दस्तक नए समय की

Sunday, 19 April 2020

कोरोना संकट के समय पूंजीवाद आपदा है और वैश्वीकरण पर प्रश्नचिह्न है--भवेश दिलशाद


आपदा के समय ग़रीबों के लिए सरकारें चंदे मांगा करती हैं, मध्यम वर्ग सहानुभूतिवश चंदे देता है जबकि पूंजीवादी वर्ग सरकारों की मिलीभगत से मुनाफ़े की रणनीतियों में मुब्तिला रहता है. पूंजीवाद के प्रभाव में लोकतंत्र के पीछे एक परजीवी व्यवस्था बनती है, जो पहले ग़रीब, फिर मध्यम वर्ग का ख़ून चूसकर ख़ुद को पोसती है. डैमेज कोलैटरल ही क्यों होता है, बायलैटरल क्यों नहीं? नोवेल कोरोना वायरस (Novel Corona Virus) वैश्विक आपदा के समय पूंजीवाद फिर एक आपदा के रूप में उभर रहा है.

रोम जलने की आपदा के समय नीरो को अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए लाख कोशिशें करना पड़ी थीं. अस्ल में, आपदाएं शासकों के लिए बेहद खतरनाक समय साबित होती रही हैं. 'शासकों' शब्द पर ग़ौर किया जाना चाहिए. यदि लोकतंत्र की इस सदी में आप वाक़ई नेता होते, तो हालात शायद कुछ और होते, लेकिन लोकतंत्र के लबादे के पीछे जो सच है, वह शासन की मानसिकता ही है और सत्ता और पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक हैं.

वर्तमान आपदा इस मुद्दे को आगे ले जाती है: पूंजीवाद आधारित वैश्वीकरण जैविक रूप से इस समय में निराधार साबित हो रहा है, जबकि लोक स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना को लेकर कोई पुख्ता अंतर्राष्ट्रीय नीति है ही नहीं. साथ ही, विचारणीय यह है कि क्या ऐसी कोई संरचना तब तक संभव नहीं है, जब तक फार्मा उद्योग और गैर लाभकारी स्वास्थ्य सेवाओं के बीच के संघर्ष को जन आंदोलन का रूप नहीं मिलता!1

वास्तविक आपदा तो पूंजीवाद है

जन आंदोलनों का अभाव तो चिंता का विषय है ही, बड़ी चिंता यह है कि लोक तक यह सच विश्वसनीय ढंग से पहुंचा ही नहीं है कि कोई महामारी, कोई तूफान, कोई भूकंप आदि वास्तविक आपदाएं नहीं हैं, बल्कि इस दुनिया की सबसे बड़ी आपदा पूंजीवादी व्यवस्था है, जो मनुष्य निर्मित एवं पोषित है. 2007 में प्रकाशित किताब द शॉक डॉक्टरिन में लेखिका नाओमी क्लीन ने 'डिज़ास्टर कैपिटलिज़्म' का मतलब 'प्राकृतिक हो या मानवनिर्मित, हर आपदा के बाद ज़्यादा से ज़्यादा निजी स्वार्थों और मुनाफ़े संचित करने की राजनीतिक प्रवृत्ति' के रूप में समझाया था. 'शॉक डॉक्टरिन' का अर्थ उस राजनीतिक रणनीति से है, जो बड़े पैमाने के संकट का इस्तेमाल ऐसी नीतियां थोपने में करती है जिससे संभ्रांतों का फायदा और बाकी सब का घाटा होता है यानी व्यवस्थित ढंग से असमानता की खाई गहरी होती है.
 
