राज्यवादी देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों पर जबरन थोपा गया है। भारत में भी जनसंख्या नियंत्रण के मुखौटे में सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को ही आगे बढ़ा रही है, जिसके निशाने में मज़दूर, दलित, आदिवासी, मुस्लिम व औरतें हैं।

पक्ष- इस कानून में गरीबी रेखा से नीचे परिवारों के लिए प्रावधान है कि एक लड़का होने पर 80 हज़ार और लड़की होने पर 1 लाख रुपए दिए जाएंगे। इससे लड़कियां पैदा करने का बढ़ावा मिलेगा और भ्रूण हत्या भी घटेगी। इसलिए ये कानून महिलाओं के पक्ष में है।

विपक्ष-महिलाओं को यह अधिकार होना चाहिए कि वे कब और कितने बच्चें करेंगी। उन्हें अपने शरीर और प्रजनन संबंधी सभी चीजों के निर्णय का अधिकार होना चाहिए। प्रजनन का अधिकार स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संतान और गर्भपात का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।  लेकिन हमारे सामंती व पितृसत्तात्मक देश में यह निर्णय समाज लेता है कि एक औरत के कितने बच्चे होंगे। चूंकि समाज में लड़कों के पैदा होने को ज्यादा वरीयता दी जाती है, महिलाओं पर मानसिक, शारीरिक, नैतिक, हर तरह का दबाव बनाया जाता है कि वे लड़का पैदा करें या कि तब तक पैदा करें जब तक उनकी संतानों में लड़कों की संख्या लड़कियों से ज्यादा नहीं हो जाती। यही नहीं, साम्राज्यवाद भी महिलाओं को इस अधिकार से वंचित रख रहा है। जिस तरह से अपने देश के अल्पसंख्यको व गरीब देशों की महिलाओं की जबरन नसबंदी करवाई जाती है, सीधे तौर प्रजनन की क्षमता ही उनसे छीनी जा रही है। बेशक, यह मानवाधिकार का उल्लंघन है ।

यदि यह कानून लागू हो जाता है तब एक या दो बच्चे में से ही बेटे के पैदा होने का दबाव महिलाओं पर और तेजी से बढ़ जाएगा जिसके कारण ज्यादा और बार-बार अबॉर्शन करने पर उनको मजबूर किया जाएगा और कन्या भ्रूण हत्या में भी कई गुना से बढ़ोतरी होगी। औरतों पर परिवार द्वारा हिंसा भी बढ़ेगी। वर्तमान में भारत का लिंगानुपात 112 पुरुषों में 100 महिलाओं का है। स्वाभाविक है, इस कानून से यह लिंगानुपात और भी खराब हो जाएगा। वस्तुतः यह कानून पूरी तरह से महिला विरोधी है।

यदि महिलाओं और समाज को शिक्षित व जागरूक किया जाए, स्वास्थ्य सुविधाएं, एक स्वस्थ वातावरण उपलब्ध कराया जाए और पितृसत्तात्मक मूल्यों को खत्म किया जाए, तब किसी तरह के जनसंख्या नियंत्रण नियमों की कोई जरूरत नहीं होगी।

पक्ष- जनसंख्या वृद्धि के कारण सभी लोगों के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं है। न खाने को पर्याप्त हो पा रहा है नहीं रहने की पर्याप्त जगह है। इतनी जनसंख्या है कि सब को रोजगार देना भी मुमकिन नहीं। 2019 में भारत में बेरोजगारी दर 23 प्रतिशत तक पहुंच गयी। जनसंख्या के कारण हमारा पर्यावरण भी तेजी से बर्बाद हो रहा है।

विपक्ष- समस्या जनसंख्या नहीं बल्कि यह मुनाफा खोर पूंजीवादी व्यवस्था है। अतीत में जब मशीनी विकास नहीं हुआ था तब सभी के लिए पर्याप्त संसाधन इकट्ठा कर पाना एक संघर्ष था। परंतु पूंजीवाद के आने के बाद से जिस तेजी से उत्पादन बढ़ा है, यह संभव है की विश्व के सभी लोगों के लिए पर्याप्त खाना, रहने को जगह व अन्य सभी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हो सकती है। लेकिन पूंजीवादी विकास मुनाफे पर टिका है। अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए पूंजीपति मजदूरों के श्रम का मूल्य लूटते हैं। वे कम मजदूरों से ज्यादा काम करवाते हैं और उनको कम मजदूरी देते हैं। इसी के चलते बेरोजगारी बढ़ रही है और महंगाई बढ़ने का भी यही कारण है।

जनता का असली दुश्मन यही मुनाफाखोर व्यवस्था है, न कि जनसंख्या। भारत के परिप्रेक्ष्य में, जनता का दुश्मन सामंतवाद और साम्राज्यवाद है, जो कि अपने अंदर पितृसत्तात्मक और ब्राह्मणवादी जातीय मूल्य को समेटे हुए है। यही गरीबी, भुखमरी, भ्रूण हत्या, बेरोज़गारी, पर्यावरण की बर्बादी व अन्य सभी कारणों की वजह है जिसका ठीकरा सरकारें जनसंख्या पर फोड़ते हैं। इसीलिए सभी उत्पीड़ित व न्याय पसंद जनता को चाहिए कि वे इस जनसंख्या नियंत्रण बिल का पर्दाफाश करें, इसका विरोध करें और अपने असली दुश्मन के खिलाफ संघर्ष तेज करें।

लेखिका बीएचयू में भगत सिंह छात्र मोर्चा की सदस्य हैं।

दस्तक नए समय की अंक सितम्बर अक्टूबर २०२१ में प्रकाशित लेख