 पठनीय ताज़ा साक्षात्कार में नाओमी ने साफ कहा कि इस दौर में 'डिज़ास्टर कैपिटलिज़्म' दिखने की शुरूआत हो चुकी है. कोविड 19 के संदर्भ में, डॉनाल्ड ट्रंप ने उद्योगों को राहत के लिए 700 अरब डॉलर का स्टिम्यूलस पैकेज* प्रस्तावित कर दिया है.2 सिर्फ़ अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम पूंजीवाद देशों में इस तरह की घोषणाएं सामने आ रही हैं. गार्जियन की एक रिपोर्ट की मानें तो अर्थव्यवस्थाओं के नाम पर यूरोपीय देशों ने राहत पैकेज के तौर पर सम्मिलित रूप से 1.6 ट्रिलियन यूरो की राशि की घोषणा मार्च यानी यूरोप में कोविड 19 के शुरूआती संकट के दौर तक ही कर दी थी. इनमें से ज़्यादातर रकम उद्योगों के खाते में ही जाएगी.

पूंजीवाद और सरकारें एक दूसरे की पूरक हैं. 2005 का कैटरीना तूफान रहा हो या 2001 का ट्रेड टावर हमला, बड़े संकटों के बाद हुआ यही कि बड़े कारोबार पहले से ज़्यादा मज़बूत स्थिति में देखे गये और संकटों की मार आम लोगों के हिस्से में आयी. नॉवेल कोरोना वायरस के संकट के समय पूंजीवादी ताकतों और आम लोगों की स्थिति देखने के लिए कुछ बिंदुओं पर ग़ौर करें :

पूंजीवादी ताक़तों का खेल

1. विकसित देशों में स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए सरकारें निजी स्वास्थ्य क्षेत्र से कई तरह के साधन किराये पर ले रही हैं. यूरोप के एक देश में बिस्तर किराये पर लेने के लिए सरकार 24 लाख यूरो प्रतिदिन तक खर्च कर रही है.
2. संकट से मची अफ़रातफ़री के बीच लोग ज़रूरी सामान की खरीदारी ज़्यादा कर रहे हैं ताकि अगले कुछ समय के लिए उनके पास भंडारण हो. इसके चलते, क्रिसमस की तुलना में सुपरमार्केट की बिक्री 33 फीसदी तक बढ़ी है और कई जगह चीज़ों के दाम भी बढ़ा दिये गये हैं.
3. फार्मा कंपनियों के लिए तो जैसे यह मुनाफ़े का स्वर्णिम समय बन गया है. ट्रंप ने लगातार मलेरिया की एक दवा की जो वक़ालत की, उसके चलते वो फार्मा कंपनियां भी इस दवा का उत्पादन कर रही हैं, जो पहले नहीं करती थीं.3
4. ट्रंप और ट्रंप से जुड़े लोगों के उन फार्मा कंपनियों में निवेश सामने आ रहे हैं, जो प्रचारित मलेरिया ड्रग का उत्पादन करती रही हैं. चुनाव संबंधी कई आरोपों में दोषी पाये जाने के बाद जेल में बंद ट्रंप के पूर्व 'फिक्सर' कहे जाने वाले वकील माइकल कोहेन ने एक स्विस कंपनी नोवार्टिस के साथ कई मिलियन डॉलर की डील की है, जो दुनिया में प्रचारित मलेरिया ड्रग Hydroxychloroquine की सबसे बड़ी उत्पादक है.4

आम लोगों के हालात

1. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड 19 वैश्विक महामारी के चलते हुए लॉकडाउन के कारण दुनिया भर में 2.7 अरब वर्कर्स प्रभावित होंगे. इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 40 करोड़ कामगार गरीबी की गर्त में जा सकते हैं.5
2. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड 19 के इलाज के लिए खोजी गयी जिस दवा के प्रयोग को लेकर सिफारिश की थी, उसके बारे में फ्रांस के चिकित्सा विशेषज्ञों ने कहा कि इस दवाई का प्रयोग अफ्रीकी देशों में किया जाये, जिसे संगठन समेत कई संस्थाओं ने नस्लवादी सोच करार दिया.6
3. निम्न आय समूह वाले 23 अफ्रीकी देशों में पहले ही विषाणुजनित रोग चेचक या खसरा महामारी के रूप में फैला हुआ है, जिसके लिए टीकाकरण अभियान ज़ोरों पर है. लेकिन कोविड 19 के संकट के चलते कई स्वास्थ्य सेवाएं टाल दी गई हैं, जिससे तक़रीबन 8 करोड़ बच्चों को समय पर टीके नहीं लग सकेंगे. यानी ये देश दो विषाणुओं का खतरा एक साथ झेलने पर मजबूर हैं.7
4. अमेरिका में अश्वेतों पर कोविड 19 का खतरा ज़्यादा है. क्यों? अश्वेत अमेरिकी पहले ही स्वास्थ्य समस्याओं से ज़्यादा ग्रस्त हैं, स्वास्थ्य सेवाएं इन्हें कम मिलती हैं और इनकी बड़ी आबादी अस्थिर रोज़गार में मुब्तिला है.8
5. पिछड़े और भारत जैसे विकासशील देशों में मास्क, सैनिटाइज़र, टेस्ट किट्स, चिकित्सा उपकरणों, राशन जैसी ज़रूरी चीज़ों की कालाबाज़ारी या स्टॉक खत्म होने जैसी समस्याएं खबरों में हफ्तों से बनी हुई हैं. साथ ही, कोरोना वायरस संकट से निपटने के लिए मरीज़ों को कई तरह की अप्रामाणिक दवाएं दी जा रही हैं, जिनके दुष्परिणाम समय के साथ सामने आएंगे.

कोलैटरल डैमेज का विरोध

मौजूदा आपदा और पूंजीवाद के संबंध में मार्क्सिस्ट डॉट कॉम के लेख में कहा गया है कि पूंजीवाद अपनी संरचना में ही एक विनाशकारी, लाभ संचालित और निर्दयी व्यवस्था है. यह किसी और ढंग से बर्ताव नहीं कर सकती. बड़े कारोबार त्रासदी से मुनाफ़े निकालते हैं क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में लोच नहीं, ज़िद है. अगर व्यापार की दुनिया यह तय करे कि मुनाफ़े से पहले मानवता को तरजीह दी जाएगी, तो वह ढह जाएगी. ऐसे में, किसी आपदा के समय में सरकार के लिए पूंजीवाद के बेहतर विकल्पों को चुनना संभव नहीं होता.

सरकारें और पूंजीवादी व्यवस्था अस्ल में, 'कोलैटरल डैमेज' के सूत्र में अपने अत्याचारों को छुपाने की कोशिश करता है. किसी त्रासदी में निम्न या वंचित वर्ग के अधिकारों के सवाल जब खड़े होते हैं तो सिस्टम कुदरती कहर के नाम पर दबाने का एक षड्यंत्र रचता है. इस मानसिकता और साज़िशी सोच पर प्रश्नचिह्न खड़े करने का समय है और अब यह आवाज़ उठायी जाना चाहिए कि अगर होगा तो 'बायलैटरल डैमेज', अन्यथा एक वर्ग को बलि का बकरा बनाने नहीं दिया जाएगा.

पूंजीवाद बनाम समाजवाद

'कोरोना वायरस : नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर की महामारी' शीर्षक लेख से आह्वान पत्रिका में छपे लेख में कहा गया है कि कोरोना महामारी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि विज्ञान की चमत्कारिक तरक़्क़ी के बावजूद पूंजीवाद आज समाज की बीमारियों को दूर करने की बजाय नयी बीमारियों के फैलने की ज़मीन पैदा कर रहा है. ऐसी महामारियों से निपटने के लिए भी पूंजीवाद को नष्ट करके समाजवादी समाज का निर्माण आज मनुष्यता की ज़रूरत बन गया है.

वैश्विक महामारी के संदर्भ में, वास्तव में समाजवादी हर बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य की त्वरित आवश्यकता पर दूसरों का ध्यान ज़रूर ले जाते हैं लेकिन समस्या यह है कि नयी नस्ल विकास के वामपंथी सिद्धांत और राजनीतिक विमर्श में 'समाजवाद' के विचार की तरफ आये, बजाय इसकी चिंता करने के प्रगतिशील आंदोलनों को लेकर एक किस्म का अहंमात्रवाद दिखायी देता है.9

पूंजीवाद के बरक़्स समाजवादी व्यवस्था की ज़रूरत की पुरज़ोर वक़ालत 'प्लैनेट ऑफ स्लम्स' और 'सिटी ऑफ क्वार्ट्ज़' जैसी किताबों के लेखक मार्क डेविस ने अपने लेख में की है. मार्क के अनुसार समाजवाद को अगले कदम उठाते हुए स्वास्थ्य सुरक्षा और फार्मा उद्योग को लक्ष्य करते हुए, आर्थिक शक्तियों के लोकतंत्रीकरण और सामाजिक स्वामित्व की वक़ालत करने की बात कही है.10

समाजवाद' के मानवीय मूल्यों की ताज़ा कहानी_11

एक ट्रांसअटलांटिक क्रूज़ जहाज़ एमएस ब्रेमार 682 यात्रियों को लेकर यूके से कूच करता है. रास्ते में जांच में पता चलता है कि इस जहाज़ पर सवाल पांच यात्री कोरोना वायरस से संक्रमित हैं और कुछ दर्जन अन्य यात्रियों और क्रू सदस्यों में फ्लू जैसे लक्षण हैं. अब होता ये है कि कैरेबियाई रास्त में आ रहे कई बंदरगाहों पर इस जहाज़ को रुकने नहीं दिया जाता और झिड़क दिया जाता है. ब्रितानी सरकार अमेरिका से मदद मांगती है कि ब्रेमार को एक उपयुक्त बंदरगाह दिया जाये.

अमेरिका की प्रतिक्रिया एक अज्ञात डर से जूझ रही वाकपटु नेतृत्व की प्रतिक्रिया साबित होती है और समस्या को 'चीनी वायरस' कहकर अमेरिका पल्ला झाड़ लेता है. ब्रितानी सरकार क्यूबा से भी साथ में मदद मांग चुकी होती है और क्यूबा हाथ बढ़ाता है. मानवीय संकटों के समय में पहले भी कई देशों की मदद कर चुका क्यूबा इस जहाज़ को शरण देता है. क्यूबा में जब कोविड 19 के कुल 10 केस होते हैं, ऐसे में यह देश मानवीय आधार पर विलायती मरीज़ों को पनाह ही नहीं, बल्कि इलाज देता है.

लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्थाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की आज़ादी, बहुदलीय चुनाव और कार्यक्षेत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों आदि को तरजीह दी जाती है, लेकिन अब क्यूबा की स्थिति समाजवादी व्यवस्था के अनुरूप नहीं रह गयी है. यहां की व्यवस्था एकछत्र और निरंकुशता के इल्ज़ाम झेल रही है, लेकिन इतिहास और समाजशास्त्र के जानकारों की मानें तो यहां समाजवाद के कुछ बचे—खुचे निशान कभी कभार दिख जाते हैं. इस वैश्विक महामारी के समय में कुछ मिसालें दिख रही हैं. मसलन, क्यूबा के मेडिकल सिस्टम पर समाजवादी छाप है, जो सभी के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी देता है. दुनिया के 171 देशों में प्रति हज़ार व्यक्ति कितने डॉक्टर हैं; इस सूची में क्यूबा 8 डॉक्टरों के आंकड़े के साथ पहले नंबर पर है. जबकि 2.6 डॉक्टरों के साथ अमेरिका, 1.8 डॉक्टरों के साथ चीन और 4.1 डॉक्टरों के आंकड़े के साथ इटली जैसे देश क्यूबा जैसे गरीब देश से काफी पीछे हैं और कोरोना वायरस के संकट से बुरी तरह हिल चुके हैं.

इससे पहले भी समय समय पर क्यूबा ने बचे—खुचे समाजवादी मूल्यों की बानगी प्रस्तुत की है. 2010 के भूकंप के समय हैती, 2014 में इबोला वायरस के समय अफ्रीका और हाल में कोविड 19 आपदा के समय इटली तक में भी क्यूबा ने अपने विशेषज्ञ डॉक्टरों की फोर्स को मदद के लिए भेजा. मानवीय मूल्य क्यूबा के इतिहास में रहे हैं, जो किसी पूंजीवादी देश में सिर्फ़ सपने ही लगेंगे. वैश्विक संकट की घड़ी में क्यूबा तो समाजवादी मूल्यों का उदाहरण नहीं बनता, लेकिन यहां की कुछ घटनाओं से साबित ज़रूर होता है कि समाजवादी व्यवस्था में ही मानवीयता के आदर्श की संभावना ज़्यादा है.

संकट के बाद की दुनिया

एक वायरस या यूं कहें कि कुदरत के लिए और कुदरत के द्वारा सामने आये कुदरत के इस 'एंटी वायरस' ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की कमज़ोरियों को पूरी तरह उजागर कर दिया है. वैश्वीकरण के औचित्य पर सवाल खड़ा कर दिया है और आने वाले ख़तरों के लिए हमारी तैयारियों की पोल खोलकर रख दी है. यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर मैरियाना मैज़्ज़कैटो का मानना है कि इस वैश्विक महामारी के बाद पूंजीवादी समाज की तमाम खामियां सामने आएंगी इसलिए दुनिया भर में आर्थिक ढांचों पर नयी रोशनी पड़ेगी. साथ ही, अस्थिर अर्थव्यवस्था और असंगठित कामगारों के अधिकारों की तरफ देखने के नज़रिये में भी बदलाव आएगा.12

'वर्तमान संकट के समय में यह सच होता दिख रहा है कि हम एक-दूसरे के साथ उससे भी ज़्यादा अंतर्संबंधित हो गये हैं, जितने जुड़ाव का विश्वास हमारी क्रूर आर्थिक व्यवस्था को था.'- नाओमी क्लीन, लेखक

अंतत: इस सकारात्मकता के लिए दुआ की जानी चाहिए और उम्मीद की जाना चाहिए कि समाजवादी और प्रगतिशील विचार के समूह एकजुट होकर किसी ऐसे बदलाव की दिशा में प्रवृत्त होंगे, जो जन आंदोलनों की नींव पर प्रकृति और मानवता के हित में एक व्यवस्था खड़ी करने का पक्षधर है.

संदर्भ सूची_
1, 9, 10 - दि एसई टाइम्स पर माइक डेविस का लेख : The Coronavirus Crisis Is a MonsterFueled by Capitalism
2 - नाओमी क्लीन का इंटरव्यू : Coronavirus Is the Perfect Disaster for ‘DisasterCapitalism’
3 - Trump's Aggressive Advocacy of Malaria Drug for Treating Coronavirus DividesMedical Community
4 - Trump’s Former Lawyer Had Million-Dollar Contract With Hydroxychloroquine Maker
5 - 40Crore Indian Workers May Sink into Poverty Due to Covid-19, Says InternationalLabour Organisation
6 - WHOslams 'racist' calls by French medical experts to use Africa as COVID-19vaccine testing ground
7 - Whymeasles deaths are surging - and coronavirus could make it worse
8 - कोरोनावायरस: अमेरिका में क्यों ज़्यादा मारे जा रहे हैं अश्वेत? क्या है नस्लभेद?
11 - क्यूबा के मानवीय मूल्यों की कहानी : Cuba's Coronavirus Response Is Putting Other Countries To Shame
12 - मैरियाना मैज़्ज़कैटो का लेख : Coronavirus and capitalism: How will the virus change theway the world works?

*अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के लिए टैक्स और ब्याज दर कम करते हुए सरकार द्वारा दी जाने वाली मदद.
------------------------------------------------------------------------

*भवेश दिलशाद : संक्षिप्त परिचय*

क़ुदरत से शायर, फ़ितरत से स्वाध्यायी और पेशे से पत्रकार भवेश दिलशाद एकाधिक विधाओं में लेखन करते हैं. मूलत: भोपाल में शिक्षा एवं शुरूआती पत्रकारिता के बाद, देश के कई हिस्सों में पत्रकारिता के सिलसिले में रह चुके दिलशाद की रचनाएं पिछले करीब 20 सालों से हिंदी के प्रमुख समाचार पत्रों सहित नवनीत, साहित्य सागर, साक्षात्कार, राग भोपाली आदि पत्रिकाओं और रेख़्ता व कविताकोश जैसे अनेक ऑनलाइन मंचों से प्रकाशित होती रही हैं.
संपर्क : 9560092330 ईेमेल : bhavesh.dilshaad@gmail.com




Posted by दस्तक नए समय की at 03:17
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest

7 comments:

  1. रचना प्रवेश19 April 2020 at 11:52

    जरूरी बात लिखी आपने ,इसे सभी को समझना अतिआवश्यक है ।

    ReplyDelete
    Replies
      Reply
  2. भवेश दिलशाद19 April 2020 at 23:44

    शुक्रिया रचना प्रवेश

    ReplyDelete
    Replies
      Reply
  3. संजीव जैन21 April 2020 at 09:05

    भवेश दिलशाद का यह आलेख आज के समय में बहुत जरूरी है। इस आलेख ने एक उम्मीद दिखाई है कि हम पूंजीवाद की वास्तविक बर्बरता को समझें और समाजवाद की दिशा में सोचने का काम आरंभ करें।
    यह संकट भले ही जैविक हो पर इसका प्रसार और घना प्रभाव पूंजीवाद की अमानवीय दशाओं के कारण है। इस बात को बहुत सार्थक तरीके से भवेश ने उठाई है।
    बधाई लेखक को।

    ReplyDelete
    Replies
    1. भवेश दिलशाद22 April 2020 at 00:10

      शुक्रिया संजीव जैन जी

      Delete
      Replies
        Reply
    2. Reply
  4. बजरंग बिहारी21 April 2020 at 20:04

    अच्छा लेख है।
    श्रमपूर्वक तैयार और दृष्टिसम्पन्न।
    संकट के समय विचारधारा, तत्प्रसूत व्यवस्था और कार्यपद्धति की पहचान होती है।
    अमेरिका और क्यूबा के उदाहरण सामने हैं।
    भवेश दिलशाद ने इस विषय को ठीक से प्रस्तुत किया है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. भवेश दिलशाद22 April 2020 at 00:09

      शुक्रिया बजरंग बिहारी जी

      Delete
      Replies
        Reply
    2. Reply
  5. भवेश दिलशाद22 April 2020 at 00:09

    This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
    Replies
      Reply
Add comment
Load more...

Newer Post Older Post Home
Subscribe to: Post Comments (Atom)

Contributors

  • दस्तक नए समय की
  • seema

Blog Archive

  • ►  2021 (9)
    • ►  September (4)
    • ►  May (2)
    • ►  March (3)
  • ▼  2020 (38)
    • ►  December (2)
    • ►  November (2)
    • ►  September (2)
    • ►  August (1)
    • ►  July (3)
    • ►  June (4)
    • ►  May (10)
    • ▼  April (14)
      • कोराना वायरस: अर्थव्यवस्था और प्रतिरोधक क्षमता- क...
      • 21 वीं सदी का एक दृश्य-- हरिश्चंद्र पांडेय
      • वेंटीलेटर पर पूंजीवाद-- संजीव जैन
      • सम्पादकीय
      • भूख से तड़पते बच्चों के लिए महिलाओं ने अनाज से भरे...
      • लेनिन की १५० वी जयन्ती [२२ अप्रैल]
      • लॉकडाउन की हिंसा और शाहीनबाग के सबक- सीमा आज़ाद
      • कोरोना संकट के समय पूंजीवाद आपदा है और वैश्वीकरण प...
      • भीमाकोरेगांव : गिरफ्तारियां और इतिहास - मनीष आज़ाद,...
      • ट्रंप की सनक और पूंजीवाद का नतीजा है अमेरिका में म...
      • Political Economy of COVID 19- Manish Azad
      • एक था डॉक्टर एक था सन्त : समीक्षा - अनिता भारती
      • सेपिएंस : ए ब्रीफ हिस्टरी ऑफ ह्यूमन काइंड : एक समी...
      • कोविड-19 का राजनीतिक अर्थशास्त्र- मनीष आज़ाद
Simple theme. Theme images by luoman. Powered by Blogger.